जड़ के भीतर विवेकवान चेतन

व्यवस्था और शक्ति का कहीं अभाव नहीं

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
हाथी, ऊंट, गेंडा, जिराफ, चिंपैंजी, गुरिल्ला, सिंह, व्याघ्र, ह्वेल, शार्क, जैसे समर्थ और बड़े शरीर वाले प्राणियों की गतिविधियों और सामर्थ्यों के सम्बन्ध में हमें बहुत कुछ जानकारी उपलब्ध हैं। मनुष्य की बुद्धि-शीलता के सम्बन्ध में बहुत कुछ जाना खोजा गया है, पर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि प्रकृति ने ऐसी विशेषतायें बड़ी आकृति वाले प्राणियों को ही दी हैं।

छोटे जीवों में चींटी, दीमक और मधुमक्खियों जैसे कीड़े मकोड़े की गतिविधियों तक यदि गंभीरता पूर्वक दृष्टि डाली जाय तो आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है और प्रतीत होता है कि अपने जीवन क्षेत्र की परिधि में उन्हें मनुष्य से भी अधिक बुद्धिमत्ता और कुशलता उपलब्ध है।

जिन प्राणियों को मूर्ख ठहराया जाता है उनके सम्बन्ध में विचार करते समय हम अपने स्तर की क्षमता की कमी-वेशी का ही लेखा-जोखा लेते हैं। यह भूल जाते हैं कि सब प्राणियों का कार्यक्षेत्र एवं जीवन-क्रम एक नहीं। जिसको जिस स्तर का जीवन-यापन करना पड़ता है, उसे प्रकृति ने उसके कार्य क्षेत्र में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकने योग्य कुशलता पर्याप्त मात्रा में दी है। इस तरह से वे न तो तुच्छ ठहरते हैं न मूर्ख न अशक्त। मछलियों के समाज में हमें रहना पड़े और जल में निवास करना पड़े तो निस्सन्देह मछलियां हमें सर्वथा असफल एवं दयनीय प्राणी मानेंगी। यही बात मक्खियों के सम्बन्ध में है। हम उनकी दृष्टि में एक निरीह जीवधारी ही ठहर सकते हैं और वे उन्मुक्त आकाश में उड़ते हुए हमारी असमर्थता को दुर्भाग्य का चिन्ह ही ठहरा सकते हैं।

दृश्यमान स्कूलकाय प्राणियों से भी आगे बढ़ें तो ऐसे जीवधारियों की बहुत बड़ी संख्या मिलेगी जिन्हें विकसित कहा जा सकने योग्य मस्तिष्क तथा संवेदना सूचक इन्द्रिय समूह प्राप्त नहीं है। इतनी अभाव ग्रस्तता के बीच भी उन्हें चेतना का अपना अद्भुत स्तर उपलब्ध है और वंश वृद्धि से लेकर जीवनयापन के दूसरे साधनों तक बहुत कुछ प्राप्त है, और वह इतना अधिक और विस्तृत है कि मनुष्य उस पर दांतों तले उंगली ही दबा सकता है।

जीवाणुओं की अपनी दुनिया है। ये बहुत छोटे हैं उनमें से कितने तो ऐसे हैं जो सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता के बिना खुली आंखों से देखे ही नहीं जा सकते। इतने छोटे होते हुए भी उन्हें अपने स्तर का क्रिया कलाप जीवन-यापन कर सकने की आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त है। शरीर के अनुपात से जितनी सामर्थ्य उन्हें प्राप्त है, उसी हिसाब से हमारे शरीर के लिए कितनी सामर्थ्य चाहिए इसका हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि अनुमान की दृष्टि से मनुष्य को प्रकृति का अनुदान बहुत ही स्वल्प प्राप्त है। जीवाणुओं को उनके छोटे कलेवर के अनुसार जो कुछ मिला है यदि वही अनुदान मनुष्य को प्राप्त रहा होता तो उसकी क्षमता उतनी अधिक होती जितनी कि हम देवताओं की सामर्थ्य की कल्पना करते हैं।

जीवित प्राणियों में सबसे सूक्ष्म जीव इकाई है जीवाणु। इनमें तरल प्रोटोप्लाज्म भरा रहता है। ऊपर से ल्यूकोज की झिल्ली होती है। इनका आकार प्रायः एक इंच का पच्ची हजारवां भाग होता है। ये स्वयं ही अपने शरीर में प्रजनन करते हैं 24 घन्टे में प्रायः एक जीवाणु लगभग डेढ़ करोड़ नये जीवाणु उत्पन्न कर देता है और हर नया जीवाणु अपने जन्म के प्रायः 15 मिनट बाद प्रजनन योग्य प्रौढ़ता प्राप्त कर लेता है। सूर्य का तीव्र ताप इनकी मृत्यु का प्रधान कारण होता है।

जीवाणुओं में कोमलता और अशक्तता बहुत है। पर इतने पर भी उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकने लायक वह विशेषताएं भी प्राप्त हैं जिनके आधार पर वे प्रलय जैसी भयंकर विपत्तियों से भी जूझते हुए अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकें।

जीवन को सूक्ष्मतम इकाई को अभी जीवाणु कहते हैं जीवाणु (बैक्टीरिया) इतने छोटे होते हैं कि एक इंच की लाइन में उन्हें क्रमवार बैठाया जाये तो उनकी संख्या कोई 30000 बड़े आराम से बैठ जायेगी बाल की चौड़ाई में ‘काकस’ नाम के जीवाणु 75 की संख्या में मजे से बैठ सकते हैं, इतनी सूक्ष्म अवस्था में जीवन का होना भारतीय तत्व-दर्शन के ‘अणोरणीयान महतो महीयानात्मा’ यह आत्मा अणु से भी छोटी और विराट् से भी विराट् है, सिद्धान्त की ही पुष्टि करता है। आत्मा का अर्थ यहां भी जीव-चेतना के उस स्वरूप से है, जो अगणितीय (नानमैथेमेटिकल) सिद्धान्तों पर खाता-पीता, पहनता, उठता-चलता, बातें करता, बोलता, हंसता चिल्लाता, प्रेम-करुणा, दया आदि की अभिव्यक्ति करता पाया जाता है। शरीर से चाहे वह मनुष्य हो या पशु-पक्षी। जिसमें जीव-चेतना के लक्षण हैं, सब आत्मा हैं। विविध रूपों में होते हुये भी विश्वात्मा एक ही है, यह अनुभूति हमें चेतना की अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था तक पहुंचकर ही कर सकते हैं।

यह बात जीवाणु के परिचय से बिलकुल स्पष्ट हो जाती है। जीवाणु सब से छोटे जीवों को कहते हैं, उनकी शारीरिक बनावट मनुष्य से बिलकुल भिन्न होती है। एक नाभिक और उसके किनारे-किनारे प्रोटीन झिल्ली। प्रत्येक किस्म के जीवाणु की प्रोटीन झिल्ली में अपनी तरह के तत्व होते हैं, वह जीवाणु की प्रकृति और उसके स्वभाव पर निर्भर है। अर्थात् आत्मा के अच्छे बुरे गुण ही सब जगह साथ रहते हैं।

जीवाणु कितना खाते हैं, इसका कोई अनुमान भी नहीं कर सकता। पेटू और आलसी आदमी जिस प्रकार केवल खाने और बच्चे पैदा करने में निपुण होते हैं, ज्ञान, विद्या, विवेक, सफलता और नई-नई तरह की शोध करने की योग्यतायें उनमें विकसित नहीं हो पातीं, उसी तरह जीवाणु भी केवल खाते-पीते और बच्चे पैदा करते रहते हैं। जीवाणु एक घण्टे में अपने भार से दो गुना अधिक खा डालता है। जब तक भोजन मिलता रहता है, वह खाता ही रहता है। गन्धक, लोहा, अण्डे, खून, सड़े-गले पत्ते, लकड़ी और मरे हुये जानवर ही इनका आहार है, इस दृष्टि से जीवाणु बहुत कुछ मनुष्य का हित भी करते रहते हैं, जीवाणु न होते तो पृथ्वी पर गन्दगी इतनी अधिक बढ़ जाती कि मनुष्य का जीवित रहना कठिन हो जाता।

कुछ जहरीले जीवाणु कार्बन मोनो ऑक्साइड पर जीवित रहते हैं। यह एक जहरीली गैस है और मनुष्य के लिये अहितकारक। भगवान् शिव की तरह विष से मानवजाति की सुरक्षा का एक महान् परोपकारी कार्य जीवाणु सम्पन्न करते हैं, जबकि मनुष्य अधिकांश अपने ही निकृष्ट स्वार्थ-भोग में लगा रहता है।

पाश्चात्य वैज्ञानिक मनुष्य को अमीबा और बन्दरों का क्रमिक विकास मानते हैं, उनसे जब अमैथुनी सृष्टि की बात कही जाती है, तब वे भारतीय तत्व-दर्शन पर आक्षेप करते हैं, आश्चर्य है कि सृष्टि प्रक्रिया जीवाणुओं पर अमैथुनी होती है, इससे भी वे चेतना के सूक्ष्म दर्शन की अनुभूति नहीं कर पाते। जीवाणुओं की सन्तानोत्पत्ति जितनी विलक्षण है, उतनी ही आत्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली भी। खमीर पैदा करने वाला एक जीवाणु (बैक्टीरिया) ले लें, आप देखेंगे कि नर और मादा दोनों का काम यह एक ही जीवाणु कर देता है और सिद्ध करता है कि आत्मा न तो पुरुष है, न स्त्री वह तो शुद्ध चेतना मात्र है, स्त्री के शरीर में आ जाने से स्त्री भाव, पुरुष के शरीर में आ जाने पर पुरुष हो जाता है। यही चेतना भैंस के शरीर में भैंस, हाथी के शरीर में हाथी बन जाती है। शरीरों में अन्तर है पर तत्वतः आत्मा एक ही प्रकार की चेतना है।

एक जीवाणु बढ़कर जब पूर्ण हो जाता है, तब उसी में से कोंपल फूटती हैं। नाभिक (न्यूक्लियस) थोड़ी देर में बंट जाता है और एक नये जीवाणु का रूप लेता है। जन्म से थोड़ी देर बाद ही वह भी जन्म दर बढ़ाना प्रारम्भ कर देता है। इस प्रकार पिता और पुत्र दोनों बच्चे पैदा करते चले जाते हैं, 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8 और 8 से 16 इस क्रम में बढ़ते हुये एक सप्ताह में खमीर का जीवाणु 168 पीढ़ी तैयार कर लेता है, उनमें से लाखों जीवाणु तो एक घण्टे में ही पैदा हुये होते हैं। वह भी बच्चे पैदा करने लगते हैं, जब कि उनका बूढ़ा पितामह भी उन मूर्खों की तरह बच्चा पैदा करने में लगा होता है, जिन्हें यह पता नहीं होता कि बच्चे पैदा करना ही काफी नहीं, उनकी शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका आदि का प्रबन्ध न हुआ तो बढ़ी हुई जनसंख्या संकट ही उत्पन्न कर सकती है। जीवाणुओं का अस्तित्व और उनका बेतहाशा प्रजनन भी मनुष्य जाति के लिये खतरनाक ही होता है।

मनुष्य तो भी समझदार है, क्यों कि वह औसतन 25 वर्ष में नई पीढ़ी को जन्म देता है, यह बात दूसरी है कि आजकल दूषित और गरिष्ठ आहार तथा कामुकता के कारण नवयुवक छोटी आयु में ही बच्चे पैदा करने लगते हैं और इस तरह जनसंख्या की वृद्धि के साथ अपना और परिवार का स्वास्थ्य भी चौपट करते हैं, अन्यथा 25 वर्ष की आयु स्वाभाविक है। उसमें जनसंख्या और अन्य समस्याओं का संतुलन बना रहता है। यदि मनुष्य इतना विवेक नहीं रख सकता तो वह भी उन जीवाणुओं की ही तरह समझा जायेगा, जो केवल 15 मिनट बाद एक नया बच्चा पैदा कर देते हैं। 24 घण्टों में इनकी 96 पीढ़ियां जन्म ले लेती हैं, मनुष्य को इतनी पीढ़ियों के लिये कम से कम दो हजार वर्ष चाहिये। 24 घण्टे की इस अवधि में कुल उत्पन्न सन्तानों को संख्या 2।96 (अर्थात् दो-दो को 96 बार गुणा किया जाय) होगी। अक्षरों में लिखने में यह संख्या थोड़ी समझ में आ रही होगी पर यदि विधिवत गुणा करके देखा जाय तो यह संख्या 281374980040656× 6× 281374980040656 होगी।

अनुमान नहीं कर सकते हैं कि यह तो एक जीवाणु की एक दिन की पैदाइश है, यदि मनुष्य भी ऐसी ही जनसंख्या बढ़ाने की भूल करे तो पृथ्वी पर आहार, निवास और कृषि उत्पादन आदि की कैसी बुरी स्थिति हो। सौभाग्य है कि जीवाणु बहुत छोटे हैं, इसलिये उनके सर्वत्र भरे होने से भी हमारे सब काम चलते रहते हैं। पर यह नितान्त सम्भव है कि हमारी प्रत्येक सांस के साथ लाखों जीवाणु भीतर शरीर में आते-जाते रहते हैं। प्रकृति की इस विलक्षणता से मनुष्य की रक्षा भगवान् ही करता है अन्यथा यदि विषैले जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती तो पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों को उसी तरह नजरबन्द रहना पड़ता, जिस तरह चन्द्रमा से कोई विषाणु (वायरस) न आ जाये, इस भय से चन्द्र-यात्री नील आर्मस्ट्रांग, एडविन एल्ड्रिन और कोलिन्स को चन्द्रमा से उतरते ही नजर बन्द करके तब तक रखा गया, जब तक उन्हें अनेक प्रकार के रसायनों से धोकर बिलकुल शुद्ध और साफ न कर लिया गया।

मनुष्य का यह सोचना व्यर्थ है कि अनेक प्रकार के देश और वर्णों में पाये जाने का सौभाग्य केवल उसी को ही मिला है, यह तो सब प्रकृति और परमेश्वर का खेल है, जो जीवन की सूक्ष्म इकाई जीवाणुओं में भी है। इनकी लाखों किस्में हैं और हजारों तरह के आकार। आड़े-टेढ़े कूबड़े षट्कोण, लम्बवत् विलक्षण शिवजी की बारात। कोई फैले रहते हैं, कोई गुच्छों में समुदाय बनाकर, कोई विष पैदा करते हैं, कोई मनुष्य जाति के हित के काम भी। ‘काकस’, ‘डिप्थीरिया’, ‘स्फरोचेट्रस’ नामक जीवाणु जहां उपदंश, फफोले, मवाद पैदा कर देते हैं, वहां वे जीवाणु भी हैं जो दूध को दही में बदलकर और भी सुपाच्य और स्वास्थ्यवर्द्धक बना देता है। जो अच्छे प्रकार के जीवाणु होते हैं, उन्हें काम में लाया जाता है, अच्छे मनुष्यों की तरह सम्मान दिया जाता है, जब कि बुरे और विषैले जीवाणुओं को मारने के लिए संसार भर में इतनी दवायें बनी हैं, जितने खराब मनुष्यों के लिये दण्ड विधान। कहीं अपराधियों को जेल दी जाती है, कहीं कला पाना, कहीं उनका खाना बन्द कर दिया जाता है, कहीं सामाजिक सम्पर्क। उसी तरह औषधियों के द्वारा खराब जीवाणुओं को भी नष्ट करके मारा जाता है। दण्ड का यह विधान कठोरतापूर्वक न चले तो उससे मानव-जाति का अस्तित्व ही संकट में पड़ जायें, इसीलिये सत्पुरुष के लिये दया और करुणा जितनी आवश्यक है। बुरे व्यक्ति को दण्ड भी उतना ही आवश्यक है।

हमारे आस-पास के सम्पूर्ण प्राकृतिक जीवन में यह क्रियायें चलती रहती हैं पर हम जान नहीं पाते। मनुष्य की भौतिक आंखें बहुत छोटी हैं, इसलिये यह दृश्य केवल ज्ञान से ही देख या अनुभव कर सकते हैं पर यह एक सत्य भी है कि इन अनुभूतियों को योग और साधनाओं द्वारा स्पष्ट बनाया जाता है। मनुष्य अपने को शरीर मानने की भूल को छोड़ता हुआ चला जाये और शुद्ध आत्म-चेतना की अनुभूति तक पहुंच जाये तो वह चींटी ही नहीं, जीवाणु की उस सूक्ष्म सत्ता तक भी पहुंच कर सब कुछ यन्त्रवत देख सकता है, जिसका व्यास 1।30000 इंच तक होता है। वैज्ञानिक यन्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि आत्म-चेतना के लिए असम्भव कुछ है नहीं।

जीवाणुओं को जिस यन्त्र से देखते हैं, उसका नाम है ‘माइक्रोस्कोप’ में कांच के ऐसे शीशे (लेन्स) लगाये जाते हैं, जो प्रकाश किरणों के समूह (बीम) को एक छोटे से छोटे बिन्दु से गुजार सकें। प्रकाश की ऐसी बलवान् किरणें छोटी से छोटी वस्तु को इतना बड़ा करके दिखा देती हैं जितना बड़ा आकार उस वस्तु का कभी सम्भव ही नहीं हो। उदाहरण के लिये यदि 5 फुट के व्यक्ति को यदि 1000 गुना बढ़ाकर दिखाया जाय तो उसकी आकृति 5000 फुट की दिखाई देगी। अर्थात् यह मनुष्य पर्वताकार लगेगा। अब तो ‘इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप’ चल गये हैं, एक बार परीक्षण के तौर पर 12 इंच के बाल को ‘इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप’ से देखा गया तो उसकी बढ़ी हुई लम्बाई 20 मील थी और चौड़ाई 20 फुट। इतना बड़ा बाल संसार में शायद ही कभी सम्भव हो पर प्रकाश किरणों की शक्ति ने यह सम्भव कर दिया। यदि आत्म-चेतना भी इतनी सूक्ष्म की जा सके तो वह एक परमाणु में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड को देख सकती है। भारतीय योग दर्शन और चित्त निरोध का यही उद्देश्य है कि मनुष्य अपने मन की सूक्ष्मता में बैठकर विराट् ब्रह्मांड का दिग्दर्शन करे। तभी विश्व के यथार्थ को समझा जा सकता है। जीवाणुओं की परीक्षा और उन पर प्रयोग ऐसी ही स्थिति में बन पड़ता है, जब उन्हें माइक्रोस्कोप द्वारा कई हजार और लाख गुना बढ़ाकर देखते हैं। अन्यथा उनके अस्तित्व का ही पता न चलता। सूक्ष्मता का दर्शन भी उसी प्रकार आत्मा के विकास के द्वारा ही देख सकता है।

मनुष्य के से शरीर जटिलता से मुक्त अत्यन्त सूक्ष्म जीवाणु के अध्ययन से यह सारी बातें सत्य पाई गई, कई जीवाणु जिन्हें गीले स्थान में ही रहने का अभ्यास था उन्हें सूखे में लाया गया तब भी उनके जीवन को कोई संकट नहीं उपस्थित हुआ। वे 20 वर्ष तक बराबर आर्द्रता की प्रतीक्षा करते रहे। इसी प्रकार उन पर तेज से तेज सूर्य की धूप का भी प्रभाव नहीं होता, ठंडे से ठंडे स्थान में भी जीवाणु मरते नहीं और उन्हें कुछ खाने को न मिले तो भी वे अपना जीवन धारण किये रहते हैं।

जीवन का उदय और विकास

धरती की उष्णता जब शान्त होकर जीवधारियों के योग्य हुई तो सबसे पहिले जीव द्रव्य-प्रोटोप्लाज्म उत्पन्न हुआ। प्रथम जीवधारी जीव द्रव्य की बूंदों के सम्मिश्रण से नहीं बना वरन् वह एक स्वतन्त्र सत्ता सम्पन्न एक कोषीय जीव था; उपलब्ध ‘अमीबा’ उसी स्तर के जीवों का एक जीव है। ‘अमीबा’ नहीं—तालाबों, नालियों एवं कीचड़ जैसे स्थानों में पाया जाता है। इसका आकार प्रायः इंच के सौवें भाग के बराबर होता है।

इसके ऊपर एक पतली झिल्ली चढ़ी रहती है जिसे प्लाज्मा लेमा कहते हैं। इसमें कई-कई शंकुपाद हाथी की सूंड़ जैसे निकले रहते हैं। वह अपना आहार इन्हीं के सहारे पकड़ता और खींचता है।

प्रौढ़ अमीबा अपने को ही दो टुकड़ों में विभाजित कर लेता है, यह है उसकी वंश परम्परा का क्रम। विभंजन से पूर्व वह अपनी आकृति को गोलाकार बनाता है, इसके बाद मध्य में पतला होते हुए दो टुकड़ों में बंट जाता है। इस भांति विभाजन प्रजनन कर्म में उसे प्रायः डेढ़ घण्टा लगता है।

भौतिक और रसायन शास्त्र के परमाणुओं की चर्चा आमतौर से होती रहती है। ठीक इसी प्रकार सजीव जगत के परमाणु भी कई प्रकार के होते हैं इनमें से एक का नाम है—‘डायटम’। डायटम का अर्थ है—‘दो परमाणुओं की शक्तिवाला’। यों यह वनस्पति वर्ग में आते हैं पर इसमें पेड़ पौधों जैसा प्रत्यक्ष लक्षण एक भी दीख नहीं पड़ता। इनका आकार इंच के पचासवें भाग से लेकर इंच के छह हजारवें भाग तक होता है। वे सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता से ही देखे जा सकते हैं।

आकृति में ये इतने सुन्दर और इतने चित्र-विचित्र होते हैं कि देखने वाला मुग्ध होकर रह जाता है। लगता है किसी बहुत ही कुशल कारीगर ने पच्चीकारी, मीनाकारी की एक से एक सुन्दर डिजाइनों के रूप में इन्हें गढ़ा है। गुलदस्ते, रत्नजटित हार, डिजाइनदार, कालीन, केकड़ा, कानखजूरा, स्फटिक, कच्छप जैसे प्राणियों की तथा कई प्रकार के पुष्प गुच्छकों के रूप में इन्हें सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से ही देखा जा सकता है। देखने वाले को अचम्भा होता है कि इतने छोटे असमर्थ और अविकसित प्राणी पर नियति ने कितनी सुन्दरता से अपनी कलाकृति का अनुदान बखेरा है।

इनकी चाल की विचित्रता वैज्ञानिकों के लिए न केवल आश्चर्य का विषय है वरन् बहुत कुछ सिखाती भी है। कितने ही यंत्र का गतिक्रम निर्धारण करने में इन छोटे डायटम ने महत्वपूर्ण मार्ग निर्देशन किया है। इनमें से कुछ टेंक की तरह, कुछ जलयान की तरह, कुछ राकेट की तरह और कुछ बिजली की तरह आगे पीछे हटते बढ़ते अपनी गति का प्रदर्शन करते हैं।

अपने आपको दो टुकड़ों में विभाजित करके ये एक से दो बनते हैं। इसी क्रम में इनकी वंश वृद्धि होती रहती है।

जड़ अण्ड ‘परमाण्ड’ के नाम से पुकारे जाते हैं इन्हें प्राणधारियों में काम कर रहे चेतन अण्डजों की कोशिकायें कहते हैं। यों ये कोशिकायें भी अण्डजों से ही स्वनिर्मित हुईं पर उनमें चेतना का अतिरिक्त अंश मिल जाने से उन्हें दूसरे वर्ग में रक्खा गया दूसरे शब्दों में ये भी कह सकते हैं कि जड़ जगत अण्डजों से और चेतन सृष्टि जीवाणुओं एवं कोशिकाओं से बनी है जिस प्रकार परमाणु के भीतर भी कई अनोखी सृष्टि होती है उसी प्रकार कोशिकाओं के भीतर भी एक पूरा चेतन सरोवर भरा हुआ है और इन दोनों को इकाइयां माना जाता है पर वे अविच्छिन्न नहीं हैं। उनके भीतर भी विश्लेषण करने जैसे असीम और अगणित तत्व एवं भेद प्रभेद भरे पड़े हैं। इस लघुता का अंत भी विराट के अन्त की तरह अभी तो बुद्धि की सीमा से बाहर ही दीखता है जितना खोलते हैं उतनी ही एक के भीतर एक नई पर्त निकलती चली आती है।

सभी पौधे और प्राणी कोशिकाओं से बने हैं। आर्द्यलस जेली जैसे चिपचिपे पदार्थ से भरी होती हैं। ये कोशिकायें अपनी पूर्ववर्ती कोशिकाओं के विभाजन से बड़ी होती हैं। और विभाजन क्रम ही उनकी आगे की वंश वृद्धि करता रहता है। प्राणी के वृद्धि, विकास आनुवंशिकाता, बलिष्ठता, दुर्बलता, जरा, मृत्यु मनःस्थिति आदि का आधार इन कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना पर ही निर्भर रहता है। इस प्रकार हम चाहें तो इन कोशिकाओं को भी एक स्वतंत्र जीवनधारी जैसी संरचना कह सकते हैं। जीव का समान स्वरूप इन जीवाणु कोशिकाओं के समूह संगठन का ही दूसरा नाम है।

अमीवा सरीखे कुछ प्राणी केवल एक ही कोश के बने होते हैं। अन्य विकसित और बड़े प्राणियों से उनकी संख्या अधिक होती है। एक सौ साठ पौण्ड के वयस्क पुरुष में प्रायः 60 हजार अरब तक कोशिकायें होती हैं। इनके भीतर भरे हुए पदार्थ को प्रोटोप्लाज्मा कहते हैं। इसके ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली इतनी लचीली होती है कि उसमें होकर आवश्यक आदान-प्रदान होता रहता है किन्तु अवांछनीय प्रवेश को वह रोके भी रहती है। प्रोटोप्लाज्म को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं, (1) साइटोप्लाज्म (2) न्यूक्लियस। साइटोप्लाज्म में लवण, वसायें, शर्करा, प्रोटीन, खनिज जैसे अनेक पदार्थ सम्मिश्रित होते हैं। न्यूक्लियस उसी के भीतर एक अचेतन मृत सघन गेंद की तरह रहता है। उसकी संरचना क्रोमोसोम समूह के न्यूक्लीओलस पदार्थों से होती है। मानव शरीर की कोशिकाओं से 46 क्रोमोसोम होते हैं। इनके भी बहुत छोटे-छोटे कण होते हैं जिन्हें ‘जीन’ कहते हैं। वंश परम्परा से वे उत्तराधिकार इन जीवों द्वारा ही भावी पीढ़ी पर उतरते हैं। इन जीवों की अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है उनके संबन्ध में अधिक बारीकी तथा तत्परता के साथ खोज की जा रही है। यदि गहराई में उतरा जाय तो यह जीन भी एक स्वतंत्र सत्ता कहे जा सकने जैसी स्थिति में हैं।

इससे भी आगे बढ़कर जब निर्जीव समझे जाने वाले रासायनिक पदार्थों को देखते हैं तो वे जड़-अचेतन स्तर की दयनीय और चेतना जगत में अत्यन्त पिछड़े हुए प्रतीत होते हैं। बहुत करके तो उन्हें जड़ कहकर चेतन जगत से बहिष्कृत ही मान लिया जाता है। पर विज्ञान के अन्वेषणों ने बताया है कि इन रासायनिक पदार्थों में यह अद्भुत शक्ति भरी पड़ी है जिससे वे स्वयं निर्जीव कहलाते इस जीवन को—जीवधारियों को—उत्पन्न कर सकें। पर इस शक्ति को वे तभी कार्यान्वित कर सकते हैं, जब परस्पर घुल मिल जाने के लिए तत्पर हो जाते हैं अलग-अलग रहने की पृथकतावादी नीति जब तक वे अपनाये रहते हैं तभी तक वे जड़ हैं पर जिस क्षण वे रासायनिक द्रव्य सन्तुलित रूप से एकत्रित होते हैं उसी क्षण द्रव्य के रूप में चेतना का संचार होने लगता है।

जीव-द्रव्य प्रोटोप्लाज्म कुछ रासायनिक तत्व वेत्ताओं का सम्मिश्रण मात्र समझा जाता है। कार्बन क्लोरीन, आयोडीन, मैग्नीशियम प्रकृति रासायनिक पदार्थों का समन्वयीकरण इस जीव-द्रव्य को विनिर्मित करने की भूमिका सम्पादित करता है।

हमें चाहिए कि न तो अपने को सृष्टि का सबसे बड़ा प्राणी मानें और प्रकृति का वरद-पुत्र। न अपनी उपलब्धियों पर अहंकार करें न उद्धत बनें। साथ ही छोटे प्रतीत होने वालों को हेय दृष्टि से भी न देखें न उन्हें अकिंचन समझें न दयनीय, दुर्भागी। वरन् यही समझते रहें कि सृष्टि के प्रत्येक घटक में ईश्वर की दिव्य ज्योति विद्यमान है। यह परमाणुओं से लेकर जीवाणुओं तक हर लघुत्तम समझी जाने वाली इकाई में प्रकृति के अद्भुत अनुदान भरे पड़े हैं।

शक्ति का स्रोत !

पदार्थों को बड़ी मात्रा में एकत्रित करके अधिक वैभव, बल या सुख पाया जा सकता है; यह मान्यता अब बहुत पुरानी हो गई। मात्रा की अपेक्षा अब गुण को महत्व मिलने लगा है जो उचित भी है। ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ वाली कहावत वहां लागू होती है जहां यह सोचा जाता है कि जो जितना बड़ा है—साधन—सम्पन्न है वह उतना ही सशक्त है। शक्ति का स्रोत हर छोटे पदार्थ, व्यक्ति एवं साधन में मौजूद है। यदि हम बारीकी से ढूंढ़ना, परखना और सही रीति से प्रयुक्त करने की विद्या जान जायं तो थोड़ी-सी सामग्री से ही प्रचुर शक्ति सम्पन्न बन सकते हैं। हमारे छोटे-छोटे व्यक्तित्व ही ऐसे महान कार्य सम्पन्न कर सकते हैं जिन्हें देखकर दांतों तले उंगली दबानी पड़े। अणु शक्ति इस तथ्य को प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करती है। पदार्थ का छोटे से छोटा घटक ‘अणु’ कितना सशक्त है और वह कितने बड़े कार्य कर सकता है इसे देखने, समझने पर इस सचाई को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि छोटा समझा जाने वाला व्यक्ति भी यदि अपने को समझ सके तो जो कुछ वह है उतने का ही सही उपयोग कर सके तो वह कर सकता है जिसके लिए सामान्य बुद्धि बहुत बड़े साधनों की आवश्यकता अनुभव करती है।

अब परमाणु पदार्थ की सबसे छोटी इकाई नहीं रहा उसके भीतर 100 से भी अधिक ऐलिमेन्टरी पार्टिकल—प्राथमिक कण-खोज निकाले गये हैं। इनको भी अन्तिम इकाई नहीं कहा जा सकता। इनके भीतर जो सूक्ष्मता के अनुपात से अधिक रहस्यमय स्पन्दन, स्फुरण भरे पड़े हैं उनका रहस्योद्घाटन होना अभी शेष है। अब विज्ञान अधिक गहराई में प्रवेश कर रहा है। पिछले दशकों के प्रतिपादन अब झुठलाये जा रहे हैं। यथा—‘ईथर’ की कल्पना का अनस्तित्व पिछले दिनों मोर्स तथा माइकेलसन ने सिद्ध कर दिया है। शब्द तरंगों के वहन करने वाले इस ईथर की खोज पर फिट्ज गेराल्ड और लारेन्टज को बहुत ख्याति मिली थी और उनकी शोध को बड़ी उपयोगी मानकर सर्वत्र मान्यता मिली थी। पर अब उसके नकारात्मक प्रबल प्रतिपादन ने विज्ञान की अन्य मान्यताओं के भी खोखली होने की आशंका उत्पन्न कर दी है। आइन्स्टाइन का सापेक्षवाद अब उतना उत्साहवर्धक नहीं रहा उसमें बहुत सी शंकाओं और त्रुटियों की सम्भावना समझी जा रही है। गैलीलियो, यूटन आदि की मान्यताएं अब पुरातन पंथी वर्ग की कल्पनाएं ठहराई जा रही हैं।

महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिक दर्शन में अपने ढंग से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यह संसार छोटे-छोटे कणों से मिलकर बना है। ईसा से 400 वर्ष पूर्व यूनानी दार्शनिक देमोक्रितु भी अणुवाद का प्रतिपादन करते थे। इससे पूर्व यह जगत् पंचतत्वों का बना माना जाता था। अब पंचतत्व का बहुत मोटा वर्गीकरण है। अपनी अपने आप में मूल सत्ता नहीं रहा उसे कुछ गैसों का सम्मिश्रण मात्र स्वीकार किया गया है। पुरानी मान्यताएं अपने समय में बहुत सम्मानित थीं, पर वे अब त्रुटि पूर्ण ठहरादी गई हैं।

न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त एक सीमा तक ही सही है। यदि कोई राकेट प्रकाश की गति से एक सेकिण्ड में 300000 किलोमीटर उड़ने लगे तो वे गुरुत्वाकर्षण नियत गलत हो जायेंगे।

रेडियम धातु द्वारा उत्पन्न होने वाले विकरण की खोज होने तक यही मान्यता थी कि पदार्थ को ऊर्जा में नहीं बदला जा सकता है दोनों का अस्तित्व स्वतन्त्र है। पर अब अणु विस्फोट के पश्चात् यह स्वीकार कर लिया गया है कि पदार्थ और ऊर्जा वस्तुतः एक ही सत्ता के दो रूप हैं और उन्हें आपस में बदला जा सकता है। क्वान्टम और मैक्सवेल के सिद्धान्तों को आइन्स्टाइन की नई खोजों ने बहुत पीछे छोड़ दिया है। चुम्बक सम्बन्धी पुरातन मान्यताओं में रेदरफोर्ड ने नये तथ्य जोड़े उनने सिद्ध किया कि रेडियम धर्मी विकरण का एक भाग जब एक दिशा में मुड़ता है तो उसे ‘अल्फा’, विपरीत दिशा में मुड़ता है तो ‘बीटा’ और बिलकुल न मुड़ने वाला प्रवाह ‘गामा’ किरणों के रूप में निसृजित होता है। यह तीनों प्रवाह अपने-अपने ढंग के अनोखे हैं। अल्फा विकरण को कागज की एक पतली झिल्ली में रोका जा सकता है किन्तु बीटा विकरण एल्युमिनियम की कुछ मिली मीटर मोटी चादर को भी पार कर सकता है। गामा विकरण को शीशे की मोटी परत ही शोषित कर सकती है।

पुराना मान्यता का परमाणु ठोस था। पीछे उसमें भी ढोल की पोल पाई गई है। आकाश में घूमने वाले पिण्डों की तरह परमाणु के गर्भ में कुछ प्राथमिक कण भ्रमण तो करते हैं फिर भी उसमें खाली जगह बहुत बच जाती है। यदि इलेक्ट्रोन रहित परमाणुओं के नाभिकों को पूरी तरह सटा कर दबाया जा सके तो एक घन सेन्टीमीटर नाभिकीय द्रव्य का भार 10 करोड़ टन के लगभग हो जायेगा।

पुरानी मान्यताओं के अनुसार जीव तुच्छ हेय, पापी, पतित भव-बन्धनों में जकड़ा हुआ—जन्म मरण के कुचक्र में बंधा हुआ नगण्य था। उसे अपने उद्धार उत्थान के लिए किसी गुरु—मन्त्र या देवता की सहायता अपेक्षित थी, पर जब आत्म सत्ता में सन्निहित गरिमा पर विचार किया जाता है तो स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि आत्मा अणु होते हुए भी परमात्मा—विभु की समस्त विशेषताएं अपने भीतर छिपाये हुए हैं। जीवात्मा के सम्बन्ध में अनेक पुरातन मान्यताओं को निरस्त करते हुए वेदान्त ने ‘अयमात्मा ब्रह्म’ प्रज्ञानं ब्रह्म—तत्व मसि सोऽहम्, शिवोऽहम् का उद्घोष किया है तो वह अहंमन्यता नहीं जैसी कि तथ्य पूर्ण यथार्थता परमाणु के सम्बन्ध में सामने आई है। धुलि मिट्टी का एक अत्यन्त छोटा घटक होने के कारण उसका प्रत्यक्ष मूल्य नगण्य है, पर यदि उसका वैज्ञानिक ढंग से उपयोग किया जाय तो उससे समस्त संसार का अभाव दारिद्र दूर हो सकता है। शक्ति का असाधारण स्रोत करतलगत किया जा सकता है।

अणु शक्ति की झांकी तो करली गई है, पर साथ ही यह खतरा भी सामने है कि विस्फोट से जो हानिकारक विकरण उत्पन्न होगा उस पर नियन्त्रण कैसे किया जा सकेगा। अणु विज्ञान के उदय काल में यह कल्पना की गई थी कि चूने की बराबर प्लेटोनियम के ऐंजनि लगाकर मोटरें चलाई जा सकेंगी। पर वह अब पूरी होती नहीं दीखती क्योंकि अणु विस्फोट में जो नाभिकीय विकरण फैलता है वह न केवल पदार्थों को वरन् जीव कोषों को भी नष्ट करके रख देता है। उससे बचाव करने के लिए चने की बराबर अणु इंजन के लिए किले जैसी मोटी दीवारें खड़ी करनी पड़ेंगी। ऐसी दशा में वह कल्पना की गई हलकी और सस्ती अणु मोटर, मात्र मस्तिष्कीय उड़ान बनकर ही रह जायगी। फिर भी अणु बिजली घर बनाये जा रहे हैं और प्रयत्न किया जा रहा है कि इस शक्ति को वंशवर्ती बनाकर मनुष्य की शक्ति आवश्यकता को पूरा किया जाय। इस दिशा में सफलता भी मिली है और आशा भी बंधी हैं। वह दिन दूर नहीं जब हानि रहित अणु बिजली घर सामान्य बिजली घरों की तरह ही कार्यान्वित होने लगेंगे। अब तक जितना ‘यूरेनियम’ प्राप्त कर लिया गया है वह 900 खरब टन कोयले से मिलने वाली शक्ति के बराबर है।

अणु ऊर्जा—एटामिकइनर्जी—हमारे लिए कितने ही उपयोगी प्रयोजन सिद्ध कर सकती है। चिकित्सा जगत, कृषि उद्योग, यातायात—युद्ध कौशल आदि कितने ही प्रयोजन उससे चमत्कारी स्तर पर पूरे किये जा सकते हैं।

केन्सर चिकित्सा के लिये अणु शक्ति द्वारा विनिर्मित विशिष्ट ‘कोवाल्ट’ बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। जहां एक्सरे यन्त्र काम नहीं करते वहां ‘गेइनर काउन्टर’ वस्तु स्थिति का पता आसानी से लगा लेता है। रेडियो सक्रिय अणुओं के द्वारा एनीमिया—रक्ताल्पना का इलाज सफलता पूर्वक होने लगा है। पैलीसा इथोमिया वीरा नामक कष्टसाध्य रक्त रोग के उपचार में रेडियो सक्रिय फास्फोरस के इन्जेक्शन सफल रहे हैं ऐजिना पैक्टोरिस नामक हृदय रोग में तथा थाइराइड केन्सर में रेडियो सक्रिय आयोडीन अच्छा काम करता है। शरीर के पोले भागों में जहरीला पानी भर जाने की स्थिति रेडियो सक्रिय स्वर्ग ट्यूमर और आंख के केन्सर में रेडियो सक्रिय स्ट्रोन्टियम ने चमत्कार दिखाया है। रेडियो सक्रिय आइसोटोपों में मनुष्यों तथा पशुओं के कितने ही रोगों की सफल चिकित्सा होने लगी है। अमेरिका में इस प्रकार के उपचारों के लिए विशेष रूप से अतिरिक्त आणविक अस्पताल ही खुले हुए हैं।

कृषि क्षेत्र में अणु ऊर्जा की सहायता से किस प्रकार अधिक मात्रा में और अधिक पौष्टिकता युक्त अन्न, शाक, फल आदि उगाने के सम्बन्ध में सुविस्तृत खोज हो रही है और पता लगाया जा रहा है कि बलिष्ठ, पौधे सशक्त खाद, कीड़ों से फसल की रक्षा, अधिक उत्पादन के लिए अणु ऊर्जा किस प्रकार और किस हद तक सहायक हो सकती है। शोध संस्थानों को आशा है कि अणु शक्ति की सहायता से पौधों की ऐसी नस्लें पैदा की जा सकेंगी जो सर्दी, गर्मी, पानी और खाद की कमी तथा कीड़ों के आक्रमण का सामना करते हुए अपनी प्रगति का स्तर बनाये रह सकें।

अमेरिकी एटामिकइनर्जी ऐजेन्सी के अध्यक्ष ग्लीन सीवर्स ने अणु विज्ञानियों की एक अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी में कहा था—अणु शक्ति की खोज बड़े मौके पर हो गई। यदि उसमें विलम्ब हुआ होता तो ईंधन के अभाव में समस्त संसार की प्रगति का क्रम बेतरह ठप्प पड़ जाता।

अभी अणु शक्ति उत्पादन में यूरेनियम धातु का उपयोग प्रधान रूप से होता है, पर आगे चलकर उसका स्थान थोरियम ले लेगा। यूरेनियम की कमी है, पर थोरियम आसानी से और अधिक मात्रा में उपलब्ध किया जा सकेगा।

अब कोयले की कमी पड़ने की भावी चिन्ता से छुटकारा पाया जा सकेगा। 9 पौण्ड यूरेनियम से उतनी ऊर्जा प्राप्त की जा सकेगी जितनी 1500 टन कोयला जलाने पर प्राप्त होती है।

अतीत काल में जब आग मनुष्य के हाथ लगी थी तब भी उसके सामने यही समस्या थी कि उसकी हानियों से कैसे बचा जाय और लाभ कैसे उठाया जाय। देर-सवेर में उसने इसका रास्ता भी निकाल लिया। अब हम आग से बेखटके लाभ उठाते हैं और उसकी भयंकर सम्भावना से अपना बचाव कर लेते हैं। अगले दिनों अणु ऊर्जा के सम्बन्ध में प्रस्तुत कठिनाई को भी हल कर लिया जायगा और इस महादैत्य को मनुष्य की सेवा करने के लिए बाध्य किया जा सकेगा।

मनुष्य के भीतर जड़ अणु शक्ति से भी उच्चकोटि की जीवाणु शक्ति मौजूद है। जड़ से चेतन की गरिमा सर्वविदित है अणु से जीवाणु की क्षमता अत्यधिक प्रचण्ड होना स्वाभाविक है। अणु समूह का थोड़ा सा यूरेनियम जब इतनी शक्ति उत्पन्न कर सकता है तो असंख्य जीवाणुओं के समूह मानवी व्यक्तित्व की क्षमता कितनी महान हो सकती है, इसका अनुमान लगाया जाना कुछ कठिन नहीं होना चाहिए।

प्रकृति प्रदत्त शक्ति स्रोतों में झंझावात, कवन्ध, आंधी, तूफान तथा ज्वार-भाटे अद्भुत है। इनमें सन्निहित शक्ति को यदि संग्रहीत करके किसी उपयोगी दिशा में लगाया जा सके तो उससे भी बहुत काम चलता है। औसत दर्जे की आंधी में प्रायः एक हजार अणु बमों के बराबर शक्ति होती है।

निस्सन्देह इस जड़ जगत में सर्वत्र शक्ति का सागर भरा पड़ा है। पदार्थ के कण-कण में से ऊर्जा की प्रचण्ड लहरें उठ रही हैं। इस बिखराव को समेटने और सही ढंग से प्रयुक्त करने की विद्या जब मनुष्य के हाथ लग जायगी तो फिर अशक्ति जन्य सभी कठिनाइयों का निवारण हो जायगा। मनुष्य के हाथ में सामर्थ्य का अजस्र स्रोत होगा। निस्सन्देह यदि चेतना जगत में संव्याप्त आनन्द और उल्लास से लेकर सिद्धियों, समृद्धियों और विभूतियों के वरदानों की उपलब्धि जब मनुष्य के हाथ में आ जायगी तब वह जीव चेतना के प्रत्येक घटक जीवाणु में समाई सत्ता को देखने, परखने, समेटने और प्रयुक्त करने की कला में निष्णात बन जायगा। इस स्थिति में पहुंच कर ही हम नर से नारायण रूप में विकसित हो सकेंगे और अपूर्णता से पीछा छुड़ाकर पूर्णता सम्पन्न होने का जीवन-लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118