स्त्री पुरुष का सहचरत्व एक स्वाभाविक आवश्यक एवं उपयोगी काम है। यह प्रचलन सृष्टि के प्रारम्भ काल से ही चला आया है और अन्त तक चलता रहेगा। यह सहचरत्व आमतौर से प्रायः हर एक वयस्क स्त्री पुरुष को स्वीकार करना पड़ता है। परन्तु इस गृहस्थ धर्म में अनेक प्रकार की ऐसी विकृतियां पैदा हो गई हैं जिसके कारण देखा जाता है कि स्त्री पुरुष आपस में उतने संतुष्ट नहीं रह पाते जिससे सहचरत्व का सच्चा सुख प्राप्त किया जा सके। पिछले दिनों तो यह विकृतियां इतनी अधिक हो गईं थी कि लोग उससे ऊबने लगे, उसमें दोष देखने लगे और उससे पृथक रहने की बात सोचने लगे। धर्म मंच तक यह प्रश्न पहुंचा और जहां तहां ऐसी विचारधारा प्रगट की जाने लगी जिससे गृहस्थ बनना एक प्रकार की निर्बलता, गिरावट समझी जाने लगी। गृहस्थ बनना नरक का मार्ग है और घबराकर छोड़ बाबाजी बन जाना स्वर्ग का रास्ता है यह विचारधारा हमारे देश में पिछले दिनों अधिक पनपी। फलस्वरूप चौरासी लाख साधु हमें इधर उधर फिरते नजर आते हैं।
हमें मालूम है कि उपरोक्त विचारधारा गलत है, हम जानते हैं कि गृहस्थ और संन्यास दोनों अवस्थाओं में समान रूप से आत्मोन्नति की जा सकती है। गृहस्थ धर्म का उचित रीति से पालन करने से भी मनुष्य योग फल को प्राप्त कर सकता है और स्वर्ग एवं मुक्ति अधिकारी बन सकता है। इस तथ्य के ऊपर इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है। हमें आशा है कि यह पुस्तक पाठकों को पारिवारिक जीवन का सुख तथा आत्मिक आनन्द उपलब्ध करने में सहायक होगी।
—श्रीराम शर्मा आचार्य