गायत्री साधना और यज्ञ प्रक्रिया

यज्ञ से रोग निवारण एवं बलसंवर्धन के दो लाभ

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रोग उपचार की आवश्यकता पड़े इससे अच्छा यह है कि उनके उत्पन्न होने का अवसर ही न आये। इसके लिए सर्वोच्च उपाय तो यही है कि आहार-विहार में सात्त्विकता की सुव्यवस्था का उपयुक्त समावेश रखा जाय। प्रकृति के अनुरूप आचरण करके सभी प्राणी शारीरिक आनन्द का लाभ उठाते हैं। रोग एक विकृति है जो जीवन-यापन की मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर प्रकृति के दण्ड-विधान द्वारा मनुष्य के ऊपर आ बरसते हैं। शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का दुरुपयोग न किया जाय, उन्हें सही दिशा में नियोजित रहने दिया जाय तो न आदि व्याधियों के संकट शरीर मन को सहने पड़ेंगे और न कर्म विधायक कारण आये दिन त्रास देने वाली, विपत्तियों का सामना किसी को करना पड़ेगा। हमारी अपनी दुर्बुद्धिजन्य उच्छृंखलता ही है जो उलट कर हमला करती है। और इसी प्रत्याक्रमण के फलस्वरूप शरीर को पीड़ा, मन को क्षोभ और अन्तःकरण को आत्म-प्रताड़ना का त्रास सहना पड़ता है।

इन विपत्तियों की जड़ काटने के लिए यज्ञीय तत्वज्ञान का वह पक्ष प्रस्तुत किया गया है। जिससे नीतिधर्म, सदाचार, स्नेह, सहयोग की रीति-नीति को हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया जाता है। यज्ञ का तत्वज्ञान पवित्रता और उदारता का, चरित्रनिष्ठा और समाज-निष्ठा का प्रबल प्रतिपादन करता है। उसमें प्रयुक्त होने वाले सभी मंत्रों विधि-विधानों एवं कर्मकाण्डों में यही सन्देश, निर्देश आदि से अन्त तक भरा पड़ा है। दान, देव-पूजन, संगतिकरण यह तीन अर्थ यज्ञ शब्द के होते हैं। इन्हें प्रकारान्तर से उदारता, उत्कृष्टता, और सहकारिता की दिशा-धारा कहा जा सकता है। उन्हें अपनाने वाला यज्ञीय दर्शन को हृदयंगम करने वाला कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में स्वस्थ, समृद्ध, समुन्नत एवं सुसंस्कृत रह सकता है। उसे आन्तरिक प्रसन्नता एवं बहिरंग सम्पन्नता की कमी नहीं रहती।

यज्ञ कृत्य करने, कराने, उसमें किसी भी रूप में सम्मिलित रहने वालों को प्रत्येक विधि-विधान की व्याख्या करते हुए यह समझाया जाता है कि उसका चिन्तन एवं चरित्र, दृष्टिकोण एवं व्यवहार निरन्तर उत्कृष्टता की ओर बढ़ना चाहिए। यज्ञ कृत्य के उद्गाता यही गाते हैं, अध्वर्यु यही सिखाते हैं। ब्रह्मा इसी को मोड़ना बताते हैं और आचार्य को ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ती है कि इसी प्रकार का भाव प्रवास उस समूचे वातावरण पर छाया रहे। यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले हविष्य, मंत्रों एवं विधि-विधा का अपना स्वतन्त्र महत्व है। उसमें वैज्ञानिक तथ्यों का भरपूर समावेश है, किन्तु उससे भी बड़ी बात यह नीति दर्शन है जो उस पुनीत धर्मानुष्ठान के साथ-साथ प्रत्येक याजक को समझाया, हृदयंगम कराया जाता है। यह भावोपचार प्रकारान्तर से सर्वतोमुखी सुख शान्ति का पथ प्रशस्त करता है। जिसमें शारीरिक और मानसिक रोगों के सिद्धांत भी सम्मिलित हैं। रोगोपचार का यह प्रथम चरण है। उसे जड़ काटने की प्रक्रिया कही जा सकती है। नीतिवान को रुग्णता का दण्ड प्रायः नहीं भुगतना पड़ता। उसे निरोग, बलिष्ठ एवं दीर्घजीवी बनने का आनन्द अनायास ही उपलब्ध होता रहता है।

रोगोपचार का यह प्रथम चरण है। उसे जड़ काटने की प्रक्रिया की जा सकती है। नीतिवान को रुग्णता का दण्ड प्रायः नहीं भुगतना पड़ता। उसे निरोग, बलिष्ठ एवं दीर्घजीवी बनने का आनन्द अनायास ही उपलब्ध होता रहता है।

द्वितीय चरण में वह उपचार प्रक्रिया आरम्भ होती है। जिसमें रोगों के उत्पन्न होने की सम्भावना के समय से पहिले ही रोकथाम कर ली जाती है। यज्ञीय ऊर्जा की निकटता से यह प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता है। यज्ञशाला के वातावरण के रोग-निरोधक तत्व प्रचुर परिमाण में रहते हैं। जो उधर बैठते हैं उनके शरीर-छिद्रों में होकर वह ऊर्जा भीतर प्रवेश करती है और जहां भी विजातीय—अनुपयुक्त— द्रव्यनिष्ठता है, उसे निरस्त करती है। रोकथाम का यह उपचार प्रायः वैसा ही समझा जा सकता है जैसा कि विभिन्न रोगों के आक्रमण की आशंका होने पर सुरक्षात्मक टीके लगाये जाते हैं। बच्चों को चेचक के टीके सरकारी स्वास्थ्य-विभाग के कर्मचारियों द्वारा घर-घर पहुंच कर लगाये जाते हैं। मेले-ठेलों में जाने वालों को अनिवार्य रूप में हैजे के टीके लगवाये जाते हैं। अन्यान्य बीमारियां महामारियां फैलाने की आशंका होती है तो सामयिक टीके लगाने के लिए सरकारी गैर सरकारी स्तर पर दौड़-धूप की जाती है। मनुष्यों की ही तरह पशुओं को भी बीमारियों के यह सुरक्षात्मक टीके लगाये जाते हैं। कुओं में दवा डालने, घरों में डी.डी.टी. छिड़कने, नालियों पर चूना डालने, फिनाइल से धोने, धूप जलाने जैसे उपचार प्रायः इसी प्रयोजन के लिए काम में लाये जाते हैं। यज्ञ में यह सामर्थ्य असाधारण रूप से पाई जाती है। उसमें खाने, लगाने, छिड़कने आदि की कोई प्रत्यक्ष प्रक्रिया कार्यान्वित नहीं करनी पड़ती। वरन् उत्पादित ऊर्जा की प्रखरता ही उस वातावरण में बैठे हुए मनुष्यों को विशिष्ट रूप से और उस क्षेत्र में रहने वाले को सामान्य रूप से इतना लाभ पहुंचाती है कि उनकी काया में रोग निरोधक सामर्थ्य बढ़ी-चढ़ी मात्रा में उत्पन्न हो सके।

यज्ञ प्रक्रिया को प्रत्येक पर्व पर सामूहिक रूप से सम्पन्न करने का विधान है। इसमें उसका प्रभाव क्षेत्र रोग-निरोधक सामर्थ्य से भर जाता है। प्रत्येक मनुष्य को सोलह बार व्यक्तिगत रूप से यज्ञ सान्निध्य विशिष्ट लाभ उठाने की धर्म परम्परा प्रचलित है। इसे षोडश-संस्कार पद्धति कहा जाता है। माता के गर्भ में पहुंचते-पहुंचते यह उपचार आरम्भ हो जाते हैं। सीमान्त और पुंसवन-संस्कार गर्भवती और गर्भावस्था में रहने वाले भ्रूण के लिए सुरक्षात्मक उपचार समझे जा सकते हैं। विदेश जाने के समुद्री जहाज पर, वायुयान पर चढ़ने से पूर्व कई प्रकार के टीके लगवाने पड़ते हैं। ताकि किसी देश के रोग ग्रस्त नागरिक दूसरे देश में पहुंचकर अपनी छूत न फैला सकें। गर्भावस्था एक देश है और बाहरी दुनिया दूसरा। इसे भी एक विदेश माना समझा जा सकता है। अपनी दुनिया में आने-देने से पहले यदि मनुष्य-लोक के निवासी नवागन्तुक को टीके लगाकर आने के लिए कहते हैं तो उसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। सीमान्त और पुंसवन-संस्कारों का एक पक्ष यह भी है। यों इसके अतिरिक्त भी इसके बौद्धिक एवं भावनात्मक प्रयोजन और भी हैं।

जन्म के बाद जात-कर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, मण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत आदि कई संस्कार हैं जो बचपन की आयु में जल्दी-जल्दी सम्पन्न किये जाते रहते हैं। इन सब में यज्ञ अनिवार्य है। इसमें बालक को व उसके निरन्तर सम्पर्क में आने वाले माता-पिता को सम्मिलित होना पड़ता है। इसे शारीरिक एवं मानसिक विकृतियों के उत्पन्न होने की आशंकापूर्ण निराकरण कहा जा सकता है।

आयु बढ़ने के साथ-साथ मनुष्य की अपनी जिन की समर्थता बढ़ती है। ऐसी दशा में सुरक्षात्मक उपचार उतनी जल्दी-जल्दी करने की अनिवार्यता नहीं रहती है। फलतः आगे के संस्कारों का यह अन्तर बढ़ता जाता है। समापन विवाह, वानप्रस्थ संस्कारों के बीच कई-कई वर्ष का अन्तर रहता है। इन सभी संस्कारों में न केवल संस्कारित बालक या व्यक्ति को यज्ञीय-सुरक्षा पद्धति से प्रभावित किया जाता है, वरन् समूचे परिवार को यह लाभ मिलता है। घरों में समय-समय पर यज्ञ-हवन होते रहने पर उनके हर कोठे-कमरे में यज्ञ-धूम्र पहुंचता है और उससे जहां-तहां छिपे बैठे कृमि-कीटकों को निरस्त करने में भारी सहायता मिलती है।

यह प्रक्रिया का स्वास्थ्य सम्बन्धित लाभ यह भी है कि उसकी ऊर्जा परिवार की स्वस्थता में मूल्यवान सहायता प्रस्तुत करती है। संस्कारों को पारिवारिक और पर्वों को नागरिक स्वास्थ्य-सुरक्षा का एक उपयोगी उपाय माना गया है। कभी-कभी मनुष्यों और पशुओं में बीमारियां फैलती हैं तो उनके निराकरण के यज्ञ-आयोजन किये जाते हैं। इससे न केवल किसी घर मुहल्ले का वरन् उस क्षेत्र में निवास करने वाले मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों को स्वस्थ संकट से बचने का लाभ मिलता है।

होली का वार्षिक यज्ञ बड़े रूप में मनाने की परम्परा है। इसमें फसल को संस्कारित किया जाता है। खाद्य पदार्थों को गरम करके खाने की प्रथा इसलिए भी है कि उनमें कुछ विकृतियां जुड़ी हों तो उसका निराकरण हो सके। डॉक्टर इन्जेक्शन की सुई, आपरेशन के औजार प्रयुक्त करने से पहले उन्हें गरम कर लेते हैं इसका उद्देश्य उनके साथ किसी प्रकार जुड़ गये विषाणुओं को हटाना है। अन्यथा वे शरीर में पहुंचकर कोई नया संकट खड़ा कर सकते हैं। ठीक इसी प्रकार फसल पक कर आने पर नवान्न का उपयोग करने से पूर्व उसे यज्ञीय ऊर्जा से प्रभावित किया जाता है। इससे उसकी विशिष्टता बढ़ जाती है। कहीं कोई अनुपयुक्त तत्व इस अन्न के साथ मिले होंगे तो उन्हें सरलता पूर्वक हटाया जा सकेगा। यहां यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि इन पंक्तियों में स्वास्थ्य प्रकरण की चर्चा हो रही है। इसलिए यज्ञ-प्रक्रिया के उन्हीं लाभों पर प्रकाश डाला जा रहा है। जो स्वास्थ्य से सीधे सम्बन्धित हैं। इसका तात्पर्य किसी को, यह नहीं मान लेना चाहिए कि मात्र स्वास्थ्य संरक्षण ही यज्ञ का एक ही उद्देश्य है। उसके असंख्य लाभ हैं। उससे समूचे वातावरण में उत्कृष्टता के दैवी तत्वों का संवर्धन होता है फलतः प्राणियों की सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त होता है।

रोग आने से पूर्व दुर्बलता का आगमन उसी प्रकार होता है जैसे सूर्य के निकलने से पूर्व ऊष्मा का उदय होता है। दुर्बलता अपने आप में एक विपत्ति है। उसके कारण भीतर से रुग्णता उपजती और बाहर से बरसती देखी जाती है। दुर्बलता का प्रदर्शन होने देना, होने पर उसे हटाने में जुट जाना रोगों के आक्रमण से बचे रहने की सुनिश्चित गारंटी है। दुर्बलता निराकरण के लिए जो उपाय अपनाने पड़ते हैं उनमें से एक यज्ञीय माध्यम से पुष्टाई को सूक्ष्मीकरण विधि से शरीर के अन्तराल में पहुंचाता है। यज्ञ में मात्र रोग-नाशक औषधियां ही नहीं होमी जाती वरन् पौष्टिक शाकख्य का भी यजन होता है। घी, शक्कर मेवा एवं बलवर्धक औषधियों का भी बहुत बड़ा भाग हविष्य में रहता है। इनकी ऊर्जा रोग निवारण का वही बलवर्धक का अतिरिक्त प्रयोजन पूरा करती है। यज्ञ सान्निध्य से बढ़ने वाली समर्थता शरीर को ओजस्वी, मस्तिष्क को मनस्वी और अन्तःकरण को तेजस्वी बनाती है। तीनों शरीरों का यह त्रिविध बल वर्धन है। जिस प्रकार नासिका से लेकर शरीर के अन्याय छिद्रों द्वारा शरीर में यज्ञ ऊर्जा पहुंच कर रोग निवारण करती है ठीक उसी प्रकार उस आधार पर यज्ञ माध्यम से पुष्टाई का सूक्ष्मीकरण शरीर में प्रवेश करता है तो उससे बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थ खाने के कुछ अधिक ही लाभ मिल जाता है। अधिक इसलिए कि उसके प्रवेश एवं पाचन में तनिक भी कठिनाई नहीं होती। पौष्टिक पदार्थों को खरीदने का ही नहीं पचाने का भी सवाल है। पेट की सामर्थ्य न हो तो गरिष्ठ पौष्टिक पदार्थ पच नहीं सकेंगे। उल्टा अपच उत्पन्न करेंगे और उन्हें हटाने में शरीर को अनावश्यक श्रम करना पड़ेगा। इस प्रकार लाभ के स्थान पर उल्टी हानि सहनी पड़ती है वैसा ही खर्च नहीं होता वरन् शरीर पर अनावश्यक दबाव पड़ने से संचित सामर्थ्य से भी हाथ धोना पड़ता है।

यज्ञ द्वारा शरीर में पुष्टाई पहुंचाने का तरीका जितना नरक है उतना ही प्रभावी भी। अत्यधिक दुर्बलता बढ़ जाने पर पाचन तंत्र काम नहीं करता तब नस के माध्यम से ग्लूकोस शरीर में पहुंचाते हैं फलतः रोगी को खुराक मिलने, पचने, जैसा काम मिल जाता है। दूध पीने का अपना लाभ है पर छोटे से मिल्क इन्जेक्शन से वह काम अत्यधिक परिमाण में मिल जाता है। विटामिन खाद्य पदार्थों में घुले रहते हैं पर उन्हें प्रथम से निकाल कर तनिक सी मात्रा में खाने पर प्रायः वैसा ही लाभ मिल जाता है ढेरों फलों के खाने की अपेक्षा उनका रस पीने से पेट पर भार कम पड़ता है और लाभ उतना ही कम मिल जाता है। अन्यान्य पौष्टिक खाद्यान्नों का सार तत्व अब रसायन शाखायें बनाने लगी हैं और उनसे दुर्बल पाचन तंत्र वाले अस्वस्थ असमर्थ व्यक्ति भी अपनी जीवनी शक्ति बनाये रहने का काम लेने लगे हैं। यज्ञ माध्यम से सूक्ष्मीकरण पुष्टाई की अपेक्षाकृत अधिक सरलतापूर्वक शरीर में पहुंचाया और पचाया जा सकता है।

सूक्ष्मीकरण से शक्ति का विस्तार होता है। इस तथ्य को होम्योपैथी के पोटेन्सी विस्तार सिद्धान्त को पढ़कर अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। डी. शेन की दवाओं में साधारण जड़ी बूटियों को अधिक पिसाई करके उसकी आणविक ऊर्जा को उभारा जाता है और वे अपेक्षाकृत अधिक लाभदायक सिद्ध होती हैं। सूक्ष्मता का अपना एक स्वतंत्र दर्शन है जिससे वस्तुओं की अदृश्य स्थिति का ही प्रतिपादन नहीं वरन् यह सिद्धान्त भी सम्मिलित है कि ‘‘स्थूल’’ के अन्तराल में छिपा हुआ ‘‘सूक्ष्म’’ किस प्रकार असंख्य गुना सामर्थ्यवान होता है। परमाणु और जीवाणु जैसी नगण्य इकाइयों के अन्तराल में काम करने वाली नाभिकीय क्षमता का आभास और मूल्यांकन बुद्धि को हतप्रभ बना देता है। स्थूल, ढेला ओर सूक्ष्म शरीर विस्तार की दृष्टि से बड़े भले ही हों पर उसकी वास्तविक सामर्थ्य देखनी हो तो उस अन्तरंग को कुरेदना पड़ेगा जो आंखों के लिए अदृश्य होते हुए भी सामर्थ्य की दृष्टि से नितान्त अद्भुत है। पुष्टाई के लिए प्रयुक्त होने वाले पदार्थों रासायनिक विश्लेषण शोधकर्त्ताओं ने बहुत पहले से ही जान लिया है। वह निष्कर्ष सर्वसाधारण को उपलब्ध है। इनकी सूक्ष्म सामर्थ्य के क्षेत्र में प्रवेश किया जाय तो पता चलेगा कि उस अदृश्य का यदि उपयोग सम्भव हो सके तो अणु शक्ति की तरह ही खाद्य पदार्थों का स्तर भी हर दृष्टि से उद्भूत बन सकता है। सामान्य खाद्यों की सूक्ष्मता के आधार पर असाधारण-शक्ति सम्पन्न बनाया जा सकता है। और उसका लाभ अब की अपेक्षा असंख्य गुना उठाया जा सकता है तब सामान्य खाद्य पदार्थ भी उच्चस्तरीय औषधि की भूमिका निभा सकते हैं।

राजा दशरथ के यहां सम्पन्न हुए पुत्रेष्टि यज्ञ में चरु बनाया गया था। उस खीर के पहले दो हिस्से किये गये। यज्ञ पुरोहित ऋंगी ऋषि को जानकारी थी कि दो रानियां है इसलिए उनने चरु को दो हिस्सों में बांट दिया। पीछे स्मरण दिलाया गया कि रानियां तो तीन हैं तब उन्होंने भूल सुधारी और दो खण्डों में विभाजित खीर में से थोड़ा अंश निकाल कर तीसरा भाग बनाया। तीनों रानियों ने उसे सेवन किया छोटी सुमित्रा के हिस्से में वह दो भाग मिलाकर एक बनाया गया भाग आया, दो रानियों को एक-एक सन्तान हुई पर सुमित्रा को दो सन्तानें हुई। यह चरु की सूक्ष्म विशेषता का विवरण है। उसे चमत्कारी औषधि कहा जा सकता है वैसे देखने में वह खीर भर थी। यज्ञ प्रक्रिया की सूक्ष्म क्षमता का समावेश हो जाने से वह सामान्य से खाद्य पदार्थ असाधारण शक्ति सम्पन्न बन गया था।

यज्ञ भस्म यों अधिक से अधिक कोई मांगलिक पदार्थ माना जा सकता है पर कई बार उसके उपयोग से बहुमूल्य औषधियों से भी अधिक प्रभाव परिणाम निकलता देखा गया है। उसे पौष्टिक खाद्य पदार्थ के रूप में स्वास्थ्य संवर्धन के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है सूक्ष्म सामर्थ्य से सम्पन्न यज्ञ भस्म-चरु अथवा कोई भी पदार्थ इतने अधिक बलवर्धक हो सकते हैं कि उनकी तनिक भी मात्रा गाड़ी भर पौष्टिक खाद्य पदार्थों की समता कर सकें। सघन वन प्रदेशों के निवासी हिमाच्छादित गुफाओं में रहने वाले तपस्वी सिद्ध पुरुष अपने आहार की समस्या पदार्थों की सूक्ष्म सामर्थ्य के सहारे ही हल करते हैं।

यज्ञ विज्ञान का आरोग्य साधन से सम्बन्धित यज्ञ दो भागों में विभक्त है। एक रोग निवारण दूसरा बलवर्धक। दोनों की उपयोगिता आवश्यकता महत्ता एक दूसरे से बढ़ चढ़कर ही दोनों के समन्वय से ही स्वास्थ्य समस्या का समाधान होता है अतएव हविष्य में रोग निवारक औषधियां तथा बलवर्धक पुष्टाई का सन्तुलित रूप से समावेश किया जाता है। उसके प्रभाव से न केवल शारीरिक वरन् मानसिक समर्थता का भी संवर्धन होता है।

उपरोक्त पंक्तियों में यज्ञ से आरोग्य की उभयपक्षीय आवश्यकतायें पूरी होने के सामान्य उपक्रम पर प्रकाश डाला गया है। अमुक रोग में अमुक वस्तुओं के सहारे हवन करके तदनुरूप ऊर्जा उत्पन्न करना यह यज्ञ चिकित्सा का प्रकरण है। इस दिशा में पुरातन काल के तत्वदर्शी वैज्ञानिकों ने गम्भीर अनुसन्धान किये थे। और ऐसे विधि विधान ढूंढ़ निकाले थे जिनके सहारे व्यक्ति विशेष को चिकित्सा के लिए तदनुरूप विशेष यज्ञ उपचार का प्रभाव हो सके। इस पद्धति का उपयोग औषधि सेवन के साथ-साथ भी चलता रह सकता है।

यज्ञ चिकित्सा का प्रचलन प्राचीन काल में बहुत था। गुरुकुलों और आरण्यकों के साथ-साथ में चिकित्सालय भी चलते थे। जिनमें आहार, विहार के सामान्य विधि विधान के साथ-साथ आरोग्य लाभ के लिए विशिष्ट औषधियों का हविष्य-विशिष्ट समिधाओं का उपयोग विशेष पशु-का घृत विशेष कर्मकाण्डों का समावेश करते हुए अमुक रोग की चिकित्सा की जाती थी और वह सफल भी होती थी। उस पद्धति का सर्वांग पूर्व विधि विधान तो इन दिनों उपलब्ध नहीं है पर जहां तहां मिलने वाले उल्लेखों से पता अवश्य चलता है, कि किसी समय यज्ञोपचार प्रौढ़ता की स्थिति में रहा होगा और उसके माध्यम से सर्व साधारण को काम मिलता रहा होगा। सर्व विदित है कि मध्यकाल में आततायी आक्रमणों द्वारा बहुमूल्य ज्ञान सम्पदाओं के भंडार पुस्तकालय होली बनाकर जलाये गये थे। संभावतः यज्ञोपचार का महत्वपूर्ण अंश उसी दावानल में कहीं जल गया होगा। जो हो अब उस संदर्भ में नये सिरे से खोज करने की आवश्यकता है प्रयत्न किया जाय तो यह अनुसन्धान कुछ अधिक कष्ट साध्य नहीं होगा। कारण यह है कि इस सन्दर्भ में पहले से ही बहुत कुछ किया जाता रहा है और प्रगति के ऊंचे शिखर पर पहुंचने का कार्य पहले से ही सम्पन्न हो चुका है। दो ही कार्य ऐसे हैं जो नये सिरे से होंगे एक तो बीच बीच कड़ियां टूट कर गुप्त हो गयी हैं जहां तहां के टुकड़े ही उपलब्ध होते हैं उन्हें नये क्रम से जमाना और जो कड़ियां गुम हो गई हैं उन्हें फिर से ढालना जमाना। दूसरा यह कि प्राचीन काल की तुलना में इन दिनों मनुष्यों की वनस्पतियों की स्थिति में जो अन्तर आया है उसे ध्यान में रखते हुए ऐसे उपक्रम तैयार करना जो प्रस्तुत परिस्थितियों में अपनी प्रमाणिकता और सार्थकता सिद्ध कर सकें। इस दृष्टि से किये गये अनुसंधानों पर यदि गंभीरता पूर्वक जुट जाया जाय तो निश्चित ही चिकित्सा की एक ऐसी सर्वांग पूर्ण पद्धति का विकास हो सकेगा जो प्रचलित सभी उपचार पद्धति को पीछे देखकर अपनी विशिष्टता सिद्ध कर सके। यज्ञ चिकित्सा में शारीरिक-मानसिक एवं आत्मिक क्षेत्र की सभी विकृतियों के निराकरण की पूरी-पूरी सम्भावना है। ऐसी दशा में पुनर्जीवन प्राप्त करके अगले दिनों इस उपचार पद्धति का आविर्भाव मानवी सौभाग्य की अभिनव उपलब्धि माना जा सकेगा।

ब्रह्मवर्चस में इसके लिए एक साधन सम्पन्न प्रयोगशाला स्थापित की गई है जिसके आधार पर प्राचीन मान्यताओं को विज्ञान सम्मत स्वरूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

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