जड़ के भीतर विवेकवान चेतन

अनुदान और दिशा प्रेरणा

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प्राणियों की आवश्यकताएं तथा इच्छाएं उनकी शारीरिक, मानसिक शक्तियां तथा भौतिक परिस्थितियों का सृजन करती हैं इस तथ्य को, थोड़ा अधिक गहराई से विचार करने पर सहज ही जाना जा सकता है और उसके अनेकों प्रमाण पाये जा सकते हैं।

समझा जाता था कि वर्षा होने से वृक्ष वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, पर पाया यह गया है कि वृक्षों की आवश्यकता उधर उड़ने वाले बादलों को पकड़ कर घसीट लाती हैं और उस अपने क्षेत्र पर बरसाने के लिए बाध्य करती हैं। कुछ दिन पूर्व जहां बड़े रेगिस्तान थे पानी नहीं बरसता था और बादल उधर से सूखे ही उड़ जाते थे, पर अब जब वहां वन लगा दिये गये हैं तो प्रकृति का पुराना क्रम बदल गया और अनायास ही वर्षा होने लगी है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों के बारे में अब यह नया सिद्धान्त स्वीकार किया गया है कि वहां की वन सम्पदा बादलों पर बरसने के लिए दबाव डालती है। बादलों की तुलना में चेतना का अंश वृक्षों में अधिक है इसलिए वे विस्तार में बादलों से कम होते हुए भी सामर्थ्य में अधिक हैं। अतएव दोनों की खींचतान में चेतना का प्रतिनिधि वृक्ष ही भारी पड़ता है।

आत्म-रक्षा प्राणियों की एक महती आवश्यकता है। जीवों में जागरुकता और पराक्रम वृत्ति को जीवन्त बनाये रखने के लिए प्रकृति ने शत्रु पक्ष का निर्माण किया है। यदि सभी जीवों को शान्तिपूर्वक और सुरक्षित रहने की सुविधा मिली होती तो फिर आलसी और प्रमादी होते चले जाते उनमें जो स्फूर्ति और कुशलता पाई जाती है वे या तो विकसित ही न होतीं या फिर जल्दी ही समाप्त हो जातीं।

सिंह, व्याघ्र, सुअर, हाथी, मगर आदि विशालकाय जन्तु अपने पैने दांतों से आत्म-रक्षा करते हैं और उनकी सहायता से आहार भी प्राप्त करते हैं। सांप, बिच्छू, बर्रे, ततैया, मधुमक्खी आदि अपने डंक चुभो कर शत्रु को परास्त करते हैं। घोंघा, केंचुआ, आदि के शरीर से जो दुर्गन्ध निकलती है उससे शत्रुओं को नाक बन्द करके भागना पड़ता है। गेंडा, कछुआ, सीपी, घोंघा, शंख, आर्मेडिलो आदि की त्वचा पर जो कठोर कवच चढ़ा रहता है उससे उनकी बचत होती है। टिड्डे का घास का रंग, तितली फूलों का रंग, चीते का पेड़-पत्तों की छाया जैसा चितकबरापन, गिरगिट मौसमी परिवर्तन के अनुरूप अपना रंग बदलता है। ध्रुवीय भालू बर्फ जैसा श्वेत रंग अपनाकर समीपवर्ती वातावरण में अपने को आसानी से छिपा लेते हैं और शत्रु की पकड़ में नहीं आते। कंकड़, पत्थर, रेत, मिट्टी, कूड़ा करकट आदि के रंग में अपने को रंग कर कितने ही प्राणी आत्म-रक्षा करते हैं। शार्क मछली बिजली के करेंट जैसा झटका मारने के लिए प्रसिद्ध है। कई प्राणियों की बनावट एवं मुद्रा ही ऐसी भयंकर होती है कि उसे देखकर शत्रु को बहुत समझ-बूझकर ही हमला करना पड़ता है।

शिकारी जानवरों को अधिक पराक्रम करना पड़ता है इस दृष्टि से उन्हें दांत, नाखून, पंजे ही साधारण रूप से मजबूत नहीं मिले वरन् पूंछ तक की अपनी विशेषता है। यह अनुदान उन्होंने अपनी संकल्प शक्ति के बल पर प्रकृति से प्राप्त किये हैं।

शेर का वजन अधिक से अधिक 400 पौंड होता है जबकि गाय का वजन उससे दो दूना ज्यादा होता है। फिर भी शेर पूंछ के सन्तुलन से उसे मुंह में दबाये हुए 12 फुट ऊंची वाड़ को मजे में फांद जाता है।

प्राणियों की शरीर रचना और बुद्धि संस्थान भी अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है, पर उनकी सबसे बड़ी विशेषता है संकल्प शक्ति, इच्छा तथा आवश्यकता। यह सम्वेदनाएं जिस प्राणी की जितनी तीव्र हैं वे उतने ही बड़े अनुदान प्रकृति से प्राप्त कर लेते हैं। मनुष्य को जो विभूतियां उपलब्ध हैं उनका कारण उसकी बढ़ी हुई संकल्प शक्ति ही मानी गई है।

इसके अलावा प्रकृति ने अपनी संतानों के लिए विशेष व्यवस्था भी कर रखी है उन्हें अनेकानेक अनुदान दिये हैं, जिनके कारण क्षुद्र से क्षुद्र प्राणी भी अपनी जीवन यात्रा बेखटके निर्वाध पूर्ण कर लेता है।

सभी संतानें प्रिय

उदाहरण के लिए कई जीव जन्तु क्षुद्र लगते हैं। पक्षी ही देखने में तुच्छ लगते हैं। मनुष्य की तुलना में उन्हें बुद्धि नहीं मिली और न उतनी विकसित इन्द्रियां ही। फिर भी यह नहीं मान बैठना चाहिए कि भगवान ने उनकी उपेक्षा ही की है। बारीकी से देखने पर प्रतीत होता है कि उनमें ऐसी कितनी ही विशेषतायें हैं जिनमें मनुष्य काफी पिछड़ा हुआ है यदि वे क्षमतायें मनुष्य को मिली होतीं जो तुच्छ समझे जाने वाले पक्षियों को प्राप्त हैं तो वह तथाकथित देवताओं के वैभव से कहीं अधिक ऊंची स्थिति में रहा होता।

भगवान को अपनी पक्षी सन्तानें प्यारी हैं। उनने किसी को कोई खिलाने खेलने के लिये दिया है तो किसी को कोई। इस सृष्टि में न तो कोई सर्वथा साधन विहीन हैं और न सर्व सम्पन्न, हर प्राणी को उसकी आवश्यकता के अनुरूप इतने और ऐसे साधन प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं जिनसे वह अपनी जीवनचर्या सन्तोष और प्रसन्नता के साथ चला सकें। पक्षियों की दुनिया पर नजर डालते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि वे भी भगवान के कृपा पात्र हैं और अपनी आवश्यकता के अनुरूप उतने साधन सम्पन्न हैं कि किन्हीं किन्हीं उपलब्धियों में मनुष्य को छोटा और पिछड़ा हुआ सिद्ध कर सकें।

गरुड़ की चाल साधारणतया 65 से 110 मील प्रति घण्टे होती है। पर जब वह शिकार पर झपटता है तो वह चालें 200 मील की हो जाती हैं। यों गरुड़ का वजन पांच से दस किलो तक का होता है पर वह अपने से ड्यौढ़े वजन की शिकार को पंजों में दबा कर घोंसले की ओर लम्बी उड़ान चला जाता है। गरुड़ अण्डे चुराने में भी नहीं चूकता। वृक्षों पर रहने वाला आस्ट्रेलिया का टेडीवियर अपनी पीठ पर आधे दर्जन तक बच्चे लादे फिरता है और चढ़ने उतरने में ऐसी सावधानी बरतता है कि कोई बच्चा गिरने न पाये।

अमेरिका के ओपासय चूहों के आठ दस बच्चे अपनी मां की पीठ पर लदे फिरते हैं। यह बच्चे इतने चतुर होते हैं कि अपनी पूंछ माता की पूंछ से लपेट कर जंजीर सी बना लेते हैं और गिरने के खतरे से बचकर सवारी का आनन्द लेते हैं।

शरीर के अनुपात से संसार में सर्वाधिक शक्तिशाली चिड़िया ‘हमिंग बर्ड’ मैक्सिको खाड़ी और पनामा नहर के तटों पर पाई जाती है। इसकी जिजविषकाय परायणता देखते ही बनती है। शरीर की लम्बाई 3 इंच किन्तु चोंच पांच इंच की। यह इतनी पेटू होती हैं कि निरन्तर खाते रहते बिना उसे चैन ही नहीं पड़ता। अपने शरीर के वजन से वह तीन गुना आहार एक दिन में करती है। इस आहार को जुटाने में उसे अत्यन्त व्यस्त और सक्रिय रहना पड़ता है। इसी अनुपात से यदि मनुष्य को तत्पर रहना पड़े तो उसे सामान्य शक्ति व्यय की अपेक्षा 450 गुनी शक्ति खर्च करनी पड़े। एक साथ बहुत सा आहार पकड़ और निगल सके इसी सुविधा के लिए प्रकृति ने उसे इतनी लम्बी चोंच दी है।

‘हमिंग बर्ड’ जब सोती है तब उसकी नींद इतनी गहरी होती है कि कोई चाहे तो ढेले की तरह उसे उठा ले। शरीर मुर्दे जैसा निःचेष्ट हो जाता है। करवट तो वह बदलती ही नहीं।

हैलिकॉप्टर सिद्धान्त पर उसके पंख अन्य चिड़ियों की अपेक्षा कुछ अलग ही ढंग के बने हैं। वह आगे-पीछे, तिरछी जमीन से सीधी आकाश को, आकाश से सीधी जमीन पर, उड़ सकती है और हवा में स्थिर भी रह सकती है। फूलों की डालियों पेड़ों की शाखों पर जब वह आहार ले रही होती है तब भी बैठती नहीं वरन् उड़ती ही रहती है। उस समय भी उसके पंख एक सेकिण्ड में 5 बार की आश्चर्यजनक गति से हरकत कर रहे होते हैं। इसके कारण एक फुट तीव्र दृष्टि अपनी जाति के पक्षियों में सबसे आगे होती है। शुतुरमुर्ग अब सिर्फ अफ्रीका में ही पाया जाता है। ऊंचाई प्रायः 6 फुट, वजन 300 पौंड, रफ्तार 40 मील। बीच में वह 15-15 फुट की ऐसी छलांगें लगाता है कि घुड़सवारों को भी हार माननी पड़े। इनकी लात से घोड़े की टांग टूट सकती है। इसे पालतू भी बनाया जाता है। अफ्रीका में इसकी दोस्ती जंगली गधे—जेबरे—के साथ रहती है। दोनों एक दूसरे को प्यार करते हैं और विपत्ति के समय एक दूसरे की सहायता भी करते हैं। उन्हें साथ साथ घूमते और सोते खाते देखा जा सकता है। ध्रुव प्रदेशों में पाया जाने वाला 6 फुट ऊंचा 200 पौंड भारी पेन्गुइन—मनुष्य की तरह खड़ा होकर दो पैरों से चलता है। समुद्र जल में तैरते और शीत सहन करने की उसकी अपनी विशेषता है। तेज ठंड के दिनों में वह 3-4 महीने बिना खाये ही गुजर कर लेता है। बर्फ पर फिसलने का खेल इसे बहुत भाता है। इस जाति के सभी पक्षी प्रायः पति पत्नी का जोड़ा बनाकर रहते हैं। नर को विशेषतया घर की जिम्मेदारी सम्भालनी पड़ती है।

केकड़ा कभी कभी भारी शंखों के खोल में घुस जाता है और उनके वजन को ढोता हुआ समुद्र में इधर उधर यात्रा करता रहता है। हर वर्ष वह दस मील की यात्रा कर लेता है और अपने वजन से दस बारह गुने तक वजन ढो लेता है। कुछ कीड़े तथा पौधे भी इन शंख कलेवरों पर जा बैठते हैं और केकड़े पर लदा वजन बढ़ता ही जाता है। मजा तो यह है कि इतने लदान से लदा हुआ केकड़ा समुद्र तट के पेड़ों पर चढ़ कर घोसलों से चिड़ियों, इर्द गिर्द तक की पत्तियां हवा के तेज झोंके के समय जैसी हिलती रहती हैं और तेजी से उड़ते समय इसके पर एक सेकिंड पीछे 200 बार हिलते हैं। प्रणय क्रीड़ा भी वह उड़ते-उड़ते घड़ी के पेंडुलम की तरह आगे पीछे हिलते हुए पूरी कर लेती हैं। अंडे देते समय घोंसला पेड़ की छाल और कपास के धागे से ऐसा सुन्दर और मजबूत बनाती हैं कि देखने वाले उसे पेड़ की एक गांठ ही समझ सकते हैं। यह लड़ाकू भी कम नहीं होती। नर हमिंग वर्ड जब आपस में लड़ते हैं तो उनकी तलवार जैसी चोंच प्रतिद्वन्दी का सफाया कर देती हैं। मादा को जब किसी शिकारी पक्षी से खतरा होता है तो अपनी छुरे—जैसी चोंच से निर्भय आक्रमण करती हैं और बड़ी आकृति वाले बाज, कौए, गिद्ध भी उसकी मार से घबराकर सिर पर पांव रख कर भागते हैं लम्बी उड़ान में उसकी अपनी शान है। बिना खाये और ठहरे वह लगातार 12 घण्टे उड़कर 600 मील की यात्रा कर सकती है।

भवन निर्माण और कपड़ा बुनने, टोकरी बनाने जैसे अनेक कला शिल्पों का सम्मिश्रण करने से ही घोंसला बनाने की विधा बनी मालूम देती है। बिना किसी कालेज में सैद्धान्तिक और कारखाने में व्यावहारिक शिक्षा पाये अधिकांश पक्षी जन्म जात रूप से जानते हैं। यों ऋतु प्रभाव से बचने और अण्डे बच्चों की सुरक्षा व्यवस्था के उपयुक्त सभी पक्षी घोंसले बनाते हैं पर उनमें से कुछ की प्रवीणता तो देखते ही बनती है।

वया का लटकता हुए घोंसला हर किसी को आश्चर्य में डाल देता है वह कितनी सुन्दरता और सुघड़ता के साथ बनाया गया है इसे देखकर उसके निर्माता की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ती है। दक्षिण अफ्रीका की वया ने तो एक कदम और भी आगे बढ़ाया है वह घोंसले के तिनकों को न केवल मजबूती से सटाती है वरन् वालों का फंदा लगा कर इस तरह कस देती है कि फिर आंधी तूफान उसका कुछ भी बिगाड़ न सकें। यों इस तकनीक में वह भेड़ों की ऊन भी काम में लाती हैं पर अधिकतर प्रयोग वे अधिक लंबे और मजबूत वालों का ही करती हैं। इस दृष्टि से घोड़े और गधे की पूंछ के बाल उसे अधिक उपयुक्त लगते हैं। कभी-कभी तो हाथी और सुअर के बाल भी उसमें कसे होते हैं इन जानवरों की पूंछ पर बैठकर बाल उखाड़ना भी तो अपने ढंग का एक अलग ही कौशल है। तिनकों के बीच बालों का जो फन्दा लगाता है उसे देखते हुए स्काउटिंग में तरह तरह की गांठें लगाने की जो शिक्षा दी जाती है, स्वेटर आदि बुनने में लड़कियां जो हस्त लाघव बरतती हैं वह सभी पीछे पड़ जाता है।

परिपक्व पक्षियों की बात तो दूर, अंडे में रहने वाले अविकसित पक्षी भी जब समर्थता के निकट पहुंचते हैं तो अपने पुरुषार्थ से अण्डे का आवरण तोड़ कर बाहर निकलते हैं और उन्मुक्त जगत के स्वच्छन्द वातावरण में प्रवेश करते हैं।

जब अण्डा पक जाता है और फूट कर बच्चा निकलने का समय समीप होता है तो उसमें थरथराहट होती है। छूकर या कान लगाकर यह देखा समझा जा सकता है कि उसके भीतर खिचड़ी सी पक रही है। यह सब कुछ क्या है? यह बच्चे द्वारा अण्डा तोड़ कर बाहर निकलने के लिये किया जाने वाला संघर्ष है। चूजा अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप पूरा-पूरा प्रयत्न यह करता है कि उसे बंधन से मुक्ति मिले और स्वतन्त्र जीवन यापन कर सकने का अवसर उपलब्ध हो। इसके लिए वह अंडे की दीवार से पूरी तरह टकराता है और उस संघर्ष को तब तक जारी रखता है जब तक कि ऊपर का मजबूत खोल टूट कर बिखर नहीं जाता।

कई बार यह पक्षी मनुष्यों को चुनौती देने खड़े हो जाते हैं तो उनका होश-हवाश गुम कर देते हैं।

कुछ समय पहले बोस्टन अमेरिका के लोगन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक जेट विमान से आकाश में उड़ता हुआ पक्षियों का झुण्ड टकरा गया। फलस्वरूप इंजन में खराबी आने से जहाज टूट गया और 63 यात्री कालकवलित हो गये।

पक्षियों में से कितनों में ही बुद्धिमत्ता ही नहीं उनकी स्नेहिल सद्भावना भी देखते ही बनती है। उनमें वह मृदुल सौजन्य पाया जाता है जिसे अभी बहुत दिन तक मनुष्य को सीखना होगा।

कबूतर, पण्डुक, सारस आदि पक्षी पतिव्रत और पत्नीव्रत पालन करते हैं वे एक बार प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर लेने के बाद उसे वफादारी के साथ आजीवन निवाहते हैं। टिटहरी समुद्र के निर्जन तटों पर अण्डे देती हैं। वे मिलजुल कर अण्डे सेती हैं। अपने विराने का भेदभाव किये बिना सेती हैं। कोई मादा चारे की तलाश में उड़ जाय तो कोई दूसरी उसका स्थान ग्रहण कर लेगी। इसी प्रकार मिलजुल कर अण्डे-बच्चों की साज सम्भाल में उन्हें बहुत सुविधा रहती है।

घोंसला बनाने अण्डे सेने से लेकर बच्चों के पालन-पोषण तक का सारा काम नर-मादा मिलजुल कर पूरा करते हैं प्रणय की परिणिति दाम्पत्य सहयोग और शिशु पालन में भागीदार रहने तक के उत्तरदायित्व को नर भली प्रकार समझता है और उसे भली प्रकार निवाहता भी है। बच्चे पानी में तैरने से डरते हैं—इस भय से छुटकारा दिलाने के लिये पेन्गुइन उन्हें बल पूर्वक पानी में धकेलती है और तैरने की कला सिखाती है प्रायः दो तीन महीने में बच्चे तैरने की ट्रेनिंग पूरी कर पाते हैं।

गरुड़ शावक भारी होता है इसलिए उसे घोंसले से नीचे उतरने और उड़ने का साहस करने में डर लगता है। माता उसे खतरे का सामना करने की शिक्षा देती है और धकेलकर घोंसले से नीचे गिरा देती है। साथ ही यह ध्यान भी रखती है कि वह कहीं विपत्ति में न फंस जाय। इसलिये नीचे गिर कर जमीन से टकराने से पूर्व ही वह उसे अपनी पीठ पर ले लेती है और उड़कर उसे फिर घोंसले में ले आती है। यह शिक्षण क्रम तब तक चलता ही रहता है जब तक बच्चा स्वावलंबी होकर स्वतन्त्र रूप से उड़ना नहीं सीख जाता। शिकार पकड़ने के लिए मादा को ही शिक्षा देनी पड़ती है। घायल शिकार को वह बच्चों से कुछ दूर छोड़ देती है और फिर अलग बैठकर बच्चों को आखेट कौशल विकसित करने का अवसर देती है।

कर्तव्य, उत्तरदायित्व सहयोग और सद्भाव की दृष्टि से भी पक्षियों की दुनिया मनुष्य से पीछे नहीं है, उन्हें अपनी आवश्यकतानुसार ऐसी समर्थता तो उपलब्ध ही है जिसके लिये मनुष्य उनसे ईर्ष्या ही करता है।

सर्प भी एक शिक्षक

सर्प के सम्बन्ध में किम्वदन्तियां जितनी अधिक प्रचलित हैं उनसे भी अधिक वे तथ्य हैं जिन्हें अप्रचलित और अविदित ही कहना चाहिए। साधारणतया सर्प को मृत्यु दूत के रूप में चित्रित किया जाता है ईसाई और मुसलिम धर्म में ईश्वर के प्रतिद्वन्दी शैतान का सर्प रूप में वर्णन हुआ है। हिन्दू धर्म में हर प्राणी और हर वस्तु में भगवान का दर्शन करने के दार्शनिक आदर्श के अनुरूप सर्प का स्वरूप भी श्रेष्ठता के साथ सम्बद्ध किया गया है किन्तु साथ ही उसकी गरिमा को उच्चस्तरीय स्थान दिया गया है। शेष नाग के फन पर यह धरती टिकी हुई है। विष्णु भगवान की शैया सर्प पर है, शंकर भगवान ने सर्प के अलंकार धारण किये हैं। समुद्र मन्थन में सर्प की रस्सी का प्रयोग हुआ है जैसे पौराणिक उपाख्यानों में उसकी महिमा का ही वर्णन है। जहां अशुभ वर्णन है वहां भी उसे भगवान के समतुल्य ही कूता गया है। कालिया नाग का दर्प दमन करने में श्री कृष्ण को स्वयं जुटना पड़ा, भागवत के इस उपाख्यान में ईसाई धर्म के सर्प शैतान जैसा ही वर्णन है। राजा परीक्षत को सर्प द्वारा काटा जाना इसके पश्चात कलियुग का आगमन—जन्मेजय द्वारा नागयज्ञ करके विकृति के निराकरण का प्रयास जैसी आख्यायिकाएं भी सर्प की ध्वंसात्मक शक्ति पर प्रकाश डालती हैं। योग साधना में कुण्डलिनी जागरण विद्या की सर्प सर्पिणी संयोग के रूप में चर्चा की जाती है। इस प्रकार के वर्णन यह बताते हैं कि सर्प की अपनी कुछ भली बुरी विशेषताएं उच्च स्तर की हैं और ऐसी हैं जिन पर गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करके जीवनोपयोगी तथ्य हस्तगत किये जाने चाहिए।

ईसाई धर्म की पौराणिक गाथा है कि शैतान ने सांप बन कर हौवा को बहकाया कि वह ईश्वरी आदेश की अवज्ञा करे। इस पर अल्लाह ने शैतान रूपी सांप को शाप दिया कि ‘तेरी और हौवा की सन्तान में सदा बैर रहेगा।’ सो सांप और मनुष्य का बैर तो प्रख्यात है; पर बात यहीं समाप्त नहीं हुई। उस शैतान सर्प ने अपने वंशजों से भी बैर ही बना रखा है।

सर्पों के बारे में अनेकानेक किम्वदन्तियां प्रचलित हैं। ह्यूप सर्प के बारे में कहा जाता है कि उसकी फुस्कार से पेड़ जल जाता है मिल्क स्नेक के बारे में कहा जाता है कि वह दुधारू जानवरों के थनों से लिपट कर दूध पी जाता है। अमेरिका के किसान ऐसा मानते थे कि घिर जाने पर सर्प अपने आपको काट कर आत्म हत्या कर लेता है। एशिया और अफ्रीका के अनेकों देशों में किसी न किसी रूप में सर्प पूजा प्रचलित है। उसे कहीं देवताओं का कहीं दैत्यों का प्रतिनिधि मानकर पूजा-पत्री द्वारा संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता है। भारत में मान्यता है कि कृपण व्यक्ति अपनी भूमि में छिपी सम्पदा की रक्षा के लिए सर्प बनते हैं और उसका उपयोग किसी को नहीं करने देते। किसी सर्प को मार देने पर उसके साथी मारने वाले से बदला लेते हैं और मौका पाते ही काट लेते हैं ऐसा कहा जाता है।

सांप मनुष्यों का ही शत्रु नहीं, अपने जाति बन्धुओं और वंशजों का भी शत्रु है। वह मात्र मनुष्यों के ही प्राण हरण नहीं करता, मात्र चिड़ियों, चूहों पर ही आक्रमण करके संतुष्ट नहीं होता वरन् वही व्यवहार उनके साथ भी करता है जो उसके साथी सहचर ही नहीं वंशज होने का भी दावा करते हैं। क्रोधी दुष्ट को अपने पराये का ज्ञान रह भी कैसे सकता है। सच तो यह है कि सांप ही सांप का सबसे बड़ा शत्रु है। जाति विनाश में उसकी भूमिका अन्य सब प्राणियों से आगे है।

ब्लैक केसर नाग का प्रिय भोजन अपने ही स्वजातीय हैं। मिलने पर वह मिलते जुलते सगोत्री गार्टर सर्पों से भी काम चला लेता है। स्नेक स्टार्स का भी यही हाल है। वे दूसरे जीवों को तभी खाते हैं जब अपनी जाति वालों की उपलब्धि सर्वथा असंभव हो जाये।

सर्पिणी प्रजनन के बाद क्षुधातुर होती है। अण्डे देते समय उसमें जो क्षणिक मातृत्व उदय होता है वह ज्यादा समय ठहरता नहीं। जैसे ही बच्चे निकलते हैं वैसे ही उसके मुंह में पानी भर आता है। वात्सल्य और क्षुधा निवृत्ति में से उसे दूसरे का चयन करना भला लगता है और जो भी संपोला उसकी नजर में आ जाय उसी को निगल जाती है। जो इधर उधर खिसक जायें वे ही भाग्यशाली जीवित बचते हैं।

क्रोधी, दुष्ट और क्रूर प्रकृति बाहर वालों को ही हानि पहुंचाते हो सो बात नहीं, उनकी प्रतिक्रिया स्वजनों कुटुम्बियों, आत्मीयों के लिए भी कम घातक नहीं होती। मोटेतौर से यह समझा जाता है कि दुष्ट मनुष्य बाहर के लोगों पर आक्रमण करके उनका अहित करके जो कमाते हैं, उससे अपने परिवार को लाभ पहुंचाते हैं पर वास्तविकता इससे भिन्न है। दुष्टता की कमाई, स्वजनों को तत्काल कुछ विलास सामग्री भले ही जुटा दें पर अन्ततः उनमें भी इतने दुर्गुण मनोविकार भर देती है कि वे बिना परिश्रम प्राप्त हुए वैभव से मिलने वाले क्षणिक सुख का मूल्य भविष्य में अत्यंत दुखद परिणाम भोगते हुए चुकाते हैं। समय पड़ने पर वे अपने आश्रितों और आत्मीयों के लिए भी विषधर जैसा दंशन करने में नहीं चूकते। तनिक-तनिक से कारणों अथवा संदेहों की आड़ में लोग अपने स्त्री बच्चों तक की हत्या कर देते हैं। दूसरों के साथ प्रेमालाप को सहन न कर सकने की ईर्ष्या के आदेश में कितने ही नर पिशाच अपनी पत्नी की समस्त सेवा सहायता को भुला कर उसके रक्त पिपासु बन जाते हैं। ऐसे समाचार आये दिन पढ़ने को मिलते रहते हैं। तथाकथित देवताओं से अमुक सुख सुविधा का वरदान मिलने के प्रलोभन में निरीह पशु पक्षियों का ही नहीं अपने या पड़ोसी के बच्चों की बलि चढ़ाने वाले दुरात्माओं की संख्या भी कम नहीं है। दुष्टता तो एक अग्नि है जो दूरवर्ती और निकट वर्ती का भेद भाव किये बिना सर्वतोमुखी अहित ही करती है। सर्प में पायी जाने वाली यह दुष्टता उसे मृत्युदूत, घृणित, शैतान आदि के रूप में सर्वत्र निन्दनीय ठहराती है। उसकी आतंक वादी प्रकृति से लोग डरते तो हैं पर साथ ही उसका मुंह कुचलने में भी नहीं चूकते।

भारत में पाये जाने वाले विषधरों में कोबरा, किरात, कोरल, वाइपर, कोडर, करायत, वफई राजनाग, रसेल, प्रमुख हैं। इनका पूरा दंश लग जाय तो 10 मिनट से लेकर 2 घण्टे की अवधि में मनुष्य दम तोड़ देता है। अजगरों की लम्बाई 35 फीट तक पाई जाती है उनका वजन तीन मन तक देखा गया है। हिरन, सुअर, सियार, जंगली भैंसा जैसे जानवरों को वह अपनी कुण्डली में ऐसे जकड़ता है कि उनकी हड्डी पसली चूर चूर हो जाती है, इसके बाद वह अपनी शिकार को प्रायः समूची ही निगलता है और पचने तक आराम से पड़ा सुस्ताता रहता है। शेर के साथ मल्लयुद्ध में कभी-कभी अजगर के हाथ ऐसी पकड़ आ जाती है कि शेर का चूरा करके उसे पूरी तरह निगल जाये।

इतनी सामर्थ्य का उपयोग यदि कोई प्राणी रचनात्मक दिशा में कर सके तो उसकी उपयोगिता बैल या घोड़े से कई गुनी अधिक सिद्ध हो सकती है। पर यदि उसका उपयोग घातक प्रयोजनों के लिए किया जाय तो इससे अजगर की तरह अशान्ति ही उत्पन्न की जा सकती है।

संसार में प्रायः 2500 जाति के सर्प पाये जाते हैं। भारत में इनकी 400 जातियां ही देखने में आई हैं। इनमें से 80 प्रकार के ही विषधर होते हैं। हर वर्ष भारत में प्रायः डेढ़ लाख मनुष्यों को सांप काटते हैं पर उनमें से 10 प्रतिशत की ही मृत्यु होती है क्योंकि काटने वाले सभी सर्प अधिक विषैले नहीं होते।

कुछ ही दुष्टता से उस वर्ग के अन्य निर्दोषों को भी कलंकित होना पड़ता है। समस्त सर्प विषधर और दुष्ट प्रकृति के न होने पर भी बेचारे अकारण घृणास्पद समझे जाते हैं और लोग उनका भी जीवन दुर्लभ कर देते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मनुष्य समाज में यह प्रथा प्रचलित है कि हर वर्ग अपने समाज के लोगों को दुष्प्रवृत्तियों से रोकने बचाने के हर सम्भव प्रयत्न करे। समझाने बुझाने से न सुधरे तो उसे बहिष्कृत एवं दण्डित करके कड़े कदम भी उठाये। राजसत्ता और समाज संगठन द्वारा ऐसा किया भी जाता है। इसी कारण मानव समाज की बहुत कुछ दुष्टताएं नियन्त्रण में रहती हैं। सर्पों को भी यदि यह सहज बुद्धि होती तो सम्भवतः वे भी क्रोधी और दुष्ट सर्पों को बहिष्कृत एवं दण्डित करने में न चूकते।

सर्प का विष उसकी पैराटाइड ग्रन्थि से निकलता है। उसकी संरचना प्रोटियोलाइटिक, एजाइम, फास्फेटाइडेज और न्यूरोटा निक्स से होती है।

सर्प विष के बारे में यह कथन सत्य है कि काटे हुए स्थान का रक्त मुंह से चूसा जा सकता है और उससे रोगी को विष मुक्त किया जा सकता है पर यह बात तभी सही होगी जब चूसने वाले के मुंह में किसी प्रकार का छोटा बड़ा जख्म न हो। सपेरे सांप को मार कर खा जाते हैं यह भी सत्य है। सांप का विष बिना किसी हानि के पचाया जा सकता है। वह घातक तभी होता है जब रक्त में सीधा जा मिलता है।

सर्प विष रक्त में मिल कर ही ‘हिमोलिसस’ नामक पदार्थ उत्पन्न करता है। रक्त कोशिकाएं फट जाती हैं, आमाशय और गुर्दे में रक्त जमा होना प्रारम्भ हो जाता है। त्वचा ठंडी पड़ जाती है। हाथ पैर जीभ आदि सुन्न होते होते मस्तिष्क अपना काम करना बंद कर देता है और बेहोशी के बाद दिल धड़कना बंद हो जाता है।

हांगकांग में सर्प का पित्ताशय बड़े चाव से खाया जाता है। ब्रह्मा में एक बार अन्वेषी चिडविन का दल जंगलों में फंस गया तो उसने अजगर खाकर अपना काम कई सप्ताह तक चलाया। अमेरिका में गार्टर सांप का मांस डिब्बों में बन्द बिकता है।

संसार में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियां अपने लिए सर्प विष की तरह तभी घातक बनती हैं जब वे अपने रक्त में—जीवन क्रम में मिलने घुलने लगें। यदि उन्हें आत्मसात न किया जाय तो विकृतियां कितनी ही भयंकर क्यों न हों किसी का कुछ अहित नहीं कर सकतीं। सर्प विष को सीधा रक्त में न मिलने देने की सावधानी रखने वाले काटकूट के साथ अठखेलियां करते रहते हैं और उसके दुष्प्रभाव से सहज ही बचे रहते हैं।

इतना ही नहीं बुद्धिमान लोग तो सर्प विष जैसे भयंकर पदार्थ से भी लाभ उठा लेते हैं। उससे सम्पदा उपार्जन करते हैं और सदुपयोग करके उस विष को अमृत में बदलते हैं। सर्प विष से भयानक रोगों का शमन करने वाली औषधियां बनती हैं और उसका संग्रह करने वाले सम्पन्न एवं यशस्वी बनते हैं।

भारत में हाफकिन इन्स्टीट्यूट बम्बई, सर्प शोध-कार्य में प्रवृत्त है, साथ ही सर्प विष संग्रह करके उन्हें विदेशों में चिकित्सा अनुसंधानों के लिए भेजता है और दुर्लभ विदेशी मुद्रा कमाता है। सर्प विष सोने की अपेक्षा पन्द्रह गुने अधिक मूल्य का होता है। पाले हुए सर्पों में से नाग एक बार में 200 मिलीग्राम, कांडर 150 मिली ग्राम करायत 26 मिली ग्राम और अफई 6 मिली ग्राम विष देता है।

दुष्टता को परिष्कृत करके उसे सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर सकना एक महत्वपूर्ण कला है। सपेरे विषैले सांप पकड़ने का धन्धा करते हैं, इससे वे अनेकों को भयमुक्त करते हैं साथ ही बीन बजा कर उन्हें लहराने का खेल दिखा कर दर्शकों का मनोरंजन एवं अपने लिए आजीविका उपार्जन करते हैं। शेषशैयाशायी विष्णु और सर्पालंकार धारी शंकर के चित्र इसी प्रयोग की सफलता का संकेत करते हैं। वाल्मीक, अंगुलिमान, अम्बपाली, अजामिल, विल्वमंगल, अशोक आदि के पूर्वपक्षी दुष्टजीवन उत्तर भाग में कितने श्रेष्ठ बन सके, इस तथ्य पर दृष्टिपात किया जाय तो यह स्वीकार किया जायगा कि उच्चस्तरीय सद्भावनाएं बुरों को भी भला बना सकती हैं। इस तथ्य को स्मृति पटल पर बनाये रखने के लिए हिन्दूधर्म में एकाध त्योहार सर्प पूजा का भी है।

श्रावण शुक्ला पंचमी को हर साल नागपंचमी का त्यौहार आता है उस दिन जगह जगह सपेरे अपने सांप पिटारे में लेकर पहुंचते हैं सर्प का दर्शन कराते हैं, धर्म भीरु लोग उन्हें दूध पिलाते हैं और सपेरों को दान दक्षिणा देते हैं।

महाराष्ट्र के सांगली नगर में कोई 70 मील दूर शिराला गांव में बसन्त पंचमी पर होने वाली सर्प पूजा अद्भुत है। वहां दूर गांवों के लोग इकट्ठे होते हैं और सर्प नृत्य का आनन्द मनाते हैं। सपेरे तथा दूसरे लोग अपने पकड़े सर्पों को लेकर वहां पहुंचते हैं। गाते बजाते हैं। सर्प, फल फैलाकर उनके साथ-साथ नृत्य करते हैं। कहते हैं बाबा गोरख नाथ ने यह आशीर्वाद दिया था कि इन 32 गांवों में सर्प किसी को नहीं काटेंगे और न इन गांवों के लोग उन्हें मारेंगे। आश्चर्य है कि यह लोकोक्ति सही भी होती चली आती है। पूना से इस्लाम पुर तक पक्की सड़क जाती है। इसके बाद शिराला तक 10 मील पैदल चलना पड़ता है।

इस प्रकार के उदाहरण बताते हैं कि एक पक्षीय सद्भावना भी दूसरे पक्ष की दुष्टता को ऋजु एवं मृदुल बनाने में बहुत हद तक सफल हो सकती है।
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