गायत्री साधना और यज्ञ प्रक्रिया

अग्निहोत्र का स्वास्थ्य पर प्रभाव

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रोगों की चिकित्सा में जिन औषधियों का प्रयोग किया जाता है उनका प्रभाव इस बात पर निर्भर रहता है कि वे कितनी सूक्ष्म बनाकर दी गई हैं। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की सामर्थ्य में कितना अन्तर है उसे अणु-विज्ञान के आधार पर जाना जा सकता है। मिट्टी की एक डेली जिसमें करोड़ों करोड़ अण्ड होते हैं कुछ विशेष महत्त्व नहीं रखती पर जब उसका एक सूक्ष्म परमाणु अलग से उपलब्ध करके उसका विस्फोट किया जाता है तो असीम शक्ति उत्पन्न होती है। एक मिर्च को ही लें—उसे साधारण रीति से पीसकर खा लिया जाय तो कोई विशेषता प्रतीत न होगी, उसी को खरल में कूटा जाय तो पास बैठे दो-चार आदमियों को उसकी थोड़ी सी धमकी अनुभव होगी, पर यदि उसे आग में जलाया जाय तो उसकी गन्ध काफी दूर तक फैलेगी और उस क्षेत्र में सब को खांसी, छींक या अनुभव होगा। निस्संदेह किसी वस्तु को जितना सूक्ष्म बनाया जायगा वह उतनी ही व्यापक और सशक्त होती चली जायगी।

औषधियों के बारे में भी यही बात है। कोई औषधि जड़ी-बूटी ऐसे उखाड़कर चबा ली जाय तो उसका बहुत थोड़ा असर होगा, पर उसे बारीक पीस छानकर या अर्क निकाल कर सेवन किया जाय तो अधिक असर करेगी। आयुर्वेद में चौंसठ पहरा पीपल का बहुत गुण माना गया है वह अनुपान—भेद से सौ रोगों को अच्छा करती है। पीपल मामूली सी औषधि है, साधारण गरम मसाले में काम आती है, पर उसे लगातार बिना रुके आठ दिन तक घोटते रहा जायगा तो उसके कण बहुत सूक्ष्म हो जाते हैं और उसी अनुपात से उसकी शक्ति भी बढ़ जाती है। डा. सेन, की प्रख्यात दवायें अपेक्षाकृत अधिक गुणकारी होती हैं, कारण यह है कि उनकी अधिकतम पिसाई-घुटाई की जाती है—ताकि उस दवा की सूक्ष्म शक्ति का पूरा विकास हो सके। होम्योपैथी में औषधि निर्माण विद्या का आधार यही है। वे दवाओं का इतना सूक्ष्मीकरण करते हैं कि नगण्य-सी दवा इतनी प्रभावशाली बन जाती है कि एक खुराक का असर महीनों बना रहे। ऐलोपैथी में भी इन्जेक्शन निर्माण का आधार यही है कि औषधि को इतनी सूक्ष्म स्थिति तक पहुंचा दिया जाय कि उसे रक्त में पहुंचते ही समस्त शरीर में फैल जाने में विलम्ब न लगे। भोजन को अधिक चबाने पर बल इसलिए दिया जाता है कि उसे दांतों से जितना अधिक पीसा जायगा उतनी सूक्ष्म शक्ति उभरेगी और वह अधिक सुपाच्य तथा गुणकारी बन जायगा।

वस्तुओं को सूक्ष्म करने का मोटा तरीका कूट, पीसकर छान लेना। अर्क निकालना और द्रव रूप में परिणत करना उससे अधिक सूक्ष्म करने का विधान है। इससे भी अधिक सूक्ष्मता उसे वायुभूत बनाने में आती है। आयुर्वेद में धूम्र चिकित्सा का अनेक जगह वर्णन है। जहां औषधियों को पचाने में देर लगती दीखे या पचाने में कठिनाई हो वहां धूम्र के माध्यम से वह वस्तु जल्दी शरीर में पहुंचाई जा सकती है। मिर्च जलाने पर उसका प्रभाव दूर तक पहुंचने की बात ऊपर लिखी जा चुकी है। जलने से कोई वस्तु नष्ट नहीं होती वरन् सूक्ष्म होकर व्यापक व समर्थ हो जाती है। ऐसी घटना सुनने को मिलती है कि जलते कोयले अंगीठी में भरकर दरवाजे बन्द करके सोने वाले लोग सवेरे मरे हुए पाये गये। उस कमरे में यदि दस मन कोयला भरा होता तो भी किसी का कुछ न बिगड़ता दो सेर कोयले की गैस इतनी प्रभावशाली सिद्ध हुई कि उसने घर में सोते हुए दस आदमियों की जान लेली सूक्ष्म होने पर किसी भी वस्तु की शक्ति बढ़ जाती है। पानी के हौज भरे रहें उनका कुछ प्रभाव नहीं पर उसी पानी की भाप बनाली जाय तो हजारों टन वजन से लदी हुई रेलगाड़ी उनकी भाप से दौड़ने लगती है। पुराने कुंए या बन्द तहखाने में गैस कितनी घातक होती है यह सभी जानते हैं। वैज्ञानिकों ने सरसों से ऐसी गैस तैयार की है जो जरासी देर में हजारों आदमियों की जान ले सकती है।

हवन में स्वास्थ्य संवर्धन और रोग निवारण की जो अद्भुत शक्ति है उसका कारण पदार्थों को वायुभूत बनाकर उसका लाभ लेना ही है। वायु रूप बनी हुई औषधियां जितना कमा करती हैं उतना वे खाने-पीने से नहीं कर सकतीं, तपैदिक आदि रोगों के रोगियों को डॉक्टर लोग भुवाली, शिमला, मंसूरी, जैसे अच्छी वायु के स्थानों में जाकर रहने की सलाह देते हैं। कई अच्छे अस्पताल भी वहां बने हैं। डाक्टरों का कहना यह है कि औषधि सेवन के साथ-साथ यदि उत्तम ऑक्सीजन मिली वायु सेवन की सुविधा हो तो रोग अच्छा होने में बहुत सहायता मिलेगी। निस्सन्देह प्राण वायु (ऑक्सीजन) भी एक दवा ही है। प्रातःकाल जब वायु में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है, टहलने जाना आरोग्य वर्धक माना जाता है। वायु में लाभदायक तत्व मिले हों तो उसकी उपयोगिता का लाभ स्वतः ही मिलेगा। हवन द्वारा यही प्रयोजन पूरा किया जाता है। उपयोगी औषधियों को वायुभूत बनाया जाय और उसका लाभ उस वातावरण के सम्पर्क में आने वालों को मिले आरोग्य की-दृष्टि से हवन का यह लाभ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। पौष्टिक पदार्थों के बारे में भी यही बात है। दुर्बल शरीर को बलवान बनाने के लिए पौष्टिक आहार की आवश्यकता अनुभव की जाती है, पर पौष्टिक पदार्थों को कमजोर देह और कमजोर पेट वाला व्यक्ति हजम कैसे करें यह समस्या फिर सामने आती है। दुर्बल या रोगी व्यक्ति का पाचन क्रिया मन्द हो जाती है। साधारण हलका भोजन तक थोड़ी मात्रा में लेने पर भी जब अपच दस्त उल्टी आदि की शिकायत शुरू हो जाती है तो अभीष्ट मात्रा में पौष्टिक भोजन कैसे हजम हो? इसका सरल साधन हवन है। अग्निहोत्र में मेवा आदि पदार्थ हवन किये जायें और उन्हें नाम मुख या रोम कूपों द्वारा ग्रहण किया जाय तो वे शरीर में आसानी से प्रवेश कर सकते हैं और वायुभूत होने के कारण अपनी सूक्ष्मता के आधार पर लाभदायक अधिक हो सकते हैं।

पुराने और कष्ट साध्य रोगों में अक्सर कहीं भीतर घाव हो जाते हैं और उनमें मवाद बनने लगता है। इसे सुखाने के लिए जो दवायें दी जाती हैं वे विकास के साथ-साथ शरीर के स्वस्थ जीवाणुओं का भी विनाश करती हैं फलस्वरूप रक्त की रोग निवारक शक्ति घट जाती है तब दवायें भी काम करना बन्द कर देती हैं और रोग कीटाणुओं की तरह वह दवा भी उल्टी हानि करने लगती हैं। जब कोई उपाय नहीं रहता तो उस सड़न व जख्म को सुखाने के लिए ‘रेडियम’ का उपयोग किया जाता है। यह एक आग जैसी चीज है जो भीतर पहुंच कर जलाने का काम करती है। इस प्रयोग से भी कभी लाभ होता है कभी नहीं भी इस प्रयोजन के लिए हवन की गैस काम में लाई जाय तो बहुत बार रेडियम अथवा एन्टीबायोटिक दवाओं की अपेक्षा कहीं अधिक लाभ होता है और बिना अन्य औषधियां जैसी हानि की आशंका के कठिन और पुराने रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है।

हवन की गैस सड़न को रोकती है शरीर के भीतर या बाहर जिन छोटे या बड़े जख्मों के कारण पायेरिया, कोलाइटिस, तपैदिक, दमा, नासूर, केन्सर, कोलाइटिम, संग्रहणी, जुकाम आदि रोग होते हैं उन्हें सुखाने के लिए हवन की गैस कितनी अधिक उपयोगी सिद्ध होती है, इसका प्रयोग कोई भी करके देख सकता है।

हवन की वायु जहां रोग निवारक है वहां रोग निरोधक भी है। बीमारियों से बचने के लिए हैजा, चेचक, टी.बी. आदि के टीके लिये जाते हैं इन टीकों से हलके रूप में यही रोग पैदा किया जाता है जिसके प्रतिरोध में टीका बना था। इस प्रकार पहले हलका रोग उत्पन्न करेंगे ताकि भविष्य में बड़े रोग की चढ़ाई न हो यह बुद्धिमानी की बात नहीं है, डाकू से लड़ने के लिए चोर को घर में बसा लेनी यह तात्कालिक लाभ की दृष्टि से भले ही उपयोगी हो पर दूर-दर्शिता नहीं है। क्योंकि डाकू न आवे तो भी चार तो अवसर मिलने पर नुकसान कर ही सकता है। ऐलोपैथिक रोग निवारक टीकों की अपेक्षा हवन की वायु अधिक विश्वस्त और हानि रहित है। यज्ञ की ऊष्मा शरीर में प्रवेश कर केवल मृण बीजाणुओं को ही मारती है, स्वस्थ कोषों पर उनका तनिक भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता वरन् उनकी पुष्टि ही होती है। ऐलोपैथी में अलग-अलग टीके लगवाने पड़ते हैं जब कि हवन की वायु से अकेले ही समस्त रोगों से लड़ सकने वाली क्षमता शरीर में उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार यह जहां हानि रहित उपाय है वहां सस्ता भी है।

शारीरिक रोगों के निवारण करने के अतिरिक्त हवन की वायु में मानसिक रोगों के निवारण की अपूर्व क्षमता है। अभी तक केवल पागलपन और विक्षिप्तता के ही इलाज एलोपैथी में निकले हैं। पूर्ण पागलों की अपेक्षा आधे पागलों की संख्या संसार में शारीरिक रोगियों से भी अधिक है। मनोविकारों में ग्रसित लोग अपने लिये तथा दूसरों के लिए अनेक समस्यायें पैदा करते हैं। शारीरिक रोगों की तो दवा दारू भी है पर मनोविकारों की कोई चिकित्सा अभी तक नहीं निकल सकी है। फलस्वरूप, सनक, उद्वेग, आवेश, सन्देह, कामुकता, अहंकार, अविश्वास, निराशा, आलस्य, विस्मृति आदि अनेक मनोविकारों से ग्रसित लोग स्वयं उद्विग्न रहते हैं और संबंधित सभी लोगों को खिन्न बनाये रहते हैं। इतना ही नहीं ऐसे व्यक्ति दूसरों की नजरों में गिर जाते हैं और सहयोग सद्भाव खो बैठते हैं फलस्वरूप उनकी प्रगति ही नहीं रुक जाती, बदनामी और हानि भी उठानी पड़ती है। इन सभी मनोविकारों की एक मात्र चिकित्सा हवन है। हवन सामग्री की सुगन्ध के साथ-साथ दिव्य वेदमन्त्रों के प्रभावशाली कम्पन मस्तिष्क के मर्म-स्थलों को छूते और प्रभावित करते हैं। फलतः मनोविकारों के निवारण में उनका बहुत प्रभाव पड़ता है। भारतीय संस्कृति में जन्म से लेकर मरण तक के षोडश संस्कारों में हवन को अनिवार्य रूप से जोड़ा गया है ताकि उसके प्रभाव से मनोविकारों की जड़ ही कटती रहे। मनुस्मृति में यज्ञ के सम्पर्क से ब्राह्मणत्व के उदय की बात इसलिए कही गई है कि हवन की ऊष्मा से सम्पर्क स्थापित करने वाला व्यक्ति विचारवान् और चरित्रवान दोनों ही विशेषताओं से युक्त बनता है। ऐसे ही लोगों को ब्राह्मण कहते हैं।

रोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने के लिये यज्ञ धूम्र की शक्ति को प्राचीनकाल में भली प्रकार परखा गया था। इसके उल्लेख शास्त्रों में स्थान-स्थान पर उपलब्ध होते हैं। यथा—

                                                    दिवि विष्णु व्यक्तिस्त जागनेत छंदसा ।
                                                    ततो निर्भयाक्ता योऽस्यमान द्वेष्टि यंच यंच वचं द्विष्मः ।
                                                    अन्तरिक्षे विष्णुव्यक्रंस्त त्रैष्टुते छन्दसा ।
                                                    सतो नर्भक्तो. ।
                                                    पृथिव्यां विष्णु र्व्यक्रस्तंगायणे छन्दसा ।
                                                    सतोनिर्भक्तो. ।
                                                    अस्यादन्नात् । अस्ये प्रतिष्ठान्ये । अगन्य स्वः । संज्योतिषाभूम ।

                                                                                                                                              —यजु. 2-25

अर्थ—अर्थात् अग्नि में प्रक्षिप्त जो रोगनाशक, पुष्टि प्रदायक और जलादि संशोधक हवन सामग्री है, वह भस्म होकर वायु द्वारा बहुत दूर तक पहुंचती है और वहां पहुंचकर रोगादि जनक वस्तु को नष्ट कर देती है। इस हेतु वेद में कहा जाता है, जो वस्तु हम लोगों से द्वेष करती है एवं जिससे हम लोग द्वेष करते हैं वह वस्तु यज्ञ के द्वारा नष्ट हो जाती है। आगे भी यह भाव समझना चाहिए। अर्थात् यज्ञ से इहलौकिक और पारलौकिक दोनों कार्य सम्पन्न होते हैं।

                                                    न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैन शपथको अश्नुते ।
                                                    यं मेषजस्यं गुग्गुलोः सुरभिर्गन्धो अश्नुते ।
                                                    विष्वञ्चस्तस्माद् यक्ष्मा मृगाद्रश्ला द्रवेरते ।          
आदि
                                                                                                              —अथर्व. का. 19 सू. 38 मं 1,2

अर्थ—जिसके शरीर को रोग-नाशक गूगल का उत्तम गन्ध व्यापता है, उसको राज-यक्ष्मा की रोग पीड़ा नहीं होती। दूसरे का शपथ भी नहीं लगता। उससे सब प्रकार के यक्ष्मा रोग शीघ्रगामी हरिणों के समान कांपते हैं, डर कर भागते हैं।

                                                     यदि क्षितायुर्यदि वा परे तो यदि मृत्योरान्तिकं नीत एव ।
                                                     तमा हरामि निऋतेरुपस्थापस्पार्शमेनंशतशारदाय ।।

                                                                                                                 —अथर्व का. 3 सूक्त 11 मन्त्र 2

अर्थ—यदि रोग के कारण न्यून आयु वाला हो, अथवा इस संसार के सुखों से दूर हो, चाहे मृत्यु के निकट आ चुका हो, ऐसे रोगी को भी महारोग के पाश से छुड़ाता हूं। इस रोगी को सौ शरद ऋतुओं तक जीने के लिये प्रबल किया है।

जिस प्रकार शरीर में पाप, आलस्य, विषय, विकार, रोग आदि भरे रहते हैं और मन को मल आवरण विक्षेप एवं कषाय कल्मष दूषित करके उन्हें विकृत परिस्थितियों में डाले रहते हैं उसी प्रकार तामसी-आसुरी तक वनस्पति अन्न, फल आदि में प्रवेश कर जाते हैं। उन्हें खाने से पशु और मनुष्यों की प्रवृत्तियां दुष्ट हो जाती हैं। पशुओं के दुग्ध, घृत आदि द्वारा वही वनस्पतियों के दूषण मनुष्यों को प्रभावित करते हैं। वैसे भी अन्न, शाक आदि लोग खाते ही हैं। सूक्ष्म वातावरण का प्रभाव इस वनस्पति आहार को दूषित करके मनुष्यों के अन्तःकरण चतुष्टय में दुष्प्रवृत्तियां भर देता है और लोग अनायास ही कष्ट-क्लेशों से भरे शोक-सन्तापों में फंसते चले जाते हैं। इस तथ्य को शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार कहा गया है—

ततोऽसुरा उभयीरोषधीर्याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याश्च पशवः कृत्ययेव त्वत् विषेणेव त्वत् प्रतिलिलिपुः उतैवं चिदेबानभि—भवेमेति, ततो न मनुष्या आशुर्न पशव आलिलिशिरे ताहेमाः प्रजा अनाशकेन नोत्पराबभवुः ।........... ते देवा होचुर्हन्तेद मासामपिजिघांसामेति, केनेति ? यज्ञे नैनेति ।
—शतपथ 2।4, 3।2-2

असुरों ने उन समस्त औषधियों को मारक तत्व अथवा विष से मानो लिप्त कर दिया, जिसका उपयोग कर समस्त मानव व पशु अपना जीवन निर्वाह करते हैं, ऐसा करके उन्होंने यह सोचा, कि इस प्रकार हम देवों को परास्त कर लेंगे, पर उन औषधियों को उस अवस्था में पशुओं ने न चुगा, उनका उपयोग न करने से समस्त प्रजा असुरों द्वारा पराजित न की जा सकी।

इस अन्न वनस्पतियों में प्रविष्ट हुई स्थूल और सूक्ष्म असुरता का विकृति रुग्णता एवं दुष्टता का शमन करने के लिए यज्ञ अमोध उपाय है। जिस प्रकार रुग्ण शरीर की चिकित्सा औषधियों से और विकृत मन की चिकित्सा सत्संग समाधान से होती है उसी प्रकार इस वनस्पति जगत में प्रविष्ट हुई अवांछनीयता का निराकरण यज्ञ करता है। रक्त शोधक औषधियों की तरह यज्ञ विधान को भी वनस्पति जगत की शुद्धि और परिपुष्टि का आधार कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण ने इस रहस्य का उल्लेख इस प्रकार किया है।

पृथ्वी का विषय गन्ध है। पृथ्वी सदा वायु से गन्धों का शोषण करके वायु को निर्गन्ध किया करती है। पृथ्वी के विकार रूप पशु, मनुष्य, वृक्षादि स्थिर अथवा चंचल वायु की गन्ध सदा खींचते रहते हैं। सुगन्ध वायु कुछ मीलों तक चलने पर स्वयं निर्गन्ध हो जाती है। गन्ध से भारी होने के कारण यह सदा पृथ्वी के धरातल पर ही बहता है। ऊपर आकाश का सूक्ष्म वायु निर्गन्ध होता है। इस प्रकार यज्ञ में हवन द्वारा बने अभीष्ट फलों के कारण व बीजरूप वाष्प, धुंआ व गन्ध को यज्ञ प्रदेश वाली पृथ्वी शोषण कर लेती है। पुनः अभीष्ट अन्न, फल, दुग्ध, सुख, प्रसाद आदि उत्पन्न कर उस प्रदेश को अर्पण करता है।

एतेन  वै  तज्ञेनेष्ट्वोभयीनामोषधीनां  याश्च  मनुष्या  उपजीवन्ति  याश्च  पशवः कृत्यामिव त्वत् विषमिव त्वत् अपजघ्नुः  तत आश्नन्  मनुष्या  आलिशन्त पशवः ।

इस यज्ञ के द्वारा ही उन समस्त औषधियों के स्वास्थ्यनाशक विष-प्रभाव को नष्ट कर दिया गया, जिनका उपयोग मनुष्य अथवा पशु करते हैं, परिणामस्वरूप मनुष्य उन अन्नादि औषधियों का उपयोग करने लगे और पशु भी चुगने लगे। यज्ञ के द्वारा वायु अथवा वातावरण की शुद्धि के लिए इससे अधिक और किस प्रमाण की आवश्यकता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस प्रकार के प्रसंग अनेक स्थलों में हैं। इसके लिए आप गोपथ ब्राह्मण के उत्तर भाग (1।19) और औषीतकि ब्राह्मण (5।1) को देख सकते हैं।

                                                      प्रयुक्तया यथा चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुराजिता ।
                                                      तां वेद विहिता मिष्टमारोग्यार्थी प्रयोजयेत् ।।

                                                                                                          —चरक चि. स्थान अ. 8 श्लोक 12

जिस यज्ञ के प्रयोग से प्राचीन काल में राजयक्ष्मा रोग नष्ट किया जाता था, आरोग्य चाहने वाले मनुष्य को उसी वेद-विहित यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए।

शरीर रोगों पर यज्ञीय वातावरण का क्या प्रभाव हो सकता है और यह रोगों को रोकने अथवा उनका निराकरण करने में कहां तक सफल हो सकता है इसे देखने के लिए एक प्रयोग किया गया—

कांच की बारह शीशियों को वैज्ञानिक ढंग से शुद्ध एवं स्वच्छ करके दो-दो शीशियों में दूध, मांस, फलों का रस आदि छह प्रकार की वस्तुयें भरकर छह शीशियां उद्यान के उन्मुक्त वायु मण्डल में और छह शीशियां यज्ञीय वातावरण में रख दी गई। कुछ समय बाद उद्यान के वायु मण्डल में रखी शीशियों की चीजों में सड़न पैदा होने लगी जबकि यज्ञीय वातावरण की शीशियों की वस्तुयें शुद्ध बनी रहीं। उनमें सड़न तब प्रारम्भ हुई जब उद्यानीय वातावरण में रखी शीशियों की सारी चीजें सड़-गल गईं। इस प्रयोग का परिणाम प्रकट करता है कि शुद्ध ओषजन युक्त वायु की अपेक्षा यज्ञीय वायु में रोग-रोधक शक्ति अधिक होती है।

प्रायः देखा जा सकता है कि जो व्यक्ति नियम पूर्वक नित्य प्रति हवन किया करते हैं, वे दूसरों की अपेक्षा अधिक निरोग रहा करते हैं। इसका एक कारण जहां जीवन की नियमितता एवं भावना की पवित्रता है वहां एक वैज्ञानिक कारण यह भी है कि हवनकर्त्ता को नियमित रूप से यज्ञ-पूत वायु भी मिलती रहती है जो अपनी शक्ति से शरीरस्थ रोगाणुओं को नष्ट कर और नये जीवाणुओं को प्रवेश करने से रोकती रहती है। इन प्रयोगों तथा अनुभवों के आधार पर विश्वास किया जा सकता है कि अन्य उपचारों के साथ-साथ यदि यक्ष्मा आदि असहाय अथवा किसी अन्य प्रकार के जीर्ण रोगों से ग्रस्त व्यक्ति उपयुक्त औषधियों द्वारा नित्य प्रति हवन भी करते रहें तो निश्चय ही वे रोग-मुक्त होकर आरोग्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

स्त्रियों के जटिलतम रोगों में यज्ञ को सफल उपचार के रूप में माना जाता रहा है यही कारण है कि प्रत्येक भारतीय नारी को गर्भ धारण के पश्चात् अनिवार्य रूप से हवन करना पड़ता था। बन्ध्यत्व का अभी तक कोई सफल उपचार उपलब्ध नहीं हो पाया पर यह सर्वविदित तथ्य है कि प्राचीन काल में यहां सकाम यज्ञों में पुत्रेष्टि यज्ञों का महत्व सर्वाधिक रहा है। भगवान् राम और भगवती सीता का जन्म यज्ञ के द्वारा ही हुआ था।

मानसिक रोगियों के लिए तो यज्ञ का महत्व और भी अधिक होता है। सांस के साथ जो वायु भीतर जाती है उसमें प्रायः 20 प्रतिशत ऑक्सीजन और 0.3 प्रतिशत कार्बन डाइ-ऑक्साइड होती है। जब सांस छोड़ी जाती है तो उसमें 3 प्रतिशत कार्बन डाइ-ऑक्साइड और 16 प्रतिशत ऑक्सीजन रहती है।

यदि किसी कारण शरीर को ऑक्सीजन कम मिले—अशुद्ध वायु-मण्डल में उसका अंश कम हो—अथवा शरीर की भीतरी स्थिति उसे कम मात्रा में सोख सके तो शारीरिक बीमारियों के अतिरिक्त मानसिक विकृतियां भी खड़ी हो जायगी। लड़खड़ा कर बोलना, आंत्रशोध, चिड़चिड़ापन, थकावट, भय एवं आशंका समलिंगी मैथुन, अभिलाषा जैसे मनोविकारों और स्नायुविक असन्तुलनों से ग्रसित वे लोग देखे गये हैं जिनके शरीर में ऑक्सीजन की कमी और कार्बन डाइ-ऑक्साइड की अतिरिक्त मात्रा पाई जाती है। कई बार ऑक्सीजन की अधिक मात्रा का शरीर द्वारा शोषण किया जाना भी हानिकारक होता है यद्यपि उसके लक्षण भिन्न प्रकार के होते हैं।

वायु सन्तुलन की चिकित्सा पद्धति मानसिक रोगियों के लिए प्रयुक्त की जाती है। डा. लोबनहार्ट ने सन् 1926 से यह प्रयोग आरम्भ किये थे। उन्होंने वैटेट्रेनिक शिजोफेनिया के रोगियों पर—कार्बन डाइ-ऑक्साइड के उपचार किये और आशाजनक परिणाम प्राप्त किये। इन सफलताओं से प्रभावित होकर सन् 1947 में वान मेन्डुना ने साइकोन्यूरोसिस के मरीजों पर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को उपचार का केन्द्रबिन्दु मानकर अपने प्रयोग किये। इसके सत्परिणामों को उन्होंने विस्तार पूर्वक सन् 1950 में निबन्ध रूप में प्रकाशित कराया।

उन्होंने कई रोगियों को कार्बन डाइ-ऑक्साइड 30 प्रतिशत और ऑक्सीजन 70 प्रतिशत मिलाकर फेस माक्स उपकरण में भरी और उसमें सांस लेने की व्यवस्था की, रोगी 20-25 बार इस कृत्रिम वायु में गहरी सांस लेते। एक दिन छोड़कर यह उपचार किया जाता। उस समय तो रोगी को घुटन अनुभव होती और चेहरे तमतमा जाते, पर पीछे उन्हें राहत मिलती। ऐसे 25 उपचारों के बाद रोगियों को काफी राहत मिली और उनकी अधिकांश व्यथाएं दूर हो गई।

ऑक्सीजन की समुचित मात्रा कोशिकाओं को किसी वजह से न मिले तो मस्तिष्कीय विकृतियां उत्पन्न होंगी। नवीनतम न्यूरोलॉजी शोध तरह-तरह के मनोविकारों का शमन करने के लिए कार्बन डाइ-ऑक्साइड की विभिन्न मात्राएं देते हैं और रोग निवारण में सफलता प्राप्त करते हैं। अग्निहोत्र द्वारा उत्पन्न हुई कार्बन डाइ-ऑक्साइड ठीक इसी प्रकार का उपचार है जो प्रत्यक्ष में हानिकारक देखते हुए भी अनेकों मानसिक रोगों के निवारण में इतना अधिक सहायक होता है जिसे देखते हुए थोड़ी-सी ऑक्सीजन का आग जलने से खर्च हो जाना कोई बड़ी हानि नहीं है।



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