चिन्ताओं से छुटकारे का मार्ग

स्थिरता और स्वस्थता का संदेश

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स्वरेषो वै शब्दो निगदति मनः स्थैर्य करणम्  ।
तथा सौख्यं स्वास्थ्यं ह्यु पदिशति चित्तप्यचलतः ।
निमग्नत्वं सत्यब्रत सरसि चा चक्षत् उत ।
त्रिधां शान्तिह्येभिर्भुवि च लभते संयम रतः ।।4।।

अर्थ—‘स्वः’ यह शब्द मन की स्थिरता का निर्देश करता है चंचल मन को सुस्थिर और स्वस्थ रखो यह उपदेश देता है। सत्य में निमग्न रहो यह कहता है। इस उपाय से संयमी पुरुष तीनों प्रकार की शांति प्राप्त करते हैं।

जीवन में आए दिन दुरंगी घटनाएं घटित होती रहती हैं। आज लाभ है तो कल नुकसान, आज बलिष्ठता है तो कल बीमारी, आज सफलता है तो कल असफलता। दिन रात का चक्र जैसे निरंतर घूमता रहता है वैसे ही सुख दुख का, सम्पत्ति विपत्ति का, उन्नति अवनति का पहिया भी घूमता रहता है। यह हो नहीं सकता कि सदा एक सी स्थिति रही आवे। जो बना है वह बिगड़ेगा, जो बिगड़ा है वह बनेगा, श्वासों के आवागमन का नाम ही जीवन है। सांस चलना बन्द हो जाय तो जीवन भी समाप्त हो जायेगा। सदा एक सी ही स्थिति बनी रहे परिवर्तन बन्द हो जाय तो संसार का खेल ही खतम हो जायेगा। एक के लाभ में दूसरे की हानि है और एक की हानि में दूसरे का लाभ। एक शरीर की मृत्यु ही दूसरे शरीर का जन्म है। यह मीठे और नमकीन, हानि और लाभ के दोनों ही स्वाद भगवान ने मनुष्य के लिए इसलिए बनाये हैं कि वह दोनों के अन्तर और महत्व को समझ सके।

खिलाड़ी लोग जैसे गेंद, ताश, शतरंज, नाटक आदि खेलों को मनोरंजन के उद्देश्य से खेलते हैं और उसकी अनुकूल प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं के कारण अपने आपको उत्तेजित, उद्विग्न, या अशान्त नहीं करते। वैसा ही दृष्टिकोण जीवन की विविध समस्याओं के संबंध में रखा जाना चाहिए। किन्तु हम देखते हैं कि लोग इन स्वाभाविक, आवश्यक एवं साधारण से उतार चढ़ाव को देखकर असाधारण रूप से उत्तेजित हो जाते हैं और अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं।

जरा सा लाभ होने में, सम्पत्ति मिलने, रूप सौंदर्य यौवन की तरंगें आने, कोई अधिकार या पद प्राप्त हो जाने, पुत्र जनने, विवाह होने, आदि अत्यन्त ही तुच्छ सुखद अवसर आने पर फूले नहीं समाते, खुशी से पागल हो जाते हैं, ऐसे उछलते कूदते हैं मानों इन्द्र का सिंहासन इन्हें ही प्राप्त हो गया हो। सफलता, बड़प्पन या अमीरी के अहंकार के मारे उनकी गरदन टेड़ी हो जाती है, दूसरे लोग अपनी तुलना में उन्हें कीट पतंग जैसे मालूम पड़ते है और सीधे मुंह किसी से बात करने में उन्हें अपनी इज्जत घटती दिखाई देती है।

जरा सी हानि हो जाय, घाटा पड़ जाय, कोई कुटुम्बी मर जाय, नौकरी छूट जाय, बीमारी पकड़ लें, अधिकार छिने, अपमानित होना पड़े, किसी प्रयत्न में असफल रहना पड़े, अपनी मर्जी न चले, दूसरों की तुलना में अपनी बात हेठी हो जाय तो उनके दुख का ठिकाना नहीं रहता। बुरी तरह रोते चिल्लाते हैं, चिन्ता के मारे सुख सुख कर कांटा हो जाते हैं। दिन रात सिर धुनते रहते है, भाग्य को कोसते हैं। और भी, आत्म हत्या आदि जो कुछ बन पड़ता है करने से नहीं चूकते।

जीवन एक झूला है जिसमें आगे भी और पीछे भी झोंटे आते हैं। झूलने वाला पीछे जाते हुए भी प्रसन्न होता है और आगे आते हुए भी, यह अज्ञानग्रस्त, माया मोहित, जीवन विद्या से अपरिचित लोग बात बात में अपना मानसिक संतुलन खो बैठते है। कभी हर्ष में मदहोश होते है तो कभी शोक में पागल बन जाते हैं। अनियंत्रित कल्पनाओं की मृग मरीचिका में उनका मन अत्यन्त दीन अभावग्रस्त दरिद्र की तरह व्याकुल रहता है। कोई उनकी रुचि के विरुद्ध बात करदे तो क्रोध का वारापार नहीं रहता। इन्द्रियां उन्हें हर वक्त तरसाती रहती हैं, भस्मक रोग वाले की जठर ज्वाल के समान भोगों की लिप्सा बुझ नहीं पाती। नशे में चूर शराबी की तरह ‘‘और लाओ और लाओ’। और चाहिए, और चाहिए’’ की रट लगाये रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए कभी भी सुख शान्ति के एक कण का दर्शन होना भी दुर्लभ है। भले ही उनके पास लाख करोड़ की सम्पदा तथा वैभव के साधन भरे पूरे हों पर वे किसी न किसी अभाव के कारण दीन दरिद्र ही बने रहेंगे उन्हें अपना दुर्भाग्य ही हर घड़ी परिलक्षित होता रहेगा। अपनी मनोवांछाएं पूरी होने पर जो सुखी होने की आशा करता है वह मूर्ख न तो सुख को, न सुख के स्वरूप को न सुख के उद्गम को, जानता है और नहीं वह उसे प्राप्त ही कर सकता है।

गायत्री के ‘स्वः’ शब्द में मानव प्राणी को शिक्षा दी गई है कि मन को अपने में, अपने अन्दर स्थिर रखो। अपने भीतर दृढ़ रहो। घटनाओं और परिस्थितियों को जल तरंगें समझो उनमें क्रीड़ा कल्लोल का आनन्द लो। अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों का रसास्वादन करो, किन्तु उनके कारण अपने को उद्विग्न, अस्थिर, असंतुलित मत होने दो, जैसे सर्दी गर्मी की परस्पर विरोधी ऋतुओं को हम प्रसन्नता पूर्वक सहन करते हैं। उन ऋतुओं के दुष्प्रभावों से बचने के लिए वस्त्र, पंखा, अंगीठी, शर्बत, चाय आदि की प्रतिरोधात्मक व्यवस्था कर लेते हैं वैसे ही सुख-दुख के अवसरों पर भी उनकी उत्तेजना का शमन करने योग्य विवेक तथा कार्यक्रम की हमें व्यवस्था कर लेनी चाहिये। कमल सदा पानी में रहता हैं पर उसके पत्ते जल से ऊपर ही रहते हैं। उसमें डूबते नहीं। इसी प्रकार साक्षी द्रष्टा निर्लिप्त, अनासक्त एवं कर्मयोगी की विचारधारा अपना कर हर परिस्थिति को, हर चढ़ाव उतार को देखें और उसमें मिर्च तथा मिठाई के कडुए मीठे रसों का हंसते हंसते रसास्वादन करें।

गायत्री का “स्व” शब्द बताता है कि इन हर्ष-शोक की बाल क्रीड़ाओं में न उलझें रहकर हमें आत्म परायण होना चाहिए। ‘स्व’ को पहचानना चाहिए। आत्म चिन्तन, आत्म विश्वास, आत्म गौरव, आत्मनिष्ठ, आत्म साधन, आत्म उन्नति, आत्म निर्माण यह वह कार्य हैं जिनमें हमारी इच्छा शक्ति, कल्पना शक्ति एवं क्रिया शक्ति का उपयोग होना चाहिये। क्योंकि अन्दर का मूल केन्द्र, उद्गम स्त्रोत, आत्मा ही है। जिसने आत्मा के साथ रमण करना सीख लिया उसे स्वर्ग की अप्सराएं भी चुड़ैलों जैसी तुच्छ एवं कुरूप दिखाई देने लगती हैं। क्योंकि आत्मा ही अनन्त यौवन और अनन्त सौंदर्य है। अपनेपन की, आत्म भाव की, छाया पड़ते ही अपनी तुच्छ सी वस्तु, संतान, संपदा, देह, कितनी सुन्दर कितनी प्रिय मालूम पड़ने लगती है कि उसे छोड़ने को जी नहीं चाहता। जिसकी छाया पड़ने से जड़ वस्तुएं इतनी मनोरम बन जाती हैं तो उस आत्म की समग्र प्राप्ति में कितना सुख होगा, यह कल्पना से नहीं अनुभव से ही जाना जा सकता है। अनन्त वैभव का, ऐश्वर्य का, सुख शान्ति का रत्न भंडार अपने अन्दर है जिसने उस खजाने पर अपना अधिकार कर लिया उसके लिए चांदी तांबे के टुकड़े में कोई आकर्षण नहीं रह जाता। आत्म प्राप्ति का लाभ इतना बड़ा है कि उसकी तुलना संसार के किसी आनन्द से नहीं हो सकती। आत्मानन्द, ब्रह्मानन्द, परमानन्द का सुख गूंगे के गुड़ की तरह है संसार की कोई भी उपमा देकर मिठास को बताया नहीं जा सकता ।

आत्म स्थित मनुष्य का अन्तस्तल स्वस्थ होने से वह सदा प्रसन्न रहता है। उसके चेहरे पर प्रसन्नता नाचती रहती है चहरा सदा मुसकराता हुआ हंसता हुआ, खिलता हुआ दिखाई देता है। उसकी वाणी से मधु टपकता है और बोलने में फूल झड़ते हैं। स्नेह, आत्मीयता, नम्रता, सौजन्य एवं हित कामना का संमिश्रण होते रहने से उसकी वाणी बड़ी ही सरल एवं हृदय ग्राही हो जाती है।

स्वस्थ-आत्मा में स्थित-व्यक्ति बालकों की तरह, सरल छल प्रति ममता, आत्मीयता, दया एवं सहानुभूति होती है। वह किसी से नहीं कुढ़ता, न किसी का बुरा चाहता है। ईश्वर पर विश्वास होने से वह भविष्य के बारे में आशावादी और निर्भर रहता है। फलस्वरूप अप्रसन्नता उसके पास नहीं फटकती और आनन्द एवं उल्लास से उसका अन्तः करण भरा रहता है। यह आनन्दमयी स्थिति उसकी मुखाकृति एवं वाणी से हर घड़ी छलकती रहती है। गायत्री का ‘स्वः’ शब्द हमें ऐसी ही स्वस्थता की ओर ले जाता है।
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