ईश्वरीय न्याय

कर्म-फल कैसे मिलता है

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शास्त्रकारों ने बतलाया है कि हनन की हुई आत्मा नरक को ले जाती है और सन्तुष्ट हुई आत्मा दिव्य लोक प्रदान करती है । इस कथन ने इस गुत्थी को सुलझा दिया है कि स्वर्ग-नरक किस प्रकार मिलते हैं ? गरुण पुराण में इस संबंध में एक अलंकारिक विवरण दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि यमलोक में 'चित्रगुप्त' नामक देवता हर एक जीव के भले-बुरे कमी का विवरण प्रत्येक समय लिखते रहते हैं । जब प्राणी मर कर यमलोक में जाता है तो वह लेखा पेश किया जाता है और उसी के आधार पर शुभ कर्मों के लिए स्वर्ग और दुष्कर्मों के लिए नरक प्रदान किया जाता है । साधारण दृष्टि से चित्रगुप्त का अस्तित्च काल्पनिक प्रतीत होता है, क्योंकि असंख्य प्राणियों द्वारा पल-पल पर किए जाने वाले कार्यों का लेखा दिन-रात बिना विश्राम के कल्प-कल्पान्तों तक लिखते रहना एक देवता के लिए कठिन है ।

पर आधुनिक शोधों ने उपरोक्त अलंकारिक कथानक में से बड़ी ही महत्वपूर्ण सचाई को खोज निकाला है, डाक्टर फ्राइड ने मनुष्य की मानसिक रचना का वर्णन करते हुए बताया है कि जो भी भले या बुरे काम ज्ञानवान् प्राणियों द्वारा किए जाते हैं, उनका सूक्ष्म चित्रण अन्तःचेतना में होता रहता है, ग्रामोफोन के रिकार्डों में रेखा रूप में गाने भर दिये जाते हैं । संगीत शाला में नाच, गान हो रहा है और साथ ही अनेक बाजे बज रहे हैं, इन अनेक प्रकार की ध्वनियों का विद्युत शक्ति का एक प्रकार का संक्षिप्त एवं मूल एकीकरण होता है और वह रिकार्ड में जरा-सी जगह में रेखाओं की तरह अंकित होता जाता है । तैयार किया हुआ रिकार्ड रखा रहता है, वह तुरन्त ही अपने आप या चाहे जब नहीं बजने लगता, वरन् तभी उन संग्रहीत ध्वनियों को प्रकट करता है जब ग्रामोफोन की मशीन पर उसे घुमाया जाता है और सुई की रगड़ उन रेखाओं से होती है । ठीक इसी प्रकार भले और बुरे जो भी काम किए जाते हैं, उनकी सूक्ष्म रेखाएँ अन्तःचेतना के ऊपर अंकित होती रहती हैं और मन के भीतरी कोने में जमा हो जाती हैं । जब रिकार्ड पर सुई का आघात लगता है, तो उसमें भरे हुए गाने प्रकट होते हैं, इसी प्रकार गुप्त मन में जमा हुई रेखाएँ किसी उपयुक्त अवसर का आघात लगने पर ही प्रकट होती हैं । भारतीय विद्वान् 'कर्मरेखा' के बारे में बहुत प्राचीन काल से जानकारी रखते आ रहे हैं । 'कर्म रेख नहीं मिटे, करो कोई लाखों चतुराई' आदि अनेक युक्तियाँ हिन्दी और संस्कृत साहित्य में मौजूद हैं, जिनसे प्रकट होता है कि कर्मों की कोई रेखाएँ होती हैं, जो अपना फल दिये बिना मिटती नहीं । भाग्य के बारे मोटे तौर पर ऐसा समझा जाता है कि सिर की अगली मस्तक वाली हड्डी पर कुछ रेखाएँ ब्रह्मा लिख देता है 'विधि का लिखा को मेंटन हारा' उन्हें मिटाने वाला कोई नहीं है । डाक्टर बीबेन्स ने मस्तिष्क में भरे हुए ग्रे मैटर ( भूरा चर्बी जैसा पदार्थ) की मूल दर्शक यंत्रों की सहायता से खोज करने पर वहीं के एक-एक परमाणु में अगणित रेखाएँ पाई हैं । यह रेखाएँ किस प्रकार बनती हैं इसका कोई शारीरिक प्रत्यक्ष कारण उन्हें नहीं मिला। तब उन्होंने अनेक मस्तिष्कों के परमाणु का मुकाबिला करके यह निष्कर्ष निकाला कि निष्क्रिय, आलसी एवं विचार शून्य प्राणियों में यह रेखाएँ बहुत कम बनती हैं, किन्तु कर्मनिष्ठ एवं विचारवानों में इनकी संख्या बहुत बड़ी होती है । अतएव यह रेखाएँ शारीरिक और मानसिक कार्यों को संक्षिप्त और सूक्ष्म रूप से लिपिबद्ध करने वाली प्रामाणित हुई ।

भले-बुरे कार्यो का 'ग्रे मैटर के परमाणुओं पर यह रेखांकन (जिसे शास्त्र शब्दों में अन्त:चेतना का संस्कार कहा जा सकता है) पौराणिक चित्रगुप्त की वास्तविकता को सिद्ध कर देता है । चित्र गुप्त शब्द के अर्थों से भी इसी प्रकार की ध्वनि निकलती है । गुप्त चित्र, गुप्त मन, अन्त:चेतना, मूल मन, पिछला दिमाग, भीतर चित्र, इन शब्दों के भावार्थ को ही 'चित्र गुप्त' शब्द प्रकट करता हुआ दीखता है ।

यह चित्र गुप्त निस्सन्देह हर प्राणी के हर एक कार्य को हर समय बिना विश्राम किए, अपनी बही में लिखता रहता है । सब का अलग-अलग चित्र गुप्त है, जितने प्राणी हैं, उतने ही चित्र गुप्त हैं । इसलिए यह सन्देह नहीं रह जाता कि इतना लेखन कार्य किस प्रकार पूरा हो पाता होगा । स्थूल शरीर के कार्यों की सुव्यवस्थित जानकारी सूक्ष्म चेतना में अंकित होती रहे तों यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।

'पौराणिक चित्र गुप्त एक है और यहाँ अनेक हुए' यह शंका भी कुछ गहरी नहीं है । दिव्य शक्तियाँ व्यापक होती हैं । पाठक जानते हैं कि प्राण तत्व एक है, उसके अंश विभिन्न व्यक्तियों में दृष्टिगोचर होते हैं । आत्मा और परमात्मा में व्यष्टि और समष्टि का भी भेद है, बाकी दोनों पदार्थ एक ही हैं । जैसे बगीचे की वायु, गन्दे नाले की वायु आदि स्थान भेद से अनेक नाम वाली होते हुए भी मूलत: विश्व व्यापक वायुतत्व एक ही है, वैसे ही अलग-अलग शरीरों में रहकर अलग-अलग काम करने वाला चित्र गुप्त देवता भी एक हो तत्व है ।

पिछली पंक्तियों में पाठक पढ़ चुके हैं कि हमारा गुप्त चित्र-अन्तर्मन ही निरन्तर चित्रगुप्त देवता का काम करता है । जो कुछ भले या बुरे काम हम करते हैं उनका सूक्ष्म चित्र उतार-उतार कर अपने भीतर जमा करता रहता है । सिनेमा के पर्दे पर मनुष्य की बराबर लम्बी-चौड़ी तस्वीर दिखाई देती है । पर उसका फिल्म केवल एक इन्च चौड़ा ही होता है । इसी प्रकार पाप-पुण्य का घटनाक्रम तो विस्तृत होता है पर उसका सूक्ष्म चित्र एक पतली रेखा मात्र के भीतर खिंच जाता है और वह रेखा गुप्त मन के किसी परमाणु पर अदृश्य रूप से जमकर बैठ जाती है । शार्ट हैण्ड लिखने वाले बड़ी बात को थोड़ी-सी उल्टी-सीधी लकीरों के इशारे से जरा से कागज पर लिख देते हैं । कर्म रेखा को भी ऐसी ही दैवी शार्ट हैण्ड समझा जा सकता है ।

पाठकों को इतनी जानकारी तो बहुत पहले हो चुकी होगी कि मन के दो भाग हैं-एक बहिर्मन, दूसरा अन्तर्मन बाहरी मन तो तर्क-वितर्क करता है, सोचता है, काट-छांट करता है और अपने इरादों को बदलता रहता है, पर अन्तर्मन भोले-भाले किन्तु दृढ़ निश्चयी बालक के समान है । वह काट-छांट नहीं करता वरन् श्रद्धा और विश्वास के आधार पर काम करता है । बाहरी मन तो यह सोच सकता है कि पाप कर्मों की रेखाएँ अपने ऊपर अंकित न होने दूँ और पुण्य कर्मों को बढ़ा-चढ़ाकर अंकित करूँ, जिससे पाप-फल न भोगना पड़े और पुण्य फल का भरपूर आनन्द प्राप्त हो । परन्तु भीतरी मन ऐसा नहीं है । वह सत्यनिष्ठ जज की तरह फैसला करता है, कोई लोभ, लालच, भय, स्वार्थ, उसे प्रभावित नहीं करता । कहा जाता है कि मनुष्य के अन्दर एक ईश्वरीय शक्ति रहती है, दूसरी शैतानी । आप गुप्त मन को ईश्वरीय शक्ति और तर्क, छल, कपट, स्वार्थ, लोभ में रत रहने वाले बाह्य मन को शैतानी शक्ति कह सकते हैं । बाहरी मन धोखेबाजी कर सकता है परन्तु भीतरी मन तो सत्य रुपी आत्मा का तेज है । वह न तो मायावी आचरण करता है, न छल-कपट । निष्पक्ष रहना उसका स्वभाव है । इसलिए ईश्वर ने उसे इतना महत्वपूर्ण कार्य सौंपा है । दुनियाँ उसे चित्र गुप्त देवता कहती है । यदि यह भी पक्षपात करता तो भला इतनी ऊँची पदवी कैसे पा सकता था ? हमारा चित्रगुप्त मन खुफिया जासूस की तरह हर घड़ी साथ-साथ रहता है और जो-जो भले-बुरे काम किये जाते हैं उनका ऐमालनामा अपनी खुफिया डायरी में दर्ज करता रहता है ।

भीतरी दुनिया में गुप्त-चित्र, या चित्रगुप्त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्वयं ही करता है । बाहरी दुनियाँ में तो यदि पुलिस झूँठा सबूत दे दे तो अदालत का फैसला भी अनुचित हो सकता है, परन्तु भीतरी दुनियाँ में ऐसी गड़बड़ी की संभावना नहीं । अन्तःकरण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से, किस इच्छा से, किस परिस्थिति में, क्यों कर किया गया था । वहाँ बाहरी मन को सफाई या बयान देने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि गुप्त मन उस बात के संबंध में स्वयं ही पूरी-पूरी जानकारी रखता है । हम जिस इच्छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं उस इच्छा या भावना से ही पाप-पुण्य का नाप होता है । भौतिक वस्तुओं की तौल-नाप बाहरी दुनियाँ में होती है । एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रुपया दान करता है । बाहरी दुनियाँ तों पुण्य की तौल रुपये-पैसों की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसा दान करने वाले की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा, पर दस हजार रुपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जायेगी । भीतरी दुनियाँ में यह तौल-नाप नहीं चलती । बाहर की दुनियाँ में रुपयों की गिनती से, काम के बाहरी फैलाव से, कथा-वार्ता से, तीर्थयात्रा आदि भौतिक चीजों से यश खरीदा जाता है, पर चित्र गुप्त देवता के देश में यह सिक्का ही नहीं चलता, वहाँ तो इच्छा और भावना की नाप-तौल है। उसी के मुताबिक पाप-पुण्य का जमा-खर्च किया जाता है । भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उकसा कर लाखों आदमियों को महाभारत के युद्ध में मरवा डाला । लाशों से भूमि पट गई खून की नदियाँ बह गईं फिर भी अर्जुन को कोई पाप नहीं लगा ।

अर्जुन का उद्ददेश्य पवित्र था, वह पाप को नष्ट करके धर्म की स्थापना करना चाहता था । बस वही इच्छा खुफिया रजिस्टर में दर्ज हो गई आदमियों के मरने जीने की संख्या का कोई हिसाब नहीं लिखा गया । दुनियाँ में करोड़पति की बड़ी प्रतिष्ठा है पर यदि उसका दिल खोटा है तो चित्रगुप्त के दरबार में भिखमंगा शुमार किया जायगा। दुनियाँ का भिखमंगा यदि दिल का धनी है तो उसे बादशाह गिना जायगा। इस प्रकार मनुष्य जो भी काम कर रहा है, वह किस नीयत से कर रहा है, वह नीयत, भलाई या बुराई, जिस दर्जे में जाती होगी उसी में दर्ज कर ली जायगी । सद्भाव से फाँसी लगाने वाला एक जल्लाद भी पुण्यात्मा गिना जा सकता है और एक धर्मध्वजी तिलकधारी पण्डित भी गुप्त रूप से दुराचार करने पर पापी माना जा सकता है । बाहरी आडम्बर का कुछ मूल्य नहीं है, कीमत भीतरी चीज की है । सीप की कुछ कीमत नहीं, मोल-तोल तो मोती का है । बाहर से कोई काम भला या बुरा दिखाई दे, तो उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं । असली तत्व तो उस इच्छा और भावना में है, जिससे प्रेरित होकर वह काम किया गया है । पाप-पुण्य की जड़ कार्य और प्रदर्शन में नहीं, वरन् निश्चित रुप से इच्छा और भावना में ही है ।

उपरोक्त पंक्तियों में बताया गया है कि हमारे प्राणों के साथ घुलमिल कर रहने वाला चित्रगुप्त देवता किसी पक्षपात के बुरे-भले कर्मों का लेखा अन्त:चेतना के परमाणुओं पर लिखा करता है, उस अदृश्य लिपि को बोलचाल की भाषा में कर्म रेखा कहते हैं । साथ ही यह भी बताया जा चुका है कि पाप-पुण्य का निर्णय काम के बाहरी रूप से नहीं वरन कर्त्ता की इच्छा और भावना के अनुरूप होता है । यह इच्छा जितनी तीव्र होगी उतना ही पाप-पुण्य भी अधिक एवं बलवान होगा । जैसे एक व्यक्ति उदास मन से किसी रोगी की सेवा करता है और दूसरा व्यक्ति दूसरे रोगी की सेवा अत्यन्त दया, सहानुभूति, उदारता एवं प्रेमपूर्वक करता है, तो बाहर से देखने में दोनों के काम एक, समान भले ही हों, पर उस पुण्य का परिणाम भावना की उदासीनता एवं प्रेम तत्परता के अनुसार न्यूनाधिक होगा । इसी प्रकार एक भूखा व्यक्ति लाचार होकर चोरी करता है, दूसरा व्यक्ति मद्यपान के लिए चोरी करता है तो दोनों के पाप में निस्सन्देह न्यूनाधिकता होगी । चोरी दोनों ने की है पर दुष्टता नूनाधिकता के कारण पाप भी उसी अनुपात से होगा । इस सम्बन्ध में एक और भी महत्वपूर्ण बात जान लेने की है हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग कानून व्यवस्था है । रिश्वत के मामले में एक चपरासी, एक क्लर्क, एक मजिस्ट्रेट तीन आदमी पकड़े जायें, तो तीनों को अलग-अलग प्रकार की सजा मिलेगी । सम्भव है चपरासी को डाट-डपट सुना कर ही छुटकारा मिल जाय पर मजिस्ट्रेट बर्खास्त हुए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उसकी बड़ी जिम्मेदारी है । एक असभ्य भील, शिकार मारकर पेट पालता है, अपराध उसका भी है, परन्तु अहिंसा का उपदेश करने वाला पण्डित यदि चुपचाप बूचर की दुकान में जाता है, तो पण्डित को उस भील की अपेक्षा अनेक गुना पाप लगेगा । कारण यह है कि ज्ञान वृद्धि करता हुआ जीव जैसे-जैसे आगे बढ़ता चलता है वैसे-वैसे ही उसकी अन्तःचेतना अधिक स्वच्छ हो जाती है । मैले कपड़े पर थोड़ी-सी धूल पड़ जाय तो उसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु दूध के समान स्वच्छ धुले हुए कपड़े पर जरा-सा धब्बा लग जाय, तो वह दूर से ही चमकता है और बहुत बुरा मालूम पड़ता है ।

इसी प्रकार अशिक्षित, अज्ञानी असभ्य व्यक्तियों को कम पाप लगता है । ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ भला-पुरा समझने की योग्यता बढ़ती जाती है; सत् असत् का, कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक प्रबल होता जाता है, अन्तःकरण की पुकार जोरदार बनती है, इस प्रकार ओत्मोन्नति के साथ-साथ सदाचरण की जिम्मेदारी भी बढ़ती जाती है । हुकुमउदूली करने पर मामूली चपरासी को दो रुपया जुर्माना हो जाता है, परन्तु फौजी अफसर हुकमउदूली करे तो कोर्ट मार्शल द्वारा गोली से उड़ा दिया जायगा । ज्ञानवान, विचारवान और भावनाशील ह्रदय वाले व्यक्ति जब दुष्कर्म करते हैं तो उनका चित्रगुप्त उस करतूत को बहुत भारी पाप की श्रेणी में दर्ज कर देता है । अज्ञानी व्यक्ति अपराध करे तो यह उतना महत्व नहीं रखता, किन्तु कर्तव्यच्युत ब्राह्मण तो घोर दण्ड का भली बनता है । राजा बनना सब दृष्टियों में अच्छा है, पर राजा की जिम्मेदारी भी सबसे ऊँची है । ज्ञानवानों का यह कठोर उत्तरदायित्व है कि सदाचार पर दृढ़ रहे, अन्यथा सात मन्जिल ऊँची छत पर से गिरने वाले को जो कष्ट होता है, उन्हें भी वही दुःख होगा ।
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