सवितुप्तु पदं वितनोतिध्रु वं, मनुजोवलवान् सवितेतिभवेत् ।
विषया अनुभूतिपरिस्थितय, श्च सदात्मन एवगणेदति सः ।।
अर्थ—गायत्री का ‘सविता’ पद यह बतलाता है कि मनुष्य को सूर्य के समान बलवान होना चाहिये और ‘‘सभी विषयों की अनुभूतियां तथा परिस्थितियां अपने अन्दर हैं’’ ऐसा मानना चाहिए।
परिस्थितियों का जन्मदाता मनुष्य स्वयं है। हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करता है। कर्म रेख, भाग्य, तकदीर, ईश्वर की इच्छा, ग्रहदशा, दैवी आपत्ति, आकस्मिक लाभ आदि की विलक्षणता देखकर कई आदमी भ्रमित हो जाते हैं, वे सोचते हैं कि ईश्वर की जो मर्जी होगी कर्म में जो लिखा होगा वह होगा। हमारे प्रयत्न या पुरुषार्थ से प्रारब्ध को बदला नहीं जा सकता, इसलिए कर्तव्य पालन का श्रम करने की अपेक्षा चुप बैठे रहना या देवी देवताओं की मनौती मनाना ठीक है। ऐसे आदमी यह भूल जाते हैं कि भाग्य, प्रारब्ध ईश्वरेच्छा आदि की अदृश्य शक्तियां खुशामद या पक्षपात पर आधारित नहीं है कि जिस पर प्रसन्न हो जाए उसे चाहे जो देदें और जिस पर नाराज हो जायं उससे बदला लेने के लिए उस पर आपत्तियों का पहाड़ पटक दें।
हर व्यक्ति अपने गज से दूसरों को नापता है। हम स्वयं पक्षपाती, खुशामद पसंद, रिश्वती, पूजाकांक्षी, बदले की भावना से भरे हुए होते हैं इसलिए सोचते हैं कि अदृश्य शक्तियों को भी ऐसा ही होना चाहिए। पर यह अनुमान सत्य नहीं है। सत्य यह है कि ईश्वर पूर्णतया निष्पक्ष है वह हर प्राणी को समान दृष्टि से देखता है। जिसका जैसा प्रयत्न और पुरुषार्थ है पाप पुण्य है उसी के अनुसार उसे सुख दुख देने की न्याय मूर्ति न्यायाधीश की भांति व्यवस्था कर देता है। प्रारब्ध की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है हमारा कल का पुरुषार्थ आज प्रारब्ध बन जाता है, रात को जमाया हुआ दूध सबेरे दही बन जाता है। दूध और दही के नाम रूप में फर्क है यद्यपि दोनों ही वस्तुएं वस्तुतः एक हैं। पुरुषार्थ और प्रारब्ध यद्यपि दो अलग अलग वस्तुएं प्रतीत होती हैं पर वस्तुतः वे एक हैं। हरा खट्टा आम जब पाल में लगा दिया जाता है तो कुछ दिन बाद वह पीला, पका, मीठा आम बन जाता है। समय के परिपाक से यह परिवर्तन हो गया फिर भी वह आम एक ही है। पुरुषार्थ और प्रयत्न का भेद भी ऐसा ही अवास्तविक है। इसी जन्म के, पिछले जन्म के कुछ कर्म अपने परिपाक का समय लेकर जब अनायास प्रकट होते हैं तब उन्हें प्रारब्ध कह दिया जाता है। यह प्रारब्ध किसी दूसरे की कृपा या रोष का परिणाम नहीं अपितु निश्चित रूप से हमारे अपने भूतकाल के कर्मों का फल है। इस प्रकार हम स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता ठहरते हैं भले ही यह निर्माण हमने निकट भूतकाल में किया हो या सुदूर भूतकाल में।
संसार दर्पण के समान है। जैसे कुछ हम स्वयं हैं वैसा ही हमारा संसार है। कहते हैं कि हर आदमी की दुनिया अलग है, ठीक भी है जैसा वह स्वयं है वैसी ही उसकी दुनिया होगी। जो मनुष्य क्रोधी है उसका सबसे झगड़ा होगा फलस्वरूप उसे सारी दुनिया झगड़ालू मालूम पड़ेगी। बेईमान, चोर-ठग और दुष्ट प्रकृति के मनुष्य दूसरों को अपने ही जैसा समझते हैं और दूसरों पर तरह तरह के आक्षेप लगाया करते हैं। आलसी, दरिद्री, ओछे, मूर्ख प्रकृति के लोग अपने आसपास के लोगों पर तरह तरह के दोषारोपण करते रहते हैं कि वे उन्हें उठने नहीं देते, बढ़ने नहीं देते, रोकते हैं, सताते हैं। सच बात यह है कि संसार का व्यवहार कुंए की आवाज की तरह है। पक्के कुंए में मुंह करके जैसी आवाज हम करते हैं ठीक वैसे ही शब्दों की प्रतिध्वनि वापिस लौट आती है। जो प्रशंसा योग्य है उसे प्रशंसा प्राप्त होती है, जो सहायता का अधिकारी है उसे सहायता मिलती है, जो आदर का पात्र है उसे आदर मिलता है और जो निन्दा, घृणा, तिरस्कार, अपमान और दंड का पात्र है उसे यह वस्तुएं जहां भी जायगा वहीं पहले से ही तैयार रखी हुई मिलेंगी।
संसार में बुरे तत्व बहुत हैं पर अच्छे तत्व उनसे भी अधिक हैं। यदि ऐसा न होता तो कोई आत्मा यहां रहने को तैयार न होती। जो गुणवान है, शक्तिवान है, विचारवान है, सहृदय और उदार हैं उन्हें निश्चित रूप से अपना भाग्य उत्तम मिलेगा। मनस्वी इन्सान कहा करते थे कि— मुझे नरक में रखा जाय तो मैं वहां भी अपने सद्गुणों के कारण स्वर्ग बना लूंगा। जो बुरे आदमी हैं, वे स्वर्ग में रहकर भी नरक की यातना भोगेंगे। कितने ही अमीर चिन्ताओं की ज्वालाओं में जलते रहते हैं और कितने ही गरीब स्वर्गीय सुख में दिन काटते हैं। अमेरिका का धनकुबेर हेनरी फोर्ट, धन की लिप्सा में अपनी पाचन शक्ति गंवा बैठा था। वह जब अपने सुविस्तृत कारखानों के मजदूरों को मोटी रोटी खाते देखता था तो वह कहता था कि ‘इन मजदूरों के भाग्य पर मुझे ईर्ष्या होती है। वह हाथ मलता था कि हे ईश्वर! काश मैं हेनरी न होकर बलवान पाचन शक्ति वाला मजदूर होता तो कितना सुखी होता।
फोर्ट के उदाहरण से यह भली प्रकार समझ में आ जाता है कि अमीरी ही मनुष्य को सुखी नहीं बना सकती। सुखी बनाने की क्षमता ‘शक्ति’ में है। शक्ति ही वास्तविक सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति के बदले में हम जो भी वस्तु चाहें प्राप्त कर सकते हैं। जिसकी पाचन शक्ति ठीक है उसे नमक की रोटी में कचौड़ी का आनन्द आवेगा। जिसका पेट दुर्बल है उसे बहुमूल्य स्वादिष्ट पदार्थ भी कडुए लगेंगे और हानिकारक सिद्ध होंगे। पुंसत्व शिथिल हो जाने पर इन्द्र की अप्सरा भी कुरूप लगती है और बल वीर्य से परिपुष्ट होने पर कुरूप दम्पत्ति भी सरस जीवन का रसास्वादन करते हैं। सौंदर्य को देखकर वही आनन्द अनुभव कर सकता है जिसके नेत्र सक्षम हैं। मधुर ध्वनियां वहीं सुन सकेगा, जिसके कान सक्रिय हैं। आंख और कान की शक्ति नष्ट हो जाय तो समझिये कि सारा संसार अन्धकारमय और स्तब्धता मय ही हो गया।
(1) शरीरबल, (2) बुद्धिबल, (3)विद्याबल, (4) धनबल, (5) संगठनबल, (6) चरित्रबल, (7) आत्मबल, यह सात बल जीवन को प्रकाशित, प्रतिष्ठित, सम्पन्न और सुस्थिर बनाने के लिए आवश्यक हैं। सविता-सूर्य के रथ में सप्त अश्व जुते हुए हैं। सविता की सात रंग की किरणें होती है जो इन्द्र धनुष में तथा बिल्लौरी कांच में देखी जा सकती हैं। गायत्री का सविता पद हमें आदेश करता है कि हम भी सूर्य के समान तेजस्वी बनें और अपने जीवन रथ को चलाने के लिए उपरोक्त सातों बलों को घोड़े के समान जुता हुआ रखें। जीवन रथ इतना भारी है कि एक दो घोड़ों से ही उसे नहीं चलाया जा सकता। यदि जीवन की गति विधि ठीक रखनी है तो उसे खींचने के लिए सात अश्व, सात बल, जोतने पड़ेंगे।
(1) स्वस्थ शरीर (2)अनुभव, विवेक, दूरदर्शितापूर्ण व्यवहार बुद्धि (3) विशाल अध्ययन, श्रवण, मनन और सत्संग द्वारा सुविकसित किया हुआ मस्तिष्क (4) जीवनोपयोगी साधन सामग्रियों का समुचित मात्रा में संचय (5) सच्चे मित्रों, बान्धवों एवं सहयोगियों की अधिकता (6) ईमानदारी, मधुरता, परिश्रमशीलता, आत्मसम्मान की रक्षा, सद्व्यवहार, उदारता जैसे गुणों से परिपूर्ण उत्तम चरित्र (7) ईश्वर और धर्म में सुदृढ़ आस्था, आत्म ज्ञान, कर्मयोगी दृष्टिकोण, निर्मल मनोभूमि, सतोगुणी विचार व्यवहार, परमार्थ परायणता, यह सात प्रकार के बल प्रत्येक मनुष्य के लिए अतीव आवश्यक हैं। इन सबका साथ साथ संतुलित विकास होना चाहिए। स्वादिष्ट भोजन वह है जिसमें नमक, मसाला, घी, मीठा, आटा, बेसन, मावा आदि संतुलित मात्रा में हो। यदि इनमें से कोई बहुत ज्यादा और कोई बहुत कम होगी तो भोजन चाहे कितने ही श्रम से क्यों न बनाया गया हो वह असंतुलित होने के कारण अखाद्य बन जायगा। शरीर का कोई अंग बहुत मोटा और कोई बहुत पतला रह जाय तो ऐसा असंतुलित शरीर रोगी ही समझा जायगा। इसी प्रकार यह सातों बल उचित मात्रा में संचय करने चाहिए।
जो धनी तो बहुत है पर दुर्बल हो रहा है। जो स्वस्थ तो काफी है पर मूर्ख है, जो विद्वान तो बहुत है पर चरित्र भ्रष्ट है, जो चतुर तो बहुत है पर नास्तिक दुष्ट और अधर्मी है जो उच्च पद पर तो है पर कोई सखा मित्र नहीं, ऐसे लोग अधूरे हैं। एकांगी उन्नति चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो किसी को सच्चे अर्थों में सुखी नहीं बना सकती। जो लोग केवल धन कमाने के पीछे पड़े हैं और शरीर, विद्या, मैत्र, चरित्र आदि बलों की उन्नति नहीं कर रहे हैं वे यह भूल करते हैं। केवल अकेले धन का ही होना ऐसा है जैसे दसों इन्द्रियों में केवल एक इन्द्री का सजीव तथा अन्य सबका निर्जीव होना। सप्ताह में एक दिन बढ़िया भोजन मिले और छह दिन भूखा रहना पड़े तो वह कोई आनन्द की बात न होगी, चाहे रूखा सूखा भोजन मिले पर सातों दिन मिले तभी काम चल सकता है इसी प्रकार सातों बलों का संतुलित विकास होना ही जीवन को सुख शान्ति मय बना सकता है।
गायत्री का ‘सवितुः’ पद हमें उपदेश करता है कि सूर्य के समान तेजस्वी बनो सप्त अश्वों को, सप्त बलों को अपने जीवन रथ में जुता रखो। सूर्य केन्द्र है और अन्य समस्त ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं वैसे ही तुम भी अपने को कर्ता, केन्द्र और निर्माता मानो। परिस्थितियां, वस्तुएं, घटनाएं तो हमारी परिक्रमा मात्र करती हैं। जैसे परिक्रमा करने वाले ग्रह, सूर्य को प्रभावित नहीं करते वैसे ही कोई परिस्थिति हमें प्रभावित नहीं करती। अपने भाग्य के, अपनी परिस्थितियों के निर्माता हम स्वयं हैं, अपनी क्षमता के आधार पर अपनी हर एक अच्छा और आवश्यकता को पूरा करने में हम पूर्ण समर्थ हैं। गायत्री माता हम बालकों को गोदी में लेकर उंगली के संकेत से सविता को दिखाती हैं, और समझाती हैं कि मेरे बालकों, सविता बनो, सविता का अनुकरण करो।
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