जड़ के भीतर विवेकवान चेतन

रक्षक आप—भक्षक आप

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प्रकृति ने अपनी गोद में कितने ही प्रकार के प्राणियों को पाला पोसा और स्थान दिया है। उसकी कुछ संतानें अपार शारीरिक क्षमता रखती हैं तो कुछ संतानें ध्वनि के कारण होने वाले कम्पन से ही मर जायें, इतनी कमजोर होती हैं। सबल-निर्बल, सशक्त-अशक्त, चालाक-भोले यानी कि हर तरह के जीव जंतु प्रकृति के प्रांगण में मिल जायेंगे, ऐसी स्थिति में उद्धत शक्तिशाली निर्बल प्राणियों को जीवित भी न रहने दें, यह सम्भावना भी बनी रहती है। यदि नियमतः ऐसा ही हो तो इस संसार में दुर्बल, निर्बल और कमजोरों का जीना भी असम्भव हो जाय।

परन्तु प्रकृति ने निर्बल प्राणियों को ऐसी विशेषतायें भी प्रदान कर रखी है जिनसे वे अपनी रक्षा कर सकें और आने वाले संकटों से अपना बचाव करले। कई कीड़े मकोड़े बहुत क्षुद्र और कमजोर होते हैं, इतने कमजोर कि जरा से व्याघात से ही मर जायें लेकिन प्रकृति ने उनके बचाव का भी पूरा-पूरा उपाय कर रखा है। जैसे ‘‘वाकिंग स्टिक’’ एक कीड़ा होता है जिसका शरीर, हाथ, पैर और रंग किसी सूखी लकड़ी की टहनी की तरह होता है। क्रियाशील अवस्था में कई दुष्ट व मांसाहारी जीव इस पर आक्रमण कर देते हैं और मारकर खा जाते हैं। शत्रुओं से बचने के लिए अन्ततः उसने इस ईश्वर प्रदत्त जीवन-सत्य को ही माध्यम बनाया। वह किसी दुश्मन को बढ़ता हुआ देखता है तो निश्चेष्ट लेट जाता है शत्रु आता है और देखता है कि जहां उसे कीड़ा दिखा था वह तो सूखी लकड़ी है भ्रम हो गया है यह समझकर वह वहां से निराश लौट जाता है वाकिंग स्टिक की सुरक्षा हो जाती है। अमेरिका में पाया जाने वाला कंगारू इस क्रिया में सबसे अधिक चतुर होता है। दुश्मन को देखते ही वह जमीन में इस प्रकार लेट जाता है मानो बिलकुल मर गया हो। जब तक शत्रु दूर रहता है तब तक तो वह विधिवत् सांस भी लेता रहता है आंखें भी अधखुली रहकर चुपचाप देखता रहता है पर जैसे ही शत्रु पास आया कि उसने आंखें भी बन्द कीं और सांस भी। शत्रु आता है उसे सूंघता है और मरा हुआ समझ कर वहां से चल देता है। कंगारू प्रसन्नता पूर्वक उठता है और अपने काम से लग जाता है।

बाहरी शत्रुओं से तो किसी प्रकार रक्षा की भी जा सकती है आंतरिक शत्रुओं से विजय पाना सबसे अधिक दुःसाध्य रहा है। शरीर रूपी गुफा जिसमें जीवात्मा रहता है और मनुष्य को यह गुफा भगवान् ने इसलिए दी थी कि वह उसमें सुरक्षापूर्वक रहकर आत्मकल्याण और लोकमंगल की आवश्यकता पूरी करेगा उसी में 6 भयंकर शत्रु और अनेक छोटे-छोटे दुश्मन भी आ बैठे। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर यह प्रबल शत्रु मनुष्य की शक्ति निचोड़ते, मित्रता और प्रेम पूर्वक रहने न देकर अपने ही लोगों से लड़ाते भिड़ाते रहते, शोषण छल-कपट और न जाने कैसी कैसी दुष्टता की प्रेरणा देते रहते हैं मनुष्य को उनसे बचना भारी पड़ता है कोई उपाय कारगर नहीं होता जब यह शत्रु प्रबल हो उठते हैं उनसे रक्षा के उपाय प्रकृति के इन कलाकारों से सीखना चाहिए।

उदाहरण के लिए कभी कामवासना का वेग सताये अथवा किसी के प्रति शत्रुता हो और अहंकार वश प्रतिशोध की भावना भड़क उठे उस समय वाकिंग स्टिक और कंगारू के समान निश्चेष्ट लेट जाइये और अनुभव करिये आप की मृत्यु हो गई। आपका प्राण शरीर छोड़कर बाहर खड़ा है और देख रहा है यह शरीर, यह इन्द्रियां जिनके विषय बड़े सुन्दर और सुखद प्रतीत होते थे उनमें कितनी गन्दगी और दुर्गन्ध भरी है। यह मनुष्य शरीर किसी बड़े काम के लिये मिला था पर उसका दुरुपयोग हुआ शक्तियां इन्द्रिय भोग और बखेड़ों में खर्च करदी—इस तरह के विचार कुछ देर तक इतनी गम्भीरता से उठाये मानो आप सचमुच मर गये हों। उस क्षण की कल्पना आप में वैराग्य भर देगी आप बुराई से बच जायेंगे।

जीव शास्त्र में इन क्रियाओं का मादृश्यता (मिमिक्री) कहते हैं। डा. बेटसन व फ्रिटज मुलर ने जीवों की इन अद्भुत क्रियाओं पर गहन अनुसंधान किये और ऐसे सैकड़ों उदाहरण देकर जीवों की प्रकृति के रोमांचक पृष्ठ खोले पर इनका सर्वोत्तम लाभ मानव जाति को इन प्रेरणाओं के रूप में ही मिल सकता है। समुद्र के किनारे क्रिप्टो लिथोडस नामक एक केकड़ा पाया जाता है इनके शरीर की ऊपरी सतह कठोर होती है और रंग श्वेत। कोई दुश्मन आया और ये सतह पर बिछे कंकड़ पत्थरों के बीच जा लेटे। उस समय कोई पास जाये तो यही समझेगा कि कोई पत्थर पड़ा है। केकड़ा कुछ बोल नहीं रहा होगा पर उसकी यह कला कह रही होगी—मनुष्य! तू भी अपने शरीर को कंकड़, पत्थर, मिट्टी, पानी का समझता और मानता कि इसमें निवास करने वाली जीवात्मा ही रक्षा और विकास के योग्य है तो यह—मानस शत्रु जो हर घड़ी तुम्हारी शक्तियों को खा जाने की ताक में बैठे रहते हैं धोखा खा जाते और तेरे पास आकर भी तेरा कुछ बिगाड़ नहीं पाते।

शत्रुओं से सुरक्षा के कोई एक दो उपाय ही नहीं सैकड़ों योजनायें इन प्रकृति के कलाकारों से सीखी और प्रयोग में लाई जा सकती हैं। उदाहरण के लिए एक कीड़ा होता है जिसे ‘‘लीफ इंसेक्ट’’ कहते हैं इसका रंग हरी पत्तियों की तरह हरा होता है शत्रु को देखते ही यह हरी पत्तियों के बीच बैठ जाता है। शत्रु आता है तो उसे पत्तियां मिलती हैं फिर तो उसे वहां से निराश ही लौटना पड़ता है। कैलिमा नामक तितली फूल-पत्तियों के आकार से इतनी मिलती-जुलती होती है कि उसको पहचानना कठिन हो जाता है उसके पिछले पंख तने और आगे वाली पत्तियों के आकार के होते हैं शत्रु को देखते ही यह किसी फूल वाले पौधे की मोटी शाखा को अपने पिछले पंखों से स्पर्श कराकर बैठ जाती है तब देखने से ऐसा लगता है कि किसी तने पर दो पत्तियां उगी हों। शत्रु धोखा खाकर चला जाता है। तितलियों की एक जाति ऐसी होती है जिनका मांस कड़ुआ और जहरीला होता है उन्हें कोई भी जीव खाना पसन्द नहीं करता पर कुछ, तितलियों को खाने वाले भी सैकड़ों शत्रु तैयार रहते हैं। स्वास्थ्य, खूबसूरत होने पर कामवासना के प्रवाह अधिक टकराते हैं, पैसा हो तो अपव्यय और अहंकार की दुष्प्रवृत्तियां घेर सकती हैं, शरीर में बल हो तो ही बदमाशी सूझती है जब कभी ऐसे अवसर आयें तब कामवासना से जर्जरित व्यक्तियों के दुर्बल शरीर और वृद्ध लोगों के टूटे शरीरों की कल्पना करके उसी प्रकार बचा जा सकता है जिस तरह गौतम बुद्ध उनसे बच गये थे और अपना जीवन पुण्य परमार्थ और लोक-सेवा में उत्सर्ग कर दिया था। अहंकार आये तो कंस, रावण, जरासंध, लोभ आये तो हिरण्यकशिपु की दुर्दशा, मोह सताये तो सैकड़ों बच्चे लिये फिरने वाली सुअरिया की कल्पना करके उनसे बचा और सम्भला जा सकता है। किसी भी घृणित विचार को उसके दुष्परिणाम के चिन्तन से काटने की कला आ जाये तो मनुष्य न केवल उस दुष्प्रभाव से बच सकता है वरन् आत्म कल्याण की दिशा में भी तेजी से अग्रसर हो सकता है।

इतने पर भी बुराइयों के शत्रु न मानें तो उन्हें डराना, धमकना और मारकर भगाना भी नीति संगत तथ्य है। अमरीका में जहरीले सांपों की एक ऐसी जाति पाई जाती है जिनका रंग बहुत ही चमकदार होता है। उसी क्षेत्र में कुछ सांप ऐसे होते हैं जिनमें कोई जहर नहीं होता। इनको जब कभी किसी शत्रु से मुकाबला पड़ जाता है तो यह अपनी आकृति-प्रकृति जहरीले सांपों जैसी बना लेते हैं शत्रु डर कर भाग जाते हैं और इस तरह उनकी रक्षा हो जाती है। हमारे मन में भी ऐसे साहस पूर्ण शक्तिशाली विचार जाग जायें तो बुरे विचारों को डांटकर मारकर भगाया जा सकता।

इस तरह इन जीवों की निश्चेष्ट करने की क्रियायें, अच्छे विचारों से बुरे विचार काटने की क्रियायें सीखकर आन्तरिक शत्रुओं से बचा जा सकता है। गुणों को विकास किया जा सकता है और आत्म-कल्याण के अवरोधों को दूर कर सुख-शान्ति का जीवन भी जिया जा सकता है।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर के रूप में जो षडरिपु गिनाये गये हैं, उनमें काम वासना सर्वाधिक भयंकर होती है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा यह मनुष्य को ही अधिक सताती है। या मनुष्य स्वयं ही इस रिपु के सामने आत्मसमर्पण कर देता है, स्वयं उसके जाल में जा फंसता है। यह विचार नहीं किया जाता कि काम वासना का क्रीड़ा केलि में उलझे रहने के कारण अपनी ही शक्तियों का आत्यन्तिक क्षण होता है और क्षण भर के क्षुद्र आनंद के लिये अपने आपको बर्बाद करना पड़ता है।

अन्यथा संकट प्रस्तुत है

कामवासना का क्षुद्र आनंद के लिये उपयोग न केवल मनुष्य के लिए वरन् उन प्राणियों के लिए भी घातक होता है जो कामुक होते हैं।

प्रकृति-पर्यवेक्षण से पता चलता है कि अल्पजीवी प्राणी अधिक कामुक होते हैं तथा वे सहवास भी अधिक करते हैं। जब कि दीर्घजीवी प्राणियों में सहवास की आवृत्ति में एक बड़ा अन्तराल रहता है। वे वर्ष में एक निश्चित अवधि में ही यौन-जीवन जीते हैं। शेष समय में दाम्पत्य प्रेम तो उनमें गहरा रहता है, पर यौन-क्षुदा नहीं होती। इसी तरह दुर्बल जीवों में अधिक सन्तति होती है, जब कि सशक्त प्राणियों में कम सन्तानें होती हैं।

छोटी-छोटी मछलियां लाखों, करोड़ों की संख्या में अण्डे देती हैं। काड मछली चार लाख अण्डों का प्रजनन करती है। तो सनफिश तीन करोड़। जब कि विशालकाय ह्वेल तथा डालफिन अण्डे नहीं देती, उनके सीमित जीवित बच्चे पैदा होते हैं। शार्क मछली अपने ही पेट में अण्डे सेती और फिर शिशु को जन्म देती है। मक्खियां भी बहुत अण्डे देती हैं और एक मक्खी की कुल उम्र 30 दिन होती है। मादा चमगादड़ वर्ष में सिर्फ एक बच्चा देती है।

हाथी भी वर्ष में एकबार ही समागम करता है और कई हाथी तो लम्बे अरसे तक सहवास नहीं कर पाते। क्योंकि किसी भी समूह की सभी हथनियों का स्वामी सरदार हाथी ही होता है। हाथी की सन्तान भी कम होती हैं।

गाय, बैल, भैंस, घोड़े आदि सभी सशक्त प्राणियों में सन्तति क्रम सीमित है। कम सन्तान जनने वाले हाथी और ह्वेल सौ-सौ वर्ष जीते हैं। शेर चालीस वर्ष, घोड़ा तीस, गाय पच्चीस, कुत्ता पन्द्रह, बकरे बकरी पन्द्रह वर्ष जीते हैं। जब कि छोटी मछलियां और छोटे पशु अल्प अवधि तक जीते हैं। जो प्राणी जितने अधिक और जितनी जल्दी बच्चे उत्पन्न करता हो तो समझना चाहिए कि वह उतनी ही कम आयु प्राप्त कर सकेगा और उतना ही दुर्बल बनकर रहेगा।

नर-नारी प्रेम तथा एकनिष्ठता की प्रवृत्ति कई पशु-पक्षियों में देखी जाती है।

‘स्क्विड’ नामक एक रेंगने वाला कीड़ा सैकड़ों मादाओं में भी अपनी प्रियतमा को पहचान लेता है। दूसरों की ओर वह कभी भी नहीं देखता।

बत्तखों का दाम्पत्य-प्रेम अत्यन्त प्रखर होता है। थोड़े से क्षणों का भी विछोह वे सह नहीं पाते। साथी आंख से ओझल हुआ कि व्याकुलता से उसे खोजने लगते हैं। योरोप में गोहों की कुछ जातियां हैं, जो जीवन में एक ही बार हम सफर चुनती हैं। विधवा या विधुर गोह, दूसरे गोह को देखकर उस पर आक्रमण कर बैठती है। प्यार कभी दुबारा नहीं करतीं।

कबूतर कट्टर पतिव्रती एवं पत्नीव्रती होते हैं।

कुछ मछलियां भी प्रेम प्रसंग के बाद ही विवाह करती हैं। ऐसी मछलियां झीलों या शान्त गति वाली नदियों में ही पाई जाती हैं। ये मछलियां सदैव एकनिष्ठ होती हैं। दाम्पत्य जीवन का अर्थ है—स्नेह, सद्भावपूर्वक सहचरत्व का निर्वाह किया जाय। सद्भाव सम्पन्न प्राणियों में प्रायः यही प्रवृत्ति पाई जाती है। इस आधार को अपनाने पर उनका दाम्पत्य-जीवन सुखी, सन्तुष्ट रहता है। किन्तु जहां काम लोलुपता ही प्रधान है वहां सघन-निष्ठा का अन्त हो जाता है और कुचक्र का दौर चल पड़ता है। बहु-पत्नी प्रथा या बहुपति प्रथा दोनों ही समान रूप से अनावश्यक एवं अवांछनीय हैं। जहां कहीं यह दौर चल रहा होगा वहां कलह, संघर्ष एवं संकटग्रस्त वातावरण बना रहेगा। प्राणि जगत में इस बहुवादी लोलुपता की प्रतिक्रिया कुत्तों में, हिरनों में, हाथी, सील आदि में देखी जा सकती है।

बहु-पत्नी वाद का सर्वाधिक दुष्परिणाम ‘सील’ नामक मछली में देखने को मिलता है। ये उत्तरी ध्रुव के हिमानी क्षेत्र में होते हैं।

व्यवस्था सन्तुलन काम विकार में भी

कामोत्तेजना क्या है इस सन्दर्भ में कवि और कलाकार कुछ भी कहते रहें विज्ञानियों की दृष्टि में यह एक रासायनिक उत्तेजना मात्र है। कोई मादा जब गर्भ धारण के योग्य अपना आन्तरिक अवयवों को पुष्ट कर लेती है तो उसमें से एक प्रकार का विशेष स्राव निकलता है, यह वायु के साथ गन्ध रूप में मिल जाता है और हवा में उड़कर नरों की सन्तानोत्पादन चेतना को चुनौती देता है। वे इस अदृश्य आन्तरिक हलचल से उत्तेजित हो उठते हैं और मादा की आवश्यकता पूरी करने के लिए धर दौड़ते हैं। इसी प्रकरण को कामोत्तेजना के रूप में देखा समझा जा सकता है। मादा के अन्तः स्राव जैसे ही बन्द हो जाते हैं, नरों की उत्तेजनाएं भी समाप्त हो जाती हैं और वे फिर होश हवास के सौम्य सदाचार की ओर वापिस लौट जाते हैं।

छोटे जीव सन्तानोत्पादन की उपयोगिता नहीं समझते इसलिए उनको वंश नष्ट हो जाने का खतरा रहता है। प्रकृति ने इस स्थिति को न आने देने के लिए उनके शरीर में एक गन्ध आवेग यौनाकर्शी रस के रूप में उत्पन्न किया है। मादा के शरीर में समयानुसार जब यह मादक गन्ध उत्पन्न होती है तो वे प्रकृति की प्रेरणा को पूरा करने के लिए आतुर हो उठते हैं। और जैसे ही गुदगुदी उत्पन्न करने वाले संकेत बन्द होते हैं, नशा उतर जाता है। इस प्रकार प्रकृति उनसे अपना वंश-वृद्धि का प्रयोजन पूरा करा लेती है और वे अनायास ही जनक जननी बनने की भूमिका सम्पादित कर बैठते हैं।

मनुष्य की स्थिति इससे ऊपर है। इसीलिए प्रकृति ने उन्हें गंध आवेग से उत्तेजित होने का अवसर नहीं दिया है। तरुणी नारी के शरीर से भी अन्य जीवों की तरह यौनाकर्ष रसायनों की गन्ध निकलती होगी पर वह मानवी विवेक से टकरा कर हतप्रभ ही हो जाती है और वह बहिन बेटी, आदि की मर्यादाओं का पालन करता हुआ जोड़ा बनाने से पूर्व हजार बार यह विचार करता है कि गृहस्थ के उत्तरदायित्व को निवाहने की क्षमता उसमें है कि नहीं? या फिर साथी का चयन करने में किन तथ्यों का ध्यान रखा जाय? सन्तानोत्पादन की संख्या निर्धारण करने में भी उसे विवेक से काम लेना पड़ता है। यही है मनुष्य और पशु के बीच का विवेक जन्य अन्तर।

पिछड़े हुए जीव, मात्र रासायनिक गन्ध उत्तेजना के आवेग से सन्तानोत्पादन करने में जुट जाते हैं, न साथी का चुनाव करने की कोई कसौटी उनके पास होती है और न सन्तान के लालन-पालन के लिए अपनी योग्यता उपयुक्तता देखने की उनमें क्षमता होती है। मनुष्य भी यदि उसी स्तर का बन जाय तो उसकी विवेकशीलता और बुद्धिमत्ता का कोई महत्व ही न रह जायगा।

प्राणियों की रासायनिक गन्ध किन्हीं आवेशों से उत्तेजित करके काम क्रीड़ा में प्रवृत्ति कर देती है। उनके स्तर को देखते हुए यह उचित भी हो सकता है पर मनुष्य के कर्तव्य और उत्तरदायित्व तो बहुत अधिक बढ़े-चढ़े हैं इसीलिए प्रकृति ने उसे गन्ध उत्तेजना के आवेगों से बच सकने और विवेक सम्मति रीति नीति अपना सकने के योग्य रखा है, जब कि अन्य प्राणी एक प्रकार से बाध्य और विवश हैं।

कामोत्तेजना से प्राणियों के समस्त शरीर में आवेश उत्पन्न होता है और उनकी विविध विधि गतिविधियां ऐसी उभरती हैं जिन्हें उन्मत्तता की संज्ञा दी जा सकती है। भंवीरी और डेयजल मक्खी की उड़ान सीधी साधी न रहकर कला बाजी जैसी बन जाती है और लगता है वह कोई नृत्य अभिनय कर रही है। केटिटिड साइक्डा और झींगुर जिन दिनों मदमस्त होती हैं उन दिनों उनकी झंकार में नये किस्म का स्वर और मिठास होता है।

मकड़ी, मछली और रेप्टाइल्स जैसे जन्तुओं की भांति मेंटिस नामक टिड्डा मादा ही बड़ी और जबरदस्त होती है, नर मेंटिस अपेक्षाकृत छोटा भी होता है और कमजोर भी। नर के लिए सम्भोग क्रिया उसका मृत्यु सन्देश ही सिद्ध होती है। मादा द्वारा उत्तेजित किये जाने पर वह डरता सहमता उसके पास जाता है और धरती पर सिर रखकर आत्म समर्पण की मुद्रा में खड़ा हो जाता है। मादा उसे कसकर पकड़ लेती है कि वह छूटकर भाग न सके। गर्भाधान में मादा को ही देर तक पूरा श्रम करना पड़ता है, अस्तु वह थक भी जाती है भूखी भी होती है। तब उसे निखट्टू नर को ही चटकर जाने की बात सूझती है और वह बिहार के बाद आहार का साधन भी उसी को बनाकर समाप्त कर देती है। नर मेंटिस जीवन में प्रायः एक ही सुहागरात देख पाते हैं।

बोनिला पक्षी नर को आजीवन मादा का दास बनकर रहना पड़ता है। भोजन जुटाने का काम मादा करती है, इसके बदले बच्चों के लालन-पालन का भार उसे ही वहन करना पड़ता है। हिपोकेम्पस पाइपफिश और फोटोकोरिनस मछलियां इतनी दबंग होती हैं कि जिस नर को वशवर्ती बना लेती हैं उससे दास जैसा व्यवहार करती हैं।

कामोत्तेजना को प्रकाश के रूप में परिणित किया जा सकता है। जुगनू जैसे कीटकों में यह प्रकाश चमक के रूप में मनोरम दीखने और सुहावना लगने तक ही सीमित रहता है पर वह मनुष्य द्वारा तो ओजस् शक्ति में विकसित किया जा सकता है और उससे सर्वतोमुखी समर्थता विकसित करने का लाभ लिया जा सकता है।

जुगनू की चमक टिमटिमाहट कितनी मोहक होती है, रात के अन्धकार में जब वह छोटे तारों की तरह उड़ते-चमकते दिखाई पड़ते हैं तो लगता है वह आकाश से उतर कर धरती पर खेलने लगा हो।

जुगनू की चमक क्या है? जुगनू की पूंछ के पास तीन पदार्थ भरे होते हैं। लूसीफरिन रसायन द्रव, लूसीफरेस ऐंजाइम एडी-नोसिन ट्राइफास्फेट यौगिक—इन तीनों का सम्मिश्रण चमक उत्पन्न करता है पर करता तभी है जब उसे एक विशेष प्रकार की मानसिक उत्तेजना होती है जीव-विज्ञानी कहते हैं कि यह कामोत्तेजना ही है जो इन रसायनों को चमक में बदल देती है। इस उत्तेजना के अभाव में जुगनू उड़ते तो रहते हैं पर चमकते नहीं।

जुगनू में पाये जाने वाले लूसीफरिन और लूसीफरेस रसायन मनुष्यों में भी पाये जाते हैं। उनके द्वारा शारीरिक और मानसिक अनेक क्रिया-प्रक्रियाएं सम्पन्न होती हैं चमक भी पैदा होती है पर होती तभी है जब उनके साथ भावनात्मक उत्तेजना का सम्पर्क हो। जीव विज्ञानी कहते हैं कि जुगनू के लिए उतनी तीव्र उत्तेजना जो उसके रसायनों को चमका सके केवल कामोत्तेजना ही हो सकती है। आहार आदि की सामान्य आवश्यकताएं उस स्तर की नहीं होती जो उसे चमकने की स्थिति में ला सकें। मादा जुगनू जब रति संयोग के लिए उद्विग्न होती है और नर जुगनू जब उसके पीछे-पीछे मनुहार करते हुए चक्कर लगाते हैं तभी उनकी पूंछ चमकती है और मनोरम दृश्य दिखाई पड़ते हैं। प्रकृति ने मनुष्य को विवेक दिया है और अन्य कीटकों की तरह गन्ध आवेशों के कारण उन्मत्त हो उठने की दुर्बलता से मुक्त रखा है। इसके पीछे नियति का यही उद्देश्य काम कर रहा है कि वह अपने भीतर भरी हुई अति महत्वपूर्ण शक्ति को आवेश-ग्रस्तता में बर्बाद न करें। प्रजनन प्रकरण में अति सतर्कता बरतें और मानवोचित आदर्श की प्रतिष्ठापना करें। विवेक हमें वस्तु-स्थिति समझाता है पर कामोद्वेग और कुछ नहीं मात्र जड़-पदार्थों में रासायनिक द्रव्यों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली उत्तेजना मात्र है। कुछ रसायन मनुष्य पर बेतरह हावी हो जायें और उसे कठपुतली की तरह नाच नचाकर अधःपतन के गर्त में धकेले यह किसी प्रकार शोभनीय नहीं।

कर्तव्य की गरिमा—सामान्य की महिमा

देखने, नापने और तोलने में छोटा-सा लगने वाला मस्तिष्क, जादुई क्षमताओं और गतिविधियों से भरा पूरा है। उसमें प्रायः अरब स्नायु कोष हैं। इनमें प्रत्येक की अपनी दुनिया, अपनी विशेषता और अपनी सम्भावनाएं हैं। वे प्रायः अपना अभ्यस्त काम निपटाने भर में दक्ष होते हैं। उनकी अधिकांश क्षमता प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। काम न मिलने पर हर चीज निरर्थक रहती है। इसी प्रकार इन कोषों से दैनिक जीवन की आवश्यकताएं पूरा कर सकने के लिए आवश्यक थोड़ा-सा काम कर लिया जाता है तो उतना ही करने में वे दक्ष रहते हैं। यदि अवसर मिला होता, उन्हें उभारा और प्रशिक्षित किया गया होता, तो वे अब की अपेक्षा लाखों गुनी क्षमता प्रदर्शित कर सके होते। अलादीन के चिराग की कहानी कल्पित हो सकती है, पर अपना मस्तिष्क सचमुच जादुई चिराग सिद्ध होता है।

मस्तिष्क का आकार बढ़ने के पीछे वह क्रमिक विकास है जो पूर्वजों की तुलना में आज के मस्तिष्क की स्थिति में हो चुका है। अब से कोई छह लाख वर्ष पूर्व मनुष्य का आदि पूर्वज कहा जा सकने वाला पुच्छ विहीन-वानर ‘एप्स’ था। उसके मस्तिष्क का आकार 620 से 650 घन सेन्टीमीटर था। इसके बाद अधिक विकसित नर वानर ‘पिथेकैन्थ्रोपस’ के मस्तिष्क का आयतन 800 से 900 घन सेन्टीमीटर था। आधुनिक मनुष्य का मस्तिष्क आयतन 1400 घन से.मी. है। यही क्रम बुद्धि विकास के साथ-साथ आगे भी चलता रहेगा और हमारी पीढ़ियां अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत मस्तिष्क वाली होंगी। पर यह आवश्यक नहीं कि खोपड़ी में भरे हुए भार की भी वृद्धि हो जाय। वह हलका रह सकता है किन्तु उसकी सम्वेदन कणिकाएं अधिक जटिल एवं सूक्ष्म हो जायेंगी। वजन की दृष्टि में संसार के महा मनीषियों के मस्तिष्क का भार हाथी के मस्तिष्क के समतुल्य अथवा कम था, तो भी वे हाथी से कहीं अधिक बुद्धिमान थे। वायरन का मस्तिष्क 2239 ग्राम, तुर्गनेव का 2012 ग्राम, शिलर का 1871 ग्राम, पाबलोव का 1658 ग्राम और अनातोले फ्रांस का 1017 ग्राम था जब कि हाथी का औसतन 2000 ग्राम होता है।

मानवी मस्तिष्क बड़ा विचित्र है। उसकी सूक्ष्म एवं जटिल संरचना अद्भुत है। यह बारीकियां आमतौर से प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं। आमतौर से उनका 4 प्रतिशत भाग ही काम आता है और 96 प्रतिशत मूर्छित पड़ा रहता है। इस प्रसुप्त भाग में से जो जितना अधिक अंश जागृत कर लेता है वह उतना ही अधिक बुद्धिमान बन जाता है। भविष्य में मानवी मस्तिष्क के इस सूक्ष्म भाग का अधिक मात्रा में जागरण होगा। इससे उसका आयतन तो बढ़ेगा, पर भार नहीं बढ़ेगा।

न्यूरोलॉजी—मस्तिष्क विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क के बाहरी धूसर पदार्थ—ग्रे मैटर में तन्त्रिका कोशिकाओं न्यूरान्स की संख्या करीब 17 अरब है। अनुमस्तिष्क सेरिबेलम में 120 अरब और मेरुदंड में 1 करोड़ 35 लाख तन्त्रिकाएं इसके अतिरिक्त हैं। इनके साथ-साथ ग्लाया स्तर की करीब एक खरब लघु कोशिकाएं इन न्यूरान्स की सहेली बनकर और रहती हैं। इनके मिलन स्थल को तन्त्रिका बन्ध, न्यूरोग्लाया—कहते हैं। इन सबका सम्मिश्रित प्रयास ही मस्तिष्कीय चेतना है। इतना सूक्ष्म, सही और सक्रिय कम्प्यूटर संसार में अब तक नहीं बना और न भविष्य में बनने की सम्भावना है, जैसा कि मानवी मस्तिष्क है।

इन बातों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट है कि मस्तिष्क, मात्र रासायनिक पदार्थों से बना मांस पिण्ड नहीं है। यदि ऐसा होता तो उसके भार विस्तार के अनुपात से उसकी क्षमता घटती बढ़ती। हाथी और ह्वेल के मस्तिष्क विस्तार में बड़े होते हुए भी उस सूक्ष्म संरचना की दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए हैं जो मनुष्य को उपलब्ध हैं। भीतरी मस्तिष्क के चारों ओर दो काले रंग की पट्टियां लपटी हुई हैं, इन्हें ‘टेम्पोरल कोरटेक्स’ कहते हैं। इनका क्षेत्रफल लगभग 25 वर्ग इंच और मोटाई एक इंच का दसवां भाग है। इनका स्थान कनपटियों के ठीक नीचे है। स्मृति का संचय और नियमन इन्हीं से होता है।

मस्तिष्क के शल्य चिकित्सक डा. विल्डर पेन फील्ड ने इन पट्टियों की ढूंढ़ खोज की है और वे मुद्दतों पुरानी ऐसी स्मृतियों को जागृत करने में सफल हुए हैं जिन्हें सामान्य या उपेक्षणीय कहा जा सकता है। महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाली घटनाएं तो प्रायः याद रहती हैं, पर जो दैनिक जीवन में ऐसे ही आंखों के सामने से गुजरती रहती हैं, उनका कोई महत्व नहीं माना जाता वे विस्मृति के गर्त में जा पड़ती हैं। पुरानी हो जाने पर उन्हें याद कर सकना सम्भव नहीं होता, फिर भी वे पूर्णतया विस्मृत नहीं कही जा सकतीं। वे ‘टेम्पाकल कोरटेक्स’ पट्टियों के पुराने परत स्पर्श करने से जागृत हो सकती हैं। डा. विल्डर ने कितने ही व्यक्तियों के मस्तिष्क के मर्मस्थलों का विद्युत धारा से स्पर्श करके निरर्थक घटनाक्रमों को स्मरण कराने में सफलता प्राप्त की है।

स्मरण शक्ति की विलक्षणता को ही लें, वह कई व्यक्तियों में इतनी अधिक मात्रा में विकसित पाई जाती है कि आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। लिथुयानिया का रैवी ऐलिजा दो हजार पुस्तकें कंठाग्र रखने के लिए प्रसिद्ध था कितनी सी बार उलट-पुलट कर उसकी परीक्षा की गई और वह सदा खरा उतरा। फ्रांस का राजनेता लिआन गैम्वाटा को विक्टर ह्यूगो की रचनाएं बहुत पसन्द थीं। उनमें से उसने हजारों सन्दर्भ के पृष्ठ याद कर रक्खे थे और उन्हें आवश्यकतानुसार धड़ल्ले के साथ घण्टों दुहराता रहता था। इसमें एक भी शब्द आगे पीछे नहीं होता था। पृष्ठ संख्या तक वह सही-सही बताया चलता था।

ग्रीक विद्वान रिचार्ड पोरसन को भी पढ़ी हुई पुस्तकें महीनों याद रहती थीं। जो उनने आज पढ़ा है उसे एक महीने तक कभी भी पूछा जा सकता था और वे उसे ऐसे सुनाते थे मानो अभी-अभी रट कर आये हों। शतरंज का जादूगर नाम से प्रख्यात अमेरिकी नागरिक हैरी नेलसन पिल्सवरी एक साथ बीस शतरंज खिलाड़ियों की चाल को स्मरण रखकर उनका मार्ग दर्शन करता था। यह सब काम पूरी मुस्तैदी और फुर्ती से चलता था बीसों खिलाड़ी उसका मार्ग दर्शन पाते और खेल की तेजी बनाये रखते थे। प्रसा जर्मनी का लायब्रेरियन मैथुरिन वेसिरे दूसरों के कहे शब्दों की हूबहू पुनरावृत्ति कर देता था। जिन भाषाओं का उसे ज्ञान नहीं था उनमें वार्तालाप करने वालों की बिना चूक नकल उतार देने की उसे अद्भुत शक्ति थी। एक बार बारह भाषाभाषी लोगों ने अपनी बोली में साथियों से वार्तालाप किये। मथुरिन ने क्रमशः बारहों के वार्तालाप को यथावत् दुहरा कर सुना दिया। बरमान्ष का आठ वर्षीय बालक जेरा कोलवर्न गणित के अति कठिन प्रश्न को बिना कागज-कलम का सहारा लिए मौखिक रूप से हल कर देता था। लन्दन के गणितज्ञों के सम्मुख उसने अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रदर्शन करके सबको चकित कर दिया था। हम्बर्ग निवासी जान मार्टिन डेस भी अति कठिन गणित प्रश्नों को मौखिक रूप से हल करने में प्रसिद्ध था। उन दिनों उसके दिमाग की गणित क्षमता इतनी बढ़ी-चढ़ी थी कि आज के गणित कम्प्यूटर भी उससे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते थे। मस्तिष्क की अद्भुत क्षमताएं यह बतलाती हैं कि संसार में ज्ञान-नाम्नी चेतन सत्ता ही सबसे विलक्षण तत्व है उस पर ध्यान एकाग्र करके ही संसार की यथार्थता का अवगाहन किया जा सकता है। कबीर ने कभी कलम और स्याही नहीं छुई, ज्ञान स्वरूप की आराधना सह वह कवियों के कवि हो गये। होमर और सुकरात पश्चिम के दो महान लेखक और दार्शनिक जिन्होंने न जाने कितने काव्य और लेख लिखे इसे इतिहास की अद्भुत घटना ही कहेंगे कि उन्होंने न कहीं पढ़ा और न ही अपनी रचनाओं को लिखा। मस्तिष्क में ही बनाते और मस्तिष्क में ही लिख लेते। लम्बे से लम्बा पद वे जब चाहे वही अक्षर ज्यों का त्यों दुहरा देते जब कि दूसरे लोग उन्हें कागज पर लिख-लिखकर महीनों तक रटते तो भी अधिक से अधिक 50 प्रतिशत ही याद कर पाते।

हनावा होकीची जापान के मुसाशी प्रान्त का रहने वाला व्यक्ति सात वर्ष की आयु में अन्ध हो गया था। किन्तु उसने अपना जीवन उच्च कोटि के विद्वानों को इकट्ठा कर उन्हें पढ़ने में बिताया। उसने स्वयं से सुनकर पढ़ा था और अपनी बौद्धिक क्षमता को इतना प्रखर बनाया था कि 400000 हस्त लिपि की विषय सूची तैयार कर सकता था उसने एक ऐसी पुस्तक संकलित की जिसके 2820 खण्ड हैं ऐसी विशाल पुस्तक आज तक दुनिया में किसी ने भी नहीं लिखी। उसने वागाक्से में एक स्कूल भी खोला जिसमें जापानी साहित्य पढ़ाया करता था। कहते हैं वह अंधेरे में पढ़ सकता था, इस तरह उसने मस्तिष्कीय चेतना को प्रकाश-तत्व के रूप में सिद्ध कर दिया था।

मस्तिष्कीय क्षमताओं का अभ्यास द्वारा विकास किया जा सकता है—किन्तु मस्तिष्क इतना जटिल है कि उसके अनोखेपन उसकी बीमारियों को ठीक कर पाना विज्ञान के हाथ नहीं लग रहा है कुछ घटनायें अवश्य ऐसी घट जाती हैं जो अच्छे खासे विज्ञान-वेत्ताओं को भी हैरत में डाल देती हैं उदाहरण के लिये हंगरी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जिनका जन्म 1791 में हुआ श्रीकाउन्ट स्टवाअ जेचेनवी पागल हो गये। डाक्टरों को कोई भी इलाज, उपचार नजर न आया। किसी ने मजाक में कह दिया इन्हें शतरंज खेलने में लगा दो। एक युवक खोजा गया जो जेचेनवी के साथ शतरंज खेलने को राजी हो गया। 6 वर्ष तक बेचारा शतरंज खेला भी किन्तु इन 6 वर्षों में ही कुछ ऐसा क्रम-फेर हुआ कि जेचेनवी तो अच्छे हो गये पर वह युवक पागल हो गया और फिर कभी अच्छा नहीं हुआ। हवा में उड़कर पागल पन एक मस्तिष्क से दूसरे में कैसे चला गया वैज्ञानिक उस रहस्य को नहीं समझ सके तो उन्हें भी यही कहते बना—भगवान का अद्भुत खेल वही जानें मनुष्य उसे कहां तक समझ सकता है।

मस्तिष्क की अनौखी हलचलों का विश्लेषण अणु जैविकी—मोली क्यूलर बायोलाजी के आधार पर करते हुए स्वीडन की गोटन वर्ग यूनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी होल्गर हाइडेन इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मस्तिष्क को दक्ष बनाने वाले शिक्षण एवं चिन्तन कार्य कोशिकाओं में महत्वपूर्ण रासायनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ा देते हैं और वे अधिक सम्वेदनशील बनकर बुद्धिमत्ता का क्षेत्र विस्तार करती है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के डा. सेमुअल बार्नाडेस अपनी शोधों के आधार पर मस्तिष्क में काम करने वाली बिजली की अपेक्षा कोशिकाओं की रासायनिक स्थिति को अधिक श्रेय देते हैं। स्मृति का आधार वे उस अवयव को पोषण देने वाले प्रोटीनों की रासायनिक स्थिति को देते हैं। यह स्थिति घटती बढ़ती और बदलती रहती है।

मस्तिष्कीय विकास, मात्र उस शिक्षण पर निर्भर नहीं जो स्कूलों में या समीपवर्ती लोगों से मिलता है। वह जानकारी बढ़ाना मात्र है। बलिष्ठ मस्तिष्कों की विद्युत शक्ति का प्रवाह यदि दुर्बल मस्तिष्कों की ओर मुड़ जाये तो उनकी तीक्ष्णता में भारी परिवर्तन हो सकता है और उसका परिचय विशेष प्रोटीनों की मात्रा की बुद्धि के रूप में सहज ही देखा जा सकता है। मस्तिष्कीय पोषण के लिए सुविकसित चेतना सम्पन्न मनस्वी लोगों का सान्निध्य अत्यंत उपयोगी है उनकी बढ़ी-चढ़ी प्राण शक्ति दुर्बल मनःचेतना की अभाव पूर्ति कर सकती है। प्रयोगशालाओं में मामूली बिजली को कुछ विशेष कोष्ठकों में पहुंचा कर प्राणियों की प्रकृति कुछ समय के लिए बदलना सम्भव हो सकता है। प्रतिभाशाली लोगों का प्राण—दुर्बल मनःस्थिति को बदलने में स्थायी उपचार का प्रयोजन पूरा कर सकता है।

येल निवासी मस्तिष्क विज्ञानी डा. जोजे डेलगाडो ने अपनी प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क में बाहर से बिजली पहुंचा कर उसका कार्य केन्द्रों को उद्दीप्त एवं प्रसुप्त किया जा सकता है। तदनुसार उस प्राणी को इच्छित कार्य कराने और आज्ञा पालन के लिए विवश किया जा सकता है।

डा. जोजे ने अपने प्रयोगों की सार्वजनिक प्रदर्शनी करके दर्शकों को आश्चर्यचकित कर दिया। उनके हाथ में एक विद्युत संचालक था और कुछ प्राणियों की खोपड़ी पर अमुक स्थान एवं अमुक संख्या में इलैक्ट्रोड लगा रखे गये थे। इस प्रकार यंत्र और प्राणी के बीच रेडियो सम्पर्क स्थापित हुआ। प्रेरित सूचनाओं के अनुसार प्राणी ऐसे काम करने लगे जो उनकी सामान्य प्रवृत्ति के विपरीत था। नम्र प्राणी उद्धत हो उठे और उद्धत प्रकृति वाले पूर्ण शान्त होकर एक कोने में जा बैठे। सांड, बन्दर, कुत्ते, चूहे, बिल्ली आदि प्राणियों ने इस विद्युत संचार प्रणाली से प्रभावित होकर वे काम किये जिसकी आशा प्रदर्शन में उपस्थित जनता ने कभी भी नहीं की थी।

मनुष्यों पर भी यह प्रयोग किये गये हैं और उनकी इच्छा शक्ति ज्ञान शक्ति एवं क्रिया शक्ति पर नियन्त्रण करके अमुक प्रकार सोचने और अमुक प्रकार काम करने को उन्हें विवश कर दिया गया है। सम्मोहन क्रिया के वशीकरण में परिणति के लिए अब किसी व्यक्ति विशेष द्वारा किये गये प्रयोगों की अपेक्षा नहीं की जाती, यह कार्य इलेक्ट्रोनिक्स यंत्रों से ही सम्पन्न हो जाता है। अभी यह प्रयोग इसी सीमा तक सफल हुए हैं कि जब तक प्रयोग चलता रहे तब तक व्यक्ति वश वर्ती रहे पीड़ा अनुभव न करे अथवा अन्य प्रकार उससे अनुशासन पालन कराया जा सके। प्रयोग की पकड़ ढीली होते ही वह पुनः अपनी पिछली स्थिति में चला जाता है और अभ्यस्त स्तर के आचरण करने लगता है। तूलां विश्व विद्यालय के डा. राबर्ट हीथ ने ऐसा यंत्र बनाया है जिसकी सहायता से वह आवश्यकतानुसार अपने मस्तिष्क की अमुक कार्य क्षमता को एक सीमा तक स्वयं नियंत्रित कर सकता है।

शरीर व्यवस्था का नियन्त्रण केन्द्र

मस्तिष्क के निचले भाग में मटर के दाने के बराबर लटकी हुई पीयूष ग्रन्थि से निकलने वाले हारमोन गोनेडोट्रोफिक का ही कमान हैं कि वह साधारण किशोरों को नवयुवती के रूप में परिणत करने वाले सारे साधन अनायास ही जुटा देता है।

गोनेडोट्रोफिक रक्त में मिलकर अण्डाशय को जागृत करता है और उस जागृति के फलस्वरूप वहां एक नये हारमोन ‘एस्ट्रोजन’ की उत्पत्ति होने लगती है। एक दिन में उसकी मात्रा चीनी के दाने के हजारवें भाग की बराबर नगण्य जितनी होती है पर उतने से ही प्रजनन अवयवों का द्रुतगति से विकास होता है और प्रायः दो वर्ष पूर्व की किशोरी, युवती के सभी चिन्हों से सुसज्जित हो जाती है।

अण्डाशय यों प्रायः 4 लाख कोशिकाओं का बना होता है पर उसमें से 4—5 सौ ही विकसित होकर अण्ड बनता है। ग्यारह से लेकर चौदह वर्ष की आयु में क्रमशः एक-एक अण्ड विकसित होता है। उसके आधार पर प्रायः 28 वें दिन रजो धर्म होने लगता है। जो तीन से लेकर आठ दिन तक स्रवित होता रहता है। वाशिंगटन विश्व विद्यालय के डा. एडगर एलन तथा एडवर्ड ए. डौजी ने पीयूष ग्रन्थि के प्रभाव से अण्डाशय में उत्पन्न होने वाली ऐसी अनेक संवेदनाओं का पता लगाया है जो यौन आकांक्षाओं के उतार-चढ़ाव के लिए महत्वपूर्ण भूमिका उत्पन्न करती हैं। उनके प्रभाव से मस्तिष्क और प्रजनन अंगों में ऐसी उत्तेजना उत्पन्न होती है जिसके कारण यौन आकांक्षा में तीव्रता, मन्दता अथवा मध्यवर्ती स्थिति बनी रहती है। दोष अथवा श्रेय प्रजनन अंगों की संरचना को दिया जाता है पर इन मानसिक संवेदनाओं के पीछे वस्तुतः पीयूष ग्रन्थि का सूत्र संचालन ही काम करता है।

पीयूष ग्रन्थि का एक हारमोन है—प्रोलेक्टिव यह स्तनों को प्रभावित करता है उनका विस्तार करता है एवं दुग्ध उत्पादन प्रणाली को गतिशील बनाता है। इसकी न्यूनता रहे तो न तो स्तनों का विकास होगा और दुग्ध का उत्पादन भी स्वल्प ही होगा।

यदि पीयूष ग्रन्थि में थोड़ी सी खराबी रह जाय और एस्ट्रोन तथा प्रोजेस्टेरोन हारमोन समुचित मात्रा में न बने तो अण्ड का विकास न हो सकेगा और नारी वन्ध्या ही बनी रहेगी। गर्भाशय की स्थानीय खराबी से तो बहुत ही कम संख्या में सन्तान रहित रहती हैं वे खराबियां तो मामूली उपचार से ठीक हो जाती हैं पर पीयूष ग्रन्थि के किसी अंग के अविकसित रहने पर हारमोन उपचार ही सफल हो सकता है। नपुंसकता नर की हो या नारी की प्रधानतया पीयूष ग्रन्थि की खराबी के कारण ही होती है। जननेन्द्रिय की स्थानीय कमी वासना अथवा प्रजनन को अधिक प्रभावित नहीं करती। सन्तान के प्रति माता का प्यार क्यों कम या ज्यादा पाया जाता है इसका स्रोत भी पीयूष ग्रन्थि से स्रवित होने वाले प्रोलेक्टिन हारमोन में पाया गया है।

पिछले दिनों यौन संवेदना को मनःशास्त्रियों ने मनुष्य की प्रेरक शक्ति माना था और कहा था मनुष्य के व्यक्तित्व का उत्थान, पतन इसी केन्द्र से होता है। शूर, साहसी, कायर, निराश, प्रसन्न, दुखी, आदर्शवादी, ईश्वर भक्त, अपराधी, अविकसित स्तर का निर्माण इसी केन्द्र से होता है। पर अब नया सिद्धान्त कायम हुआ है कि हारमोन ही यौन संवेदनाओं के लिए उत्तरदायी है। अब सबसे जटिल प्रश्न यह उत्पन्न हुआ है कि यह हारमोन किससे नियन्त्रित होते हैं उनके स्रावों में उतार-चढ़ाव कौन लाता है। इस अनबूझ पहेली का समाधान शरीर और मस्तिष्क की समस्त संरचना की उलट पुलट कर डालने पर भी खोजा न जा सकेगा। इसका आधार ढूंढ़ने पर वह जीव-चेतना के साथ जुड़े हुए जन्म जन्मान्तरों के संग्रहीत संस्कारों एवं उसकी प्रबल संकल्प शक्ति में ही मिलेगा। जीव सत्ता का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने में अभी जो हिचकिचाहट विज्ञान के क्षेत्र में चल रही है उस पर से अगले दिनों पर्दा उठने ही वाला है। जीव-चेतना का, अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और उसकी भावनात्मक, चिन्तनात्मक, अभ्यस्त प्रवृत्तियों की सम्पदा से सुसज्जित होना जब मान लिया जायगा तो इस प्रश्न का समाधान होगा कि हारमोन-ग्रन्थियों से निकलने वाले अत्यन्त स्वल्प किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली स्रावों की न्यूनाधिकता जो विभिन्न व्यक्तियों में पाई जाती है उसका कारण क्या है? और उनमें कुछ परिवर्तन करना हो तो उसके लिए ताला खोलने की चाबी कहां मिलेगी। जीवन का स्वतन्त्र अस्तित्व शरीर में ऊपर भी विद्यमान है और उसकी अपनी उपार्जित विभूतियां भी रहती हैं यह मान लेने पर हारमोन अन्वेषण में जो गतिरोध इन दिनों उत्पन्न हो गया है इस प्रश्नवाचक चिन्ह का सहज समाधान निकल आवेगा।

शरीर एक कोशा समाज

बहुत दिन तक पृथ्वी में केवल विवेक और ज्ञानशून्य पशुओं और जीव-जन्तुओं का बाहुल्य रहा। इनमें शक्ति थी, ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेंद्रियां थीं, किन्तु विवेक और विचार नहीं था इसलिये यह सबके सब अपनी-अपनी मनमानी करते थे। एक दूसरे को मार कर खा जाते थे। जो अधिक शक्तिशाली होता था वही समाज का मुखिया होता था और उसकी अन्तिम इच्छा ही न्याय होती थी। शक्तिशाली किन्तु विचारहीन के हाथ सत्ता होने से उसका दुरुपयोग होना स्वाभाविक था, उससे पशु-प्रवृत्ति वाले संसार में सर्वत्र अशान्ति छा गई। तब भगवान् ने मनुष्य शरीर पैदा किया उसे बुद्धि और विचार भी दिये और यह विश्वास किया कि अब संसार में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की जा सकेगी।

मनुष्य पशु-योनियों से विकसित हुआ है इसलिये पूर्व संस्कार एवं पाशविक वृत्तियां भी निश्चित रूप से भड़की और उनकी पूर्ति का औचित्य ठहराने के लिये उसने उपयोगितावाद जैसे भ्रान्त सिद्धांत का आश्रय लिया। यह देखकर ही ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था बनाई थी कि मनुष्य इन पशुप्रवृत्तियों से अपने आपको विलग माने और यह अनुभव करे कि अन्य जीवों की तुलना में उसे अधिक साधन और सुविधायें मिली हैं यह आत्मकल्याण और प्राणिमात्र की व्यवस्था के लिये मिली हैं। अपनी क्षमताओं का उपयोग इस तरह करना चाहिये जिससे अपना विकास भी हो सकता हो और सामाजिक शान्ति एवं सुव्यवस्था भी अक्षुण्ण रह सकती हो। वर्णाश्रम संस्कृति की स्थापना मनुष्य-समाज को उपयोगितावाद जैसी भ्रान्त धारणा से बचाने का ही एक वैज्ञानिक उपाय था। यह व्यवस्था ईश्वरीय आदेश की तरह है। विश्व-शान्ति के लिये उसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय भी नहीं है।

सहयोग और सामूहिकता को ईश्वरीय आदेश या आत्मा की आवश्यकता मानने का कारण हमारे सामने स्पष्टतया हमारा शरीर है। भगवान् बोलता नहीं, लिख कर भी कुछ बात समझाता नहीं, पर उपयोगिता के विपरीत उसने अपने आदेशों का अनुबन्ध अवश्य किया है। मनुष्य-शरीर की रचना और उनकी क्रियाप्रणाली (एनोटामी एण्ड फिजियोलाजी) वह उत्तर है जिससे उपयोगितावाद का खंडन किया जा सकता है।

शरीर एक समाज है। ऐसा समाज जिसमें अनेक गुण, प्रकृति, कर्म एवं स्वभाव वाले लोग निवास करते हैं। यों पृथ्वी एक है, पर उसमें रहने वाले जितने भी मनुष्य हैं वह सब अलग-अलग प्रकृति और स्वभाव के हैं। ठीक उसी प्रकार शरीर एक है, पर उसमें कई अरब जीव-कोष (सेल्स) पाये जाते हैं, वह सब के सब अनेक तरह के गुण, कर्म और स्वभाव वाले हैं तो भी शरीर जगत के सारे प्राणी और उनके समाज परस्पर इस तरह व्यवहार करते हैं कि शरीर में कहीं भी किसी तरह का गतिरोध, अव्यवस्था एवं कलह उत्पन्न नहीं होती। जब तक सारे जीव-कोष सहयोग और सामूहिकता के नियम का पालन करते रहते हैं, सारा शरीर प्रसन्नता पूर्वक अपने कार्य में जुटा रहता है। इस व्यवस्था में उपयोगितावाद को प्रश्रय मिल गया होता तो मनुष्य का एक महीने जीवित रहना कठिन हो जाता। जिस स्थान के कोष सशक्त होते दूसरे कमजोर कोषों को खाते चले जाते और मनुष्य शरीर कुछ क्षणों में ही धराशायी हो जाता।

मनुष्य में इतना विवेक नहीं कि वह यह अनुभव करे कि हम एक ही पितामह की सन्तान परस्पर भाई-भाई हैं और इसलिये हम सजातीय हैं। जीव-कोष बताते हैं कि अनेक समाज, संस्कृति और राष्ट्रों में विभक्त मनुष्य दर असल एक ही माता प्रकृति और पिता परमात्मा के पुत्र हैं। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया गया होता तो परस्पर उसी तरह का प्रेम, स्नेह, सहयोग, सौजन्य, उदारता, बुद्धिमत्ता, दया, करुणा, ममता, समता और कर्त्तव्य भावना का विकास हुआ होता जिस तरह मनुष्य-शरीर में छोटे-छोटे कोष (सेल्स) व्यवहार करते और शरीर समाज की व्यवस्था को सन्तुलित बनाये रखते हैं। यदि विश्व-शान्ति, समृद्धि और कल्याण की भावना को जीवित रखना हो तो हमें उन्हीं आदर्शों का पालन करना होगा।

मनुष्य-शरीर के सभी कोष चाहे वह पैर में हों या पेट में और मुख में एक कोष से पैदा हुए हैं। प्रारम्भ में स्त्री के ‘ओवम’ में एक ही जीव-कोष (स्पर्म) प्रविष्ट हुआ था उसी से अनेक कोषों वाला शरीर अस्तित्व में आया था। शरीर में जितने कोष हैं वह सब अपने को भाई-भाई मानते हैं और उनके जितने भी समाज बने हैं से परस्पर सहयोग, सहानुभूति, दया करुणा, उदारता का पालन करते हैं।

शरीर का कोई भी कोष बिना खाद्य के जीवित नहीं रह सकता। ऑक्सीजन ही वह खाद्य है जो रक्त के द्वारा शरीर के सम्पूर्ण भागों में पहुंचता और प्राण-संचार करता है। रक्त पैदा करना, सफाई करना और संग्रह करना हृदय का काम है उसके लिये वह जीवन भर क्रियाशील रहता है। हृदय एक क्षण भी रुकता नहीं। उदार मनुष्य उसी तरह एक क्षण भी विश्राम किये बिना सोते-जागते हृदय के समान तप करके अपनी शक्ति बढ़ाते रहते हैं और उस संचित शक्ति या तप से सारे समाज को जीवन-दान देते रहते हैं। यदि उपयोगितावाद का सिद्धान्त सच रहा होता तो हृदय अपने रक्त की एक बूंद भी औरों को न देता। अपने लिये तो वह बहुत थोड़ा लेता है शेष सारा का सारा समाज को दें देता है इसलिये हृदय बड़ा है, पूज्य है, सम्माननीय है। यदि वह इस तरह आत्म-त्याग न करता तो शरीर कैसे जिन्दा रहता?

शरीर रचना शास्त्र (एनाटामी) का एक बहुश्रुत सिद्धान्त है—‘‘एनक्सिया आफ ब्रेन’’ जिसका अर्थ है यदि मनुष्य को 3 मिनट तक रक्त न मिले तो उसका तुरन्त अन्त हो जाये। मस्तिष्क के मर जाने का अर्थ है शरीर का तर जाना। उसी प्रकार मांस पेशियों को रक्त न मिले तो वह मर (गैंगरीन) जाती हैं। कारोनरी आट्रोज को रक्त न मिले तो दिल का दौरा आ जाता है, रेटिनल आट्रोज को रक्त न पहुंचे तो दीखना बन्द हो जाता है। आंतें, जिगर, फेफड़े, मांस पेशियां शरीर का कोई ऐसा हिस्सा नहीं जिसे रक्त का उचित वितरण न होता हो। इससे सिद्ध होता है कि साधनों का एक स्थान पर संग्रह (स्टोर) नहीं होना चाहिये वरन् उन्हें क्रियाशील रहना चाहिये। सामाजिक जीवन में जहां भी साधनों का उदारतापूर्वक वितरण होता रहता है वहां व्यवस्था रहती है, शान्ति और प्रसन्नता बनी रहती है। पर जहां ऐसा नहीं होता किसी स्थान को साधनों का मिलना बन्द कर दिया जाता है तो शरीर के समान उसका दुष्प्रभाव सारी मनुष्य जाति को भुगतना पड़ता है।

साधनों का वितरण समान रूप से नहीं किया जा सकता। आवश्यकता और कार्य का स्वरूप देखना पड़ता है। जो ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य करते हैं उन्हें अधिक अधिकार, साधन और सुविधायें देनी ही पड़ती हैं, उनकी तुलना में जो कम महत्व का स्थूल कार्य करते हैं। शरीर में ज्ञान का, चेतना का महत्व सबसे अधिक है। व्यवस्थापक ही न रहे तो व्यवस्था कहां रहेगी? मकान मालिक ही न हो तो मकान कहां सुरक्षित रह सकता है? व्यवस्थापक को, मकान मालिक को अधिक महत्व देने की तरह ही शरीर में ज्ञान वाले भाग की भी अधिक देख-रेख की आवश्यकता है। शरीर में यह व्यवस्था है। हृदय से बाईं ओर (लेफ्ट वैन्ट्रिकिल) सबसे बड़ी धमनी (एओर्टा) निकलती है और सबसे शुद्ध रक्त का सबसे शुद्ध भाग कैरोटेड एवं इनामिनेटेड धमनी द्वारा होकर बरटेबरल आर्ट्रीज में पहुंचता है। यहां से सेरीब्रल आर्ट्रीज में वह शुद्ध रक्त पहुंच कर सारे शरीर को पोषण प्रदान करता है। मस्तिष्क में जितना शुद्ध रक्त पहुंचता रहता है उतना ही शरीर निषेधात्मक आवेश (निगेटिव इम्पल्सेज) जैसे क्रोध, चिड़चिड़ापन, भय, आतुरता, आलस्य से बचा रहता है और प्रसन्नता एवं दीर्घ जीवन बना रहता है। इससे यह पता चलता है कि जिस समाज में उन बुद्धिजीवियों को, जो लोगों को सद्ज्ञान और सत्कर्मों की प्रेरणा देते रहते हैं, पर्याप्त पोषण मिलता रहता है, वहां सुख और शान्ति बनी रहती है। जीवन और प्राण बना रहता है।

समाज की सुरक्षा का प्रश्न द्वितीय है। पोषण अनिवार्य रूप से मिले पर समाज को बाहरी आक्रमणों से बचाना भी आवश्यक है। ऐसे वर्ग को जो शान्ति और सुव्यवस्था की रक्षा करते हैं क्षत्रिय कहते हैं और उन्हें द्वितीय श्रेणी का शुद्ध रक्त दिया जाता है। हाथ शरीर की रक्षा करते हैं उन्हें अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक सक्रिय रहना पड़ता है, यह समझकर ही हृदय उन्हें सबक्बेरियन आर्ट्रीज द्वारा द्वितीय श्रेणी का रक्त प्रदान करता है हाथ शरीर की रक्षा करते हैं उन्हें अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक सक्रिय रहना पड़ता है यह समझकर ही हृदय उन्हें सवक्लेरियन आर्ट्रीज द्वारा द्वितीय श्रेणी का रक्त प्रदान करता है। उसमें भेद-भाव नहीं आवश्यकता को ही प्राथमिकता दी गई है। तीसरे नम्बर पर शरीर के वे निचले भाग पेट, पैर आदि आते हैं इन्हें डिसेग्डिग एओर्टा से रक्त पहुंचाया जाता है उन्हें आवश्यकतानुसार मात्रा तो अधिक दी जाती है, पर उसकी शुद्धता दोनों से कम होती है।

समाज में एक शूद्र वर्ग भी होता है। शूद्र का अर्थ कोई जाति नहीं। विभाग सभी कर्मानुसार हैं। ब्राह्मण वह हैं जो बुद्धिजीवी ही नहीं सच्चरित्र और परमार्थी भी हैं। क्षत्रिय वह है जो समाज की बुरे तत्वों से रक्षा करता है जो अपने स्वार्थों को तो थोड़ा अधिक देखता है पर समाज के पोषण का कार्य ईमानदारी से करता है। शूद्र वह है जो सद्गुण रहित है। यद्यपि वह हानिकारक है पर त्याज नहीं। उसका भी उपयोग करना चाहिये यह शिक्षा हमें अपने शरीर रूपी समाज से मिलती है।

सारे शरीर में प्रयोग के बाद रक्त में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है लाज्मा वही बना रहता है अर्थात् श्वेताणु (व्हाइट ब्लड कार्पसल्स) एवं लाल-अणु (रेड ब्लड कार्पसल्स) की मात्रा वही रहती है, केवल शुद्धता नष्ट हो जाती है। ऐसे रक्त को शिराओं द्वारा लौटा कर हृदय में पहुंचाने की व्यवस्था की गई है। शिराओं में कुछ बाल्व लगे होते हैं वह रक्त को नीचे नहीं जाने देते दूसरे फेफड़ों में से सांस निकलने के बाद वायु-शून्यता (वैकुअम) उत्पन्न होने से भी रक्त ऊपर की ओर दौड़ने लगता है। मांसपेशियों के दबाव के द्वारा भी अशुद्ध रक्त हृदय की ओर बढ़ता है। तात्पर्य यह है कि समाज में फैल रही गन्दगी और कुरीति का सब तरफ से ऐसा सामना करना चाहिये जिससे उसे शुद्ध और उपयोगी बनाया जा सके। ऐसा नहीं होता तो समाज विश्रृंखलित होने लगते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर में अशुद्ध रक्त न लौटे तो बीमारी (कन्जस्टिव कार्डियक फेलर) हो जाती है और हाथ-पैर में सूजन, फेफड़ों में बलगम इकट्ठा हो जाता है। दिल बड़ा (डाइलेटेड) और कमजोर हो जाता है।

साधनों का अभेद वितरण, आवश्यकतानुसार वितरण और समाज में गुणों की दृष्टि से शुद्धीकरण का क्रम जहां शरीर की भांति चलता रहता है वहां स्थिर, शान्ति और सुव्यवस्था बनी रहती है। शरीर उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसी आधार पर ही ऋषियों ने वर्णाश्रम संस्कृति का ढांचा तैयार किया था। सारा समाज अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन किस प्रकार करे इसका निर्धारण भी उन्होंने शरीर के विभिन्न अवयवों की कार्य प्रणाली का अध्ययन करके किया था। उसमें भी भेदभाव का नाम नहीं है। सामाजिक अवस्था को ही वहां भी प्रमुख स्थान दिया गया है। साम्यवाद और उपयोगितावाद का यह मिला-जुला रूप ही इस पृथ्वी में स्थायी शान्ति का आधार हो सकता है। इसमें व्यक्ति को उदार और त्यागी होना पड़ता है सामाजिक उपयोगिता को ध्यान में रखकर सर्व हित परायण कर्त्तव्यपरायण, होना पड़ता है।
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