अगर आपने धन के वास्तविक रूप को समझ लिया है और आप उसका दुरुपयोग करने से बच कर रहते हैं तो कोई कारण नहीं कि उचित प्रयत्न करने पर आप आर्थिक सफलता प्राप्त न करें ।
आप आर्थिक रूप से सफल होना चाहते हैं तो समृद्धि के विचारों को बहुतायत से मनोमन्दिर में प्रविष्ट होने दीजिए । यह मत समझिए कि आपका सरोकार दरिद्रता, क्षुद्रता, नीचता से है । संसार में यदि कोई चीज सबसे निकृष्ट है तो वह विचार दारिद्रय ही है । जिस मनुष्य के विचारों में दरिद्रता प्रविष्ट हो जातीं है, वह रुपया पैसा होते हुए भी सदैव भाग्य का रोना रोया करता है । दरिद्रता के अनिष्टकारी विचार हमें समृद्धिशाली होने से रोकते हैं, दरिद्री ही बनाये रखते हैं ।
आप दरिद्री, गरीब या अनाथ हीन अवस्था में रहने के हेतु पृथ्वी पर नहीं जन्मे हैं । आप केवल मुट्ठी भर अनाज या वस्त्र के लिए दास वृत्ति करते रहने को उत्पन्न नहीं हुए हैं ।
गरीब क्यों सदैव दीनावस्था में रहता है । इसका प्रधान कारण यह है कि वह उच्च आकांक्षा, उत्तम कल्पनाओं, स्वास्थ्यदायक स्फूर्तिमय विचारों को नष्ट कर देता है, आलस्य और अविवेक में डूब जाता है, हृदय को संकुचित, क्षुद्र प्रेम विहीन और निराश बना लेता है । सीमाक्रान्त दरिद्रता आने पर जीवन ठहर भी जाता है प्रगति अवरुद्ध हो जाती है, मनुष्य ऋण से दबकर निष्प्रभ हो जाता है उसे अपने गौरव, स्वाभिमान को भी सुरक्षित रखना दुष्कर प्रतीत होता है । दरिद्री विचार वाले असमय में ही वृद्ध होते देखे गये हैं । जो बच्चे दरिद्री घरों में जन्म लेते हैं, उनके गुप्त मन में दरिद्रता की गुप्त मानसिक ग्रन्थियाँ इतनी जटिल हो जाती हैं कि वे जीवन में कुछ भी उच्चता या श्रेष्ठता प्राप्त नहीं कर सकते । दरिद्रता कमल के समान तरोताजा चेहरों को मुरझा देती है । सर्वोत्कृष्ट इच्छाओं का नाश हो जाता है । यह दुस्सह मनसिक दरिद्रता मनुष्य को पीस देने वाली है । सैकड़ों मनुष्य इसी क्षुद्रता के गर्त में डूबे हुए हैं ।
आर्थिक सफलता के लिए भी एक मानसिक परिस्थिति, योग्यता एवं प्रयत्नशीलता की आवश्यकता है । लक्ष्मी का आवाहन करने के हेतु भी मानसिक दृष्टि से आपको कुछ पूजा का सामान एकत्रित करना होता है । दीपावली के लक्ष्मी पूजन के अवसर पर आप घर झाड़ते, लीपते, पोतते, सजाते हैं । नई-नई तस्वीरें कलात्मक वस्तुओं से घर को चित्रित करते हैं अपने शरीर पर सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और आभूषण धारण करते हैं । इसी भाँति मानसिक पूजा भी किया कीजिए । अर्थात् मन के कोने-कोने से दरिद्रता, गरीबी, परवशता, क्षुद्रता, संकुचितता, ऋण के जाले विवेक की झाडू से साफ कर दीजिए, मानसिक पटल को आशावादिता की सफेदी से पोत लीजिए । मानसिक घर में आनन्द, आशा, उत्साह, प्रसन्नता, हास्य-उत्फुल्लता, खुशमिजाजी के मनोरम चित्र लगा लीजिए । फिर श्रम और मितव्ययता के नियमों के अनुसार लक्ष्मी देवी की साधना कीजिए । आर्थिक सफलता आपकी होगी । सब विद्याओं में शिरोमणि वह विद्या है जो हमें पवित्रता और निकृष्ट विचारों से मन को साफ करना सिखाती है ।
परमपिता परमात्मा की कभी यह इच्छा नहीं कि हम आर्थिक दृष्टि से भी दूसरों के गुलाम बने रहें । हमें उन्होंने विवेक दिया है, जिसे धारण कर हम उचित-अनुचित खर्चों का अन्तर समझ सकते हैं, विषय वासना और नशीली वस्तुओं से मुक्त हो सकते हैं अपने अनुचित खर्चे विलासिता और फैशन में कमी कर सकते हैं, घर में होने वाले नाना प्रकार के अपव्यय को रोक सकते हैं । अपनी आय वृद्धि करना हमारे हाथ की बात है । जितना हम परिश्रम करेंगे योग्यताओं को बढ़ायेंगे अपनी विद्या में सर्वोत्कृष्टता, मान्यता, निपुणता प्राप्त करेंगे, उसी अनुपात में हमारी आय भी बढ़ती चली जावेगी । सबको अपनी-अपनी योग्यता और निपुणता के अनुसार धन प्राप्त होता है । फिर क्यों न हम अपनी योग्यता बढ़ायें और अपने आपको हर प्रकार से योग्य प्रमाणित करें ।
श्री ओरसिन मार्डन ने अपनी पुस्तक 'शान्ति, शक्ति और समृद्धि' में कई आवश्यक तत्वों की ओर आन आकर्षित करते हुए लिखा है-
''विश्व के अनेक दरिद्री लोगों के कारण को खोजो तो पता लगेगा कि उनमें आत्म विश्वास नहीं था उन्हें यह विश्वास नहीं है कि वे दरिद्रता से छुटकारा पा सकते हैं । हम गरीबों को बताना चाहते हैं कि वे ऐसी कठोर स्थिति में भी अपने आप को उन्नत बना सकते हैं । सैकड़ों नहीं प्रत्युत हजारों ऐसी स्थिति में उन्नत - धनवान् बने हैं और इसलिए हम कहते हैं कि इन गरीबों के लिए भी आशा है । वे दुर्धर्ष परिस्थिति को बदल सकते हैं । संसार में आत्म-विश्वास ही ऐसी कुञ्जी है कि जो सफलता का द्वार खोल सकती है ।''
संसार में जितनी प्रकार की श्रेष्ठ शक्तियाँ हैं वे भगवान की प्रदान की हुई हैं । धन की शक्ति भी उन्हीं के द्वारा उत्पन्न की गई है और उन्होंने 'लक्ष्मी' के रूप में उसे संसार के कल्याणार्थ प्रेरित किया है । मनुष्य का कर्तव्य है कि इसे भगवान् की पवित्र धरोहर समझकर ही व्यवहार करे । इतना ही नहीं उसे इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह शक्ति ऐसे लोगों के पास न जा सके जो इसका दुरुपयोग करके दूसरों का अनिष्ट करने वाले हों ।
हम सदा से धन की प्रशंसा और बुराई दोनों तरह की बातें सुनते आये हैं । सन्तजनों ने 'कामिनी और कंचन' को आत्मिक पतन का कारण माना है । दूसरी ओर सांसारिक कवि 'सर्वे गुण: कंचनमाश्रयन्ति' का सिद्धान्त सुनाया करते हैं । ये दोनों ही बातें सत्य हैं । अगर हम धन में आसक्त होकर उसी को 'सार-वस्तु' समझ लें और उसकी प्राप्ति के लिए पाप - पुण्य का आन भी छोड़ दें अथवा उसका 'दुरुपयोग करें, तो निश्चय ही वह नर्क का मार्ग है । पर यदि उसे केवल सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन मान कर उचित कामों में उसका उपयोग करें तो वही कल्याणकारी बन सकता है । इसलिए आत्म-कल्याण के इच्छुकों को सदैव धन की वास्तविकता को धान में रखते हुए उसका सदुपयोग ही करना चाहिए ।