नारी की महानता

भारतीय नारी की महानता

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यद्यपि काल प्रभाव से भारतीय नारियों का प्राचीन आदर्श बहुत कुछ मिट गया है, परिवर्तित हो गया है, तो भी प्राचीन संस्कारों के कारण अब भी एक साधारण भारतीय नारी में जो विशेषताएँ मिलती हैं, संसार के किसी भी अन्य भाग में मिल सकना असंभव है । अब भी भारतीय नारियों में जितना सतीत्व, श्रद्धा, त्याग का भाव पाया जाता है, उसका उदाहरण किसी भी देश में मिल सकना कठिन है ।

बचपन से ही नारी में भोलापन होता है । उसमें सहनशीलता, सुकुमारता, लज्जा, उदारता आदि गुण स्वाभाविक होते हैं और साथ ही होती है- आत्मसमर्पण की प्रबल साधना । यह जिसे आत्मसमर्पण करती है, उसके दोषों को नीलकंठ की तरह जीवन भर बूँद-बूँद करके पी जाने में सतत प्रयत्नशील रहा करती है और उसे मानती है-अपना स्वाभाविक देवता । वह उसे अपने हृदय से कभी विलग नहीं करना चाहती । साथ ही साथ आत्मसमर्पण के बाद वह अपने जीवन-धन के प्रत्येक कार्य की जानकारी चाहती है, केवल घर के कार्यों से नहीं वह तो अपने पतिदेव से संबद्ध सभी बाहरी कार्यों का भी लेखा चाहती है । यह सब क्यों ? इसीलिए कि वह अपना सब कुछ उसे समर्पित करके उसकी अर्द्धांगिनी बन गई है और अपने दूसरे अंग के विषय में चिंता करना उसका स्वाभाविक अधिकार है । इसके औचित्य को न मानना पुरुषों की नासमझी होगी ।

इस प्रकार नारी प्रारंभ से ही अपने जीवन को उत्सर्ग के मार्ग पर ले जाती है, उसका आदान भी अवसर आने पर उत्सर्ग के लिए हो जाता है । संसार में अपने लिए उसका कुछ नहीं । उसके पास जो कुछ है वह सब दूसरों के लिए- पति, परिवार और देश के लिए ।

आदान के विषय में वह गर्भ धारण करती है । यह सबसे बड़ा उदाहरण दिया जाता है । परंतु यदि गंभीरता से सोचा जाए तो उससे उसको अपने लिए क्या मिलता है- वह तो हो जाती है देश और समाज के लिए महान देन ।

वह अपना रक्त पिला-पिलाकर गर्भ का पालन करती है, नौ मास तक अनावश्यक बोझ ढोती है, घुमरी, मचलाहट, खुमारी आदि के प्रकोप से दिन-रात परेशान रहती है, चलते समय अचानक गिर पड़ती है और कभी-कभी तो गर्भप्रसव की असह्य पीड़ा से अंत में जान तक खो देती है और यदि बच्चा सकुशल पैदा भी हो गया तो वह देश और समाज का होता है न कि उसका, क्योंकि बड़ा होने पर वह अपनी इच्छा के अनुसार मार्ग पकड़ लेता है । तब भला इसे आदान कैसे कहा जाए ? शरीर भी, जिसे वह अपना कह सकती, गर्भ के कारण क्षीण हो जाता है । तब उसे मिला क्या ? वह तो शुक्र की कुछ बूँदें ग्रहण करती है और उसके साथ शरीर के रक्त की सहस्र बूँदें मिलाकर समाज के लिए एक नई संतति का महान दान करती है । फिर आदान कैसा ?

बच्चा पैदा होता है और वह उस समय काल के गाल से निकले हुए पीत शरीर को लेकर सप्ताहों चारपाई पर पड़ी रहती है । कराहती है, छटपटाती है और अपने को असमर्थ देखकर चुपचाप शय्या पर लेटी रहती है । इस व्यापार में गर्भ धारण करना आदान कैसे कहा जाए ? यह तो जगत को एक महान दान देने का बहाना है । अतएव गर्भाधान एक उदाहरण हो सकता है-महान उत्सर्ग का, न कि आदान का ।

आगे सोचिए तो नारी की महत्ता और भी निखर उठती है । बच्चे बड़े होते हैं और वह उन्हें प्रसन्न रखने के लिए भैया, लाला, बाबू कहकर पुचकारती हुई खाना-पीना भूल जाती है । यदि उसका परिवार गरीब हुआ अथवा किसी कारणवश उसके भोजनालय में भोजन की कमी रही तो वह सारे परिवार को खिला-पिलाकर स्वयं निराहार सो जाएगी, किसी से उसके विषय में कुछ कहना या शिकायत करना उसके स्वभाव की बात नहीं । दूसरे दिन संयोग से यदि पर्याप्त भोजन न हुआ तो वह सबको खिला-पिलाकर पुन: भूखी रह सकती है, यह क्यों ? क्या उसे भूख नहीं सताती ? भूख उसे भी सताती है, उसी तरह जैसे सारे मानव प्राणी को ? फिर वह वैसा क्यों करती है ? इसलिए कि वह दूसरों के लिए अपना उत्सर्ग करना बालापन से सीख चुकी है और यह गुण उसमें स्वाभाविक हो गया है ।

यदि कभी पतिदेव किसी कारणवश घर से नाराज होकर कहीं चले गए तो कौन रात-रातभर बैठी हुई उनके लिए रोती रह जाती है ? आपसी कलह के समय पति की गलती रहने पर भी उनसे कौन स्वयं क्षमा माँगती, रूठने पर मनाती और पग-पग पर बलैया लेती फिरती है ? कौन अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए चीमूर की स्त्रियों की तरह कुएँ और नदी में कूदकर जान दे देता है ? किसे अपने अस्तित्व को खोकर जीवन भर दूसरे के वश में रहना खुशी से अंगीकार है ? कौन बारह-एक बजे रात में अतिथि के आ जाने पर शय्या और आलस्य त्यागकर उन्निद्र रहने पर भी उसके अशन-वसन के संबंध में जुटा रह सकता है ?  

उक्त सभी प्रश्नों का एक स्वर से उत्तर मिलेगा- भारतीय नारी । धर्म और संस्कृति की प्रतीक स्वरूप भारतीय नारी किसका हल नहीं रखती । वह दानव को भी मानव, हत्यारे को भी धर्मात्मा और निर्दय को भी सदय बना सकती है । उसके आँसुओं में धर्म है, वाणी में संस्कृति और हास्य में सुख का राज्य । मानव धर्मों का सच्चे अर्थ में केवल वही पालन कर सकती है ।

मनु जी ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं ।

अति: क्षमा दमोSस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।
                                   - मनु० १५१ - ९१


इनमें से प्रत्येक को नारी किस तरह निभाती है, इस पर संक्षेप में दृष्टि डालना अधिक समीचीन होगा ।

संसार का कोई भी मानव दस लक्षण संपन्न धर्म का पूर्णरूपेण शायद ही पालन कर पाता हो, यदि कोई करता भी होगा तो उसे ऐसा करने में असीम साधना करनी पड़ी होगी । परंतु नारी के जीवन में उक्त दसों बातें स्वभाव बन गईं हैं । उनके बिना उसे चैन ही नहीं पड़ता । वह उन बातों का कठोरता से पालन करके सारे संसार की पथप्रदर्शिका बन गई है ।

कठिन से कठिन परिस्थितियों में आपदाओं से घिरी रहने पर भी वह धैर्य के साथ पति की अनुगामिनी बनी रहती है । पति उसके साथ घोर से घोर अत्याचार कर डालता है, शराबखोरी से उसका जीवन दूभर बना देता है, उसके जेबर बेचकर जुआ खेलता है, पर ज्योंही उसे विपन्नावस्था में घर आया देखती है तो वह सब कुछ भूलकर सहानुभूति के साथ उसकी सहायता में तत्पर हो जाती है । अपनी बीती पीड़ाओं के बदले में एक भी शब्द पति के विरुद्ध कहना उसके बूते का नहीं । वह अपने हृदय और स्वभाव से मजबूर है । कोमलता छोड़कर कठोर बनना उसे भाता नहीं । उसका शील हृदय क्षमा के अतिरिक्त और कुछ जानना नहीं चाहता । वह अपने में ही पूर्ण है ।

दम के विषय में उसकी तितिक्षा-इच्छा रहते हुए भी अच्छी वस्तुएँ और आहार स्वयं न खाकर परिवार वालों को खिला देना, अपनी पीड़ा भूलकर दूसरे की पीड़ा में सम-वेदना प्रकट करना, क्रोध न करके सदैव सरस बनी रहना ही पर्याप्त है ।

शौच और इंद्रियनिग्रह के लिए उसका प्रतिदिन आचरण अनुकरणीय है । कुटुंब, साधु और पति की सेवा करने, उदार हृदय से पीड़ितों और दुखियों को सहारा देने और अपने सुख-दु:ख की बिना परवाह किए रात-दिन गृह कार्यों में निरत रहकर 'गृहिणी' पद पर जिम्मेदारी निभाने से बढ़कर शौच और इंद्रिय निग्रह होगा ही क्या ?

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