उस समय बौद्धों के धर्मग्रन्थ चीनी लिपि में ही प्राप्त थे। तेत्सुजेन नामक एक जापानी व्यक्ति की इच्छा से उन्हें जापानी लिपि में प्रकाशित कराने की हुई। पर इस कार्य के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता थी। बड़ी लगन से चन्दा जमा किया। 10 वर्षों के निरन्तर परिश्रम के बाद इतना धन जमा हुआ जिससे प्रकाशन किया जा सके। पर तभी यूजी नदी में बाढ़ आ गयी जिससे लाखों व्यक्ति तबाह हो गये। तेज्सुजेन ने अपनी समस्त धनराशि बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए दे दी।
इसके बाद पुनः दूने उत्साह से तेज्सुजेन चन्दा इकट्ठा करने में जुट गया। इसके बाद भी पर्याप्त धन जमा करने में 10 वर्ष लगे। अबकी बार प्रकाशन कार्य प्रारम्भ होने जा ही रहा था कि हैजे की बीमारी फैल गयी और लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। जन-समूह की स्थिति की भयावहता को समझते हुए तेज्सुजेन ने इस बार भी सारा धन दान में दे दिया।
इसके बाद तेज्सुजेन निरन्तर बीस वर्ष तक परिश्रम करता रहा। तब कहीं जाकर इतना धन जमा हो पाया कि धर्मग्रन्थ जापानी में प्रकाशित हो पाये।
एक मित्र ने उससे पूछा- ‘जो कार्य दस वर्ष में पूरा हो जाता उसके लिये तुमने 40 वर्ष क्यों व्यय किये? तेज्सुजेन ने उत्तर दिया- ‘‘धर्मग्रन्थों का प्रकाशन तो कुछ वर्ष बाद भी हो गया। कोई विशेष हानि नहीं हुई। परन्तु पीड़ित मानवता की सेवा करने का वह मौका बाद में नहीं मिल सकता था। दीन-दुःखी मनुष्यों की सेवा करना सर्वप्रथम है, अन्य कार्य गौण हैं।’’