ईश्वरीय न्याय

कर्म और उनसे होने वाले परिणाम

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यदि हम अपने दिन भर के कामों का निरीक्षण करें तो उन्हें तीन श्रेणियों में बाँट देना पड़ेगा । कुछ तो ऐसे होते हैं जो बिना जानकारी में होते हें जैसे बुरे लोगों के मुहल्ले में या सत्संग में रहने से उनका प्रभाव किसी न किसी अंश में गुप्त रूप से अपने ऊपर पड़ जाता है । यह प्रभाव पड़ा तो परन्तु हमने उसे इच्छा पूर्वक स्वीकार नहीं किया इसलिए वह हल्का, निर्बल एवं कम प्रभाव वाला होकर हमारी भीतरी चेतना के एक कोने में पड़ा रहा । ऐसे हीन वीर्य संस्कार बनाने वाले संचित कर्म कहे जाते हैं । जो कार्य विवशता में दबाये जाने पर करने पड़े पर मन की आन्तरिक इच्छा यही रही कि यदि विवशता न होती तो इस काम को मैं कदापि न करता । इस तरह लाचारी से जो काम करने पड़ें और मन जिनके विरुद्ध विद्रोह करता रहे एवं उस कार्य को स्वभाव बनाकर अपना नहीं लिया हो तो उस कार्य का संस्कार भी हल्का, अल्प वीर्य और कम प्रभाव वाला होता है । ऐसे काम भी संचित कर्म की ही श्रेणी में आते हैं । इन संचित कर्मों के संस्कार बहुत कमजोर एवं हलके होते हैं इसलिए वे मनोभूमि के किसी अज्ञात कोने में सिमटे हुए हजारों वर्ष तक पड़े रहते है । यदि उन्हें प्रकट होने का कोई अच्छा अवसर न मिले तो यों ही दबे-दबाये पड़े रहते हैं । किन्तु यदि उसी प्रकार के बुरे कर्म कभी जानबूझकर स्वेच्छा से, विशेष मनोयोग के साथ किये गये तो वे सड़े-गले संचित संस्कार भी कुलबुलाने लगते हैं । जिस प्रकार घुना हुआ बीज भी अच्छी भूमि और अच्छी वर्षा पाकर उग आता है वैसे ही संचित संस्कार भी अपनी जाति के बलवान कर्मों की सहायता पाकर उग आते हैं । परन्तु यदि उन संचित संस्कारों को लगातार विपरीत स्वभाव के बलबान कर्म संस्कारों के साथ रहना पड़े तो वे नष्ट भी हो जाते हैं । गर्म जगह में रखा हुआ एक घड़ा पानी गर्मी के प्रभाव से आखिर एक महीने में सूख ही जाता है, इसी प्रकार उत्तम कर्मों के संस्कार जमा हो रहे हों तो दे बेचारे बुरे संस्कार उनकी गर्मी में जल कर नष्ट हो जाते हैं। धर्म ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि तीर्थयात्रा आदि अमुक शुभ धर्म कार्य करने से पूर्व जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं । असल में वह संकेत इन अल्पवीर्य वाले संचित संस्कारों के सम्बन्ध में ही है । भले और बुरे दोनों ही प्रकार के संचित कर्म संस्कार अनुकूल परिस्थिति पाकर फलदायक होते हैं एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में नष्ट भी हो जाते हैं ।

प्रारब्ध- वे मानसिक कर्म होते हैं जो स्वेच्छापूर्वक, जानबूझकर, तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किये जाते हैं । इन कार्यों को विशेष मनोयोग के साथ किया जाता है इसलिए उनका संस्कार भी बहुत बलवान होता है । हत्या, खून, डकैती, विश्वासघात, चोरी, व्यभिचार जैसे प्रचण्ड क्रूर कर्मों की प्रतिक्रिया अन्तःकरण में बहुत ही तीव्र होती है । उस विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल देने के लिए आध्यात्मिक पवित्रता निरन्तर व्यग्र बनी रहती है और एक न एक दिन उसे निकाल कर बाहर कर ही देती है ।

हम बता चुके हैं कि हमारी अन्त:चेतना निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह हमारे हर काम को देखती रहती है और उसकी न्यूनता-अधिकता के परिणाम के अनुसार दण्ड की व्यवस्था करती रहती है । चूँकि मानसिक दण्ड अपने आप, अन्दर ही अन्दर पूरा नहीं हो सकता, इसके लिए दूसरे साधनों की भी आवश्यकता होती है, दण्ड कार्य को पूरा करने के लिए सूक्ष्म लोक में से उसी प्रकार का घटना-क्रम उपस्थित करने के लिए हमारी अन्तःचेतना एक वातावरण तैयार करती है । इस तैयारी में कभी-कभी बहुत समय लग जाता है । जैसे छल स्वभाव के निवारण के लिए शोक रूपी दण्ड की आवश्यकता है । अब यह देखा जायगा कि छल किस दर्जे का है, उसकी शुद्धि किस दर्जे के शोक से पूरा हो सकती है । अन्त:चेतना वैसी ही परिस्थितियाँ पैदा करने में भीतर ही भीतर लगी रहेगी । वह शरीर में ऐसे तत्व पैदा करेगी जिससे पुत्र उत्पन्न हो, उस पुत्र शरीर में ऐसी आत्मा का मेल मिलावेगी जिसे उसके कर्मों के अनुसार दस वर्ष हो जीना पर्याप्त हो, दस वर्ष का पुत्र हो जाने पर वही हमारी गुप्त प्रेरणा गुप्त रूप से पुत्र पर पिल पड़ेगी और उसे रोगी करके मार डालेगी एवं शोक का इच्छित अवसर पैदा कर देगी । ऐसे अवसर तैयार करने में केवल अपना ही कार्य अकेला नहीं होता वरन् दूसरे पक्ष का भी कार्य होता है । दोनों ओर की चेतनाएँ अपने-अपने लिए अवसर तलाश करती फिरती हैं और फिर जब उन्हें इच्छित जोड़ मिल जाता है तो एक घटना की भूमिका बँध जाती है । ऐसे कार्यों में कई बार एक, दो या कई जन्मों का समय लग जाता है । 

पाठक समझ गये होंगें कि मानसिक पापों का फल किस प्रकार मिलता है और उसमें विलम्ब हो जाने का क्या कारण है ? दैनिक आपत्तियाँ क्रमपूर्वक, व्यवस्था के साथ आती हैं, पर लोग उन्हें दैव का प्रकोप, ईश्वर की इच्छा, संसार दुःखमय है आदि कहकर अपने मन का सन्तोष करते हैं । यथार्थ में ईश्वर किसी के लिए भी दुःख, शोक, उपस्थित नहीं करता, न उसकी किसी को कष्ट में डालने की इच्छा है और न यह संसार ही दुःखमय है । मकड़ी अपने आप अपना जाला बुनती है और उसमें खुद ही फँसती, उलझती, लटकती रहती है । मन को अशुभ, अधर्मी, पापी बनाकर हम अपने लिए दुःख, द्वन्दों के काँटे खुद ही बोते हैं और जब वे चुभते हैं तो रोते-चिल्लाते हैं तथा दूसरों को दोष देते फिरते हें । यहाँ एक बात और भी स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि प्रारब्ध-फल आकस्मिक तरीके से मिलेगा जैसे रोग से मृत्यु, मकान गिर पड़ना, धन खो जाना, गिर पड़ने से चोट लगना, अंग-भंग हो जाना आदि । दूसरे व्यक्तियों द्वारा जानबूझ कर ऐसे कर्म नहीं किये जाते क्योंकि उसमें दो बुराइयाँ हैं-एक तो अपकार करने वाले व्यक्ति के लिए क्षोभ उत्पन्न होने से वे दुर्गुण और बढे़गे जिससे मन की उद्विग्नता और अधिक बढ़ जायगी, दूसरे अपकार करने वाले व्यक्ति को भी उसी चक्र में फँसना पड़ेगा । जानबूझकर व्यक्तियों द्वारा जो काम किए जा रहे हैं वे नवीन कर्म हैं और अनायास, आकस्मिक ढंग से जो कष्ट आ पड़ते हैं वे प्रारब्ध के भोग हैं ।

क्रियामाण कर्म शारीरिक हैं जिनका फल प्राय: साथ का साथ ही मिलता रहता है । नशा पिया कि उन्माद आया । विष खाया कि मृत्यु हुई । शरीर जड़ तत्वों का बना हुआ है । भौतिक तत्व स्थूलता प्रधान होते हैं । उनमें तुरन्त ही बदला मिलता है । अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है । नियम विरुद्ध आहार-विहार करने पर रोगी पर पीड़ा का, निर्बलता का, अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उसकी शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है । मजदूर परिश्रम करता है बदले में उसे पैसे मिल जाते हैं । जिन शारीरिक कर्मों के पीछे कोई मानसिक गुत्थी नहीं होती केवल शरीर के लिए ही किए जाते हैं वे क्रियमाण कहलाते हैं । पाठक समझ गये होगे कि संचित कमी का फल मिलना संदिग्ध है, यदि अवसर मिलता है तो वे फलवान होते हैं नहीं तो विरोधी परिस्थितियों से टकरा कर नष्ट हो जाते हैं । प्रारब्ध कर्मों का फल मिलना निश्चित है परन्तु उसके अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने में कुछ समय लग जाता है । यह समय कितने दिन का होता है, इस संबंध में कुछ नियत मर्यादा नहीं है, वह आज का आज भी हो सकता है। और कुछ जन्मों के अन्तर से भी हो सकता है। किन्तु प्रारब्ध फल होते वही हैं जो अचानक घटित हों और जिसमें मनुष्य का कुछ वश न चले । पुरुषार्थ की अवहेलना से जो असफलता मिलती है उसे कदापि प्रारब्ध फल नहीं कहा जा सकता । क्रियमाण तो प्रत्यक्ष हैं ही उनके बारे में ऊपर बता ही दिया गया है कि निश्चित फल वाले शारीरिक फल वाले शारीरिक कर्म क्रियमाण हुआ करते हैं । इनका फल मिलने में अधिक समय नहीं लगता ।

कष्टों को स्वरूप अप्रिय है, उनका तात्कालिक अनुभव कड़वा होता है, अन्तत: वे जीव के लिए कल्याणकारी और आनन्ददायक हो सिद्ध होते हैं । उनसे दुर्गुणों के शोधन और सद्गुणों की वृद्धि में असाधारण सहायता मिलती है । आनन्द स्वरूप, आत्म प्रकाश मय जीवन और सुखमय संसार के कष्टों का थोड़ा स्वाद परिवर्तन इसलिए लगाया गया है कि प्रगति में बाधा न पड़ने पावे । थोडा-सा कष्ट भी जीवन की सुख वृद्धि के लिए आवश्यक है । संसार में जो-जो कष्ट हैं वे स्वाभाविक ही हैं । किन्तु स्मरण रखिये जितना भी थोड़ा-बहुत दुःख है वह हमारे अन्याय का, अधर्म का, अनर्थ का फल है । आत्मा दुःख रूप नहीं है, जीवन दुःखमय नहीं है और न इस संसार में ही दुःख है । आप दुःखों से डरिये मत । धबराइये मत, काँपिये मत, उन्हें देखकर चिन्तित या व्याकुल मत होइए, वरन् उन्हें सहन करने को तैयार रहिए । कटुभाषी किन्तु सच्चे सहृदय मित्र की तरह भुजा पसार कर मिलिए । वह कटु शब्द बोलता है, अप्रिय समालोचना करता है, तो भी जब जाता है तो बहुत-सा माल-खजाना उपहार स्वरूप दे जाता हैं । बहादुर सिपाही की तरह सीना खोलकर खड़े हो जाइये और कहिए कि 'ऐ आने वाले दुःखो ! आओ !! ऐ मेरे बालको चले आओ !! मैंने ही तुम्हें उत्पन्न किया है । मैं ही तुम्हें अपनी छाती से लगाऊँगा । दुराचारिणी वेश्या की तरह तुम्हें जार पुत्र समझकर छिपाना या भगाना नहीं चाहता वरन् सती साध्वी के धर्म पुत्र की तरह तुम मेरे अंचल में सहर्ष क्रीड़ा करो । मैं कायर नहीं हूँ, जो तुम्हें देखकर रोऊँ, मैं नपुंसक नहीं हूँ, जो तुम्हारा भार उठाने में गिड़गिड़ाऊँ, मैं मिथ्याचारी नहीं हूँ, जो अपने किए हुए कर्मों का फल भोगने से मुँह छिपाता फिरूँ। मैं सत्य हूँ, शिव हूँ, सुन्दर हूँ । आओ मेरे अज्ञान के कुरूप मानस पुत्रो ! चले आओ ! मेरी कुटी में तुम्हारे लिए स्थान है । मैं शूरवीर हूँ, इसलिए हे कष्टो ! तुम्हें स्वीकार करने से मुँह नहीं छिपाता और न तुमसे बचने के लिए किसी की सहायता चाहता हूँ । तुम मेरे साहस की परीक्षा लेने आये हो, मैं तैयार हूँ, देखो गिड़गिड़ाता नहीं हूँ, साहस पूर्वक तुम्हें स्वीकार करने के लिए छाती खोले खड़ा हूँ ।''

खबरदार ! ऐसा मत कहना कि 'यह संसार बुरा है, दुष्ट है, पापी है, दुःखमय है ।' ईश्वर की पुण्य-कृति जिसके कण-कण में उसने कारीगरी भर दी है, कदापि बुरी नही हो सकती । सृष्टि पर दोषारोपण करना तो उसके कर्त्ता पर आक्षेप करना होगा । "यह घड़ा बहुत बुरा बना है ।'' इसका अर्थ है कुम्हार को नालायक बताना । आपका पिता इतना नालायक नहीं है जितना कि आप, 'दुनियों दु:खमय है, यह शब्द कह कर उसकी प्रतिष्ठा पर लांछन लगाते हैं ।" ईश्वर की पुण्य भूमि में दुःख का एक अणु भी नहीं है । हमारा अज्ञान ही हमारे लिए दुःख है ।

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