गृहस्थ एक योग साधना

गृहस्थ योग

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

                                                                गृहस्थ योग
‘योग’ का अर्थ है— ‘जोड़ना’—‘मिलना’। मनुष्य की साधारण स्थिति ऐसी होती है जिसमें वह अपूर्ण होता है। इस अपूर्णता को मिटाने के लिए वह किसी दूसरी शक्ति के साथ अपने आप को जोड़कर अधिक शक्ति का संचय करता है, अपनी सामर्थ्य बढ़ाता है और उस सामर्थ्य के बल से अपूर्णता को दूर कर पूर्णता की ओर तीव्र गति से बढ़ता जाता है, यही योग का उद्देश्य है। उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हठयोग, राजयोग, जपयोग, लययोग, तन्त्रयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, स्वरयोग, ऋजुयोग, महायोग, कुंडलिनी योग, बुद्धियोग, समत्वयोग, प्राणयोग, ध्यानयोग, सांख्ययोग, जड़योग, सूर्ययोग, चन्द्रयोग, सहजयोग, प्रणवयोग, नित्ययोग आदि 84 प्रसिद्ध योग और 700 अप्रसिद्ध योग हैं। इन विभिन्न योगों की कार्य प्रणाली, विधि व्यवस्था और साधना पद्धति एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है तो भी इन सबकी जड़ में एक ही तथ्य काम कर रहा है। माध्यम सबके अलग अलग हैं पर उन सभी माध्यमों द्वारा एक ही तत्व ग्रहण किया जाता है। तुच्छता से महानता की ओर, अपूर्णता से पूर्णता की ओर, असत् से सत् की ओर, तम से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर, जो प्रगति होती है उसी का नाम योग है। अणु आत्मा का परम आत्मा बनाने का प्रयत्न ही योग है। यह प्रयत्न जिन जिन मार्गों से होता है उन्हें योग मार्ग कहते हैं।

एक स्थान तक पहुंचने के लिये विभिन्न दिशाओं से विभिन्न मार्ग होते हैं, आत्म विस्तार के भी अनेक मार्ग हैं। इन मार्गों में स्थूल दृष्टि से भिन्नता होते हुए भी सूक्ष्म दृष्टि से पूर्ण रूपेण एकता है। जैसे भूख बुझाने के लिये कोई रोटी, कोई चावल, कोई दलिया, कोई मिठाई, कोई फल, कोई मांस खाता है। यह सब चीजें एक दूसरे से पृथक प्रकार की हैं तो भी इन सबसे ‘‘भूख मिटाना’’ यह एक ही उद्देश्य पूर्ण होता है। इसी प्रकार योग के नाना रूपों का एक ही प्रयोजन है—आत्म भाव को विस्तृत करना—तुच्छता को महानता की पूंछ के साथ बांध देना।

अनेक प्रकार के योगों में एक ‘‘गृहस्थ योग’’ भी है। गम्भीरता पूर्वक इसके ऊपर जितना ही विचार किया जाता है यह उतना ही अधिक महत्वपूर्ण, सर्व सुलभ तथा स्वल्प श्रम साध्य है। इतना होते हुए भी इससे प्राप्त होने वाली जो सिद्धि है वह अन्य किसी भी योग से कम नहीं वरन् अधिक ही है। गृहस्थाश्रम अन्य तीनों आश्रमों की पुष्टि और वृद्धि करने वाला है, दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है ‘कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास यह तीनों ही आश्रम गृहस्थाश्रम को सुव्यवस्थित और सुख शान्तिमय बनाने के लिये हैं। ब्रह्मचारी इसलिये ब्रह्मचर्य का पालन करता है कि उसका भावी गृहस्थ जीवन शक्तिपूर्ण और समृद्ध हो। वानप्रस्थ और संन्यासी लोग, लोक हित की साधना करते हैं, संसार को अधिक सुख शांतिमय बनाने का प्रयत्न करते हैं। यह ‘लोक’ और ‘संसार’ क्या है? दूसरे शब्दों में गृहस्थाश्रम ही है। तीनों आश्रम एक ओर—और गृहस्थाश्रम दूसरी ओर- यह दोनों पलड़े बराबर हैं। यदि गृहस्थाश्रम की व्यवस्था बिगड़ जाय तो अन्य तीनों आश्रमों की मृत्यु ही समझिये।

गृहस्थ धर्म का पालन करना धर्मशास्त्रों के अनुसार मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है। लिखा है कि—संतान के बिना नरक को जाते हैं, उनकी सद्गति नहीं होती। लिखा है कि— सन्तान उत्पन्न किये बिना पितृ ऋण से छुटकारा नहीं मिलता। कहते हैं कि—जिसके सन्तति न हो उनका प्रातःकाल मुख देखने से पाप लगता है। इस प्रकार के और भी अनेक मन्तव्य हिन्दू धर्म में प्रचलित हैं जिनका तात्पर्य यह है कि गृहस्थ धर्म का पालन करना आवश्यक है। इतना जोर क्यों दिया गया है? इस बात पर जब तात्विक दृष्टि से गंभीर विवेचना की जाती है तब प्रकट होता है कि गृहस्थ धर्म एक प्रकार की योग साधना है जिससे आत्मिक उन्नति होती है, स्वर्ग मिलता है, मुक्ति प्राप्त होती है और ब्रह्म निर्वाण की सिद्धि मिलती है। प्राचीन समय में अधिकांश ऋषि गृहस्थ थे। वशिष्ठ जी के सौ पुत्र थे, अत्रि जी की स्त्री अनुसूया थीं, गौतम की पत्नी अहिल्या थी, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे, च्यवन की स्त्री सुकन्या थी, याज्ञवल्क्य की दो स्त्री गार्गी और मैत्रेयी थी, लोमश के पुत्र श्रृंगी ऋषि थे। वृद्धावस्था में संन्यास ही लिया हो यह बात दूसरी है परन्तु प्राचीन काल में जितने भी ऋषि हुए हैं वे प्रायः सभी गृहस्थ रहे हैं। गृहस्थ में ही उन्होंने तप किये हैं और ब्रह्म निर्वाण पाया है। योगिराज कृष्ण और योगेश्वर दोनों को ही हम गृहस्थ रूप में देखते हैं। प्राचीन काल में बाल रखने, नंगे बदन रहने, खड़ाऊ पहनने, मृगछाला बिछाने का आत्म रिवाज था, घनी आबादी होने के कारण छोटे गांव और छोटी कुटिया होती थीं। इन चिह्नों के आधार पर गृहस्थ ऋषियों को गृहत्यागी मानना अपने अज्ञान का प्रदर्शन करना है।

आत्मोन्नति करने के लिये गृहस्थ धर्म एक प्राकृतिक, स्वाभाविक, आवश्यक और सर्व सुलभ योग है। जब तक लड़का अकेला रहता है तब उसकी आत्म भावना का दायरा छोटा रहता है। वह अपने ही खाने, पहनने, पढ़ने, खेलने तथा प्रसन्न रहने की सोचता है। उसका कार्य क्षेत्र अपने आप तक ही सीमित रहता है। जब विवाह हो जाता है तो यह दायरा बढ़ता है, वह अपनी पत्नी की सुख सुविधाओं के बारे में सोचने लगता है, अपने सुख और मर्जी पर प्रतिबन्ध लगाकर पत्नी की आवश्यकतायें पूरी करता है, उसकी सेवा सहायता और प्रसन्नता में अपनी शक्तियों को खर्च करता है। कहने का तात्पर्य है कि आत्म भाव की सीमा बढ़ती है, एक से बढ़कर दो तक आत्मीयता फैलती है। इसके बाद एक छोटे शिशु का जन्म होता है। इस बालक की सेवा शुश्रूषा और पालन पोषण में निस्वार्थ भाव में इतना मनोयोग लगता है कि अपनी निज सुख सुविधाओं का ध्यान मनुष्य भूल जाता है और बच्चे की सुविधा का ध्यान रखता है। इस प्रकार यह सीमा दो से बढ़कर तीन होती है। क्रमशः यह मर्यादा बढ़ती है। पिता कोई मधुर मिष्ठान्न लाता है तो उसे खुद नहीं खाता वरन् बच्चों को बांट देता है, खुद कठिनाई में रहकर भी बालकों की तंदुरुस्ती, शिक्षा और प्रसन्नता का ध्यान रखता है। दिन दिन खुदगर्जी के ऊपर अंकुश लगाता जाता है, आत्म संयम सीखता जाता है और स्त्री, पुत्र, सम्बन्धी, परिजन आदि में अपनी आत्मीयता बढ़ाता जाता है। क्रमशः आत्मोन्नति की ओर चलता जाता है।

भगवान् मनु का कथन है कि—‘‘पुरुष उसकी पत्नी और सन्तान मिलाकर ही एक ‘पूरा मनुष्य’ होता है।’’ जब तक यह सब नहीं होता तब तक वह अधकचरा, अधूरा और खंडित मनुष्य है। जैसे प्रवेशिका परीक्षा पास किये बिना कालेज में प्रवेश नहीं हो सकता, उसी प्रकार गृहस्थ की शिक्षा पाये बिना वानप्रस्थ संन्यास आदि में प्रवेश करना कठिन है। आत्मीयता का दायरा क्रमशः ही बढ़ता है। अकेले से, पति पत्नी दो में, फिर बालक के साथ तीन में, सम्बन्धियों में, पड़ौसियों में, गांव, प्रदेश, राष्ट्र, विश्व में यह आत्मीयता क्रमशः बढ़ती है। आगे चलकर सारी मनुष्य जाति में आत्म भाव फैलता है फिर पशु पक्षियों में, कीट पतंगों में, जड़ चैतन्य में यह आत्म भाव विकसित हो जाता है। जो प्रगति एक से बढ़कर दो में, दो से तीन में हुई थी, वही उन्नति धीरे धीरे आगे बढ़ती जाती है और मनुष्य सम्पूर्ण चर अचर में आत्म सत्ता को ही समाया देखता है, उसे परमात्मा की दिव्य ज्योति सर्वत्र जगमगाती दीखती है। पत्नी तक अपने मन को जितने अंशों में फैलाया जाता है उतने अंशों में अपनी खुदगर्जी पर संयम होता है। बाल बच्चों के होने पर यह आत्म संयम और अधिक बढ़ता है अन्त में जीव पूर्णतया आत्म संयमी हो जाता है। दूसरे के लिए अपने आप को भूलने का अभ्यास क्रमशः इतना अधिक पुष्ट हो जाता है कि अपना कुछ रहता ही नहीं, सब कुछ बिराना हो जाता है। ‘‘मेरा मुझको कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर’’ की ध्वनि अपने अन्दर से निकलने लगती है। खुदी मिटती जाती है और खुदा मिटता जाता है। ‘‘मैं’’ का अन्त होने से ‘‘तू’’ ही शेष रहता है। गृहस्थ योग की छोटी सी सर्व सुलभ साधना जब अपनी विकसित अवस्था तक पहुंचती है तो आत्मा, परमात्मा बन जाता है। अपूर्णता से छुटकारा पाकर पूर्णता उपलब्ध करता है और योग का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो जाता है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118