ईश्वरीय न्याय

मनुष्य अपना निर्माता स्वयं है

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शास्त्र का मत है कि संसार तो एक निष्प्राण वस्तु है । इसे हम जैसा बनाना चाहते हैं वैसा ही यह बन जाता है । जीव चैतन्य और कर्त्ता है, संसार पदार्थ है और जड़ है । चैतन्य कर्त्ता में यह योग्यता होनी चाहिए कि वह जड़ पदार्थ का अपनी इच्छा और आवश्यकतानुसार उपयोग कर सके । कुम्हार के सामने मिट्टी रखी हुई है, वह उससे घड़ा भी बना सकता है और दीपक भी । त्रिगुणमयी प्रकृति में दोनों पहलू मौजूद हैं- एक भला, दूसरा-बुरा । एक काला, दूसरा सफेद । एक धर्म, दूसरा अधर्म । इनमें से चुनाव करने की पूरी आजादी आपकी है । दुनियाँ का असली रूप तो पहले ही बताया जा चुका है, पर वह तो शास्त्रीय व्याख्या है । व्यावहारिक दृष्टि से हर एक व्यक्ति की अपनी एक अलग दुनियाँ है । एक व्यक्ति चोर है तो उसे सर्वत्र चोरी की ही चर्चा करने को मिलेगी । इसी प्रकार व्यभिचारी व्यक्ति को सभी स्त्रियाँ व्यभिचारिणी, कुमर्ग़ गामिनी दिखलाई पडेंगी । एक ही व्यक्ति कई लोगों को कई प्रकार का दिखाई पड़ता है। माता उसे स्नेह भाजन मानती है, पिता आज्ञाकारी पुत्र मानता है, स्त्री प्राणवल्लभ मानती है, पुत्र उसे पिता समझता है । इस प्रकार आप देखेंगे कि उस एक ही व्यक्ति के संबंध में यह सब सम्बन्धी कैसी-कैसी विचित्र कल्पना किये हुए हैं, जो एक-दूसरे से बिल्कुल नहीं मिलती । जिसे उससे जितना एवं जैसा काम पड़ता है वह उसके सम्बन्ध में वैसी ही कल्पना कर लेता है । तमाशा तो यह है वह मनुष्य स्वयं भी अपने बारे में एक ऐसी ही कल्पना किए हुए है । मैं वैश्य हूँ, लखपति हूँ, वृद्ध हूँ, पुत्र रहित हूँ, कुरूप हूँ, गण्यमान्य हूँ, दुःखी हूँ, बुरे लोगों से घिरा हुआ हूँ आदि नाना प्रकार की कल्पनायें कर लेता है, और उस कल्पना लोक में जीवन भर विचरण करता रहता है । जैसे दूसरे लोग उसके बारे में अपने मतलब की कल्पना कर लेते हैं, वैसे ही मन भी अपने बारे में इन्द्रियों की अनुभूति के आधार पर अपने सम्बन्ध में एक लँगड़ी-लूली कल्पना कर लेता है और उसी कल्पना में लोग नशेबाज की तरह उड़ते रहते हैं । ''मैं क्या हूँ ?'' इस मर्म को यदि वह किसी दिन समझ पावे तो मालूम हो कि मैने अपने बारे में कितनी गलत धारणा बना रखी थी ।

मनुष्यों को नाना प्रकार के दुःखों में रोते हुए और नाना सुखों में इतराते हुए हम देखते हैं । ''दुनियाँ बहुत बुरी है, जमाना बड़ा खराब है, ईमानदारी का युग चला गया, चारों ओर बेईमानी छाई हुई है, सब लोग धोखेबाज हैं, धर्म-धरती पर से उठ गया'' ऐसी उक्तियाँ जो आदमी बार-बार दुहराता है समझ लीजिए कि यह खुद धोखेबाज और बेईमान है । इसकी इच्छित वस्तुएँ इसके चारों ओर इकट्ठी हो गई हैं और उनकी सहायता से सुव्यवस्थित कल्पना चित्र इसके मन पर अंकित हो गया है । जो व्यक्ति यह कहा करता है कि दुनियाँ में कुछ काम नहीं, बेकारी का बाजार गर्म है, उद्योग-धन्धे उठ गये, अच्छे काम मिलते ही नहीं, समझ लीजिए कि इसकी अयोग्यता इसके चेहरे पर छाई हुई है और जहाँ जाता है वहाँ के दर्पण में अपना मुख देख आता है । जिसे दुनियाँ स्वार्थी, कपटी, दंभी, दुःखमय, कलुषित, दुर्गुणी, असभ्य दिखाई पड़ती है, समझ लीजिए कि इसके अन्तर में इन्हीं अवगुणों का बाहुल्य है । दुनियाँ एक लम्बा-चौड़ा बहुत बढिया बिल्लौरी काँच का चमकदार दर्पण है, इसमें अपना मुँह हूबहू दिखाई पड़ता है । जो व्यक्ति जैसा है इसके लिए त्रिगुणमयी सृष्टि में से वैसे ही तत्व निकल कर आगे आ जाते हैं ।

क्रोधी मनुष्य जहाँ जायगा, कोई न कोई लड़ने वाला उसे मिल ही जायगा, घृणा करने वाले को कोई न कोई घृणित वस्तु मिल ही जायगी । अन्यायी मनुष्य को सब लोग बड़े बेहूदे, असभ्य और दण्ड देने योग्य दिखाई पड़ते हैं । होता यह है कि अपनी मनोभावनाओं को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है । साधुओं को असाध्वी स्त्रियों से पाला नहीं पड़ता, विद्याभ्यासियों को सद्ज्ञान मिल ही जाता है, जिज्ञासुओं की ज्ञान पिपासा पूरी होती है, सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके आस-पास सदैव सतयुग बरसता रहता है ।

हमारा यह कहने का तात्पर्य कभी नहीं है कि दुनियाँ दूध से धुली हुई है और आप अपने दृष्टि-दोष से ही उसे बुरा समझ बैठे हैं । यह बार-बार कहा जा चुका है कि दुनियाँ त्रिगुणमयी है । हर वस्तु तीन गुणों से बनी हुई है । उसमें आपसे छोटे दर्जे के बच्चे भी पढ़ते हैं, आपकी समकक्षा में पढ़ने वाले भी हैं और वे भी हैं जो आपसे बहुत आगे हैं । तीनों ही किस्म के लोग यहाँ हैं । सतोगुणी वे विद्यार्थी हैं, जो आपसे ऊँची कक्षा में है, रजोगुणी वे हैं जो समकक्षा में पढ़ रहे हैं और तमोगुणी पिछली कक्षा वाले को कह सकते हैं । तात्पर्य यह है कि परम पद पाने से पूर्व हर एक प्राणी अपूर्ण हैं, उसमें नीच स्वभाव कुछ न कुछ रहेगा ही ।

हमारे अनुभव में ऐसे अनेकों प्रसंग आये हैं, जब हमें दो विरोधियों में समझौता कराना पड़ा है । दो शत्रओं को मित्र बनाना पड़ा है । दोनों में विरोध किस प्रकार आरम्भ हुआ इसका गंभीर अनुसंधान करने पर पता चला कि वास्तविक कारण बहुत ही स्वल्प था, पीछे दोनों पक्ष अपनी-अपनी कल्पनाएँ बढ़ाते गये और बात का बतंगड़ बन गया । यदि एक-दूसरे को समझने की कोशिश करें, दोनों अपने-अपने भाव एक-दूसरे पर प्रकट कर दें और एक-दूसरे की इच्छा, स्वभाव, मनोभूमि का उदारता से अध्ययन करें तो जितने आपसी तनाव और झगड़े दिखाई पड़ते हैं उनका निन्यानवे प्रतिशत भाग कम हो जाय और सौ भाग में से एक भाग ही रह जावे । क्लेश-कलह के वास्तविक कारण इतने कम हैं कि उनका स्थान आटे में नमक के बराबर स्वाद परिवर्तन जितना ही रह जाता है । मिर्च बहुत कडुई है और उसका खाना सहन नहीं होता पर स्वल्प मात्रा तो रुचिकर होती है ।

हर उन्नत आत्मा का कर्तव्य है कि आत्म विकास के लिए दूसरों की उन्नति का भी प्रयत्न करे । गिरे हुओं को बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे । समाज में तमोगुण उबलते रहेगे उनसे डरने या घबराने की जरूरत नहीं है । आत्मोन्नति चाहने वाली आत्मा का कर्तव्य है कि उन उत्पातों में सुधार करते हुए अपनी भुजाएँ मजबूत बनायें । दुष्टता को बढ़ने न देना, पाशविक तत्वों को मनुष्य तत्व में न धूलने देने का प्रयत्न करते रहना आवश्यक है । चतुर हलवाई दूध को मक्खियों से बचाता रहता है ताकि दूध अशुद्ध न हो जाय । कर्मकौशल यह कहता है कि समाज में पाप वृत्तियों को बढ़ने से रोकना चाहिए । इस विरोध कर्म में बड़ी होशियारी की जरूरत है । यही तलवार की धार है, इस पर चलना सचमुच योग कहा जायगा ।

बुराइयों से भरे हुए इस विश्व में आपका कार्य क्या होना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर भगवान सूर्यनारायण हमें देते हैं । वे प्रकाश फैलाते हैं, अन्धेरा अपने आप भाग जाता है, बादल मेह बरसाते हैं, ग्रीष्म का ताप अपने आप ठण्डा हो जाता है, हम भोजन खाते हैं, भूख अपने आप बुझ जाती है, स्वास्थ्य के नियमों की साधना करते हैं दुर्बलता अपने आप दूर हो जाती है, ज्ञान प्राप्त करते हैं, अज्ञान अपने आप दूर हो जाता है । सीधा रास्ता यह है कि संसार में से बुराइयों को हटाने के लिए अच्छाइयों का प्रसार करना चाहिए । अधर्म को मिटाने के लिए धर्म का प्रचार करना चाहिए ।

आप सरल मार्ग को अपनाइए, लड़ने, बड़बड़ाने, और कुढ़ने की नीति छोडकर दान, सुधार, स्नेह के मार्ग का अवलम्बन लीजिए । एक आचार्य का कहना है कि ''प्रेम भरी बात कठोर लात से बढ़कर हैं ।'' हर एक मनुष्य अपने अन्दर कम या अधिक अंशों में सात्विकता को धारण किए रहता है । आप उसकी सात्विकता को स्पर्श करिए और उसकी सुप्तता में जागरण उत्पन्न कीजिए । जिस व्यक्ति में जितने सात्विक अंश हैं उन्हें समझिए और उसी के अनुसार उन्हें बढ़ाने का का प्रयत्न कीजिए । अन्धेरे में मत लडिए वरन् प्रकाश फैलाइये । अधर्म बढ़ता हुआ दीखता हो तो निराश मत होइए वरन् धर्म प्रचार का प्रयत्न कीजिए । बुराई के मिटाने का यही एक तरीका है कि अच्छाई को बढ़ाया जाय ।

हो सकता है कि लोग आपको दुःख दें, आपका तिरस्कार करें, आपके महत्व को न समझें, आपको मूर्ख गिनें और विरोधी बनकर मार्ग में अकारण कठिनाइयाँ उपस्थित करें, पर इसकी तनिक भी चिन्ता मत कीजिए और जरा भी विचलित मत होइए । क्योंकि इनकी संख्या बिल्कुल नगण्य होगी । सौ-आदमी आपके प्रयत्न का लाभ उठायेगे तो दो-चार विरोधी भी होगे । यह विरोध आपके लिए ईश्वरीय प्रसाद की तरह होगा ताकि आत्मनिरीक्षण का भूल सुधार का अवसर मिले और संघर्ष से जो शक्ति आती है उसे प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ते रहें ।

आप समझ गये होगे कि संसार असार है, इसलिए वैराग्य के योग्य है, पर आत्मोन्नति के लिए कर्तव्य धर्म पालन करने में यह वैराग्य बाधक नहीं होता । सच तो यह है कि वैराग्य को अपनाकर ही हम विकास के पथ पर तीव्र गति से बढ़ सकते हैं । संसार को दुःखमय मानना एक भारी मूल है । यह सुखमय है । यदि संसार में सुख न होता तो स्वतंत्र शुद्ध, बुद्ध और आनन्दी आत्मा इसमें आने के लिए कदापि तैयार न होती । दुःख और कुछ नहीं, सुख के अभाव का नाम है । राजमार्ग पर चलना छोड़कर कँटीली झाड़ियों में भटकना दुःख है । दुःख, विरोध, बैर, क्लेश, कलह का अधिकांश भाग काल्पनिक होता है दूसरे लोग सचमुच उतने बुरे नहीं होते, जितने कि हम समझते हैं । यदि हम अपने मस्तिष्क को शुद्ध कर डालें, आँखों पर से रंगीन चश्मा उतार फेकें तो संसार का सच्चा स्वरूप दिखाई देने लगेगा । यह दर्पण के समान है । भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा । जैसे ही हमारी दृष्टि भलाई देखने और स्नेह पूर्ण सुधार करने की हो जाती है वैसे ही सारा संसार अपना प्रेम हमारे ऊपर उड़ेल देता है । अन्तरिक्ष लोक से मुक्त आत्माओं का अविरल प्रेम-रस फुहारे की तरह झरने लगता है । जैसे ठण्डा चश्मा लगा लेने पर ज्येष्ठ की जलती दोपहरी शीतल हो जाती है वैसे ही सुख की भावना करते ही विश्व का एक-एक कण अपनी सुख शान्ति का भाग हमारे ऊपर छोड़ता चला जाता है । गुबरीले कीडे़ के लिए विष्ठा के और हंस के लिए मोतियों के खजाने इस संसार में भली प्रकार भरे हुए हैं । आपके लिए वही वस्तुएँ तैयार हैं जिन्हें आप चाहते हैं । संसार को दुःखमय, पापी, अन्यायी मानते हैं तो वह 'मनसा भूत' की तरह उसी रूप में सामने आता है । जब सुखमय मान लेते हैं तो मस्त फकीर की तरह रूखी रोटी खाकर बादशाही आनन्द लूटते हैं । सचमुच दुःख और पाप का कुछ अंश दुनियाँ में है पर वह दुःख सहन करने योग्य है, सुख की महत्ता बढाने वाला है, जो पाप है वह आत्मोन्नति की प्रधान साधना है । यदि परीक्षा की व्यवस्था न हो तो विद्वान और मूर्ख में कुछ अन्तर ही न रहे ।

पाठकों को उपरोक्त पंक्तियों से यह जानने में सहायता हुई होगी कि सृष्टि जड़ होने के कारण हमारे लिए सुख-दुःख का कारण नहीं कही जा सकती । यह दर्पण के समान है जिससे हर व्यक्ति अपना कुरूप या सुन्दर मुख जैसे का तैसा देख सकता है । 'संसार कल्पित है ।' दर्शनशास्त्र की इस उक्ति के अन्तर्गत यही मर्म छिपा हुआ है कि हर व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार संसार को समझता है । कई अन्धों ने एक हाथी को छुआ । जिसने पूँछ छुई थी वह हाथी को साँप-सा बताने लगा, पैर पकड़ा उसे खम्भे जैसा जँचा, जिसने पेट पकड़ा उसे पर्वत के समान प्रतीत हुआ । संसार भी ऐसा ही है । इसका रूप अपने निकटवर्ती स्थान को देखकर निर्धारित किया जाता है । आप अपने आस-पास पवित्रता, प्रेम, भ्रातृभाव, उदारता, स्नेह, दया, गुण दर्शन का वातावरण तैयार कर ले, अपनी दृष्टि को गुणग्राही बना लें तो हम शपथपूर्वक कह सकते हैं कि आपको यही संसार नन्दन वन की तरह, स्वर्ग के उच्च सोपान की तरह आनन्ददायक बन जायगा । भले ही पड़ौसी लोग अपनी बुरी और दु:खदायी कल्पना के अनुसार इसे बुरा और कष्टप्रद समझते रहें ।

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