गायत्री साधना और यज्ञ प्रक्रिया

यज्ञ की उपयोगिता का वैज्ञानिक आधार

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गायत्री उपासना के साथ-साथ यज्ञ की अनिवार्यता शास्त्रों में पग-पग पर प्रतिपादित की गई है यह तथ्य अकारण नहीं है अभी तक इस बात को मात्र श्रद्धा का विषय माना जाता था किन्तु जैसे-जैसे विज्ञान की प्रगति हुई यह पता चलने लगा है कि यज्ञ एक प्रयोग जन्य विज्ञान है उसे अन्य भौतिक प्रयोगों के समान ही विज्ञान की प्रयोगशाला में भी सिद्ध किया जा सकता है।

विज्ञान अब इस निष्कर्ष पर पहुंचता जा रहा है कि हानिकारक या लाभदायक पदार्थ उदर में पहुंचकर उतनी हानि नहीं पहुंचाते जितनी कि उसके द्वारा उत्पन्न हुआ वायु विक्षोभ प्रभावित करता है। किसी पदार्थ को उदरस्थ करने पर होने वाली लाभ-हानि उतनी अधिक प्रभावशाली नहीं होती जितनी कि उसके विद्युत आवेग संवेग।

कोई पदार्थ सामान्य स्थिति में भी जहां रहता है वहां के विद्युत कम्पनों से कुछ न कुछ प्रभाव छोड़ता है और समीपवर्ती वातावरण में अपने स्तर का संवेग छोड़ता है पर यदि अग्नि संस्कार के साथ उसे जोड़ दिया जाय तो उसकी प्रभाव शक्ति असंख्य गुनी बढ़ जाती है।

तमाखू सेवन से कैन्सर सरीखे भयानक रोग उत्पन्न होने की बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है। इस व्यसन के व्यापक बन जाने के कारण सरकारें बड़े प्रतिबन्ध लगाने से डरती है कि जनता में विक्षोभ और विद्रोह उत्पन्न होगा, फिर भी सर्वसाधारण को वस्तुस्थिति से संकेत करने के लिए प्राथमिक कदम तो उठा ही दिये गये हैं। अमेरिका में सिगरेटों के पैकिट पर उनकी विषाक्तता तथा संभावित हानि की चर्चा स्पष्ट शब्दों में छपी रहती है। फिर भी जो लोग पीते हैं उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने आरोग्य और रुग्णता के चुनाव में बीमारी और अपव्यय के पक्ष में अपनी पसंदगी व्यक्त की है।

तमाखू से केन्सर कैसे पैदा होता है इस सन्दर्भ में जो नवीनतम खोज हुई है उससे नये तथ्य प्रकाश में आये हैं।

शोधकर्ताओं द्वारा निष्कर्ष यह निकाला गया है कि तमाखू में रहने वाले रसायन उतने हानिकारक नहीं जितने कि उसके धुंए के कारण धनात्मक आवेशों से ग्रस्त सांस का लेना। तमाखू का धुंआ भर मुंह से बाहर निकल जाता है सो ठीक, उसके द्वारा शरीर में रहने वाली वायु पर धनात्मक आवेश भर जाता है आवेश ही केन्सर जैसे भयंकर रोग उत्पन्न करने के कारण बनते धुंआ मुंह से छोड़ देने के बाद उसकी गर्मी और विषाक्तता वातावरण में ऐसे विद्युत कण उत्पन्न करती है जिसमें सांस लेना भयंकर विपत्ति उत्पन्न करता है। सिगरेट का धुंआ उगलने के बाद सांस तो उसी वातावरण में लेनी पड़ती है। अस्तु तमाखू की विषाक्तता विभीषिका बनकर भयंकर हानि पहुंचती है। उस हानि से किसी प्रकार भी नहीं बचा जा सकता।

इनको ही नहीं तमाखू पीने वालों के निकट बैठने वालों को भी उस धुंआ से होने वाली हानि भुगतनी पड़ती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए रेलगाड़ियों में—बसों में यह हिदायत लिखी रहती है कि यदि साथी मुसाफिरों को आपत्ति हो तो तमाखू न पियें। कोई स्वयं अपने पैरों कुल्हाड़ी मारे उसकी इच्छा, पर यह छूट दूसरों पर आक्रमण करने के लिए नहीं दी जा सकती। तमाखू के धुंए से पास बैठे हुये लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ना एक प्रकार से अनैतिक और असामाजिक कार्य ही माना जायगा।

ऑक्सीजन की समुचित मात्रा रहने पर ही वायु हमारे लिए स्वास्थ्य रक्षक रह सकती है। यदि उसमें कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस अथवा अन्य विषैली गैस बन जाय-तो ऐसी वायु जीवन के लिए संकट ही उत्पन्न करेगी। कमरा बन्द करके उसमें जलती अंगीठी रखकर सोया जाय तो ऑक्सीजन समाप्त होकर कार्बन बन जाने के कारण उसकी सांस बन्द कमरे में सोने वालों के लिए प्राणघातक बन जाती है।

26 अक्टूबर 1948 को अमरीका के डोनोरा नगर में एकाएक वायु में धुयें और विषैले तत्वों के अधिक बढ़ जाने के परिणाम स्वरूप उसके साथ घटित हुआ। उस दिन दस बजे तक भी सूर्य के दर्शन न हुये तब लोग घरों से बाहर निकले, उनकी सांसें घुटने लगी थीं। बाहर आकर देखा तो धुयें का कुहरा (स्माग) बुरी तरह छाया हुआ था। 28 अक्टूबर तक धुन्ध सारे नगर में छा गई और यह स्थिति 31 अक्टूबर तक बनी रही। इस बीच भी कल-कारखाने, कारें-मोटरें भट्टियां 1000 टन प्रति घन्टे के औसत से धुआं बराबर उड़ेलती रहीं। सारा शहर लगभग मृत्यु की अवस्था में पहुंच गया। लोगों की ऐसी दशायें हो गईं जैसी ऊपर के डॉक्टर के निजी बयान से व्यक्त है। वे बेचारे स्वयं भी मरीज थे प्रकृति के आगे आज वे भी बेबस थे और सोच रहे थे कि मानवीय सुख-शान्ति का आधार यांत्रिक सभ्यता नहीं हो सकती। नैसर्गिक तत्वों के प्रति श्रद्धा और सान्निध्यता स्थापित किये बिना मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता। भौतिक विज्ञान की प्रगति तो वैसी ही गले की फांसी बन सकती है जैसी आज सारे नगर की हो रही है इस घटना के भुक्तभोगी एक डॉक्टर ने लिखा है।

‘‘मेरी सोचने की शक्ति समाप्त हो गई। यह क्या हो रहा है। इस पर चकित होने तक के लिये बुद्धि शेष नहीं थी। कार चलाना कठिन हो गया, किसी तरह कार से उतरा तो लगा कि सीने पर कोई दैत्य चढ़ बैठा है और उसने भीतर से जकड़ लिया है। खांसी आने लगी मुश्किल से कार्यालय मिला, टेलीफोन की घंटियां बज रही थीं और मुर्दे की नाई पास में कूड़े के ढेर की तरह पड़ा रहा उस दिन एक भी टेलीफोन का उत्तर नहीं दें सका।’’

इन 5-6 दिनों में डोनोरा नगर की 18 हजार की आबादी में 6 हजार अर्थात् एक तिहाई व्यक्ति बीमार पड़ गये थे, सैकड़ों की मृत्यु हो गई। भगवान् कृपा न करते और 31 को भारी वर्षा न होती तो कौन जाने डोनोरा शहर पूरी तरह लाशों से पट जाता।

1966 में ‘‘थेंक्सगिविंग’’ दिवस पर न्यूयार्क में आस-पास के देहाती क्षेत्रों से भी सैकड़ों लोग आ पहुंचे। उस दिन भी यही दिशा हुई। कुछ घन्टों के धुयें के दबाव से ही 170 व्यक्तियों की मृत्यु तत्काल हो गई। हजारों लोगों को पार्टियां, नृत्य और सिनेमा घरों की मौज छोड़कर अस्पतालों के बिस्तर पकड़ने पड़े। ऐसी दुर्घटना वहां 1952 में भी हो चुकी थी उसमें 200 से भी अधिक मृत्युएं हुई थीं।

सन् 1956 में यही स्थिति एक बार लन्दन की हुई थी उसमें 1000 व्यक्ति मरे थे। सरकार ने करोड़ों रुपयों की लागत से रोक-थाम के प्रयत्न किये थे, तो भी 1962 में दुबारा फिर वैसी ही स्थिति बनी और 400 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु कुछ ही घन्टों में दम घुटकर हो गई। कुछ लोगों ने तो इसे प्राकृतिक आत्म-हत्या कहा और चेतावनी दी कि यदि धुंये की समस्या को हल न किया गया तो एक दिन सारा वायुमण्डल विष से भर जायेगा। जिस दिन यह स्थिति होगी उस दिन पृथ्वी की सामूहिक हत्या होगी। उस दिन पृथ्वी पर मनुष्य तो क्या कोई छोटा सा जीव और वनस्पति के नाम पर एक पौधा भी न बचेगा। पृथ्वी की स्थिति शुक्र ग्रह जैसी विषैली हो जायेगी।

संसार के विचारशील लोगों का इधर ध्यान न हो ऐसा तो नहीं है किन्तु परिस्थितियों के मुकाबले प्रयत्न नगण्य जैसे हैं। एक ओर जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हो रही है उसी अनुपात से कल-कारखाने और शहरों की संख्या भी बढ़ेगी। अनुमान है कि सन् 2000 तक अमेरिका की 320 बिलियन जन संख्या होगी। इस आबादी का 85 प्रतिशत शहरों में रहेगा। इस अवधि में कारों और मोटरों की संख्या इतनी अधिक हो जायेगी कि उनको रखने की जगह न मिलेगी। अमेरिका में 1 बच्चा पैदा होता है तब तक कारें 2 जन्म ले चुकी होती हैं।

‘‘यूनिवर्सिटी स्टेटवाइड एयर पालूजन रिसर्च सेन्टर’’ [यह संस्था अमेरिका में वायु-प्रदूषण से होने वाली हानियों और उनसे बचने के उपायों की शोध करती है] के डाइरेक्टर श्री जी.टी. मिडिल्टन के अनुसार एक कार सामान्य रूप से 900 मील प्रतिवर्ष चलती है। एक दिन में 25 मील तो वह अनिवार्य रूप से चलती ही है उससे 61/2 पौण्ड वायु-प्रदूषण होता है। 1960 में इस राज्य में अकेले कारों से 37 मिलियन पौण्ड (अर्थात् 462500 मन से भी अधिक) वायु-प्रदूषण निकला। 1963 में 56 मिलियन पौंड, यदि इस पर नियन्त्रण न किया गया तो 1970 में 81 मि. पौण्ड तथा 1980 में 112 मिलियन पौण्ड्स से भी अधिक वायु-प्रदूषण अकेली कार मोटरों से बढ़ जायेगा। कल-कारखानों से निकल रहे धुयें की हानियों और भविष्य में हो सकने वाली भयंकरता का चित्रण करते हुये कैलिफोर्निया के टेक्नालॉजी संस्थान के भू-रसायन शास्त्री डा. क्लेअर-सी-पैटरसन और जन-स्वास्थ्य सेवा निर्देशक डा. राबर्ट ई. कैरोल ने लिखा है कि टेक्नालॉजी के विस्तार से वायु में कार्बन और सीसे के कणों की मात्रा इतनी अधिक बढ़ जायेगी कि अमेरिका का हर व्यक्ति हृदय तन्त्रिका संस्थान (नर्वस सिरि सिस्टम) के रोग से पीड़ित अर्थात् लोग लगभग पागलों जैसी स्थिति में पहुंच जायेंगे।’’

2000 तक विद्युत का उपयोग 5 गुना बढ़ जायेगा। जिसके कारण वायु-प्रदूषण 5 गुना बढ़ जायेगा। जनसंख्या वृद्धि का अर्थ रहन-सहन की वस्तुओं में वृद्धि होगी और उससे कूड़े की मात्रा भी निःसन्देह बढ़ेगी। उस बढ़ोत्तरी को न तो ऑक्सीजन का उत्पादन रोक सकेगा, न पेड़-पौधे, क्योंकि वह स्वयं भी तो विषैले तत्वों के सम्पर्क में आकर विषैले होंगे और दूसरे नये-नये विष पैदा करने में मदद करेंगे। ऐसी स्थिति में यान्त्रिक सभ्यता को रोकने और वायु शुद्ध करने के लिये सारे विश्व में यज्ञ परम्परा डालने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता। यज्ञों में ही वह सामर्थ्य है जो वायु प्रदूषण को समानान्तर गति से रोक सकती है।

अभी इस गन्दगी को दूर करने के लिये अमेरिका प्रति वर्ष 1200000000 डॉलर्स (एक डालर का मूल्य सात रुपये से कुछ अधिक होता है) खर्च करता है। ओजान, सल्फर फ्लोराइड से शाक-सब्जी तथा फूल फसलों की क्षति रोकने के लिए 500 मिलियन डॉलर्स, धातुओं पर जंग लगने, रंग उड़ने, से सफाई व घर खर्च आदि बढ़ जाने, जानवरों के मरने, खाने की वस्तुएं क्षतिग्रस्त होती हैं नाइलॉन, टायर और ईंधन नष्ट होता है इन सबको रोकने और रख-रखाव में 300 मिलियन डॉलर्स तथा सूर्य प्रकाश के मन्द पड़ जाने के कारण जो अतिरिक्त प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़ती है उसमें 40 मिलियन डॉलर्स का खर्च वहन करना पड़ता है।

वायु-प्रदूषण बढ़ने के अनुपात से सुरक्षात्मक प्रयत्नों में खर्च की वृद्धि भी होगी तो भी उसे रोक सकना सम्भव नहीं होगा। कैलीफोर्निया के कृषि-विभाग, सेवा योजन विभाग के प्रोग्राम लीडर डा. पो. ओस्टरली ने भविष्य वाणी की है कि अमेरिका में वायु-गन्दगी के कारण जो नुकसान होने वाला है वह बहुत भयंकर है और उसमें सुधार की कोई सम्भावना नहीं है। अगले कुछ दिनों में धुआं इतना अधिक हो जायेगा कि प्रातःकाल चिड़ियों का चहचहाना तक बन्द हो जायेगा क्योंकि उन्हें सवेरे-सवेरे सामान्य सांस लेने में कठिनाई होने लगेगी, चहचहाने में तो श्वांस-प्रश्वांस की क्रिया बढ़ जाती है। इस स्थिति में उन्हें चुप रहने में ही सुविधा होगी।

न्यूयार्क का हिल्टन होटल औद्योगिक बस्ती के बीच बना हुआ है इस होटल की दीवारों, शीशों और फर्नीचर आदि पर धुयें और कार्बन कणों का 3।1।2 वर्ष की अवधि में ही इतना बुरा प्रभाव पड़ा कि उसका सारा रंग उड़ गया, दीवारें खस्ता पड़ गईं उसकी दुबारा होवरहालिंग करानी पड़ी जिसमें पचास हजार डॉलर्स (लगभग 4 लाख रुपये) का खर्च आया। यह तो रही एक सामान्य बिल्डिंग की बात। सारे विश्व के—जन स्वास्थ्य, कृषि और कृषि में सहयोगी पशुओं, धातुओं, भवनों आदि पर हुये इसके दुष्प्रभाव की हानि की कुल लागत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। न्यूयार्क के सेंट ल्यूकस अस्पताल का गुम्बद संगमरमर और टेराकोटा का बना हुआ है। सल्फर डाई ऑक्साइड युक्त विषैले धुयें ने उसे इस तरह कमजोर किया कि कोई भी लड़का वहां पहुंचकर उसे चुटकियों में ऐसे खोद लेता है जैसे मिट्टी, उसकी तहें हाथ से मसल दी जातीं तो आटे की तरह चूर-चूर हो जातीं। गुम्बद इतना खस्ता हो गया कि उसे बदलना पड़ा और उस पर सीधी छत डालनी पड़ी। पत्थर और कंक्रीट की बिल्डिंगों का यह हाल हो तो मनुष्य और प्रकृति के कोमल भागों पर उसके दुष्प्रभाव की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

यह हानियां तभी सुधार और नियन्त्रण में आ सकती हैं जब धुयें को आकाश में नष्ट करने वाली प्रणाली का विस्तार हो। आज की स्थिति में यह कल कारखाने रुकें, ऐसा नितान्त सम्भव नहीं दिखाई देता, कल कारखाने रुकेंगे नहीं तो धुओं पैदा होने से बन्द नहीं होगा, धुओं होगा तो मानव-जाति पर संकट की छाया घिरी ही रहेगी। यह धुओं कभी भी मनुष्य जाति को गम्भीर संकट में डाल सकता है अतएव एक बार फिर से आकाश की शुद्धता के लिये भारतीय प्रयत्न व शोध-यज्ञों का अध्ययन अनुसंधान व तीव्र प्रसार करना होगा।

‘‘लोहे को लोहा काटता है’’, शरीर में चेचक के कीटाणु बढ़ने की सम्भावना हो तो इन्जेक्शन द्वारा चेचक के ही कीटाणु शरीर में प्रविष्ट कराये जाते हैं, यह कीटाणु रक्त के श्वेत कीटाणुओं के साथ मिल जाते हैं। श्वेत-कणों में चेचक की कीटाणुओं से लड़ने की शक्ति नहीं होती। बन्दूकधारी को बन्दूकधारी ही मार सकता है। डाकू को पकड़ना हो तो बन्दूक चलाने से लेकर खंदक में छुपकर बचाव आदि का समानान्तर ज्ञान रखने वाला सिपाही ही लगाया जा सकता है। उसमें गांव का निहत्था किसान सफल नहीं हो सकता। इन्जेक्शन में दिये चेचक के कीटाणु अच्छे कीटाणुओं के साथ आगे बढ़कर अपने ही तरह के द्रोही कीटाणुओं को मार डालते हैं। उसी तरह हवन में जलाई गई औषधियां भी धुयें के रूप में, प्रकाश-वर्षा के रूप में उठती हैं और धुयें के विषैले प्रभाव को नष्ट करती हुई मनुष्य शरीर, पशु-पक्षियों, वनस्पति सबको जीवन देती चली जाती हैं।

फ्रांस के विज्ञान-वेत्ता प्रो. टिलवर्ट का कथन है कि खांड़ के धुयें में वायु को शुद्ध करने की विलक्षण शक्ति है। चेचक की टीके के अविष्कार डा. हेफकिन (फ्रांस) ने घी जलाकर परीक्षण किया और बताया कि उससे रोग के कीटाणु नष्ट होते हैं। डा. टाइलिट ने किशमिश, मुनक्के इत्यादि सूखे मेवों के धुयें के परीक्षण के बाद बताया कि उस धुयें में टाइफ़ाइड के कीटाणु नष्ट करने की क्षमता होती है। जायफल जलाने से उसके तेल परमाणु 1।10000 से 1।100000000 से.मी. के व्यास तक के सूक्ष्म पाये गये। इनमें कार्बन के धुयें के कणों में घुसकर उन्हें शुद्ध तत्वों में बदलने की क्षमता पाई गई। 6 अप्रैल 1955 के अंग्रेजी-पत्र लीडर में ‘‘न्यू क्योर फार टी.बी.’’ शीर्षक से हवन के धुयें को बहुमूल्य औषधोपचार के रूप में मानकर अमरीकी वैज्ञानिकों को उस पर अनुसंधान करने का आवाहन किया गया है।

सांस के लिये केवल ऑक्सीजन ही काफी नहीं—हवा में रहने वाले धूलिकणों का विद्युत आवेश ऋणात्मक होना भी आवश्यक है। सर्व विदित है कि वायु में छोटे-छोटे धूलिकण भरे रहते हैं। इन कणों में से अधिकांश में विद्युत आवेश चार्ज रहता है। इन आवेशित कणों को ‘आयन’ कहा जाता है। धनात्मक आवेश वाले स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं और ऋणात्मक कण श्रेयस्कर सिद्ध होते हैं। जिस प्रकार स्वास्थ्य वर्धक जल-वायु प्राप्त करने की व्यवस्था स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक समझी जाती है उसी प्रकार अब विशेषज्ञ लोग यह भी सुझाव देते हैं कि ऐसी जगह रहना चाहिए जहां वायु में रहने वाले धूलि-कण ऋणात्मक विद्युत से आवेशित हों। प्रयास यह किया जा रहा है कि वायु में आवेश नियन्त्रित करके बिगड़े स्वास्थ्य को सुधारने की—रोगों के निवारण की व्यवस्था की जाय। इस संदर्भ में काफी खोजें हुई हैं और अभीष्ट आवेश उत्पन्न करने वाले यन्त्र बनाये गये हैं। विद्युत चिकित्सा पद्धति पहले से भी प्रचलित थी पर अब उसमें धूलि कणों को आवेशित करके उपचार करने की एक नई प्रक्रिया ‘‘आयनिक थेरैपी’’ और भी सम्मिलित कर ली गई है। फेफड़े से सम्बन्धित श्वांस रोगों पर तथा रक्त संचार प्रक्रिया में दोष होने के कारण उत्पन्न हुए रोगों पर तो इस पद्धति का आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिल रहा है।

यों तमाखू खाना भी कम विपत्ति का कारण नहीं है, पर धुंए के द्वारा जितना विष शरीर में पहुंचता है उतना ही यदि उसे खाकर उदरस्थ किया जाय तो अपेक्षाकृत कम हानि होगी तमाखू खाने वालों को मुंह का—गले का—फेफड़े का और पेट का केन्सर इसलिए होता है कि उसकी अत्यधिक मात्रा पेट में ठूंस ली जाती है। धुंए के द्वारा कारों फैक्ट्रियों द्वारा तथा सिगरेट पीने वाले जितना जहर खाते हैं उतनी ही मात्रा यदि खाई जाय तो तुलनात्मक दृष्टि से पीने वालों की तुलना में खाने वालों को कम हानि उठानी पड़ेगी।

कोई वस्तु खाई जाय तो उसकी अवांछनीय विषाक्तता का बहुत कुछ भाग मुख और पेट में स्रवित होने वाले रस सम्भाल सुधार लेते हैं। सर्प का विष यदि मुंह से खाया जाय तो उतनी हानि नहीं करेगा पर यदि वह सीधा रक्त में सम्मिलित हो जाय तो मृत्यु का संकट उत्पन्न करेगा। टिटनिस के विषाणुओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। टिटनिस के कीड़े तभी संकट उत्पन्न करते हैं जब वे खुले घाव में होकर रक्त में सम्मिलित हो जायं। इन्हीं कीड़ों को यदि आहार या जल द्वारा पेट में पहुंचा दिया जाय तो उसका इतना बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि वस्तुयें आहार द्वारा सन्तुलित और ग्राह्य प्रभाव ही उत्पन्न कर सकती हैं। वे यदि सामान्य स्तर की हों तो वे न तो बहुत अधिक हानि ही पहुंचा सकेंगी और न अत्यधिक लाभ भी उत्पन्न करेंगी। शरीर उन्हें काट-छांटकर अपने सामान्य क्रम के अनुरूप बना लेगा।

दवा-दारू, गोली, चूर्ण, मिक्चर के रूप में खिलाने की अपेक्षा उन्हें इंजेक्शन द्वारा रक्त में सम्मिश्रित करना इसी दृष्टि से अधिक लाभदायक माना गया है कि औषधि रक्त में सीधी सम्मिलित होकर अपना पूरा प्रभाव डालती है और उसे पेट के रसों द्वारा होने वाला काट-छांट का सामना नहीं करना पड़ता। रक्त में औषधि सम्मिलित करने से भी अधिक प्रभावी उपाय सांस द्वारा उसे शरीर में पहुंचाया जाना है। यज्ञ-विज्ञान का सारा आधार इसी तथ्य पर विनिर्मित है।

भारतीय मनीषियों की दृष्टि उनकी प्रज्ञा बुद्धि आज के वैज्ञानिकों की अपेक्षा सहस्र गुनी प्रखर और पैनी थी। उनके यज्ञ को इतना अधिक महत्त्व दिया था कि स्वतंत्र राय से यजुर्वेद की रचना ही अलग करनी पड़ी। वातावरण की शुद्धि कठिन रोगों की चिकित्सा अनेक समान प्रयोजनों के लिये यज्ञ को सर्वोपरि आश्रम माना गया यों उसका नियोजन आध्यात्मिक कल्याण के लिये अधिक हुआ पर भौतिक प्रगति की उपेक्षा भी नहीं लिखी गयी है।

कस्त्वा विमुञ्चिति सत्वा विमुंति कैस्मैत्व विमुञ्चति तस्मै त्वं विमुञ्चति । पोषाय रक्षा भर्गोऽसि ।
                                                                                                                                                                - यजु. 2।23

अर्थात्  ‘‘सुख शान्ति चाहने वाला कोई व्यक्ति यज्ञ परित्याग नहीं करता। जो यज्ञ को छोड़ता है, उसे यज्ञ रूप परमात्मा भी छोड़ देता है। सबकी उन्नति के लिए आहुतियां यज्ञ में छोड़ी जाती हैं, जो नहीं छोड़ता वह राक्षस हो जाता है।’’

यज्ञेन पापैः बहुभिर्विमुक्तः प्राप्नोति लोकान् परमस्य, विप्णो ।
                                                                                                                                 —हारीत

अर्थात्  ‘‘यज्ञ से अनेक पापों से छुटकारा मिलता है तथा परमात्मा के लोक की भी प्राप्ति होती है।’’

                                                             पुत्रार्थी लभते पुत्रान् धनार्थी लभते धनम् ।
                                                             भार्यार्थी शोभनां भार्यां कुमारी च शुभम् पतिम् ।।
                                                             भ्रष्टराज्यस्तथा राज्य श्री कामः श्रियमाप्नुयात् ।
                                                             यं यं प्रार्थयेत् कामः सर्वे भवति पुष्कल ।।
                                                             निष्कामः कुरुते यज्ञ स परब्रह्म गच्छिति ।
                                                                                                            —मत्स्य पुराण 93।117

अर्थात्  ‘‘यज्ञ से पुत्रार्थी को पुत्र लाभ, धनार्थी को धन लाभ, विवाहार्थी को सुन्दर भार्या, कुमारी को सुन्दर पति, श्री कामना वाले को ऐश्वर्य प्राप्त होता है और निष्काम भाव से यज्ञानुष्ठान से परमात्मा की प्राप्ति होती है।’’

                                                             न तस्य ग्रह पीड़ा स्यान्नच बन्धु धनक्षयः ।
                                                             ग्रह यज्ञ व्रतं गेहे लिखित यन्त्र तिष्ठति ।।
                                                             न तत्र पीड़ा पापानां न रोगो न च बन्धनम् ।
                                                             अशेषा यज्ञ फलदमशेषाघौघ नाशनम् ।।
                                                                                                         —कोटि होम पद्धति

अर्थात्  ‘‘यज्ञ करने वाले को ग्रह पीड़ा, बन्धु नाश, धन क्षय, पाप, रोग, बन्धन आदि की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती। यज्ञ का फल अनन्त है।’’

                                                             देवा सन्तोषिता यज्ञोर्लोकान् सम्बर्धयन्त्युत ।
                                                             उभयोर्लोकयोः देव भूतियज्ञ प्रदृश्यते ।।
                                                             तस्माद्यद्देज्ञावं याति पूर्वजः सहमोदते ।
                                                             नास्ति यज्ञ समंदानं नास्ति यज्ञ समोविधिः ।
                                                             सर्व धर्म समुद्देव्यो देवि यज्ञ समाहितः।।
                                                                                                             —महाभारत

अर्थात्  ‘‘यज्ञों से सन्तुष्ट होकर देवता संसार का कल्याण करते हैं, यज्ञ द्वारा लोक-परलोक का सुख प्राप्त हो सकता है। यज्ञ से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। यज्ञ के समान कोई दान नहीं, यज्ञ के समान कोई विधि-विधान नहीं, यज्ञ में ही सब धर्मों का उद्देश्य समाया हुआ है।’’

                                                             असुराश्च सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मख क्रियाम् ।
                                                             प्रयतन्ते महात्मानस्तस्तमद्यजः परायणाम् ।
                                                             यज्ञैरेव महात्मानो ववुभुराधिका सुराः ।
                                                                                                           —महाभारत

अर्थात्  ‘‘असुर और सुर सभी पुण्य के मूल्य हेतु यज्ञ के लिए प्रयत्न करते हैं सत्पुरुषों को सदा यज्ञ परायण होना चाहिए। यज्ञों से ही बहुत से सत्पुरुष देवता बने हैं।’’

                                                             यदिक्षितायुर्यदि वा परेतो मृत्योरान्तिक नीति एदं ।
                                                             तमाहराभिनि ऋते रूपस्था रूपस्था तस्यार्थमेनं शत शादपाय ।
                                                                                                                                         —अथर्व 3।11।2

अर्थात्  ‘‘यदि रोगी अपनी जीवन शक्ति को खो भी चुका हो, निराशाजनक स्थिति को पहुंच गया हो यदि मरण काल भी सामने आ पहुंचा हो, तो भी यज्ञ उसे मृत्यु के चंगुल से बचा लेता है और सौ वर्ष जीवित रहने के लिए पुनः बलवान बना देता है।’’

                                                             प्रयुक्तया यथा चेष्ट्वा पाजयक्ष्मा पुरोजितः ।
                                                             तां वेद विहितामिष्ठामारोग्यार्थी प्रयोजयेत् ।
                                                                                                                        —चरक चि. खण्ड 8।122

अर्थात्  ‘‘तपैदिक सरीखे रोगों को प्राचीनकाल में यज्ञ के प्रयोग से नष्ट किया जाता था। रोग-मुक्ति इच्छा रखने वालों को चाहिए कि उस वेद विहित यज्ञ का आश्रय लें।’’

                                                              नास्त्य यज्ञस्य लोको वै ना यज्ञो विन्दते शुभम् ।
                                                              अयज्ञो न च पूतात्मा सश्यश्तिन्छिन्न पूर्णवत् ।।
                                                                                                                               —शंख

अर्थात्  ‘‘यज्ञ न करने वाला मनुष्य लौकिक और परलौकिक सुखों से वंचित रह जाता है। यज्ञ न करने वाले की आत्मा पवित्र नहीं होती और वह पेड़ से टूटे हुए पत्ते की तरह नष्ट हो जाता है।’’

           शिवो नामासि स्विधितिस्ते पता नमस्तेऽअस्तु मा मा हि सीः । निवर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ।
                                                                                                                                                                                  -यजु. 3।63

अर्थ—हे यज्ञ! तू निश्चय ही कल्याणकारी है। स्वयम्भू परमेश्वर तेरा पिता है। तेरे लिए नमस्कार है तू हमारी रक्षा कर दीर्घ आयु, उत्तम अन्न, प्रजनन शक्ति, ऐश्वर्य समृद्धि, श्रेष्ठ सन्तति एवं मंगलोन्मुखी बन पराक्रम के लिए हम श्रद्धा, विश्वास पूर्वक तेरा सेवन करते हैं।

त्वामग्ने यजमानाऽअनुद्यून विश्वावसु दधिरे वार्याणि त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमैत मुशिजो विवब्रुः ।
                                                                                                                                                                 —यजुर्वेद 12।28

अर्थ—हे देव अग्ने! जो सदा यज्ञ करते हैं, ऐसे सद्गृहस्थ सदा ही श्रेष्ठ सम्पत्तियों के स्वामी होते हैं, उन्हें इस यज्ञ के पुण्य प्रभाव से सदैव ज्ञानियों की सत्संगति के साथ ही धन की प्राप्ति होती रहती है।

पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसवः समिन्धतां पुनर्ब्रह्माणो वसनीथ यज्ञोः । घृतेन त्व तन्वं वर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ।
                                                                                                                                                                 —यजुर्वेद 12।44

अर्थ—हे ऐश्वर्य को प्राप्ति कराने वाले यज्ञाग्ने! तुझे ये यज्ञकर्त्ता आदित्य यज्ञ, वसुयज्ञ एवं रुद्रयज्ञ के द्वारा बारम्बार प्रदीप्त करें। इन यज्ञों से तुम अपने तेजों की अभिवृद्धि करके यज्ञकर्त्ताओं की कामना पूर्ण करो या पूर्ण करने में समर्थ होओ ।

                                                              अयमग्निः पुरीष्यो रयिमान् पुष्टिवर्द्धनः ।
                                                              अग्ने पुरिष्याभि द्यूम्नमभि सहऽआयच्चस्व ।।
                                                                                                                       —यजुर्वेद 3।40

अर्थ—यह यज्ञाग्नि वृष्टि कराने वाली, धन देने वाली तथा पुष्टि और शक्ति को बढ़ाने वाली है। पुरीष्य अग्नि! तुम हमारे सब ओर बल और यश का विस्तार करो।

                                                               तिशद्धाम विराजति वांक् तंगाय धीयते ।
                                                               प्रति वस्तोरह द्यु भिः ।
                                                                                                     —यजु. 3।8

अर्थ—यह यज्ञ को प्रतिदिन किया जाता है, वह अपनी प्रदीप्त ज्वालाओं से युक्त निरन्तर यज्ञकर्त्ता के अंतर में विराजता रहता है, फिर ऐसी दशा में किसी अन्धकार, असुर अज्ञान को ठहरने को (यहां) अवकाश ही कैसे हो सकता है? सच्चे यज्ञकर्त्ता एक दिन सम्पूर्ण अन्धकार और अज्ञान से मुक्त होकर दिव्य परमात्मा के चरणों में पहुंच जाते हैं।

शर्मास्य वधूय रक्षोऽवधूताऽरातयोऽदियास्त्वगसि प्रयि त्वादितिर्वेत्तु । अद्रिरसि वानस्पत्यो ग्रायासि पृथुबुध्नः प्रति त्वादित्या स्त्वग्वेत्तु ।
                                                                                                                                                                               —यजु. 1।14
                                                                                                                                                                                         

अर्थ—हे यज्ञ! तुम सुख कारक एवं आश्रय लेने योग्य हो, तुम से रोग विनिष्ट होते हैं तथा रोग के कीटाणु भी ध्वस्त होते हैं, तुम पृथ्वी की लिए त्वचा की भांति रक्षक हो। तुम हरीतमा पूरित वनस्पतियों से आच्छादित पर्वत के सदृश्य सुन्दर, सुहावने और हितकारी हो, तुम इन सुविस्तृत आकाश में जल से लबालब भरे वर्षाभिमुख बादलों के सदृश हो।

धान्यमसि धिनुहि देवान् प्राणाय त्वोदानायत्वा व्यनाय त्वा । दीघामन प्रसियिमायुषे धां देवोव, सविता हिरण्यपाणिः प्रतिघृभ्यणात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुषे त्वा महिनां पयोऽसि ।
                                                                                                                                                                              —यजुर्वेद 1।20

अर्थ—हे यज्ञ! तुम देवों के धान्य (भोजन) हो, अतः इस हवि के द्वारा तुम उन्हें प्रसन्न करो, जिससे वे प्रसन्न होकर यज्ञकर्त्ता को सुख और कल्याण प्रदान करें। हम तुम्हें प्राण, उदान, ध्यान आदि प्राणों में, आयु में तथा जीवन की व्यापक उन्नति करने के लिए धारण करते हैं, आपके अनुग्रह से यह सब वस्तुयें हम प्राप्त करेंगे।

आदित्यै व्युन्दनमसि विष्णो स्तुपोऽस्यूर्णभ्रदसं त्वा स्तृण मि स्वासस्था देवेभ्यो भवपतये स्वाहा, भुवन पतये स्वाहा भूतानां पतये स्वाहा ।
—यजुर्वेद 1।2।2

अर्थ—हे यज्ञ! तुम पृथ्वी को सींचने वाले हो, अर्थात् पृथ्वी निवासियों का सर्वांगीण अभ्युन्नति और कल्याण के अमृत से अभिसिंचन करते हो। हे देवों को सुखद स्थिति देने वाले एवं सभी भांति रक्षा करने वाले यज्ञ! हम तुम्हें सुविस्तृत और सूक्ष्मतर बनाना चाहते हैं।


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