धन का सदुपयोग

धन के प्रति उचित दृष्टिकोण रखिए

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बात यह है कि भ्रमवश हम रुपये पैसे को धन समझ बैठे, स्थावर सम्पत्ति का नामकरण हमने धन के रूप में कर डाला और हमारे जीवन का केन्द्र-बिन्दु, आनन्द का जोत इस जड़ स्थावर जंगम के रूप में सामने आया । हमारा प्रवाह गलत मार्ग पर चल पड़ा ।

क्या हमारे अमूल्य श्वास-प्रश्वास की कुछ क्रियाओं की तुलना या मूल्यांकन त्रैलोक्य की सम्पूर्ण सम्पत्ति से की जा सकती है ? कारूँ का सारा खजाना जीवन रूपी धन की चरण रज से भी अल्प क्यों माना जाय? सच्चा धन हमारा स्वास्थ्य है, विश्व की सम्पूर्ण उपलब्ध सामग्री का अस्तित्व जीवन धन की योग्य शक्ति पर ही अवलम्बित हैं । मानव अप्राप्य के लिए चिंतित तथा प्राप्य के प्रति उदासीन है । हमारे पास जो है उसके लिए सुख का श्वास नहीं लेता सन्तोष नहीं करता वरन् क्या नहीं है इसके लिए वह चिन्तित दुःखी व परेशान है । मानव स्वभाव की अनेक दुर्बलताओं में प्राप्य के प्रति असन्तोषी रहना सहज ही स्वभावजन्य पद्धति मानी गई ।

मानव आदिकाल से ही मस्तिष्क का दिवालिया रहा । देखिए न, एक दिन एक हष्ट-पुष्ट भिक्षुक, जिसका स्वस्थ शरीर सबल अभिव्यक्ति का प्रतीक था, एक गृहस्थ ज्ञानी के द्वार पर आकर अपनी दरिद्रता का, अपनी अपूर्णता का बड़े जोरदार शब्दों में वर्णन सुना रहा था, जिससे पता चलता था, कि वह व्यक्ति महान निर्धन है और इसके लिए वह विश्व निर्माता ईश्वर को अपराधी करार दे रहा था । अचानक ज्ञानी गृहस्थी ने कहा-भाई हमें अपने छोटे भाई हेतु आँख की पुतली की दरकार है, सौ रुपये लेकर आप हमें देवें । भिक्षुक ने तपाक से नकारात्मक उत्तर दिया कि बहू दस हजार रुपये तक भी अपने इस बहुमूल्य शरीर के अवयवों को देने को तैयार नहीं ।कुछ क्षण बाद पुन: ज्ञानी गृहस्थ ने कहा-मेरे पुत्र का मोटर दुर्घटना में बाँया पाँव टूट चुका है, अत: दस हजार रुपये आप नगद लेकर आज ही अस्पताल चलकर अपना पैर देवेंगे तो बडी़ कृपा होगी । इस प्रश्न पर वह भिक्षुक अत्यन्त ही क्रोधित मुद्रा में होकर बोला-दस हजार तो दरकिनार रहे, एक लाख क्या दस लाख तक मैं अपने बहूमूल्य अवयवों को नहीं देऊँगा और रुष्ट होकर जाने लगा । गम्भीरता के साथ ज्ञानी ने रोककर कहा - भाई तुम तो बड़े ही धनी हो जब तुम्हारे दो अवयवों का मूल्य ५० लाख रुपये के लगभग होता है तो भला सम्पूर्ण देह का मूल्य तो अरबों रुपये तक होगा । तुम तो अपनी दरिद्रता का ढिंढोरा पीटते हो अरे लाखों को ठोकर मार रहे हो, अत: जीवन धन अमूल्य है ।

हम अपना दृष्टिकोण ठीक बनावें । मिट्टी के ढेलों को, जड़ वस्तु को धन की उपमा देकर उसकी रक्षा के लिए सन्तरी तैनात किए, विशाल तिजोरियों के अन्दर सुरक्षित किया । चोरों से डाकुओं से किसी भी मूल्य पर हमने उसे बचाया, परन्तु प्रतिदिन नष्ट होने वाला हमारी प्रत्येक दैनिक, अशोच्य क्रियाओं द्वारा घुल-घुल कर मिटने वाला यह जीवन दीप बिना तेल के बुझ जायगा । 'निर्वाण दीपे किम् तैल्य दानम्' फिर क्या होने वाला है, जबकि दीपक बुझ जाय । हमें आलस्य, अकर्मण्यता आदि स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाली दैनिक क्रियाओं द्वारा इस जीवन धन की रक्षा करनी होगी । व्यसन, व्यभिचार, संयमहीनता के डाकू कहीं लुट न लें । सतर्कता के साथ जागरूक रहना होगा । रुग्ण शैया पर पड़े रोम के अन्तिम सम्राट को राजवैद्य द्वारा अन्तिम निराशाजनक सूचना पाने पर कि वह केवल कुछ क्षणों के ही मेहमान हैं, आस-पास के मंत्रियों से साम्राज्ञी ने कई बार मिन्नतें की कि वे साम्राज्य के कोष का आधा भाग वैद्य के चरणों में भेंट करने को तैयार हैं अगर उन्हें वे दो घण्टे जीवित और रखें । उत्तर था - ''त्रैलोक्य की सम्पूर्ण लक्ष्मी भी सम्राट को निश्चित क्षण से एक श्वाँस भी अधिक देने में असमर्थ है ।'' क्या हमारी आँखों के ज्ञान की ज्योति मुझ चुकी है ? क्या उपरोक्त कथन से स्पष्ट नहीं होता कि जीवन धन अमूल्य है, बहुमूल्य है तथा अखिल ब्रह्माण्ड की किसी भी वस्तु की तुलना में यह महान है ?

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