ततो वैनिष्पत्तिः स भुविमतिमान् पण्डितवरः ।
विजानन् गुह्यं जीवन मरणयोयस्तुनिखिलम् ।।
अनन्ते संसारे विचरति भयासक्ति रहितः ।
तथा निर्माण वै निजगति विधीनां प्रकुरुते ।।
गायत्री गीता के उपरोक्त श्लोक में गायत्री मन्त्र के प्रथम पद ‘तत्’ की विवेचना करते हुए बताया है कि—‘इस संसार में वही बुद्धिमान है जो जीवन और मरण के रहस्य को जानता है। भय एवं आसक्ति रहित होकर जीता है और उसी आधार पर अपनी गति विधियों का निर्माण करता है।’’
देखा जाता है कि लोग जीवन से बहुत अधिक प्यार करते हैं और मृत्यु से बहुत डरते हैं। फांसीघर की कोठरियों में रहने वाले कैदियों और असाध्य रोगों के निराश रोगियों से मिलते रहने के हमें अनेक अवसर प्राप्त होते हैं उनके अन्तस्तल की दशा की वेदना को समझ सकने के कारण हम यह जानते हैं कि लोग मृत्यु से कितना डरते हैं। कभी खतरे की संभावना सामने आवे सिंह, व्याघ्र, सर्प, चोर, डाकू, भूत, अन्धकार आदि का भय सामने आने पर प्राण संकट अनुभव करके लोग थर थर कांपने लगते हैं होश-हवाश उड़ जाते हैं, मृत्यु चाहे प्रत्यक्ष रूप से सामने न हो पर उसकी कल्पना मात्र से इतना भय मालूम होता है जो मृत्यु के वास्तविक कष्ट से किसी प्रकार कम नहीं होता।
प्राणों का भय सामने उपस्थित होने पर अधिकांश लोक अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्व, धर्म, आचार, आत्म गौरव आदि की तिलांजलि देने में नहीं झिझकते। हम ऐसे धर्म प्राण बनने वाले व्यक्तियों को जानते हैं जिन्होंने डॉक्टर द्वारा रोग को प्राण घातक बताने पर शरीर जाने के भय से मांस, अंडे, मछली का तेल, मद्य आदि का सेवन किया। हमने ऐसी घटना देखी है कि घर में अग्नि लगने पर अन्य साथियों की रक्षा की बात सोचे बिना केवल अपनी प्राण रक्षा के लिए समर्थ लोग भाग निकले और असहाय निर्बल बाल-वृद्ध उसमें जल गये। पिछले भारत विभाजन के समय धर्मोन्माद से उन्मुक्त लोगों द्वारा जो पैशाचिकताएं बरती गईं उनका सबको पता है उन घटनाओं के जो लोग समीप रहे हैं उन्हें मालूम है कि अत्याचारियों के चंगुल में फंसने पर कितनों ने ही अपना आत्म गौरव, धर्म कर्तव्य, उत्तरदायित्व आदि को छोड़कर बड़े से बड़ा अत्याचार अपनी आंख से देखते हुए भी प्राण भिक्षा के लिए गिड़गिड़ाते हुए आत्मार्पण किया। प्राण संकट के समय लोग धर्म, कर्तव्य आदि की बात तो दूर रही अपने स्त्री बच्चों तक को दुर्दशायुक्त मृत्यु पाते देखते रहते हैं और अपने प्राण ले भागते हैं।
मृत्यु का भय साधारण भय नहीं है। अविकसित, क्षुद्र हृदय व्यक्ति तो उससे भयभीत रहते ही हैं। पर वे लोग जो अपने को सिद्धान्तवादी, वीर, कर्तव्य परायण और धर्मप्रेमी समझते हैं परीक्षा का समय आने पर विचलित हो जाते हैं। जब एक ओर आदर्श दूसरी ओर प्राण संकट की तुलना हो रही हो तो विरले ही मनुष्य ऐसे निकलते हैं जो खरे उतरें। महात्मा ईसामसीह ईश्वर से प्रार्थना किया करते थे कि ‘‘हे प्रभु, हमें बुराइयों से बचा, पर परीक्षा में न डाल’’ क्योंकि वे जानते थे कि मनुष्य बड़ा डरपोक है। उसे शरीर से इतना अधिक मोह है कि प्राण त्याग तो दूर, थोड़ा सा शारीरिक कष्ट आर्थिक क्षति या इच्छा पूर्ति में प्रतिरोध दिखाई पड़ता हो तो भी वह विचलित हो जाता है।
जीवन का निर्माण इस प्रकार हुआ है कि निरन्तर खतरे उपस्थित होते रहते हैं। निर्माण और विनाश दोनों ही एक दूसरे से प्रगाढ़ रूप से संबद्ध हैं। बीज गले बिना वृक्ष नहीं होता और फल टूटे बिना बीज नहीं बनता। नया जीवन धारण तब होता है जब किसी की मृत्यु होती है, और मृत्यु तब होती है जब कोई जीवन नष्ट होता है। एक को धन तब मिलता है जब किसी हाथ से वह धन निकलता है। जब समुद्र सूखता है तब बादल बनते हैं और जब बादल गलते हैं तो समुद्र भरता है। एक की हानि ही दूसरे का लाभ है। इस प्रकार के ज्वार भाटे ही जीवन सौंदर्य के प्रतीक हैं रात्रि और दिन की भांति, सुख दुख का, हानि लाभ का भी जोड़ा है। जैसे सुख, शान्ति, लाभ, भोग, ऐश्वर्य प्राप्ति के अवसर आते रहते हैं वैसे ही कर्म भोगों के अनुसार एवं परिस्थितियों के अनुसार रोग, हानि, संकट, क्लेश और मृत्यु के अवसर आना भी स्वाभाविक है। किन्तु देखा जाता है कि लोग सुखकर अवसरों का तो प्रसन्नता पूर्वक उपभोग कर लेते हैं पर जब दुख का अवसर आता है तो बेतरह रोते, चिल्लाते, डरते, कांपते, भयभीत होते रहते हैं।
विनाशात्मक परिस्थितियां हर एक के जीवन मैं आती रहती हैं क्योंकि वे आवश्यक, स्वाभाविक सृष्टिक्रम के अनुकूल एवं अनिवार्य हैं। परन्तु लोग उनसे बुरी तरह डरते हैं। विपत्ति आने पर तो डरते ही हैं पर अनेक बार विपत्ति की आशंका, संभावना, कल्पना मात्र से भयभीत होते रहते हैं। इस प्रकार जीवन का अधिकांश भाग घबराहट और दुख में व्यतीत होता है। यहां यह आश्चर्य होता है कि विनाश जब जीवन का एक स्वाभाविक एवं अनिवार्य अंग है तो लोग उससे इस प्रकार डरते क्यों हैं कि धनी निर्धन, सम्पन्न और विपन्न सभी का जीवन असंतोष, अतृप्ति, खिन्नता, चिन्ता, निराशा आदि से भरा रहता है। पूर्ण सुखी मनुष्य ढूंढ़ निकालना आज असंभव नहीं तो कष्ट साध्य अवश्य है।
विघटनात्मक, विनाशात्मक स्थितियों से डरने घबराने का कारण मनुष्य की एक आध्यात्मिक भूल है। वह भूल यह है कि—वह शरीर को ही ‘‘मैं’’ मान बैठता है, अपने आपको शरीर समझने के फलस्वरूप, आत्मलाभ, आत्मानन्द, आत्मरक्षा, आत्म परायणता, आत्म प्रतिष्ठा जैसी वृत्तियां दूसरे ही रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। उनका स्वरूप शरीर लाभ, शारीरिक आनन्द, शरीर रक्षा, शरीर परायणता, शरीर प्रतिष्ठा बन जाता है। चूंकि आत्मलाभ अन्तः करण का ईश्वर प्रदत्त गुण है, जिस ओर जीव की स्वाभाविक रुचि होती है, इसी में उसे आनन्द आता है और इसमें विक्षेप पड़ने से दुख होता है। संत, महात्मा, ब्रह्मवेत्ता ऋषि, मुनि, सज्जन, लोकसेवक, सत्पुरुष इसी मार्ग पर चलते हैं और जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हुए सदा आनन्द निमग्न रहते हैं। परन्तु जब आत्म लाभ की परिभाषा शरीर लाम हो जाती है, जब आत्म रक्षा का तात्पर्य शरीर रक्षा समझा जाता है तो वही अज्ञान संभव परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसमें आज जनसाधारण ग्रस्त हो रहा है।
स्वार्थ मनुष्य की सर्वप्रिय वस्तु है। अपनापन सबको प्यारा है। संसार का जो भी पदार्थ प्रिय लगता है वह अपनेपन की भावना के कारण ही प्रिय लगता है। शत्रु की सुन्दर-सुन्दर चीजें भी आंखों में कांटे की तरह चुभती हैं जब शरीर को ‘स्व’ मान लिया गया तो उसके नष्ट होने का भय आत्मनाश के समान लगना ही चाहिए, जब शरीर ही ‘स्व’ है तो शारीरिक इन्द्रियों के भोग विलासों को आत्मानन्द समझा ही जाना चाहिए। शरीर की सुन्दरता, आकर्षण, मोहकता, वैसी ही प्रिय मालूम होनी चाहिए, जैसी कि आत्म प्रतिष्ठा प्रिय होती है। आत्मानन्द के लिए बड़ी से बड़ी वस्तु का त्याग करना, बड़े से बड़ी कष्ट सहना आत्म परायण पुरुषों के लिए साधारण बात है। वैसे ही शरीर परायण लोगों के लिए सांसारिक सुख के लिए धर्म, कर्तव्य आदि का छोड़ देना और हत्या, डकैती और खतरे से भरे हुए दुस्साहसी कार्य कर डालना साधारण बात होती है। यदि कोई आदमी शरीर को ही ‘‘मैं’’ मानता है उसमें ही ‘‘स्व’’ अनुभव करता है तो उसके लिए यह उचित ही है कि शरीर को सुखी करने वाली वस्तुओं और परिस्थितियों में सुखी रहे, उनके लिए प्रयत्न करे और इस मार्ग में जो बाधा उपस्थित हों उसमें दुखी एवं भयभीत हो। इस स्थिति में मृत्यु और हानि का भय यदि बुरी तरह संत्रस्त बनाये रहे तो उसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।
परमात्मा को सत् चित आनन्द, सच्चिदानन्द कहते हैं। उसका अंश आत्मा-स्वभावतः आनन्द मय है। उसमें आनन्द की कोई कमी नहीं यह संसार परमात्मा की पुण्य कृति है। आनन्द रूप परमात्मा के हाथ से बना हुआ संसार आनन्द रहित नहीं हो सकता। जीवन का अर्थ है—‘‘जीव और प्रकृति के सम्मिलन की, आलिंगन की पुण्य बेला’’। इन क्षणों में आनन्द मय आत्मा और आनन्द कृति संसार के उभय पक्षीय आनन्दों का मिलन होने से अपार आनन्द उमड़ पड़ना चाहिए। स्त्री और पुरुष के समागम का आनन्द बड़ा आकर्षक है। आत्मा और प्रकृति के समन्वय का नाम ही जीवन है। जीवन इतना आनन्द मय, इतना आकर्षक, इतना उल्लासमय, इतना सरल है कि उसका आस्वादन करने के लिए ही तो जीव संसार में बार-बार आता है, बार बार जन्म लेता है। यदि ऐसी बात न होती, यदि वस्तुतः जीवन का मूल रूप दुख, भय, चिन्ता और क्लेशमय होता तो निश्चय ही परमात्मा का अमर युवराज आत्मा उसे ग्रहण करने को कदापि तैयार न होता।
आनन्द का रसास्वादन करने के लिए प्राप्त हुआ जीवन आज कितने कम लोगों के लिए आनंद मय रह गया है, यह आश्चर्य की बात है। इसी प्रकार यह बात हैरत में डालने वाली है कि कितने अधिक लोग अपनी जिन्दगी के दिन असंतोष, भय, निराश और उदासीनता के साथ व्यतीत करते रहते हैं। यह भूल-भुलैया, यह माया-बन्धन, आत्मा के लिए कितना उलझन भरा है, कितना मर्मभेदी है, इस तथ्य को समझ कर हमारा शास्त्र हमें इस खतरे से आगाह कर देता है। गायत्री मन्त्र के प्रथम पद में ‘तत’ शब्द में इसी अन्धकारमय विभीषिका पर प्रकाश डाला है। इसी पर्दे को उठा कर सच्चाई के दर्शन कराये गये हैं। गायत्री गीता के अनुसार ‘तत’ शब्द हमें बताता है कि जीवन और मरण के रहस्य को समझो भय और आसक्ति रहित होकर जियो और वास्तविकता के सुदृढ़ आधार पर अपनी गतिविधियों का निर्माण करो।
मरने से डरना क्या?
मृत्यु से डरने की कोई बात नहीं। जैसे नया वस्त्र पहनने में, नई जगह जाने में स्वभावतः एक प्रसन्नता होती है वैसे ही प्रसन्नता मृत्यु के संबंध में भी होनी चाहिए। आत्मा एक यात्री के समान है। उसे विविध स्थानों, व्यक्तियों, परिस्थितियों के साथ संबंध स्थापित करते हुए वैसी ही प्रसन्नता होनी चाहिए जैसी कि सैर सपाटा करने के लिए निकले हुए सैलानी लोगों को होती है।
मरने से डरने का कारण हमारा अज्ञान है। परमात्मा के इस सुन्दर उपवन में एक से एक मनोरम वस्तुएं हैं। यह यात्रियों के मनोरंजन की सुव्यवस्था है, पर वह यात्री जो इन दर्शनीय वस्तुओं को अपनी मान बैठता है, उन पर स्वामित्व प्रकट करता है, उन्हें छोड़ना नहीं चाहता, अपनी मूर्खता के कारण दुख का ही अधिकारी होगा। इस संसार का हर पदार्थ, हर परमाणु तेजी के साथ बदल रहा है। इस गतिशीलता का नाम ही जीवन है। यदि वस्तुओं का उत्पादन, विकास और विनाश का क्रम टूट जाये तो यह संसार एक निर्जीव जड़ पदार्थ बनकर रह जायगा। यदि इसे आगे चलते रहना है, तो निश्चय ही उत्पादन, परिवर्तन और नाश का क्रम अनिवार्यतः जारी रहेगा। शरीर चाहे हमारा अपना हो, अपने प्रियजन का हो, उदासीन का हो या शत्रु का हो, निश्चय ही परिवर्तन और मृत्यु को प्राप्त होगा। जब, जिस समय हम चाहें तभी वे शरीर नष्ट हो ऐसा नहीं हो सकता। प्रकृति के परिवर्तन, कर्म बंधन, ईश्वरीय इच्छा ये प्रधान हैं, इनके आगे हमारी इच्छा चल नहीं सकती। जिसे जब मरना है वह तब मर ही जायेगा, हम उसे रोक नहीं सकते। इस जीवन मृत्यु के अटल नियम को न जानने के कारण ही मृत्यु जैसी अत्यंत साधारण घटना के लिए हम रोते चिल्लाते, छाती कूटते, भयभीत होते और दुख मनाते हैं।
जिसे जीवन का वास्तविक स्वरूप मालूम हो गया है उसे न अपनी मृत्यु में कोई दुख की बात प्रतीत होती है और न दूसरों की मृत्यु का कष्ट होता है। किसी विशाल नगर के प्रमुख चौराहे पर खड़ा हुआ व्यक्ति देखता है कि प्रति क्षण असंख्यों व्यक्ति अपने अपने कार्यक्रम के अनुसार इधर से उधर आते जाते हैं। वह स्वयं भी कहीं से आया है और कहीं जा रहा है केवल कुछ क्षण के लिए चौराहे का कौतूहल देख रहा है। इस अपने या दूसरों के आवागमन पर यदि वह व्यक्ति दुख माने या विलाप करे तो उसे अविवेकी ही कहा जायेगा। संसार के विशाल चौराहे पर भी ऐसे ही आवागमन की भीड़ लग रही है। एक की मृत्यु ही दूसरे का जन्म है, एक का जन्म दूसरे की मृत्यु है। एक सुख दूसरे का दुख है और दूसरे का दुख, एक का हर्ष। यह आंख मिचौनी, यह भूल-भुलैया, विवेकवानों के लिए एक चित्ताकर्षक विनोदमयी क्रीड़ा है, पर बाल बुद्धि के व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और इस कौतूहल को कोई महान आपत्ति मानकर सिर धुनते, रोते चिल्लाते और पश्चाताप करते हैं।
मृत्यु के दुख में शरीरों का नष्ट होना कारण नहीं वरन् जीवन के वास्तविक स्वरूप की जानकारी होना ही कारण है। ऐसे कितने ही बलिदानी वीर हुए हैं जो फांसी की कोठरी में रहते हुए दिन दिन अधिक मोटे होते गये, वजन बढ़ता गया और फांसी के फंदे को अपने हाथ गले से लगाया और खुशी के गीत गाते हुए मृत्यु के तख्ते पर झूल गये। कवि ‘गंग‘ को जब मृत्यु दंड दिया गया और जिस समय उन्हें पैरों तले कुचल डालने को खूनी हाथी छोड़ा गया तो वे प्रसन्नता से फूल उठे, उन्होंने कल्पना की कि देवताओं की सभा में कोई छंद बनाने वाले की आवश्यकता हुई है इसलिए मुझ कवि गंग को लेने के लिए हाथी रूपी गणेश आये हैं। कितने ही महात्मा समाधि लेकर अपना शरीर त्याग देते हैं। उन्हें मरने में कोई अनोखी बात दिखाई नहीं पड़ती।
कई व्यक्ति सोचते हैं कि मरते समय भारी कष्ट होता है, इसलिए उस कष्ट की पीड़ा से डरते हैं। यह भी मृत्यु समय की वस्तु स्थिति से जानकारी न होने के कारण है। आमतौर से लोग मृत्यु से कुछ समय पूर्व बीमार रहते हैं। बीमारी में जीवनी शक्ति घटती जाती है और इन्द्रियों की चेतना शिथिल होकर ज्ञान तंतु संज्ञा शून्य होते जाते हैं फल स्वरूप दुख की अनुभूति भी पूरी तरह नहीं हो पाती। प्रसुता स्त्रियां या लंघन के रोगी गर्मी की ऋतु में रात को भी अक्सर बंद घरों में सोते हैं पर उन्हें गर्मी का वैसा कष्ट नहीं होता जैसा कि स्वस्थ मनुष्य को होता है। स्वस्थ मनुष्य रात को बन्द कमरे में नहीं सो सकता पर रोगी सो जाता है। कारण यह है कि रोगी के ज्ञान तंतु शिथिल हो जाने के कारण गर्मी अनुभव करने की शक्ति मंद पड़ जाती है, रोगियों को स्वाद का भी ठीक अनुभव नहीं होता, स्वादिष्ट चीजें भी कड़ुई लगती हैं क्योंकि जिह्वा के ज्ञान तंतु निर्बल पड़ जाते हैं। रोग जन्य निर्बलता धीरे-धीरे इतनी बढ़ जाती है कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व मनुष्य संज्ञा शून्य हो जाता है और बिना किसी कष्ट के उसके प्राण निकल जाते हैं। जो कुछ कष्ट मिलना होता है रोग काल में ही मिल लेता है। डॉक्टर लोग जब कोई बड़ा आपरेशन करते हैं तो रोगी को क्लोरोफार्म सुंघाकर बेहोश कर देते हैं ताकि उसे कष्ट न हो। दयालु परमात्मा भी आत्मा से शरीर को अलग करने का आपरेशन करते समय संज्ञा शून्यता का क्लोरोफार्म सुंघा देता है ताकि हमें मृत्यु का कष्ट न हो।
यह सभी जानते हैं कि कोई रोगी जब मरने को होता है तो मृत्यु से कुछ समय पूर्व उसकी बीमारी कम हो जाती है। कष्ट घट जाता है। तब अनुभवी चिकित्सक समझ जाते हैं कि अब रोगी का अन्त समय आ गया। कारण यह है कि बीमारी के कारण रोगी की जीवनी शक्ति चुक जाती है और ज्ञान तन्तु रोग को प्रकट करने एवं कष्ट अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं। यह मान्यता भ्रम पूर्ण है कि गर्भ काल में, माता के उदर में और मृत्यु के समय प्राणों को अधिक कष्ट होता है। दोनों ही दशाओं में मस्तिष्क अचेतन अवस्था में, और ज्ञानतन्तु संज्ञाशून्य अवस्था में रहने के कारण प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । ऐसी दशा में मृत्यु के कष्ट से डरने का कोई कारण नहीं रह जाता।
अनावश्यक मोह ममता ही मृत्यु भय का प्रधान कारण है। हम कर्तव्य से प्रेम करने की अपेक्षा वस्तुओं से मोह करने लगते हैं। हमारा प्रेम, कर्तव्य भावना में संलग्न न रह कर शरीर, सम्पत्ति आदि में लग जाता है। प्रिय वस्तु के हाथ से जाने में कष्ट होता ही है इसलिए मरने का भी दुख होता है। यदि आरम्भ से ही यह मान कर चला जाये कि हमारे अधिकार या संबंध में जो भी पदार्थ हैं वे प्रकृति के परिवर्तन धर्म के कारण किसी भी समय बदल, बिगड़ या नष्ट हो सकते हैं तो उनसे अनावश्यक मोह ममता जोड़ने की भूल न हो। तब मनुष्य यह सोचेगा कि संसार में सबसे अधिक प्रिय, सबसे अधिक आत्मीय, सबसे अधिक लाभदायक अपना ‘‘कर्तव्य’’ है। उसी से पूरा पूरा प्रेम किया जाये। प्रेम को जितना अधिक बढ़ाया जा सके बढ़ाया जाय इस प्रेम से जहां रत्तीभर भी बिछोह हो वहां दुख माना जाये तो यह प्रेम अत्यंत सुख−शांति को देने वाला और कभी नष्ट न होने वाला बन जायेगा। जो कर्तव्य पालन को अपना लाभ समझेगा उसे हानि का दुख न उठाना पड़ेगा। कारण यह है कि अपना प्रेमी ‘‘कर्तव्य’’ सदा अपने साथ है, उसे कोई भी शक्ति, हमारी इच्छा के विपरीत हम से नहीं छीन सकती । इसी प्रकार जब हमारे लाभ का केन्द्र बिन्दु हमारा ‘‘कर्तव्य’’ है, तो उसमें घाटा पहुंचाने वाला हमारे अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता। हमारे प्रेम और लाभ जब पूर्णतया हमारे हाथ में है तब बिछोह या हानि जन्य दुखों के सामने आने का कोई कारण नहीं रह जाता। दूसरों की मृत्यु—प्रेमियों और पदार्थों की मृत्यु—का दुख हम सभी में तभी दूर रह सकता है जब हम मिथ्या मोह ममता को छोड़ कर कर्तव्य से प्रेम करना और उसी को अपनी सम्पत्ति समझने का विवेक विवेक हृदयंगम करलें।
अपनी मृत्यु में दुख भी इसी बात का होता है कि जीवन जैसे बहुमूल्य पदार्थ का सदुपयोग नहीं किया गया। आलस्यवश देर में स्टेशन पहुंचने पर जब रेल निकल जाती है और उस दिन नियत स्थान पर न पहुंच सकने के कारण जो भारी क्षति हुई उसका विचार कर करके वह आलसी मनुष्य स्टेशन पर खड़ा हुआ पछताता है और अपने आपको कोसता है। मृत्यु के समय भी ऐसा ही पश्चाताप होता है जब कि मनुष्य देखता है कि मानव जीवन जैसी बहुमूल्य सम्पत्ति को मैंने व्यर्थ की बातों में गंवा दिया, उसका सदुपयोग नहीं किया उससे जितना लाभ उठाना चाहिए था वह नहीं उठाया। यदि हम जीवन के क्षणों का सदुपयोग करें उसकी एक घड़ी को केवल आत्म लाभ के, सच्चे स्वार्थ के लिए लगावें तो चाहे आज चाहे कल जब भी मृत्यु सामने आवेगी किसी प्रकार का पश्चाताप या दुख न करना पड़ेगा।
गायत्री का आरंभिक पद ‘तत्’ हमें यही शिक्षा देता है कि मृत्यु से डरो मत, उससे न डरने की कोई बात नहीं। डरने की बात है हमारा गलत दृष्टिकोण गलत कार्यक्रम। यदि हम अपने कर्तव्य पर प्रतिक्षण सजगता पूर्वक आरुढ़ रहें तो न हमारी न किसी दूसरे की, मृत्यु हमारे लिए कष्ट कारक होगी।
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