जड़ के भीतर विवेकवान चेतन

प्रकृति की प्रत्येक रचना परिपूर्ण

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प्रकृति ने प्रत्येक जीव को उसकी दुनिया के हिसाब से परिपूर्ण बनाया है। उसे देखकर मनुष्य यह विश्वास करने को विवश होता है कि हर चेतना का निर्माण किसी उच्च चेतना के गहन चिन्तन-मनन के बाद होता है। लीमर जीव जब अपने शरीर की सफाई करता है तो उसके बहुत से बाल दांतों में फंस जाते हैं। उस बेचारे को जिन्दगी भर इस परेशानी का सामना करना पड़ता यदि रचयिता ने उसकी जीभ के नीचे एक दूसरी छोटी कंघी नुमा जीभ नहीं लगाई होती। इसकी सहायता से वह फंसे हुए बालों को निकाल लेता है, यदि इस सहायक जीभ को नहीं लगाया गया होता तो बेचारे का मुंह न जाने कब का सड़ जाता।

माना कि मनुष्य की रचना परमात्मा की पूर्ण विकसित कला है, किन्तु यदि सांसारिक जीवन की सुख सुविधाएं ही अभीष्ट है तो उस दृष्टि से अन्य जीवों को भी छोटा नहीं कहा जा सकता। घोंघे को अपना आहार खुरच का खाना होता है इसलिए उसकी जीभ में प्रकृति ने दांत लगाये हैं इन दांतों की संख्या 12 सौ से 15000 तक होती है। अनातीदी जाति के पक्षियों में प्रकृति ने उनके पंखों के नीचे कुछ ऐसी ग्रन्थियां बनाई हैं जिनमें तेल निकलता रहता है उसके कारण ही उनके पंखों का विकास होता है तथा वे चिकने और स्वस्थ बने रहते हैं। एक प्रयोग में एक बतख की तेल उत्पादक ग्रन्थि को आपरेशन करके निकाल दिया गया तो उसके पंख कुछ ही दिनों में झड़ गये। इसका यह अर्थ हुआ कि प्रकृति स्थानीय परिस्थितियों में प्रत्येक जीव के अनुरूप संरचना का ध्यान पहले से पहले रखती है इस दृष्टि से मनुष्य निर्माण पर गर्व प्रकृति या परमात्मा करे तब तो उचित भी है मनुष्य का अहंकार करना तो उसकी तुच्छता ही है। 100 फुट लम्बी ह्वेल का कुल वजन 125 टन के लगभग होता है इसके शरीर में 35 टन चर्बी और 70 टन मांस होता है यदि उसे हाथियों से तोला जाये तो दूसरे पलड़े पर 20 से 25 हाथी तक चढ़ाने पड़ जायें। अकेले उसकी जीभ 3 टन और 2 मन वजन का दिल होता है जो 8 टन खून की नियमित सफाई में दिन-रात लगा रहता है उसके लिए उसके फेफड़े एक बार में 14000 लीटर वायु खींचते हैं। नवजात ह्वेल शिशु का ही वजन 6 टन होता है और उसकी वृद्धि 1 कुन्टल प्रतिदिन के हिसाब से होती है। कोई मनुष्य इतना बड़ा विकास स्वेच्छा से कर सकता है क्या? व्यायाम से कोई किंगकांग, दारासिंह और चन्दगीराम हो सकता है, पर ह्वेल बनाने का काम परमात्मा का ही हो सकता है। अतएव सर्वोपरि कलाकार के रूप में वन्दनीय वही मनुष्य नहीं।

बीटल-कीटक की आंखों पर प्रकृति ने एक चश्मा भी चढ़ा दिया है ऊपर की आंखों से वह हवा में देखता है किन्तु जब यह पानी में चला जाता है तब नीचे की आंखों से देखने लगता है। हम समझते हैं हमारे पास ही इतनी बुद्धि है कि लेंस लगा कर आंखों की बीमारी ठीक करलें, पर प्रत्येक परिस्थिति के अनुरूप साधन इकट्ठे करने हों तो इतने विशालकाय संसाधन आवश्यक होंगे कि उनके वजन से दब कर ही मनुष्य मर जाये। अपनी परिपूर्णता बाहर नहीं अन्दर खोजी जाये तब तो कोई बात है। बात ही नहीं मनुष्य के भीतर जो सर्वांगपूर्ण सृष्टि भरी हुई है उसे खोजा सके तो मनुष्य को बाहर कुछ पाने की आकांक्षा ही न रहे।

कुछ भालुओं को ताड़ी के नशे की आदत पड़ जाती है तो उनको बार-बार ताड़ी के पेड़ों की तरफ जाना पड़ता है। ताड़ी पीकर भालू झूमने लगते हैं। उनके पांव लड़खड़ाने लगते हैं शिकारी इस स्थिति का लाभ उठाकर उसी प्रकार जा धमकते हैं जिस तरह नशेबाज मनुष्य को बीमारियां दबोच लेती हैं। भालू का शिकार भी इस स्थिति में अत्यन्त सुगम हो जाता है। अतएव वे इस ताक में रहते हैं कि भालू किस ताड़ में लगे। मिट्टी के बर्तन को फोड़कर वे ताड़ी पी जाते हैं। मनुष्य को भी लगता है उसी तरह बाहर खोजने का नशा हो गया है। उससे सम्भव है कुछ समय की मस्ती तो हाथ लग जाये, पर शिकारी के हाथों पड़ जाने वाले भालू की तरह अन्ततः मनुष्य भी दुर्दैव का ही ग्राम बनता है। तब फिर उसकी शोभा क्या रही?

मनुष्य ने बिजली बनाली, पर अपने भीतर की बिजली को तो वह जान भी नहीं सका। ह्वेल मछली का तो नाम ही ‘‘इलेक्ट्रिक ह्वेल’’ जिसके नाम से ही उसके विद्युत जनरेटर होने का पता चलता है। इस विद्युत शक्ति का उपयोग वह शिकार करने में करती है। वह इसके एक झटके से तैरते हुए घोड़े को भी गिरा देती है।

‘‘इलेक्ट्रिक रे’’ या ‘‘टारपीड़ो फिश’’ का विद्युत भाग पीठ पर होता है इसमें कितनी अधिक विद्युत शक्ति होती है, इस सम्बन्ध में जेराल्ड ड्यूरेल नामक जीवविज्ञानी का एक संस्मरण उल्लेखनीय है वे यूनान की एक घटना के हवाले से बताते हैं कि एक लड़का त्रिशूल से मछलियों का शिकार किया करता था, एक दिन उसने अपना निशाना इस मछली को बनाया किन्तु त्रिशूल ने जैसे ही मछली का स्पर्श किया इतना जबर्दस्त झटका उसे लगा कि एक भयानक आवाज के साथ वह पानी में जा गिरा। उसे इतना जबर्दस्त विद्युत-शाक लगा था कि घण्टों बाद उसे होश आया।

सात-आठ फुट लम्बा 2।।-3 मन वजन का शुतुरमुर्ग संकट के समय बालू में सिर घुसेड़ लेने की मूर्खता के लिए ही विख्यात नहीं तेज दौड़ने की गति के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी दौड़ने की गति प्रायः 60 मील प्रति घण्टे की है। इसकी चोंच का प्रहार इतना तीक्ष्ण होता है कि लोहे की चादर में भी छेद हो जाता है। इसकी पाचन शक्ति भी ऐसी होती है कि कठोर से कठोर वस्तु भी खाकर पचा लेता है। लगता है यह बीमारी मनुष्य को भी है तभी तो कुछ भी इकट्ठा करते रहने की तृष्णा उसे अहर्निशि पीड़ित किये रहती है। वास्तव में यह शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छिपाने की तरह की मूर्खता है जब कि मृत्यु निरन्तर पास आती रहती है उसके लिए जो पूर्व तैयारी की जा सकती थी मूर्खतावश मनुष्य उससे वंचित बना रहता है।

संरचना की दृष्टि से तो एक मक्खी भी मनुष्य से कम रहस्यपूर्ण नहीं। उसे देखकर कलाकार की कला पर आश्चर्य होता है। उसके पांच में एक विशेष प्रकार का स्राव होता है। मक्खी जहां बैठी यह स्राव उस स्थान पर चिपका और उस स्थान की भोजन सामग्री को पैरों से ही चूस कर सारे शरीर में पहुंचा दिया। उसकी आंखें प्रकृति की विलक्षण रचना है। इस पर भी उसकी लगभग 80000 जातियां पृथ्वी पर तब से विद्यमान चली आ रही हैं जब मनुष्य भी नहीं आया था। इसके पंख अत्यधिक कुशल सन्तुलन तो बनाये रखते ही हैं वह उनसे ही इन्द्रियों की बोध क्षमता का लाभ लेती है, कोई भी यान्त्रिक यन्त्र ऐसा नहीं बन पाया जो जिरास्कोप का भी काम कर सके हिचकोले भी ले सके। उसके पंख सीधे मस्तिष्क के ज्ञान तन्तुओं से सम्बद्ध होते हैं जिससे वह तुरन्त परिस्थिति के अनुरूप इनसे काम ले लेती है।

जीवन का नाम यदि पेट और प्रजनन ही हो तो मक्खी बनने में ज्यादा लाभ है। मादा मक्खी एक ही बार में 125 से लेकर पांच हजार तक अण्डे देती है। मनुष्य के शरीर का विकास तो लम्बी अवधि के बाद होता है, पर मक्खी के शरीर में ऐसा न जाने क्या तन्त्र है कि यदि उसे 5 माह की भी जिन्दगी मिल जाये तो वह इसी अवधि में पांच खरब बच्चे पैदा कर देगी। यही नहीं यदि एक ही जोड़ा पितामह बनने तक जीवित बच जाये तो वह इतनी सन्तान पैदा कर देगा जिससे 6 माह में ही सारी पृथ्वी में 50 फुट ऊंचा विशालतम ढेर लग जायेगा। यह तो उसकी यह क्षुद्र प्रवृत्ति ही है कि वह जितनी वंश वृद्धि करती है काल उतना ही उसे चबेना बना डालता है और यह बताता रहता है कि जो भी जीव पृथ्वी का भार बढ़ाने का प्रयास करेगा उसका भी अन्त इन्हीं की तरह शत्रुओं से, अकाल मृत्यु और रोक-शोक से घिरा हुआ रहेगा उसे अन्यत्र कुछ सोचने-विचारने, प्रगति करने का तो अवसर ही मिलता कहां है?

मक्खियां धरती के लिये ही नहीं हर जीव के लिये भार हैं। उन्हें स्थान नहीं मिलता तो कुछ हवा में ही अण्डे दें देती हैं। कुछ भेड़ों के थूथन पर अण्डे देती हैं। कुछ उड़ती हुई मधुमक्खियों की पीठ पर अण्डे देकर अपना प्रयोग तो पूरा कर लेती हैं, पर यह प्रयोग अन्ततः उसके ही वंश नाश का कारण बनते हैं। अधिक प्रजनन कम आयु का सिद्धान्त चाहे मक्खी हो या मनुष्य सर्वत्र एक-सा है। मक्खी का बच्चा 6 दिन में ही विकसित हो जाता है और 10 दिन में ही मर जाता है। कुछ ही मक्खियां ज्यादा दिन जीती हैं, पर उनकी प्रजनन क्षमता उतनी ही कम होगी। इतनी वंश वृद्धि आखिर जियेगी तो प्रकृति के सीमित साधनों को नष्ट करके ही जियेगी। कनाडा की ‘‘पाइन-सा’’ मक्खियां प्रति वर्ष हजारों एकड़ भूमि की उपज हजम कर जाती हैं विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार मुर्गियों के विनाश का मूल कारण यह मक्खी ही है जिसके छोटे-से पंख में एक लाख से अधिक रोग कीटाणु होते हैं। संख्या का गन्दगी से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है, गन्दगी का बीमारी से। मनुष्य जीवन का वर्तमान लेखा-जोखा उसी का नमूना है, यदि यह क्रम न रुके तो अगले दिनों हर मनुष्य एक लाख विषाणुओं की प्रयोगशाला बन जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। आज तो मक्खी प्रति वर्ष हजारों मनुष्यों को अंधा कर देती है तब मनुष्य मनुष्य को ही जीवित खाने लग सकता है। मनुष्य स्वयं बढ़ सकता है आखिर पृथ्वी तो नहीं बढ़ सकती, साधन तो उस अनुपात का साथ नहीं दें सकते।

यदि यह विवेक न हो तो मनुष्य उतना ही उपहासास्पद है जितना सुरीनाम टैड। उसकी अण्डे देने और उनको सेने की क्रिया बहुत ही विलक्षण होती है—मादा अपने अण्डे अपनी पीठ पर डालती जाती है। अण्डा खाल में कुछ इस तरह धंस जाता है कि ऊपर एक और खोल ढक्कन की तरह चढ़ जाता है इसी तरह सारे अण्डे पीठ में ही पकते रहते हैं। विकसित होने पर जब ये बच्चे फुदक-फुदक बाहर निकलते हैं तो किसी नीहारिका के विस्फोट से बनने वाले ब्रह्माण्डों की कल्पना साकार हो उठती है। यह बच्चे थोड़े ही समय में स्वेच्छाचारी जीवन जीते और मनुष्य को यह बताते हैं कि यदि प्रजनन उद्देश्यपूर्ण न हुआ तो वह मेरी तरह भार ही होगा।

उल्लू जैसा मूर्ख समझा जाने वाला पक्षी कितनी विलक्षणताओं से परिपूर्ण है उसकी कल्पना करते ही प्रकृति की सचेतन कलाकारिता पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। कहते हैं कि उल्लू रात का राजा होता है। वस्तुतः उसे रात में दिखाई नहीं देता। इस कमी की पूर्ति के लिये प्रकृति ने उसे ऐसे कान दिये हैं जिनमें एक विचित्र ढक्कन लगा होता है यह पूरी तरह कान को ढकता नहीं। जब कोई ध्वनि उल्लू के पास आती है तो पहले उसे वह ध्वनि एक कान से सुनाई देती है पीछे कुछ क्षणों के बाद दूसरे से। बस श्रवण के इस अन्तर को ही वल फटाफट गणित में बदल कर यह पता लगा लेता है कि आवाज किस दिशा से कितनी दूर से आई है। मनुष्य जोकि प्रकृति का परिपूर्ण प्राणी माना जाता है उसे भी इतने सम्वेदनशील कान न मिलने का दुःख हो तो कुछ आश्चर्य नहीं जिनसे वह और नहीं तो पृथ्वी के घूर्णन की, ग्रहों के चलने और सौर घोष जैसी ध्वनियां तो सुन ही लेता, यदि ऐसा हो सका होता तो निःसन्देह उसके चिन्तन और दृष्टिकोण में आज जो संकीर्णता भरी हुई है वह नहीं ही होती।

सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री जान एच. टाड ने एक बार मछलियों पर एक प्रयोग किया। मछलियां एक नियत समय पर अपने सामान्य निवास से चलकर किसी विशेष स्थान में जाकर अण्डे देती हैं। विकसित होने के बाद उनके बच्चे स्वयं ही अपने माता-पिता की जन्म भूमि को लौट आते हैं, वे किस बौद्धिक सूझ-बूझ और अन्तःप्रेरणा से ऐसा करती हैं यह जानने के लिये ही यह प्रयोग किया गया था। प्रयोग के समय जहां मछलियां थीं उस स्थान को घेर दिया गया और उस स्थान का सम्बन्ध एक कुंए से जोड़ दिया गया ऐसा करने पर भी वे मछलियां कुएं की ओर नहीं गईं, अपितु उस रासायनिक संकेत के सहारे ही समुद्री धारा में बढ़ने लगीं जिधर उन्हें अण्डे देने जाना होता है। अपने स्थान पर लौटने या नये स्थान जाने के अतिरिक्त भी मछलियों की एक रासायनिक भाषा होती है जिससे वे सजातियों को सामाजिक व्यवस्था की जानकारी देती रहती हैं।

जन समुदाय को कोई चेतावनी या सूचना देनी हो तो ढोल पीट कर मुनादी की प्रथा प्रचलित है। कदाचित कोई दीमकों के सूक्ष्म जीवन पर दृष्टि डाले तो उसे यह जानकर आश्चर्य हुए बिना न रहेगा कि यह परम्परा उनमें भी पाई जाती है। सैनिक दीमक को जब किसी शत्रु का पता चलता है तो वे एक विशेष ध्वनि से अपने कुनबे को संकेत कर देते हैं। बात ही बात में सारे दीमक नगर को सूचना हो जाती है और वे सब के सब अपना माल, असबाब बांध कर दूसरे आश्रय के लिये चल पड़ते हैं।

विवेक बुद्धि मिल जाने पर मनुष्य चाहे तो गर्व कर सकता है, पर इतना होने पर भी जब वह जीवन की गुत्थियां नहीं सुलझा पाता तो उसकी इस बुद्धिमत्ता पर तरस आता है।

कला-कौशल और अपनी बौद्धिक सामर्थ्य से आज मनुष्य ने धरती, वायु, आकाश सर्वत्र अपनी कीर्ति पताका फहरा दी है किन्तु यदि इतने मात्र को ही श्रेष्ठता का मापदण्ड मान लिया जाये तब तो पशु पक्षी इससे इक्कीस ही बैठेंगे उन्नीस नहीं। आज मनुष्य ने तरह-तरह के विमान विकसित कर लिये, पर जीवों को सदृश क्षमताएं अभी भी उसे उपलब्ध नहीं। उड़ने को अमेरिका की कुछ गिलहरियां भी उड़ लेती हैं। मलाया, सिंगापुर की छिपकली और सांप उड़ानों के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। एक समय था जब टेरोडक्टाइल नाम विशालकाय सरीसृप उन्मुक्त आकाश में उड़ते थे तब तक तो मानवी सभ्यता अस्तित्व में भी नहीं आई थी। इस तरह उड़ान का श्रेय राइट बन्धुओं की नहीं अपने इन छोटे कहे जाने वाले भाइयों को ही देना पड़ेगा।

‘‘एक्सोसिटायडी’’ मछलियां मनुष्य की तरह पारिवारिक जीवन बिताती हैं। ये सदैव समूह में रहती, एक दूसरे के हितों का ध्यान रखतीं, प्रसव जैसी कठिन परिस्थिति में एक दूसरे की सहायता करती हैं यही नहीं यह अपने बच्चों को पेड़ों पर चढ़ा कर उन्हें विधिवत् उड़ना भी सिखाती हैं। इस तरह यह समूचा समुदाय उड़न-दस्तों की तरह ही जीवनयापन करता है। कुछ मछलियों को तो प्रकृति ने पीठ ही नहीं पेट में भी पंख अर्थात् चार-चार डैने प्रदान किये हैं इनमें पेलभिक मछली अत्यन्त कुशल उड़ाका होती है। यह अपने पीठ के कन्धों से ‘‘ग्लाइडर’’ का काम लेती है और किसी विशेष स्थान में ठहरना चाहें तो पंखों को लहराती हुई ठहर भी जाती हैं इतनी उन्नत किस्म तो मानवीय यानों ने भी अभी नहीं पाई। मनुष्य ने तो उड़ान के तरीके लगता है ‘‘हैचेट’’ तथा ‘‘वटफ्लाई’’ मछलियों के ही करतब देखकर सीखे हैं। जिनके सहारे वे पहले पानी में ही प्रचुर वेग लेकर ऊपर उड़ जाती हैं। जावा में एक मेढ़क पाया जाता है यह भी उड़ता है। ‘‘गरनार्ड’’ मछली इन सबसे उन्नत किस्म की उड़ाका होती है ये अपने पंखों के सहारे पानी में तैर सकती है सतह पर संतरण भी कर सकती हैं और उड़ तो सकती हैं। उड़ान में तो मनुष्य मक्खी से भी हार मानता है, सिफेनेमिया जाति की मक्खी 816 मील प्रति घन्टा की भयंकर गति से उड़ने में सक्षम है।

प्रगति और आत्म-रक्षा के लिए जड़ता का आश्रय एक दिन जीवन चेतना को ही जड़ बना दें तो कुछ आश्चर्य नहीं। स्पंज और मूंगे जीव हैं किन्तु वे इसी ताक में रहते हैं कि कहीं उन्हें कोई चट्टान काई का ढेर या रेत मिल जाये बस वे उसी से चिपक कर जड़ हो गये, उनकी मूल चेतना का विनोद समाप्त हुआ वे न वैसे का आनन्द ले सकते हैं न विविधा पूर्ण सृष्टि के विहंगावलोकन का मस्सेल, ओइस्टर ड्रिल बारनकल तथा इसी श्रेणी के जीव हैं जिन्होंने अपनी दुनिया सीमित कर ली है और व्यापक दृष्टि से वंचित हो गये हैं। मनुष्य जाति भी कुछ इसी तरह होती जा रही है। जड़ता के अनुसन्धान के साथ-साथ चेतन मन की सम्वेदना और उसकी भावनाएं बुरी तरह नष्ट होती जा रही हैं। उसकी मैत्री भावना, करुणा, दया और उदारता नष्ट होती जा रही और इन्द्रिय लिप्सा इन जीवों की तरह बढ़ती रहती है।

मनुष्य के सहयोगी भी

पशु-पक्षियों को पालतू और प्रशिक्षित बनाने का प्रयास किया जाय तो वे हमारे लिए बाधक न रहेंगे वरन् सहयोगी के रूप में काम करके हमारी समृद्धि और शांति में सहायता प्रदान करेंगे। उन्हें नष्ट करने पर उतारू न रह कर यदि मानवी प्रयत्न अन्य प्राणियों को प्रशिक्षित करने में लग जायं तो न केवल प्राणिमात्र के बीच सद्भावना का विस्तार हो सकता है वरन् विश्वव्यापी चेतना तत्व को अधिक गति से विकास की दिशा में बढ़ चलने का अवसर भी मिल सकता है। प्राणियों को प्रशिक्षित करने के लिए जहां भी प्रयत्न हुए हैं वहां आशाजनक सफलता मिली है।

संसार के विभिन्न भागों में विभिन्न आकृति-प्रकृति के वानर पाये जाते हैं। अफ्रीका का गुयेरेजा कोलोवस बन्दर शरीर में तो तीन फुट का ही होता है पर उसकी पूंछ शरीर से भी अधिक लम्बी अर्थात् साढ़े तीन फुट होती है। हाथी जो काम सूंड़ से लेता है लगभग वैसा ही यह पूंछ से लेता है। दक्षिणी अमेरिका के हाडलर वानर का स्वर बहुत तीखा होता है दो मील दूर तक उसी आवाज सुनी जाती है और क्रोध, हर्ष, पीड़ा, कामोन्माद आदि की अनुभूतियां उसकी वाणी से सहज ही पहचानी जा सकती हैं। दक्षिणी अमरीका के अमेजन क्षेत्र में पाये जाने वाले सिवाइड्स वानर, गिलहरी और उल्लू की आकृतियों के सम्मिश्रण से बने हुए अपने ढंग के अनोखे प्रतीत होते हैं। निशाचर डोरोकोलिस, लम्बी दाड़ी वाला साकी, देखने में सुन्दर और अकल का पुतला केपूचिन मनुष्य के साथ कुत्ते की तरह ही घुल-मिल जाता है वह बर्तन धोना, कपड़े सुखाना झाड़ू लगाना, बिखरी चीजों को संभाल कर रखना, पंखा झलना, घर की रखवाली जैसे छोटे-मोटे घरेलू काम करने में मालिकों की सहायता करता है। ड्रॉइंग का अभ्यास करा दिया जाय तो वह खड़िया हाथ में लेकर सीखी हुई आकृति बिलकुल सही बना देता है वूली बन्दर पर भेड़ जैसी ऊन होती है। मकड़ी की तरह हाथ पैर और पूंछ के सहारे यह एक डाली से दूसरी डाली पर उलटी-सीधी चाल से चढ़ता उतरता और उछलता रहता है इसलिए इस वानर का नाम स्पाइडर मंकी पड़ा है। गले की अतिरिक्त थैली में ढेरों फालतू आहार भर कर फिरते रहने वाले बन्दर बोर्नियो में अधिक होते हैं। पूर्वीय गोलार्ध में पाये जाने वाले मैकेक और रहसीस जीवनी शक्ति सन्तुलित मानसिक क्षमता वाले होते हैं अन्तरिक्ष उड़ान में एक समय इन्हीं का उपयोग किया गया था कुत्ते के जैसे मुंह वाले बेवून अरब देशों में पाये जाते हैं वे पेड़ पर चढ़ने की अपेक्षा जमीन पर रहने में सुख, सरलता अनुभव करते हैं।

जर्मन प्राणिशास्त्री कोलर ने अपने पालतू चिंपैंजी ‘सुलतान’ की बुद्धिमत्ता बढ़ाने के लिए उसे कितनी ही गुत्थियां सुलझा सकने और अड़चनों का सही हल निकालने के लिए प्रशिक्षित किया था। वह अलमारी खोलकर अपने काम की चीजें निकालता और फिर बन्द कर देता था। लम्बे बांस के सहारे ऊंची टंगी हुई चीजें उतारना उसे अच्छी तरह आता था ऐसे ही वह और भी कई बुद्धिमानी के काम करता था।

मैडम कोट्स का पालतू चिंपैंजी रंगों के भेद उपभेद कर सकता था और प्रायः तीस तरह के हलके गहरे रंगों का वर्गीकरण कर लेता था। रेखागणित की आकृतियों को पहचान लेने में भी उसने कुशलता प्राप्त करली थी। क्यूबा में मादाम अब्रू के पास एक विनोदी चिंपैंजी था। वह जब पुरुषों को पास आते देखता तो अपनी मादा को फौरन छिपा लेता, किन्तु कोई स्त्री पास आती तो मादा को प्रसन्नता पूर्वक फिरने देता।

गोरिल्ला वनमानुषों में अग्रणी है। उसकी ऊंचाई छह फुट होती है किन्तु दोनों हाथों को मिलाकर लम्बाई नौ फुट तक जा पहुंचती है। वजन 400 से 600 पौण्ड। यह दो-ढाई इंच मोटी लोहे की छड़ आसानी से तोड़-मरोड़ कर फेंक सकता है। इसकी पकड़ में किसी जानवर का कोई अंग आ जाय तो उसे एक ही झटके में उखाड़कर फेंक सकता है। संसार प्रसिद्ध फिल्म ‘किंग कांग’ में प्रमुख करतब एक भीमकाय गोरिल्ला का है। इस फिल्म को अत्यधिक ख्याति मिली।

इस जाति का दूसरा वानर चिंपैंजी अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान होता है उसकी हर क्रिया से बुद्धिमत्ता और विचारशीलता टपकती है। अकारण उसे बेतुकी हरकतें करते नहीं पाया जायगा। परिवार भी उसका व्यवस्थित रहता है। एक नर के साथ कई मादाएं सुख और सुरक्षा पूर्वक जीवनयापन करती हैं। पालतू चिंपैंजी के साथ कभी पेचीदगी भरी स्थिति उपस्थित करदी जाय तो वह उसे सहज ही सुलझा लेता है।

जर्मनी में कुछ समय पूर्व एक विश्वविख्यात घोड़ा था—‘क्लेवर हान्स’ वह जर्मन भाषा में पूछे गये गणित के छोटे-मोटे प्रश्नों का उत्तर अपनी टाप के खटके मार कर देता था और दर्शक उसकी गणितज्ञ बुद्धि को देखकर चकित रह जाते थे। अमेरिका और फ्रांस में भी इस तरह के कई घोड़े हो चुके हैं। इनकी बुद्धिमत्ता जांचने के लिए पशु मनोविज्ञानी थार्नडाइक ने गम्भीर अध्ययन किये हैं कि बुद्धि पर मनुष्य की ही बपौती नहीं है, वह बीज रूप में दूसरे जीवों के भीतर भी मौजूद है और यदि उन्हें उपयुक्त अवसर मिले तो वे भी अपनी बुद्धिमत्ता को बड़ी हद तक विकसित कर सकते हैं।

तंजानिया (अफ्रीका) में पशु अभियन्ता मि. जार्ज के मकान के पास है पेड़ पर एक गिलहरी ने घोंसला बना रखा था। संसर्ग के प्रभाव से इस गिलहरी ने अपने में ऐसी आदतें उत्पन्न करली थीं जिसमें देखने वालों को बड़ा कौतूहल होता था। शराब का चस्का उसे लग गया था। वह चुपके से आती और घर में रखी शराब की बोतलों के कार्क खोल कर मद्य पान का आनन्द लेती। यह गिलहरी प्रायः अपना भोजन इस परिवार से ही प्राप्त करती थी अस्तु उसे समय और स्वाद का अभ्यास हो गया था। नियत समय ही वह भोजन करती और जो वस्तुयें खाने की शिक्षा दी गई थी उन्हें ही चुनकर ग्रहण करती। उसने कमोड में ही टट्टी जाना सीख लिया था। जब भी उसे मल त्यागना होता नियत स्थान पर जाकर अपनी हाजत पूरी करती इधर-उधर मल विसर्जन करते उसे कभी नहीं देखा गया।

मास्को के एक इंजीनियर आनातौली वाइकोव ने दो कबूतरों को मशीनों के अच्छे और खराब पुर्जे पहचानने और उनका अन्तर बता सकने की शिक्षा दी। इस पहचान का आधार त्रुटिपूर्ण पुर्जों से अलग ढंग के ऐसे कम्पनों का निकलना था जो बहुत ही संवेदनशील मशीनों से पहचाने जा सकते थे। कबूतर उस अन्तर को समझने में अभ्यस्त हो गये अपने पालने वालों की अच्छी सहायता करने लगे।

वाइकोव ने लिखा है—प्रशिक्षित कबूतर जिस बारीकी से यांत्रिक खराबी को पकड़ सकते हैं उतनी जानकारी देने वाले निर्देश उपकरण बहुत ही कठिनता से बनाये जा सकेंगे। शिशुमार नामक मत्स्य जाति का जल का बहुत ही प्रेमी और सहयोगी प्रकृति का होता है। प्रयत्न करने पर वह मनुष्य के साथ हिलमिल जाता है और खुशी से पालतू बन कर रहने लगता है। जापानी मत्स्य विशेषज्ञ मसाइकी नहाजमा का कथन है कि ‘‘यदि शिशुमार थल चर होते तो वे मनुष्य के लिए कुत्तों से भी अधिक स्नेही सहयोगी सिद्ध होते।’’ वे अपने परिवार के साथ बहुत ही सज्जनता भरा व्यवहार करते हैं।

शिशुमार कोई तीस तरह की ध्वनियां अपने मुख से निकाल सकते हैं और उनके आधार पर अपनी मनःस्थिति का दूसरों को परिचय दे सकते हैं। शिकार पकड़ने के लिए दौड़ते समय वे कुत्ते की तरह भौंकते हैं सफल होने पर बिल्ली की भांति-म्याऊं-म्याऊं करके खुशी जाहिर करते हैं। पेट भरने पर वे डकार लेते हैं चटाख की ध्वनि के साथ होंठ चाटते हैं। विरोधियों को डराने के लिए पटाखा चलने जैसी आवाज करते हैं।

सिखाने पर वे कई तरह के खेल करते हैं। सीटी बजाने पर उसका जवाब सीटी बजाकर देते हैं। शिशुमार को ‘सिटासियन’ वंश का ह्वेल जातीय समझा जाता है। दिशा बोध और शब्द ज्ञान की उसे अच्छी जानकारी होती है। 25 गज दूरी से फेंकी हुई वस्तु को वह इस तेजी से पकड़ सकता है मानो उस वस्तु के साथ ही वह उड़कर आया हो। समुद्री खोज के लिए गहरे सागर तल में बने हुए अमेरिका खोज केन्द्र-सीलैव—2 के लिए एक कुशल कार्यकर्त्ता के रूप में पालतू शिशुमार ‘टैफी’ ने असाधारण सहायता की थी। थके हुए गोताखोरों को उनकी कमर में बंधी रस्सी मुंह से पकड़ कर जहाज तक पहुंचा देने में भी पालतू शिशुमार बड़ा कौशल दिखाते हैं। वे मनुष्य की तरह हंस भी सकते हैं। ब्रिटिश नौ सेना से रिटायर होकर नीरेफौक के विचिंगहम स्थान में फिलिप वेयरे ने अपने आठ एकड़ के खेत में घरेलू चिड़ियाघर बनाया। उसका उद्देश्य पशु-पक्षियों की प्रकृति का अध्ययन और उनकी नसलों को सुन्दर सुविकसित बनाने का मार्ग खोजना था। अपने विषय में रुचि पूर्वक तन्मय हो जाने के कारण वेयरे ने दुर्लभ पशु-पक्षी प्राप्त किये और उनकी प्रकृति के बारे में नई-नई जानकारियां प्राप्त कीं। चिड़ियाघर की ख्याति फैली तो दर्शकों के झुण्ड भी अपने कौतूहल की तृप्ति के लिए वहां आने लगे और टिकट की आमदनी से चिड़िया घर का खर्च चलने में सहायता मिलने लगी।

रीछ और भेड़िये किस प्रकार सज्जन बनाये जा सकते हैं और बिदकने वाले पशुओं को विश्वस्त एवं स्नेही कैसे बनाया जा सकता है इस प्रयोग में उन्होंने आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की है।

वेयरे की तत्परता ने उन्हें संसार के अनुभवी प्राणि विशेषज्ञों की पंक्ति में ला बिठाया है। ऐग्लिया टेलीविजन कम्पनी में प्राणि विशेषज्ञ की भूमिका में कितने ही कौतूहल वर्धक कार्यक्रम देते रहते हैं। ‘विन्ड इन दी रीडस्’ नामक प्रख्यात फिल्म में उन्होंने प्रागैतिहासिक काल से लेकर अब तक प्राणियों के विकास और विनाश का महत्वपूर्ण चित्रण किया है, वेयरे मात्र पशु-पक्षियों के शोधकर्ता, प्रयोक्ता मात्र नहीं है वरन् ‘‘प्राणिमात्र के साथ मनुष्यों को अधिक अच्छा व्यवहार करना चाहिए।’’ योरोप में इस आन्दोलन के सूत्रधार भी हैं उनकी पत्नी ‘‘पैट’’ इस कार्य में उनका भरपूर सहयोग करती हैं।

मत्स्य विशेषज्ञ स्टेटर ने विभिन्न प्रकार के संगीत के मछलियों पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों का पर्यवेक्षण किया है। कुछ ध्वनियां तो मछलियों को इतनी प्रिय लगीं कि वे उन्हें सुनकर उछलने-कूदने और नाचने लगतीं कुछ ध्वनियां उन्हें बिलकुल पसन्द न आईं और वे जब बजती तो उपेक्षा पूर्वक मुंह मोड़ कर अन्यत्र चली जातीं। संगीत की विभिन्न ध्वनियों ने उनके शरीर पर भी भिन्न और विचित्र प्रभाव डाले। एक प्रकार के संगीत ने तो उनका वजन और विस्तार बढ़ाने में बहुत सहायता की। एक ध्वनि के कारण उनकी प्रजनन क्रिया दूनी हो गई तथा कहीं अधिक अंडे दिये।

डा. फ्रेंक वाडन ने मछलियों को रंग पहचानना सिखाया और यातायात के नियमों का अभ्यास कराया, वे अपने मालिक और दर्शक का अन्तर करना सीख गईं। मिनो जाति की मछलियां यह समझने लगीं कि किस प्रकार की आवाज सुन्दर उन्हें क्या आचरण करना चाहिए।

प्रो. जे.पी. फ्रोलोफ ने मछलियों को संगीत सुनने का शौकीन बनाने में सफलता प्राप्त की है। वे तालाब में बिजली के तार डालते और संगीत के रिकार्ड बजाते रहे। आरम्भ में मछलियों ने थोड़ा ही ध्यान उस ओर दिया, किन्तु धीरे-धीरे उसकी पूरी शौकीन हो गईं जैसे ही संगीत की ध्वनि होती वे चारों ओर से वहीं इकट्ठी हो जातीं और ध्वनि केन्द्र को लपकने का प्रयत्न करतीं।

उन्होंने एक तालाब में कुछ मछलियां पाली। भोजन नियत समय पर दिया जाता और चारा डालने से पूर्व घंटी बजाई जाती। थोड़े दिन में घण्टी और चारे का सम्बन्ध वे समझ गई और जब भी समय कुसमय घंटी बजती तभी वे चारे के लिए दौड़ कर इकट्ठी हो जातीं।

पशु-पक्षियों को अपने ही प्राणि परिवार का सम्मानित सदस्य समझ कर उन्हें सुखी-समुन्नत और प्रशिक्षित बनाने की दिशा में यदि हमारी प्रवृत्ति मुड़ सके तो न केवल जीव जगत का उपकार होगा वरन् मानवी उदारता और सद्भावना का एक सुखद अध्याय प्रारम्भ होगा। विश्व चेतना में सदाशयता की वृद्धि करने के प्रयास करके मनुष्य घाटे में नहीं वरन् नफे में ही रहेगा। नये सहयोगियों का नया सद्भाव पाकर मानवी प्रगति में नया उभार ही आवेगा।
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