वरेण्यञ्चैतद्वै प्रकट यति श्रेष्ठत्वमनिशम्,
सदा पश्येच्छ्रेष्टं मनन मपि श्रेष्ठस्य विदधेत् ।।
तथा लोके श्रेष्ठं सरलमनसा कर्म च भजेत्,
तदेत्थं श्रेष्ठत्वं व्रजति मनुजः शोभित गुणै ।।
अर्थ—‘वरेण्यं’ शब्द प्रकट करता है कि प्रत्येक मनुष्य को नित्य श्रेष्ठता की ओर बढ़ाना चाहिए, श्रेष्ठ देखना, श्रेष्ठ चिन्तन करना, श्रेष्ठ विचारना और श्रेष्ठ कार्य करना, इस प्रकार मनुष्य श्रेष्ठता को प्राप्त होता है।
दुनिया को दुरंगी कहा जाता है। इसमें भले और बुरे दोनों ही तत्व हैं। पाप पुण्य का, सुख दुख का, उन्नति अवनति का, प्रकाश अन्धकार का युग्म सर्वत्र उपस्थित रहता है। इन युग्मों में से केवल वही पक्ष ग्रहण करना चाहिए जो हमारे लिए हितकर है। एक ओर नीचता, विलासिता, शैतानी, दुराचार स्वार्थपरता, का निकृष्ट मार्ग है दूसरी ओर आत्म गौरव सदाचार महानता परमार्थ का श्रेष्ठ मार्ग है। गायत्री मंत्र का वरेण्यं शब्द बताता है कि इन दो मार्गों में से श्रेष्ठता का मार्ग ही कल्याण कारक है।
कितने ही व्यक्ति अशुभ चिन्तक होते हैं। उनकी विचारधारा बहुधा अनिष्ट की दिशा में प्रवाहित होती रहती है। दूसरे उन्हें सताते हैं, बुराई करते हैं, शत्रुता रखते हैं, हानि पहुंचाते हैं, स्वार्थ के कारण ही सम्बन्ध रखते हैं, ऐसी मान्यता बनाकर वे दूसरों की शिकायत ही किया करते हैं। भाग्य उलटा है, ईश्वर का कोप है, गृहदशा खराब है ऐसा सोचकर वे अपने भविष्य को निराशा, चिन्ता, भय से ओत प्रोत देखा करते हैं। भोजन को स्वादरहित, घर वालों को अवज्ञाकारी, कर्मचारियों को चोर, मित्रों को मूर्ख, परिचितों को दुर्गुणी समझकर ये सदा निन्दा, आक्षेप, व्यंग झुंझलाहट प्रकट करते रहते हैं। ऐसे लोग चाहे कितनी ही अच्छी स्थिति में क्यों न रहें उन्हें सदा दुर्भाग्य एवं असंतोष ही सामने खड़ा दिखाई देगा उनके चित्त को क्षुब्ध करने के कोई न कोई कारण उपस्थित होते ही रहेंगे और उन्हें दुर्भाग्यपूर्ण, और दुखी जीवन जीना पड़ेगा। कोई सुअवसर उन्हें सुखी नहीं बना सकता। स्वर्ग भेज दिया जाय तो वहां भी कुछ न कुछ छिद्रान्वेषण करते रहेंगे, किसी न किसी बात पर नाक भौं सिकोड़ते रहेंगे।
इस स्थिति का कारण उस व्यक्ति का अशुभ चिन्तन ही है। हरा ऐनक आंख पर चढ़ा लेने से हर चीज हरी दिखलाई पड़ती है, अशुभ दृष्टिकोण को, अनिष्ट चिन्तन को, अपना लेना एक ऐसी ही रंगीन ऐनक चढ़ा लेना है जिसके कारण सारे संबद्ध पदार्थ और मनुष्य बुरे, अनुपयुक्त और कष्टदायक दीखने लगते हैं। इस मानसिक कष्ट से छुटकारा उन्हें मिल नहीं सकता क्योंकि जिन पदार्थों, परिस्थितियों और मनुष्यों से उन्हें काम पड़ता है उन्हें बदल दिया जाय, उनके स्थान पर नवीनता उपस्थित कर दी जाय तो भी संतोष नहीं हो सकता, कारण कि संसार का कोई भी पदार्थ, स्थिति अथवा मनुष्य ऐसा नहीं है जो पूर्णतया निर्दोष हो, नाक भौं सिकोड़ने के लिए उसको भी कुछ न कुछ कारण निकल ही आवेगा।
हमारे अनेकों मानसिक कष्ट इसी प्रकार के अशुभ चिन्तन के परिणाम होते हैं। बहुत ही साधारण सी कठिनाइयां पहाड़ सी दुर्गम दिखाई पड़ती हैं। भविष्य में किसी कष्ट के आने और उसके असह्य होने की कल्पना करके कितने ही मनुष्य आत्म हत्या तक कर लेते हैं। जो लोग जेल को बड़ी भारी यंत्रणा समझ कर उसके डर से थर थर कांपते थे वे जब जेल गये तो उन्होंने देखा कि वहां भी साधारण दैनिक जीवन जैसी ही गतिविधि रहती है और बड़ी आसानी से समय गुजर जाता है। आरम्भ में अनाथों, विधवाओं, आपत्तिग्रस्तों को ऐसा लगता है कि न जाने हमारे ऊपर अब क्या बीतेगी पर ईश्वर की ऐसी लीला है कि सभी को अपनी जीवन यात्रा चलाने का कोई न कोई मार्ग मिल जाता है और योंही हंसते-खेलते वे बुरे दिनों को निकाल देते हैं। अपनी अशुभ चिन्तक वृत्ति के कारण मनुष्य जितना दुखी रहता है उसका सौवां भाग भी वास्तविक कष्ट उसे प्राप्त नहीं होता।
इसलिए गायत्री के वरेण्यं शब्द का संदेश है कि अशुभ चिन्तन को छोड़कर ‘शुभ चिन्तन’ को अपनाया जाय। हर वस्तु की, हर परिस्थिति की, हर व्यक्ति की श्रेष्ठता, उत्तमता, उपयोगिता, अच्छाई को तलाश किया जाय। यदि शुभ दृष्टि से संसार के विविध अंगों पर दृष्टिपात किया जाय तो उनमें से सुन्दरता, मनोहरता, उपयोगिता का निर्झर झरता हुआ दृष्टिगोचर होगा और आनन्द से चित्त प्रफुल्लित हो जायगा। कवि लोग नदी, तालाब, पर्वत, आकाश, चांद, तारे, घास, ओस, पुष्प, लता, वृक्ष, संध्या, ऊषा, बादल, बिजली आदि प्रकृति की साधारण सी कृतियों को देख कर आनन्द विभोर हो जाते हैं और उनका वर्णन करते हुए रस की धारा प्रवाहित कर देते हैं। अशुभ दृष्टि से इन्हीं चीजों को देखा जाय तो यह निर्जीव-उपेक्षणीय और डरावनी प्रतीत होंगी। वह तत्व ‘शुभ दृष्टि’ ही है जो इन साधारण वस्तुओं से हृदय की कली को खिला देती है।
अपने स्वजनों में हमें स्वार्थ और दुर्व्यवहार की बड़ी मात्रा में दिखाई पड़ती है पर अब तक के उनके उपकारों और सहयोगों का भी विचार करें तो वह भी इतनी बड़ी मात्रा में मिलेगा कि उनके प्रति मस्तक श्रद्धा से नत हुए बिना नहीं रह सकता। आज अपने सम्मुख अनेक अनेक अभाव और कष्ट दिखाई पड़ते हैं। परन्तु यदि यह तलाश किया जाय कि कितने सुख और साधन हमें प्राप्त हैं, असंख्यों की अपेक्षा हम कितनी अच्छी स्थिति में हैं, तो यह पता चलेगा कि वर्तमान स्थिति भी कम आनन्ददायक, कम महत्वपूर्ण, कम सुविधाजनक नहीं है। यदि शुभ चिन्तन की दृष्टि से अपनी सुविधाओं पर विस्तार पूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि भगवान ने अपरिमित सुख साधन हमें दे रखे हैं। अन्धे, लूले, लंगड़े, कोढ़ी, अनाथ, असहाय, दरिद्र, अशिक्षित, रोगी, अछूत, वृद्ध, कैदी, ऋण ग्रस्त, पराधीन आदि कितने ही प्रकार के व्यक्तियों की अपेक्षा हम कहीं साधन सम्पन्न हैं। हमारी स्थिति में पहुंचने के लिए भी हजारों लाखों प्राणी आतुर हैं, पशु-पक्षियों, कीट पतंगों को हमारी स्थिति मिल जाय तो वे अपना कितना बड़ा सौभाग्य समझेंगे इसकी यदि ठीक प्रकार कल्पना की जा सके तो पता चलेगा कि अपना वर्तमान सौभाग्य कितना उच्च कोटि का है, और प्रसन्न होने के कितने अधिक अवसर अपने को उपलब्ध हैं।
गायत्री के ‘वरेण्यं’ शब्द द्वारा हमारे लिए यह शिक्षा है कि हम अनिष्ट को छोड़कर श्रेष्ठ का चिंतन करें। अशुभ चिंतन को त्यागकर शुभ चिंतन को अपनाएं जिससे मानसिक कुढ़न और असंतोष से छुटकारा मिले और सर्वत्र सब परिस्थिति में, आनन्द ही आनन्द उपलब्ध हो। इसका अर्थ यह नहीं है कि अधिक अच्छी परिस्थिति प्राप्त करने का प्रयत्न ही न किया जाय। वैसा प्रयत्न तो अवश्य जारी रखना चाहिए क्योंकि आत्म उन्नति करना, आगे बढ़ना, शक्ति संचय करना, यह तो मनुष्य का कर्तव्य धर्म है जो उसे नहीं करता वह धर्मघात का अपराधी बनता है। उन्नति के लिए हंसी, खुशी, संतोष, उत्साह एवं कठोर परिश्रम के साथ प्रयत्न करना एक बात है और अपनी स्थिति से असंतुष्ट, दुखी, निराश रहकर सौभाग्य के लिए तरसते रहना दूसरी बात। निश्चित रूप से इनमें से पहली बात ही श्रेयष्कर है।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि दुनिया दुरंगी है। उसमें अच्छाइयों की भांति बुराइयां भी कम नहीं हैं। बुराइयों को दूर करने और अच्छाइयों को बढ़ाने के हमारे सभी बुद्धिमत्ता पूर्ण प्रयत्न जारी रहने चाहिए। साम, दाम, दंड, भेद के नरम-गरम तरीकों को बरतते हुए पदार्थों के, परिस्थितियों के, मनुष्यों के दोषों को दूर करने और उन्हें अच्छा बनाने के लिए शक्तिभर प्रयत्न करना चाहिए पर इन प्रयत्नों में एक बात ध्यान रखने की है ईर्ष्या, शत्रुता, घृणा, प्रतिशोध, प्रति-हिंसा, अहंकार आदि की नीच भावनाओं के साथ इस प्रकार का संशोधन कार्य नहीं होना चाहिए। वरन् अध्यापक का विद्यार्थियों के प्रति, डॉक्टर का रोगियों के प्रति, न्यायाधीश का अपराधियों के प्रति जिस प्रकार अपार प्रेमपूर्ण किन्तु कठोर व्यवहार होता है उसी श्रेष्ठ भावना के साथ हम भी अपनी निकटवर्ती बुराइयों का संशोधन और अच्छाइयों का स्थापन करें। कार्य भले ही कठोर हो, पर भावनाएं उसमें कठोरता की नहीं श्रेष्ठता की ही होनी चाहिए।
प्रत्येक क्षेत्र में अच्छाई और बुराई मिली हुई है। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जो पूर्णतया ग्राह्य या पूर्णतया त्याज्य हो। साहित्य में अच्छी पुस्तकें भी हैं और कुविचारों को भड़काने वाली घासलेटी किताबें भी। गायन, नृत्य, वाद्य में अन्तरात्मा को ऊंचा उठाने की शक्ति भी है और गिराने की भी। संगति से कुसंगत भी होता है और सत्संग भी। इन दोनों पक्षों में से हमें केवल श्रेष्ठ को ही ग्रहण करना चाहिए। सब वस्तुओं का श्रेष्ठ भाग ग्रहण और निकृष्ट भाग त्याज्य करना चाहिए। पानी और दूध मिला हुआ हो तो हंस उसमें से दूध को पीता है और पानी को छोड़ देता है यही कार्यपद्धति हमारी भी होनी चाहिए।
हम हमारी अच्छाइयां बढ़ावें। सद्गुणों को सब से बड़ी सम्पत्ति समझें। धन और सद्गुणों की तुलना में वरेण्यं को श्रेष्ठ समझें। दूसरों का बड़प्पन उनके धन से नहीं, वरन् गुणों के आधार पर नापें। हमारा पूरा और पक्का विश्वास होना चाहिए कि सुख का वास्तविक हेतु ‘वरेण्यं’ है, ‘हिरणयं’ नहीं, श्रेष्ठता है—स्वर्ण नहीं।
हमारी आकांक्षाएं, भावनाएं, विचारधाराएं, अभिलाषाएं, चेष्टाएं, क्रियाएं, अनुभूतियां, श्रेष्ठ होनी चाहिए। हम जो कुछ सोचें जो कुछ करें वह आत्मा के गौरव के अनुरूप हो। दुरंगी दुनिया में केवल ‘वरण्यं’ ही वरण करने योग्य हैं, श्रेष्ठ ही ग्रहण करने योग्य हैं। स्मरण रक्खो गायत्री के ‘वरेण्यं’ शब्द की शिक्षा है—‘‘अशुभ का त्याग और शुभ का ग्रहण’’, इस शिक्षा को हृदयंगम किये बिना कोई मनुष्य सुख शान्ति का जीवन व्यतीत नहीं कर सकता।
श्रेष्ठता देवी सम्पत्ति है। जिसमें सद्गुण हैं, सद्विचार हैं, सद्भाव हैं वस्तुतः वही सच्चा सम्पत्तिवान् है जिसके आचरण सत्यता, लोकहित, समाज सेवा और धर्मानुकूल हैं। वस्तुतः वही बड़ा आदमी है। आज संसार में मनुष्य का मूल्य उसकी धन दौलत से नापा जाता है। जिसके पास जितने पैसे अधिक हैं वे उतना ही बड़ा माना जाता है परन्तु यह कसौटी बिलकुल गलत है। गायत्री हमें सही दृष्टिकोण प्रदान करती है और बताती है कि किसी मनुष्य की आन्तरिक महानता ही उसकी श्रेष्ठता का कारण होती है, हम महान बनें, श्रेष्ठ बनें सम्पत्तिवान बनें पर उसकी आधार शिला भौतिक वस्तुओं पर नहीं, आत्मिक स्थिति पर निर्भर होनी चाहिए। अपनी अन्तःभूमि को उच्च बनाकर मनुष्यता के महान गौरव को प्राप्त करना हमारा लक्ष हो, यही गायत्री के ‘वरेण्य’ शब्द की शिक्षा है।
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*समाप्त*