परमार्थ के कार्य में न समय बाधक बनता है न ही साधनों का अभाव। कमी होती है तो केवल संकल्पों की। इस प्रतिपादन को भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी विनायक दामोदर सावरकर ने सिद्ध कर दिखाया।
साम्राज्यवादी अंग्रेजों के घर इंग्लैण्ड की राजधानी में भारतीय युवकों की क्रान्तिकारी गतिविधियों का सूत्र संचालन करने और अंग्रेजों के नाकों में दम करने वाले सावरकर को आजन्म काले पानी की सजा दी गई।
सावरकर ने जेल में रहकर भी हिन्दी का प्रचार करने का निश्चय किया। उन्होंने अण्डमान जेल स्थित बंदियों को साक्षर बनाने व हिन्दी भाषियों को हिन्दी सिखाने का कार्य आरम्भ कर दिया लेकिन इसके लिए प्रारम्भ में कोई तैयार ही न था। कोई कहता “भैया जाने कब यहाँ से मुक्ति मिलेगी, तब तक तो हम मर-खप ही जायेंगे।” कोई कहता “अब तक तो पंजाबी बोलता रहा हूँ अब हिन्दी पढ़कर क्या तीर मार लूँगा।” कोई बुढ़ापे का रोना रोता। पर इन सबके मन में उन्होंने अपनी उक्तियों व आशावाद के कारण उत्साह उत्पन्न किया।
सावरकर की कर्मनिष्ठा और उत्साह ने मरे हुए दिलों में आशा की संजीवनी की घुट्टी पिलाकर प्राण-संचार किए और उनका शिक्षणक्रम तेजी से चलने लगा।
इनकी इस सफलता पर जेल के अंग्रेज अधिकारी क्षुब्ध हुए। हिन्दुस्तानी रूपी यह दैत्य जो अभी सोया हुआ है वह जाग पड़ेगा तो हमारी मुश्किल हो जायेगी। यह समझकर फूट डालो और राज करों की नीति के अनुसार काम करना आरम्भ किया। लेकिन सावरकर की युक्ति युक्त बातें लोगों के गले उतर चुकीं थी अतः उनका प्रयास सफल हुआ और दस वर्ष में उन्होंने नब्बे प्रतिशत निरक्षर बन्दियों को साक्षर बना दिया। जिनमें कुछ कर गुजरने की भावना होती है, मार्ग में हजार बाधाएँ आने पर भी उनके क्रिया-कलाप नहीं रुकते।