धन का सदुपयोग

धन का सच्चा स्वरूप

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
धन इसलिए जमा करना चाहिए कि उसका सुदपयोग किया जा सके और उसे सुख एवं सन्तोष देने वाले कामों में लगाया जा सके, किन्तु यदि जमा करने की लालसा बढ़कर तृष्णा का रूप धारण कर ले और आदमी बिना धर्म-अधर्म का ख्याल किए पैसा लेने या आवश्यकताओं की उपेक्षा करके उसे जमा करने की कंजूसी का आदी हो जाय तो वह धन धूल के बराबर है । हो सकता है कि कोई आदमी धनी बन जाय पर उसमें मनुष्यता के आवश्यक गुणों का विकास न हो और उसका चरित्र अत्याचारी, बेईमान या लम्पटों जैसा बना रहे । यदि धन की वृद्धि के साथ-साथ सद्वृत्तियाँ भी न बढ़ें तो समझना चाहिए कि यह धन जमा करना बेकार हुआ और उसने थन को साधन न समझकर साध्य मान लिया है । धन का गुण उदारता बढ़ाना है, ह्रदय को विशाल करना है, कंजूसी या बेईमानी के भाव जिसके साथ सम्बद्ध हों, बह कमाई केवल दुःखदायी ही सिद्ध होगी ।

जिनका ह्रदय दुर्भावनाओं से कलुषित हो रहा है, वे यदि कंजूसी से धन जोड़ भी लें तो वह उनके लिए कुछ भी सुख नहीं पहुँचाता, वरन् उल्टा कष्टकर ही सिद्ध होता है । ऐसे धनवानों को हम कंगाल ही पुकारेंगे, क्योंकि पैसे से जो शारीरिक और मानसिक सुविधा मिल सकती है, वह उन्हें प्राप्त नहीं होती उलटी उसकी चौकीदारी की भारी जोखिम सिर पर लादे रहते हैं । जो आदमी अपने आराम में, स्त्री के स्वास्थ्य में, बच्चों की पढा़ई में दमड़ी खर्चना नहीं चाहते, उन्हें कौन धनवान् कह सकता है ? दूसरों के कष्टों को पत्थर की भाँति देखता रहता है किन्तु शुभ कार्य में कुछ दान करने के नाम पर जिसके प्राण निकलते हैं, ऐसा अभागा मक्खीचूस कदापि धनी नहीं कहा जा सकता । ऐसे लोगों के पास बहुत ही सीमित मात्रा में पैसा जमा हो सकता है, क्योंकि वे उसके द्वारा केवल ब्याज कमाने की हिम्मत कर सकते हैं उनमें घाटे की जोखिम भी रहती है । कंजूस डरता है कि कहीं मेरा पैसा डूब न जाय, इसलिए उसे छाती से छुड़ाकर किसी कारोबार में लगाने की हिम्मत नहीं होती । इन कारणों से कोई भी कंजूस स्वभाव का मनुष्य बहुत बड़ा धनी नहीं हो सकता ।

तृष्णा का कहीं अन्त नहीं, हविस छाया के समान है, जिसे आज तक कोई भी पकड़ नहीं सका है । मनुष्य जीवन का उद्देश्य केवल पैसा पैदा करना ही नहीं वरन् इससे भी कुछ बढ़कर है । पोम्पाई नगर के खण्डहरों को खोदते हुए एक ऐसा मानव अस्थि-पंजर मिला, जो हाथ में सोने का एक ढेला बड़ी मजबूती से पकड़े हुए था । मालूम होता है कि उसने मृत्यु के समय सोने की रक्षा की सबसे अधिक चिन्ता की होगी । एक जहाज जब डूब रहा था, तो सब लोग नावों में बैठकर भागने लगे किन्तु एक व्यक्ति उस जहाज के खजाने में से धन समेटने में लगा । साथियों ने कहा-चलो भाग चलो, नहीं तो डूब जाओगे, पर वह मनुष्य अपनी धुन में ही लगा रहा और जहाज के साथ डूब गया । एक कन्जूस आदमी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उसे एक ऐसी थैली दी, जिसमें बार-बार निकालने पर भी एक रुपया बना रहता था । साथ ही शंकर जी ने यह भी कह दिया कि-जब तक इस थैली को नष्ट न कर दो, तब तक खर्च करना आरम्भ न करना । वह गरीब आदमी एक-एक करके रुपया निकालने लगा । साथ ही उसकी तृष्णा बढ़ने लगी । बार-बार निकालता ही रहा, यहाँ तक कि निकालते-निकालते उसकी मृत्यु हो गई । एक बार लक्ष्मी जी ने एक भिखारी से कहा कि तुझे जितना सोना चाहिए ले ले, पर वह जमीन पर न गिरने पावे, नहीं तो मिट्टी हो जायेगा । भिखारी अपनी झोली में अन्धा-धुन्ध सोना भरता गया, यहाँ तक कि झोली फट कर सोना जमीन पर गिर पड़ा और धूल हो गया । मुहम्मद गौरी जब मरने लगा तो उसने अपना सारा खजाना आँखों के सामने फैलवाया, वह उसकी ओर आँखें फाड़- फाड़कर देख रहा था और नेत्रों में से आँसुओं की धार बह रही थी । तृष्णा के सताये हुए कंजूस मनुष्य भिखमंगों से जरा भी कम नहीं है, भले ही उनकी तिजोरियाँ सोने से भरी हुई हों ।

सच्ची दौलत का मार्ग आत्मा को दिव्य गुणों से सम्पन्न करना है । सच समझिए हृदय को सद्प्रवृत्तियों को छोड़कर बाहर कहीं भी सुख-शान्ति नहीं है । भ्रमवश भले ही हम बाह्य परिस्थितियों में सुख ढूँढ़ते फिरें । यह ठीक है कि कुछ कमीने और निकम्मे आदमी भी अनायाास धनवान हो जाते हैं, पर असल में वे धनपति नहीं हैं । यथार्थ में तो दरिद्रों से अधिक दरिद्रता भले रहे हैं, उनका धन बेकार है, अस्थिर है और बहुत अंशों में तो वह उनके लिए दुःखदायी भी है। दुर्गुणी धनवान कुछ नहीं केवल एक भिक्षुक है । मरते समय तक जो धनी बना रहे कहते हैं कि वह बड़ा भाग्यवान था, लेकिन हमारा मत है कि वह अभागा है क्योंकि-अगले जन्म में अपने पापों का फल तो वह स्वयं भोगेगा, किन्तु धन को न तो भोग सका और न साथ ले जा सका । जिसके ह्रदय में सत्प्रवृत्तियों का निवास है, वही सबसे बड़ा धनवान है, चाहे बाहर से वह गरीबी का जीवन ही क्यों न व्यतीत करता हो । सद्गुणी का सुखी होना निश्चित है । समृद्धि उसके स्वागत के लिऐ दरवाजा खोले खड़ी हुई है । यदि आप स्थाई रहने वाली सम्पदा चाहते हैं तो धर्मात्मा बनिए । लालच में आकर अधिक पैसे जोड़ने के लिए दुष्कर्म करना यह तो कंगाली का मार्ग है । खबरदार रहो, कि कहीं लालच के वशीभूत होकर सोना कमाने तो चलो पर बदले में मिट्टी ही हाथ लगकर न रह जाये ।

एडीसन ने एक स्थान पा लिखा है कि देवता लोग जब मनुष्य जाति पर कोई बडी़ कृपा करते हैं तो तूफान और दुर्घटनाएँ उत्पन्न करते हैं जिससे कि लोगों का छिपा हुआ पौरुष प्रकट हो और उन्हें अपने विकास का अवसर प्राप्त हो । कोई पत्थर तब तक सुन्दर मूर्ति के रूप में परिणत नहीं हो सकता, जब तक कि उसे छैनी हथोड़े की हजारों छोटी-बडी़ चोटें न लगें । एडमण्डवर्क कहते हैं कि- ''कठिनाई व्यायामशाला के उस उस्ताद का नाम है जो अपने शिष्यों को पहलवान बनाने के लिए उनसे खुद लड़ता है और उन्हें पटक-पटक कर ऐसा मजबूत बना देता है कि वे दूसरे पहलवान को गिरा सकें ।'' जान बानथन ईश्वर से प्रार्थना किया करते थे कि - ''हे प्रभु ! मुझे अधिक कष्ट दे ताकि मैं अधिक सुख भोग सकूँ ।'

जो वृक्ष, पत्थरों और कठोर भू-भागों में उत्पन्न होते हैं और जीवित रहने के लिए सर्दी, गर्मी, आँधी आदि से निरन्तर युद्ध करते हैं, देखा गया है कि वे वृक्ष अधिक सुदृढ़ और दीर्घजीवी होते हैं । जिन्हें कठिन अवसरों का सामना नहीं करना पड़ता, उनसे जीवन भर कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं हो सकता । एक तत्वज्ञानी कहा करता था कि महापुरुष दुःखों के पालने में झूलते हैं और विपत्तियों का तकिया लगाते हैं । आपत्तियों की अग्नि हमारी हड्डियों को फौलाद जैसी मजबूत बनाती है । एक बार एक युवक ने एक अध्यापक से पूछा- 'क्या मैं एक दिन प्रसिद्ध चित्रकार बन सकता हूँ ?' अध्यापक ने कहा- 'नहीं । 'इस पर उस युवक ने आश्चर्य से पूछा- 'क्यों?' अध्यापक ने उत्तर दिया- 'इसलिए कि तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति से एक हजार रुपया मासिक की आमदनी घर बैठे हो जाती है ।' पैसे के चकाचौंध में मनुष्य को अपना कर्तव्य-पथ दिखाई नहीं पड़ता और वह रास्ता भूलकर कहीं से कहीं चला जाता है । कीमती औजार लोहे को बार-बार गरम करके बनाये जाते हैं । हथियार तब तेज होते हैं जब उन्हें पत्थर पर खूब घिसा जाता है । खराद पर चढ़े बिना हीरे में चमक नहीं आती । चुम्बक पत्थर को यदि रगड़ा न जाय तो उसके अन्दर छिपी हुई अग्नि यों ही सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहेगी । परमात्मा ने मनुष्य जाति को बहुत-सी अमूल्य वस्तुएँ दी हैं इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण गरीबी कठिनाई आपत्ति और असुविधा हैं क्योंकि इन्हीं के द्वारा मनुष्य को अपने सर्वोत्तम गुणों का विकास करने योग्य अवसर मिलता है । कदाचित् परमेश्वर हर एक व्यक्ति के सब काम आसान कर देता तो निश्चय ही आलसी होकर हम लोग कब के मिट गये होते ।

यदि आपने बेईमानी करके लाखों रुपये की सम्पत्ति जमा कर ली तो क्या बड़ा काम कर लिया ? दीन-दुखियों का रक्त चूसकर यदि अपना पेट बढ़ा लिया तो यह क्या बड़ी सफलता हुई ? आपके अमीर बनने से यदि दूसरे अनेक व्यक्ति गरीब बन रहे हो, आपके व्यापार से दूसरों के जीवन पतित हो रहे हो अनेकों की सुख-शान्ति नष्ट हो रही हो तो ऐसी अमीरी पर लानत है । स्मरण रखिए-एक दिन आपसे पूछा जायगा कि धन को कैसे पाया और कैसे खर्च किया ? स्मरण रखिये आपको एक दिन न्याय-तुला पर तोला जायगा और उस समय अपनी भूल पर पश्चात्ताप होगा, तब देखोगे कि आप उसके विपरीत निकले, जैसा कि होना चाहिए था ।

आप आश्चर्य करेंगे कि क्या बिना पैसा के भी कोई धनवान हो सकता है ? लेकिन सत्य समझिये इस संसार में ऐसे अनेक मनुष्य हैं, जिनकी जेब में एक पैसा नहीं है या जिनकी जेब ही नहीं है, फिर भी वे धनवान हैं और इतने बड़े धनवान कि उनकी समता कोई दूसरा नहीं कर सकता । जिसका शरीर स्वस्थ है, हृदय उदार है और मन पवित्र है यथार्थ में वही धनवान है । स्वस्थ शरीर चाँदी से अधिक कीमती है, उदार ह्रदय सोने से भी अधिक मूल्यवान है और पवित्र मन की कीमत रत्नों से अधिक है । लार्ड कालिंगउड कहते थे- 'दूसरों को धन के ऊपर मरने दो, मैं तो बिना पैसे का अमीर हूँ , क्योंकि मैं जो कमाता हूँ, नेकी से कमाता हूँ ।' सिसरो ने कहा है-'मेरे पास थोड़े से ईमानदारी के साथ कमाए हुए पैसे हैं परन्तु वे मुझे करोड़पतियों से अधिक आनन्द देते हैं ।'

दधीचि, वशिष्ठ, व्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास, रामदास, कबीर आदि बिना पैसे के अमीर थे । वे जानते थे कि मनुष्य का सब आवश्यक भोजन मुख द्वारा ही अन्दर नहीं जाता और न आनन्द देने वाली वस्तुएँ पैसे से खरीदी जा सकती हैं । ईश्वर ने जीवन रूपी पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर अमूल्य रहस्यों को अंकित कर रखा है, यदि हम चाहें तो उनको पहचान कर जीवन को प्रकाशपूर्ण बना सकते हैं । एक विशाल ह्रदय और उच्च आत्मा वाला मनुष्य झोंपड़ी में भी रत्नों की जगमगाहट पैदा करेगा । जो सदाचारी है और परोपकार में प्रवृत्त है, वह इस लोक में धनी है और परलोक में भी । भले ही उसके पास द्रव्य का अभाव हो । यदि आप विनयशील, प्रेमी, निस्वार्थ और पवित्र हैं तो विश्वास कीजिए कि आप अनन्त धन के स्वामी हैं ।

जिसके पास पैसा नहीं वह गरीब कहा जायगा परन्तु जिसके पास केवल पैसा है वह उससे भी अधिक कंगाल है । क्या आप सद्बुद्धि और सद्गुणों को धन नहीं मानते ? अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़े थे और गरीब थे पर जब जनक की सभी में जाकर अपने गुणों का परिचय दिया तो राजा उनका शिष्य हो गया । द्रोणाचार्य जब धृतराष्ट्र के राज-दरबार में पहुँचे तो उनके शरीर पर कपड़े भी न थे, पर उनके गुणों ने उन्हें राजकुमारों के गुरु का सम्मानपूर्ण पद दिलाया । महात्मा ड्योजनीज के पास जाकर दिग्विजयी सिकन्दर ने निवेदन किया-महात्मन् । आपके लिए क्या वस्तु उपस्थित करूँ ? उन्होंने उत्तर दिया-'मेरी धूप मत रोक और एक तरफ खड़ा हो जा । वह चीज मुझसे मत छीन, जो तु मुझे नहीं दे सकता ।' इस पर सिकन्दर ने कहा-'यदि मैं सिकन्दर न होता ड्योजनीज ही होना पसन्द करता ।'

गुरु गोविन्द सिंह, वीर हकीकतराय, छत्रपति शिवाजी, राणा प्रताप आदि ने धन के लिए अपना जीवन उत्सर्ग नहीं किया था । माननीय गोखले से एक बार एक सम्पन्न व्यक्ति ने पूछा - 'आप इतने राजनीतिज्ञ होते हुए भी गरीबी का जीवन क्यों व्यतीत करते हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया - 'मेरे लिए यही बहुत है! पैसा जोड़ने के लिए जीवन जैसी महत्त्वपूर्ण वस्तु का अधिक भाग नष्ट करने में मुझे कुछ भी बुद्धिमत्ता प्रतीत नहीं होती ।'

तत्वज्ञों का कहना है कि-ऐ ऐश्वर्य की इच्छा करने वाली ! अपने तुच्छ स्वार्थों को सड़े और फटे-पुराने कुर्ते की तरह उतार कर फेंक दो, प्रेम और पवित्रता के नवीन परिधान ग्रहण कर लो । रोना, झींकना, घबराना और निराश होना छोड़ो, विपुल सम्पदा आपके अन्दर भरी हुई है । धनवान बनना चाहते हो तो उसकी कुञ्जी बाहर नहीं, भीतर तलाश करो । धन और कुछ नहीं सद्गुणों का छोटा-सा प्रदर्शन मात्र है । लालच, क्रोध, घृणा, द्वेष, छल और इन्द्रिय लिप्सा को छोड़ दो । प्रेम, पवित्रता, सज्जनता, नम्रता, दयालुता, धैर्य और प्रसन्नता से अपने मन को भर लो । बस फिर दरिद्रता तुम्हारे द्वार से पलायन कर जायगी । निर्बलता और दीनता के दर्शन भी न होंगे । भीतर से एक ऐसी अगम्य और सर्व विजयी शक्ति का आविर्भाव होगा जिसका विशाल वैभव दूर-दूर तक प्रकाशित हो जायगा ।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118