ब्रह्मचर्य व्रत का पालन बहुत ही उत्तम, उपयोगी एवं लाभदायक साधना है। यह शारीरिक और मानसिक दोनों की दृष्टियों से हितकर है। जो जितने अधिक समय तक ब्रह्मचारी रह सके उसके लिए उतना ही अच्छा है। साधारणतः लड़कों को कम से कम 20 वर्ष तक और लड़कियों को 16 वर्ष तक तो ब्रह्मचारी अवश्य ही रहना चाहिए। जो अपने मन को वश में रख सकें वे अधिक समय तक रहें।
ब्रह्मचर्य में मानसिक संयम प्रधान है। यदि मन वासनाओं में भटकता रहे और शरीर को हठ पूर्वक संयम में रखा जाय तो उससे लाभ की जगह पर हानि ही है। शारीरिक काम सेवन से जितनी हानि है उससे कई गुनी हानि मानसिक असंयम से है। वीर्यपात की क्षति आसानी से पूरी हो जाती है परन्तु मानसिक विषय चिन्तन से जो उत्तेजना पैदा होती है वह यदि तृप्त न हो तो कुचले हुए सर्प की तरह क्रुद्ध होकर अपने छेड़ने वालों के ऊपर आक्रमण करती है।
मनोविज्ञान शास्त्र के यशस्वी आचार्य डॉक्टर फ्राइड, डॉक्टर ब्राईन, डॉक्टर बने प्रभृति विद्वानों का मत है कि वासनाएं कुचली जाने पर सुप्त मन से किसी कोने में एक बड़ा घाव लेकर पड़ी रहती हैं और जब अवसर पाती हैं तभी भयानक, शारीरिक या मानसिक रोगों को उत्पन्न करती हैं। उनका कहना है कि पागलपन, मूर्छा, मृगी, उन्माद, नाड़ी संस्थान का विक्षेप, अनिद्रा, कायरता आदि अनेक रोग वासनाओं के अनुचित रीति से कुचले जाने के कारण उत्पन्न होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य की पहली शर्त ‘मन की स्थिरता’ मानी गई है। जिनका मन किन्हीं उत्तम विचारों में निमग्न रहता है, विषय वृत्तियों की ओर जिनका ध्यान ही नहीं जाता या जाता है तो तुरन्त ही अरुचि और घृणापूर्वक वहां से हट जाता है वे ही ब्रह्मचारी हैं। जिनका मन वासना में भटकता है, चित्त पर जो काबू रख नहीं पाते, उनके शारीरिक ब्रह्मचर्य को विडम्बना ही कहा जा सकता है।
किसी स्रोत में से पानी का प्रवाह जारी हो किन्तु उसके बहाव के मार्ग को रोक दिया जाय तो वह पानी जमा होकर दूसरे मार्ग से फूट निकलेगा। मन से विषय और चिन्तन और बाहर से ब्रह्मचर्य यह भी इसी प्रकार का कार्य है। मन में वासना उत्पन्न होने से जो उत्तेजना पैदा होती है वह फूट निकलने के लिए कोई न कोई मार्ग ढूंढ़ती है। साधारण मार्ग बन्द होता है तो कोई और मार्ग बनाकर वह निकलती है। यह नया मार्ग अपेक्षाकृत बहुत खतरनाक और हानिकारक साबित होता है।
संसार भर की जनगणना की रिपोर्टों का अवलोकन करने से यह सच्चाई और भी अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाती है। विवाहित स्त्री-पुरुषों की प्रतिशत जितनी मृत्यु होती है विधवा या विधुरों की मृत्यु का अनुपात प्रायः उससे ड्यौढ़ा रहता है। मोटी दृष्टि से देखने पर विवाहितों की जीवनी-शक्ति अधिक और अविवाहितों की कम खर्च होती है इससे विवाहितों की अल्पायु और रोगी रहने की सम्भावना प्रतीत होती है परन्तु होता इसका ठीक उलटा है। विवाहित लोग सम्भोगजन्य क्षय, बालकों का भरण-पोषण, अधिक चिन्ता तथा जिम्मेदारी आदि के भार को खींचते हुए भी जितनी आयु और निरोगता प्राप्त करते हैं अविवाहित लोग उतने नहीं कर पाते। इसका एक मात्र कारण वासना की अतृप्ति से उत्पन्न हुआ मानसिक उद्वेग है, जो बड़ा घातक होता है, उसकी विषाक्त ज्वाला से सारे जीवन तत्व भीतर ही भीतर जल-भुन जाते हैं। चित्त की अस्थिरता और अशान्ति के कारण कोई कहने लायक महान कार्य भी उनसे सम्पादित नहीं हो पाता कोई बड़ी सफलता भी नहीं मिल पाती। इस प्रकार विवाहितों की अपेक्षा यह अविवाहित अधिक घाटे में रहते हैं।
पाठकों को हमारा आशय समझने में भूल न करनी चाहिए। हम ब्रह्मचर्य की अपेक्षा विवाहित जीवन को अच्छा बताने का प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। ब्रह्मचर्य एक अत्यन्त उपयोगी और हितकारी साधना है इसके लाभों की कोई गणना नहीं हो सकती। इन पंक्तियों में हम मानसिक असंयम और विवाहित जीवन की तुलना कर रहे हैं। जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य की साधना में अपने को समर्थ न पावें, जो मानसिक वासना पर काबू न रख सकें उनके लिए यही उचित है कि विवाहित जीवन व्यतीत करें। होता भी ऐसा ही है सौ में से निन्यानवे आदमी गृहस्थ जीवन बिताते हैं। इस स्वाभाविक प्रक्रिया में कोई अनुचित बात भी नहीं है।
यह सोचना ठीक नहीं कि गृहस्थाश्रम में बंधने से आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। आत्मा को ऊंचा उठाकर परमात्मा तक ले जाना यह पुनीत आत्मिक साधना अन्तःकरण की भीतरी स्थिति से सम्बन्ध रखती है। बाह्य जीवन से इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। जिस प्रकार ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या संन्यासी आत्म-साधना द्वारा जीवन लक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं वैसे ही गृहस्थ भी कर सकता है। सदा सनातन काल से ऐसा होता आया है। अध्यात्म साधकों में गृहस्थ ही हम अधिक देखते हैं। प्राचीन काल के ऋषिगण आज के गैर जिम्मेदार और अव्यवस्थित बाबाजीओं से सर्वथा भिन्न थे। धनी बस्ती न बसाकर स्वच्छ वायु को दूर-दूर घर बनाना, पक्के मकान न बनाकर छोटी झोंपड़ियों में रहना, वस्त्रों से लदे न रहकर शरीर को खुला रखना आदि उस समय की साधारण प्रथायें थीं। उस समय के राजा तथा देवताओं के जो चित्र मिलते हैं उससे वे सब भी कटि वस्त्र के अतिरिक्त और कोई कपड़ा पहने नहीं दीखते। यह उस समय की परिपाटी थी। आज जिस वेश-भूषा की नकल करके लोग अपने को साधु मान लेते हैं वह पहनाव-उढ़ाव, रहन-सहन उस समय में सर्व साधारण का था।
यह एक बिल्कुल ही बे सिर पैर का विचार है कि पुराने समय में ऋषि लोग अविवाहित ही रहते थे। यह ठीक है कि ऋषि मुनियों में कुछ ऐसे भी थे, जो बहुत समय तक अथवा आजीवन ब्रह्मचारी रहते थे पर उसमें से अधिकांश गृहस्थ थे। स्त्री बच्चों के साथ होने से तपश्चर्या में आत्मोन्नति में उन्हें सहायता मिलती थी। इसलिए पुराणों में पग-पग पर इस बात की साक्षी मिलती है कि भारतीय महर्षिगण, योगी, यती, साधु, तपस्वी, अन्वेषक, चिकित्सक, वक्ता, रचियता, उपदेष्टा, दार्शनिक, अध्यापक, नेता आदि विविध रूपों में अपना जीवन-यापन करते थे और अपने महान-कार्य में स्त्री बच्चों को भी भागीदारी बनाते थे।
आध्यात्मिक मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले साधक के आज अज्ञान और अविवेक भरे मूढ़ विश्वासों ने एक भारी उलझन पैदा कर दी है। ‘‘आत्म साधना गृहस्थ से नहीं हो सकती, स्त्री नरक का द्वार है, कुटुम्ब परिवार माया का बन्धन है, इनके रहते भजन नहीं हो सकता, परमात्मा नहीं मिल सकता’’ इस प्रकार की अज्ञान जन्य भ्रम पूर्ण कल्पनाऐं साधक के मस्तिष्क में चक्कर लगाती हैं। परिणाम यह होता है कि या तो वह आत्म मार्ग को अपने लिये असंभव समझ कर उसे छोड़ देता है या फिर पारिवारिक महान् उत्तरदायित्व को छोड़कर भीख टूक मांग खाने के लिये घर से निकल भागता है। यदि बीच में ही लटका रहा तो और भी अधिक दुर्दशा होती है। परिवार उसे गले में बंधे हुए चक्की के पाट की तरह भार रूप प्रतीत होता है। उपेक्षा, लापरवाही, गैर जिम्मेदारी के दृष्टि से बर्ताव करने के कारण उसके हर एक व्यवहार में कुरूपता एवं कटुता रहने लगती है। स्त्री बच्चे सोचते हैं कि यह हमारे जीवन को दुखमय बनाने वाला है, शत्रुता के भाव मन में जगते हैं, प्रतिशोध की वृत्तियां पैदा होती हैं, कटुता कलह, घृणा और तिरष्कार के विषैले वातावरण की सृष्टि होती है। उस वातावरण में रहने वाला कोई भी प्राणी स्वस्थता और प्रसन्नता कायम नहीं रख सकता।
वास्तविक बात यह है कि आत्मसाधना में जो विक्षेप पैदा होता है उसका कारण अपनी कुवासना, संकीर्णता, तुच्छता अनुदारता, और स्वार्थपरता है। यह दुर्भाव ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यास जिस भी आश्रम में रहेंगे उसे ही पाप मय बना देंगे। इसके विपरीत यदि अपने मन में त्याग, सेवा, सत्यता, सृजनता, एवं उदारता की भावनाएं विद्यमान हों तो कोई भी आश्रम स्वर्ग दायक, मुक्ति प्रद, परम पद पा जाने वाला, हो सकता है। आध्यात्मिक साधकों को अपने मनी, वानप्र इस भ्रम को पूर्णतया बहिष्कृत कर देना चाहिए कि गृहस्थाश्रम कोई छोटा या गिराने वाला धर्म है। यदि समुचित रीति से उसका पालन किया जाय तो ब्रह्मचर्य या संन्यास की तरह वह भी सिद्धिदाता प्रमाणित हो सकता है।
गृहस्थ धर्म जीवन का एक पुनीत, आवश्यक एवं उपयोगी अनुष्ठान है। स्त्री और पुरुष के एकत्रित होने से दो अपूर्ण जीवन एक पूर्ण जीवन का रूप धारण करते हैं। पक्षी के दो पंखों की तरह, रथ के दो पहियों की तरह, स्त्री और पुरुष का मिलन एक दृढ़ता एवं स्थिरता की सृष्टि करता है। शारीरिक और मानसिक तत्व के आचार्य जानते हैं कि कुछ तत्वों की पुरुष में अधिकता और स्त्री में न्यूनता होती है इसी प्रकार कुछ तत्व स्त्री में अधिक और पुरुष में कम होते हैं। इस अभाव की पूर्ति दोनों के सहचरत्व से होती है। स्त्री पुरुष में एक दूसरे के प्रति जो असाधारण आकर्षण होता है उसका कारण वही क्षति पूर्ति है। मन की सूक्ष्म चेतना अपनी क्षति पूर्ति के उपयुक्त साधनों को प्राप्त करने के लिए विचलित होता है तब उसे संयोग की अभिलाषा कहा जाता है। अंध और पंगु मिलकर देखने और चलने के लाभों को प्राप्त कर लेते हैं ऐसे ही लाभ एक दूसरे की सहायता से दम्पत्ति को भी मिल जाते हैं।
मूलतः न तो पुरुष बुरा है न स्त्री। दोनों ही ईश्वर की पवित्र कृतियां है। दोनों में ही आत्मा का निर्मल प्रकाश जगमगाता है। पुरुष का कार्यक्षेत्र घर से बाहर रहने के कारण उसकी बाह्य योग्यतायें विकसित हो गई हैं वह बलवान, प्रभाव शाली, कमाऊ और चतुर दिखाई देता है, पर इसके साथ साथ ही आत्मिक सद्गुणों को इस बाह्य संघर्ष के कारण उसने बहुत कुछ खो दिया है। सरलता, सरसता, वफादारी, आत्म-त्याग, दयालुता, प्रेम तथा वात्सल्य की वृत्तियां आज भी स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक देखी जाती हैं। मुद्दतों से शिक्षा, दीक्षा, अनुभव एवं सामाजिक कार्य क्षेत्र से पृथक एक छोटे पिंजड़े से घर में जीवन भर बन्द रहने और अपने जैसी अन्य मूर्खाओं की संगति मिलने के कारण वे बेचारी व्यावहारिक ज्ञान में बहुत कुछ पिछड़ गई हैं तो भी उनमें आत्मिक सद्गुण पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक विद्यमान है। उनके सान्निध्य में नरक, पतन, माया, बन्धन जैसे किसी संकट के उत्पन्न होने की आशंका नहीं है। सच तो यह है कि उनके पवित्र अंचल की छाया में बैठकर पुरुष अपनी शैतानी आदतों से बहुत कुछ छुटकारा पा सकता है उनकी स्नेह गंगा के अमृत जल का आचमन करके अपने कलुष कषायों से, पाप तापों से छुटकारा पा सकता है।
जिनका अन्तःकरण पवित्र है वे कोमलता की अधिकता के कारण स्त्री में और भी अधिक सत् तत्व का अनुभव करते हैं। हजरत मुहम्मद साहब कहा करते थे कि ‘‘मेरी स्वर्ग मेरी माता के पैरों तले है’’ महात्मा विलियम का कथन है कि ‘‘ईश्वर ने स्त्री के नेत्रों में दो दीपक रख दिए हैं ताकि संसार में भूले भटके लोग उसके प्रकाश में अपना खोया हुआ रास्ता देख सकें’’ तपस्वी लोवेल ने एक बार कहा था ‘‘नारी का महत्व में इसलिए नहीं मानता कि विधाता ने उसे सुन्दर बनाया है, न उससे इसलिये प्रेम करता हूं कि वह प्रेम के लिये उत्पन्न की गई है। मैं तो उसे इसलिये पूज्य मानता हूं कि मनुष्य का मनुष्यत्व केवल उसी में जीवित है।’’ दिव्यदर्शी टेलर ने अपनी अनुभूति प्रकाशित की थी कि— ‘‘स्त्री की सृष्टि में ईश्वरीय प्रकाश है। वह एक मधुर सरिता है जहां मनुष्य अपनी चिन्ताओं और दुखों से त्राण पाता है।’’ दार्शनिक लेटो ने कहा है— ‘‘सृष्टि आदि में मनुष्य अपंग था, वह पृथ्वी एक कोने में पड़ा खिसक रहा था। स्त्री ने ही उसे उठाया और पाल कर बड़ा किया। आज वही कृतघ्न उन स्त्रियों को पैरों की जूती समझता है।’’ कवि हारग्रच की अनुभूति है कि— ‘‘स्त्रियां भूलोक की कविता हैं। पुरुष के भाग्य का निस्तार उन्हीं के हाथों में है।’’ कार्लाइल कहा करते थे— ‘‘यदि तुम प्रेम के साक्षात दर्शन करना चाहते हो तो माता के गदगद नेत्रों को देखो।’’ सृष्टि के आरंभ काल का दिग्दर्शन करते हुए सन्त केलवैल ने कहा कि— ‘‘जब तक आदम अकेला है तब तक उसे स्वर्ग भी कण्टकाकीर्ण था। देवताओं के गीत, शीतल समीर और ललित वाटिकायें उसके लिये सभी व्यर्थ थीं, यह सब होते हुए भी वह उदास रहता था और आहें भरता था, परन्तु जब उसे हवा मिल गई तो सारा दुख दूर हो गया। कांटे फूलों में बदल गये।’’
जिन सन्तों ने अपने पवित्र नेत्रों से नारी को देखा है उन्हें उसमें ईश्वर की सजीव कविता मूर्तिमान दिखाई दी है। जिनकी आंखों में पाप है उनके लिये बहिन, बेटी और माता की समीपता में ही नहीं, प्रत्येक जड़ चेतन की समीपता में खतरा है। जिनके अंचल में आग बंधी हुई है उसके लिये सर्वत्र अग्निकाण्ड का खतरा है, जिसकी आंखों पर हरा ठंडा चश्मा है उसके लिए कड़ी धूप भी शीतल है। पाठको! अपना दृष्टिकोण पवित्र बनाओ। विश्वास रखो, राजा जनक की भांति आप भी गृहस्थ में रहते हुए सच्चे महात्मा बन सकते हैं।