ईश्वरीय न्याय

गायत्री का पन्द्रहवाँ अक्षर; “ म “ हमको ईश्वरीय न्याय के अनुकूल चलने की शिक्षा देता है –
महेश्वरस्य विज्ञाय नियमां न्याय: संयुतान् ।
तस्य सत्तांच स्वीकुर्वन कर्मणा तमुपासते; ।।
अर्थात् - “परमात्मा की सत्ता और उसके न्यायपूर्ण नियमों को समझ कर ईश्वर की उपासना करनी चाहिए।"
ईश्वर सर्वव्यापक, दयालु, सच्चिदानन्द, जगतपिता, न्यायकारी आदि अनेकों महिमाओं से युक्त हैं। उनका ध्यान रखने से मनुष्य का बुराइयों से बचना और दूसरों के साथ सद्व्यवहार करना अधिक संभव है। इसलिए ईश्वर में और उनके न्याय में विश्वास रखना मनुष्य और समाज के लिए परम कल्याणकारी है। ईश्वर की उपासना से मनुष्य का आत्मिक बल बढ़ता है और आत्मिक बल द्वारा नाना प्रकार के भौतिक सुख और आनन्द प्राप्त होते हैं।
पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ईश्वर नियम अटल, अचल होते हैं और जो उनका उल्लंघन करता है उसे घोर दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है। संसार में अधिकांश लोग मुख से इस बात को कहते हुए भी दिल से इस बात पर दृढ़ विश्वास नहीं रखते और तरह-तरह के पाप कर्मों में लीन हो जाते हैं। इसलिए अनगिनत लोग कष्ट भोगते दिखाई पड़ते हैं। परमात्मा और आत्मा का संबन्ध ठीक एक तराजू की तरह है। इसका एक पलड़ा न्याय का है और दूसरा नियम का। जीव जितना ही ईश्वर नियमों पर चलता है अथवा उन्हें तोड़ता है, उतनी ही तोल के अनुसार उसे अच्छा या बुरा कर्मफल मिलता है। जो लोग इस तत्व पर ध्यान; न देकर संसार में अँधेरे का बोलवाला समझते हैं और तद्नुसार मनमाना आचरण करते हैं, वे ही घोर दुखों में फँसकर अपने जीवन को नष्ट कर डालते हैं।

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