ईश्वरीय न्याय

सख-दुःख का उत्तरदायित्व

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संसार में अनेक बार ऐसी घटनाएँ होती दिखलाई पड़ती हैं, जो ईश्वरीय न्याय के बिल्कुल विपरीत जान पड़ती हैं । एक सज्जन व्यक्ति दरिद्रता का जीवन बिता रहा है और दूसरा प्रसिद्ध कुकर्मी मौज कर रहा है । परिश्रम करने वाला सीधा-सादा किसान, टोकरी ढोने वाला मजदूर ठोकरें खाता फिरता है और दिन भर गद्दी पर लेटे-लेटे दूसरों की समत्ति को अपहरण करने की तरकीब सोचने वाले तिकड़मी व्यक्ति स्वामी बने रौव दिखा रहे हैं । इस तरह की बातें वर्तमान समय में बहुत बड़ गई हैं और इनके कारण लोगों के ह्रदय में यह भावना उत्पन्न हो जाती है कि ये आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पाप-पुण्य की बातें बिल्कुल निरर्थक हैं और मनुष्य को एक मात्र स्वार्थ साधन पर ही दृष्टि रखनी चाहिए । इसी प्रकार भावना के कारण मनुष्य और भी अनेक प्रकार के भ्रमों में पड़कर अनुचित कार्य करने लग जाता है, अपने दोष को न समझकर उसकी जिम्मेदारी दूसरों के सिर मढ़ने लगता है ।

इस हानिकर परिस्थिति से बचने के लिए हमको कर्म-रहस्य का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि किस प्रकार हमारे शुभाशुभ कार्यों का प्रभाव हमारी अन्तरात्मा अथवा अन्तर्मन पर पड़ता रहता है और वह कभी तो तुरन्तु और कभी बहुत समय बाद फल रूप में प्रकट होता है । जब हम सुख-दुख देने वाले कर्मों की विवेचना करते हैं तो वे तीन प्रकार के सिद्ध होते हैं- संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण । सुख तो मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति है । सुकर्म करना स्वभाव है इसलिए सुख प्राप्त होना भी स्वाभाविक ही है । कष्ट दुःख में होता है । दुःख से ही लोग डरते, घबराते हैं, उसी से छुटकारा पाना चाहते हैं । इसलिए दुःखों का ही-विवेचन यहाँ होना उचित है । आरोग्यवर्द्धक शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र दो अलग-अलग शास्त्र हैं । इसी प्रकार सुख-दुःख के भी दो अलग-अलग शास्त्र हैं । सुख वृद्धि के लिए धर्माचरण करना चाहिए जैसे कि स्वास्थ्य वृद्धि के लिए पौष्टिक पदार्थो का सेवन किया जाता है । दुःख निवृत्ति के लिए, रोग का निवारण करने के लिए उसका निदान और चिकित्सा जानने की आवश्यकता है । कर्म की गहन गति की जानकारी प्राप्त करने से दुःखों का मर्म समझ में आ जाता है। दुःखों के कारण को छोड़ देने से सहज ही दुःखों की निवृत्ति हो जाती है ।

दुःख तीन प्रकार के होते हैं । (१) दैविक (२) दैहिक (३) भौतिक । दैविक दुःख वे कहे जाते हैं जो मन को होते हैं । जैसे-चिन्ता, आशंका, क्रोध, अपमान, शत्रुता, विछोह, भय, शोक, आदि। दैहिक दुःख वे होते हैं जो शरीर को होते हें । जैसे-रोग, चोट आघात विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट । भौतिक दुःख वे हैं जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं । जैसे-भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि महामारी, युद्ध आदि । इन्हीं तीन प्रकार के दुःखों की वेदना से मनुष्यों को तड़पता हुआ देखा जाता है । यह तीनों दुःख हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कर्मों के फल हैं । मानसिक पापों के परिणाम से दैविक दुःख आते हैं शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैविक और सामाजिक पापों के कारण भौतिक दुःख उत्पन्न होते हैं।

दैविक दुःख- मानसिक कष्ट उत्पन्न होने का कारण वे मानसिक पाप हैं जो स्वेच्छा पूर्वक तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किये जाते हैं । जैसे- ईर्ष्या, कृतघ्नता, छल, दम्भ, घमण्ड, क्रूरता, स्वार्थपरता आदि इन कुविचारों के कारण जो वातावरण मस्तिष्क में घुटता रहता है उससे अन्तःचेतना पर उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है, जिस प्रकार धुएँ के कारण दीवाल काली पड़ जाती है या तेल से भीगने पर कपड़ा गन्दा हो जाता है । आत्मा स्वभावत: पवित्र है वह अपने ऊपर इन पाप मूलक कुविचारों प्रभावों को जमा हुआ नहीं रहने देना चाहती, वह इस फिक्र में रहती है कि किस प्रकार गन्दगी को साफ करूँ ? पेट में हानिकारक वस्तुओं के जमा हो जाने पर उसे के या दस्त के रूप में निकाल बाहर करता है । इसी प्रकार तीव्र इच्छा से, जानबूझ कर किए गये पापों को निकाल बाहर करने के लिए आत्मा आतुर हो उठती है । हम उसे जरा भी जान नहीं पाते किन्तु आत्मा भीतर ही भीतर उस पाप भार को हटाने के लिए अत्यंत व्याकुल हो जाती है । बाहरी मन स्थूल बुद्धि को उस अदृश्य प्रक्रिया का कुछ भी पता नहीं लगता, पर अन्तर्मन चुपके ही चुपके ऐसे अवसर एकत्रित करने में लगा रहता है जिससे वह भार हट जाय । अपमान, असफलता, विछोह, शोक, दुःख आदि होने के अवसरों को वह कहीं से एक न एक दिन, किसी प्रकार खींच ही लाता है ताकि उन दुर्भावनाओं का, पाप संस्कारों का इन अप्रिय परिस्थितियों में समाधान हो जाय ।

शरीर द्वारा किये हुए चोरी, डकैती, व्यभिचार, अपहरण, हिंसा आदि में मन ही प्रमुख है । हत्या करने में हाथ का कोई स्वार्थ नहीं है, वरन् मन के आदेश की पूर्ति है । इसलिए इस प्रकार के कार्य जिनके करते समय इन्द्रियों को सुख न पहुँचता हो, मानसिक पाप कहलाते हैं । ऐसे पापों का फल मानसिक दुःख होता है । स्त्री-पुत्र आदि प्रियजनों की मृत्यु, धन नाश, लोक निन्दा, अपमान, पराजय, असफलता, दरिद्रता आदि मानसिक दुःख हैं, उनसे मनुष्य की मानसिक वेदना उखड़ पड़ती है, शोक-सन्ताप उन्नत होता है, दु:खी होकर रोता-चिल्लाता है, आँसू बहाता है, सिर धुनता है । इससे वैराग्य के भाव उत्पन्न होते हैं और भविष्य में अधर्म न करने एवं धर्म में प्रवृत्त रहने की प्रवृत्ति बढ़ती है । देखा गया है कि मरघट में स्वजनों की चिता रचते हुए ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं कि जीवन का सदुपयोग करना चाहिए । धन नाश होने पर मनुष्य भगवान को पुकारता है । पराजित और असफल व्यक्ति का घमण्ड चूर हो जाता है । नशा उतर जाने पर वह होश को बात करता है, मानसिक दुःखों का एक मात्र उद्देश्य मन में जमे हुए ईर्ष्या, कृतघ्नता, स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता, छल, दम्भ, घमण्ड आदि की सफाई करना होता है । दुःख इसलिए आते हैं कि आत्मा के ऊपर जमा हुआ प्रारब्ध कर्मों का पाप संस्कार निकल जाय । पीड़ा और वेदना की धारा उन पूर्वकृत प्रारब्ध कर्मों के निकृष्ट संस्कारों को बोने के लिए प्रकट होती है ।

दैविक- मानसिक कष्टों का कारण समझ लेने के उपरान्त अब दैहिक-शारीरिक कष्टों का कारण समझना चाहिए । जन्मजात अपूर्णता एवं पैतृक रोगों का कारण पूर्व जन्म में उन अंगों का दुरुपयोग करना है । मरने के बाद सूक्ष्म शरीर रह जाता है । नवीन शरीर की रचना इस सूक्ष्म शरीर द्वारा होती है । इस जन्म में जिस अंग का दुरुपयोग किया जा रहा है, वह अंग सूक्ष्म शरीर में बहुत दुर्बल हो जाता है । जैसे कोई व्यक्ति अति मैथुन करता हो तो सूक्ष्म शरीर का वह अंग निर्बल होने लगेगा, फलस्वरूप सम्भव है कि वह अगले जन्म में नपुंसक हो जाय । यह केवल कठोर दण्ड ही नहीं वरन् सुधार का एक उत्तम तरीका भी है । कुछ समय तक उस अंग को विश्राम मिलने से आगे के लिए वह सचेत और सूक्ष्म हो जायेगा । शरीर के अन्य अंगों के शारीरिक लाभ के लिए पापपूर्ण, अमर्यादित, अपव्यय करने पर आगे के जन्म में वे अंग जन्म से ही निर्बल या नष्ट प्राय: होते हैं । शरीर और मन के सम्मिलित पापों के शोधन के लिए जन्मजात रोग मिलते हैं या बालक अंग-भंग उत्पन्न होते हैं । अंग- भंग या निर्बल उत्पन्न होने से उस अंग को अधिक काम नहीं करना पड़ता इसलिए सूक्ष्म शरीर का वह अंग विश्राम पाकर अगले जन्म के लिए फिर तरोताजा हो जाता है साथ ही मानसिक दुःख मिलने से वह मन का पाप भार भी धुल जाता है । मानसिक पाप भी जिस शारीरिक पाप के साथ घुला-मिला होता है, वह यदि राजदण्ड समाज दण्ड या प्रायश्चित द्वारा इस जन्म में शोधित न हुआ हो तो उसका शोधन शीघ्र ही शारीरिक प्रकृति द्वारा हो जाता है । जैसे नशा पिया, उन्माद आया । विष खाया, मृत्यु हुई । आहार-विहार में गड़बड़ी की, बीमार पड़े । इस तरह शरीर अपने साधारण दोषों की सफाई जल्दी-जल्दी कर लेता है और इस जन्म का भुगतान इसी जन्म में कर जाता है । परन्तु गम्भीर शारीरिक दुर्गुण, जिनमें मानसिक जुड़ाव भी होता है, अगले जन्म में फल प्राप्त करने के लिए मूल शरीर के साथ जाते हैं ।

भौतिक कष्टों का कारण हमारे सामाजिक पाप हैं । संपूर्ण मनुष्य जाति एक ही सूत्र में बँधी हुई है । विश्व व्यापी जीव तत्व एक है । आत्मासर्वव्यापी है । जैसे एक स्थान पर यज्ञ करने से अन्य स्थानों का भी वायुमण्डल शुद्ध होता है और एक स्थान पर दुर्गन्ध फैलने से उसका प्रभाव अन्य स्थानों पर भी पड़ता है । इसी प्रकार एक मनुष्य के कृत्सित कर्मों के लिए दूसरा भी जिम्मेदार है । एक दुष्ट व्यक्ति अपने माता-पिता को भी लज्जित करता है, अपने घर और कुटुम्ब को शर्मिन्दा करता है । वे इसलिए शर्मिन्दा होते हैं कि उस व्यक्ति के कामों से उनका कर्तव्य भी बँधा हुआ है । अपने पुत्र, कुटुम्बी या घर बाले को सुशिक्षित, सदाचारी न बना कर दुष्ट क्यों हो जाने दिया? इसकी आध्यात्मिक जिम्मेदारी कुटुम्बियों की भी है । कानुन द्वारा अपराधी को ही सजा मिलेगी, परन्तु कुटुम्बियों की आत्मा स्वयमेव शर्मिन्दा होगीं, क्योंकि उनकी गुप्त मन:शक्ति यह स्वीकार करती है कि हम भी किसी हद तक इस मामले में अपराधी हैं । सारा समाज एक सूत्र में बँधा होने के कारण आपस में एक-दूसरे की हीनता के लिए जिम्मेदार हैं । पड़ोसी का घर जलता रहे और दूसरा पड़ौसी खड़ा-खड़ा तमाशा देखे तो कुछ देर बाद उसका भी घर जल सकता है । मुहल्ले के एक घर में हैजा फैले और दूसरे लोग उसे रोकने की चिन्ता न करें तो उन्हें भी हैजे का शिकार होना पड़ेगा । कोई व्यक्ति किसी की चोरी, बलात्कार, हत्या, लूट आदि होती हुई देखता रहे और सामर्थ्य होते हुए भी उसे रोकने का प्रयत्न न करे, तो समाज उससे घृणा करेगा एवं कानून के अनुसार वह भी दण्डनीय समझा जायगा ।

ईश्वरीय नियम है कि हर मनुष्य स्वयं सदाचारी जीवन बिताये और दूसरों को अनीति पर न चलने देने के लिए भरसक प्रयत्न करे । यदि कोई देश या जाति अपने तुच्छ स्वार्थों में संलग्न होकर दूसरों के कुकर्मों को रोकने और सदाचार बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करती तो उसे भी दूसरों का पाप लगता है । उसी सामूहिकता के सामूहिक पाप से सामूहिक दण्ड मिलता है । भूकम्प, अति वृष्टि अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, महामारी महायुद्ध के कारण ऐसे ही सामूहिक दुष्कर्म होते हैं, जिनमें स्वार्थपरता को प्रधानता दी जाती है और परोपकार की उपेक्षा की जाती है ।

देखा जाता है कि अन्याय करने वाले अमीरों की अपेक्षा मूक पशु की तरह जीवन बिताने वाले भोले-भाले लोगों पर दैवी प्रकोप अधिक होते हैं । अतिवृष्टि, अनावृष्टि का कष्ट गरीब किसानों को ही अधिक सहन करना पड़ता है । इसका कारण यह है कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहन करने वाला कम पापी नहीं होता । कहते हैं कि "बुजदिल जालिम का बाप होता है ।'' कायरता में यह गुण है कि वह अपने ऊपर जुल्म करने के लिए किसी न किसी को न्यौत बुलाती है । भेड की ऊन एक गड़रिया छोड़ देगा तो दूसरा कोई न कोई उसे काट लेगा । कायरता, कमजोरी, अविद्या स्वयं बड़े भारी पातक हैं । ऐसे पातकियों पर यदि भौतिक कोप अधिक हों तो कुछ आश्चर्य नहीं । सम्भव है कि उनकी कायरता को दूर करने एवं स्वाभाविक सतेजता जगाकर निष्पाप बना देने के लिए अदृश्य सत्ता द्वारा यह घटनाऐं उपस्थित होती हों । यह भौतिक दुर्घटनाएँ सृष्टि के दोष नहीं हैं वरन् अपने ही दोष हैं । अग्नि में तपाकर सोने की तरह हमें शुद्ध करने के लिए यह कष्ट बार-बार कृपापूर्वक आया करते हैं और संसार को जोरदार चेतावनियाँ देकर सामाजिक निष्पापता बढ़ाने का आदेश दिया करते हैं ।
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