शिव का तृतीय नेत्रोन्मीलन और काम-कौतुक की समाप्ति

October 1967

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एक बार उद्धत ‘काम’ देवता को ऊत सूझी। लोग शान्ति से अपने दिन गुजार रहे थे। परिश्रम से कमाते, स्नेह-सहयोग से रहते, हंसी-खुशी के साथ संतोष का जीवन बिताते थे। काम देवता से यह सहन न हो सका। उसने लोगों को परेशान करने की ठानी और अपनी माया चारों ओर फैला दी।

काम देवता लोगों के मनों में घुस गया और हर एक में असीम कामनाएं भड़का दीं। लोग अपनी थोड़ी सी आवश्यकताएं थोड़े श्रम से पूरा कर लिया करते थे और शेष समय लोक मंगल में लगाते थे, इससे सभी को प्रसन्नता थी और सभी को शान्ति। पर जब कामनाएं भड़की तो लोग उद्विग्न हो उठे। किसी को धन संग्रह की, तो किसी को वासनाओं की, किसी को पदवी पाने की इच्छा भड़की। पहले यह ललक धीमी थी, पर जब सभी की प्रवृत्तियाँ उस ओर बह निकलीं तो एक दूसरे में प्रतिद्वन्द्विता ठन गई। सभी अपने साथियों से आगे बढ़ जाने को आतुर हो उठे। कौन ज्यादा धन जमा करे कौन ज्यादा विलासिता का आनन्द लूटे, कौन कितना अपनी अहंता का आतंक दूसरों पर प्रदर्शित करे, इस प्रतिस्पर्धा में ऐसी भगदड़ मची कि लोगों ने औचित्य का रास्ता छोड़ दिया और जैसे बने वैसे अधिकार, सफलता प्राप्त करने के लिये आतुर हो उठे।

इस प्रतिद्वन्द्विता में परस्पर संघर्ष छिड़ा। मन उत्तेजित हुआ, ईर्ष्या भड़की। द्वेष बढ़ा। उत्पीड़न और शोषण की घटनाएं बढ़ी तो प्रतिरोध सामने आया और फिर प्रतिशोध की आग धधकने लगी। इससे विश्वासी, अविश्वासी, मित्र, अमित्र और सज्जन, दंभी बन गये। बुद्धिमानों की बुद्धि कबूतर फंसाने के जाल बुनने में लग गई। पीड़ितों के क्रन्दन और उत्पीड़कों के अट्टहास से दिशाएं गूँजने लगीं उनकी प्रतिध्वनि ने आतंक फैला दिया। हर कोई भयभीत हो उठा, हर कोई सशंकित। मानवीय सम्मिलित सहयोग से जो आनन्द उल्लास मिलता था, प्रगति का जो पथ-प्रशस्त होता था उसके सारे द्वार अवरुद्ध हो गये। हर कोई अपनी चाल चलने और अपनी गोट हरी करने की शतरंज में इतना निमग्न हुआ कि और सब आवश्यक बातें उपेक्षा एवं विस्मृति के गर्त में गिरकर विलीन हो गई। जीवन निरानन्द ही नहीं भार भूत भी हो गया।

काम देवता को इतने से ही सन्तोष न हुआ। उसने इसी दुर्दशा में पड़े रहने और उससे मुक्ति होने के लिये आतुर न हो सकने की भी माया रच दी। विलासिता के एक से बढ़कर एक साधन प्रसाधन उत्पन्न कर दिये। इन्द्रियों भोगों को भड़काने वाली इतनी सामग्री रच दी कि क्या मस्तिष्क और क्या शरीर सर्वत्र उसी की माँग और पुकार बढ़ने लगी। बुद्धि ने विलासिता को जीवन का सर्वोपरि आनन्द माना और शरीर ने उसी के प्रसाधन जुटाने में संलग्न रहने की स्वीकृति दे दी। सजावट, शोभा, शृंगार, शान, वासना, विलास, क्रीड़ा-कौतुक का आकर्षण इतना बढ़ा कि कामना पीड़ित लोग इन प्रसाधनों पर अकाल पीड़ित विभुक्षितों की तरह टूट पड़े। लगने लगा अब विलासिता और कामनाओं की पूर्ति ही मानव जीवन का लक्ष्य रह गई है। वासना और तृष्णा की पूर्ति के अतिरिक्त और कोई दिशा ही मनुष्य के पास शेष न रही।

कामनाओं और वासनाओं द्वारा विविध बन्धनों में बंधते हुए मानव प्राणी की आत्मा इस दुर्दशा में पड़ी छटपटाने लगी। भगवान की पुनीत कृति और विश्व वसुधा अपने गर्व गौरव से पद दलित होकर जिस निकृष्ट और निर्लज्ज स्थिति पर पहुँचा दी गई उससे उसका मस्तक लज्जा से नत हो गया। मनुष्यता ने एक लम्बी उसाँस भर कर कहा- हाय, क्या मुझे इसी दयनीय स्थिति में पहुँचाने के लिए विधाता ने बनाया था।

काम देवता अपने इस कौतुक पर बड़ा प्रसन्न हो रहा था। उस ने सभी को अपने बंधन में बाँध लिया। सब को जीत लिया। अब किसे जीता जाय? सोचा कि इस दुनिया का एक नियन्त्रक भी है अब उसी पर चढ़ाई करनी चाहिए। सो ही उसने किया भी। भगवान का स्वरूप न्याय और व्यवस्था की स्थिति बनाये रखने के लिये संयम और तपश्चर्या की प्रेरणा करने वाला अनादि काल से चला आता था। काम देवता ने उसी को बदलने की माया रच दी।

भगवान का स्वरूप बदला, भक्तों ने उनकी भी दुर्दशा कर डाली जैसी संसार के लोगों की थी। उन्हें वासना और विलास का प्रतीक प्रतिनिधि बना दिया। शृंगार, रास, हास, विलास, भोग, उपभोग के माध्यम ही भगवान की पूजा कहलाने लगी। तप और त्याग, संयम और सेवा जो ईश्वर भक्तों के प्रमुख पूजा विधान थे, वे न जाने कहाँ तिरोहित हो गये और भगवान के चरित्र की चर्चा ऐसी होने लगी मानो वे काम पीड़ित एक साधारण विलासी, धन वैभव में प्रतिष्ठा अनुभव करने वाले और प्रशंसा का पुल बाँधने वालों से प्रसन्न रहने वाले हैं। जो उनकी दुर्बलताओं का समर्थन करे उसकी पाप दंड से छूट और कुपात्र होते हुए भी सत्पात्रों को मिलने वाले लाभ देने वाले अन्यायी के रूप में चित्रित किया जाने लगा। भक्ति का यही स्वरूप प्रचलित हो गया तो भगवान की आत्मा भी काँप उठी। हाय मुझ भगवान की इस दुष्ट काम देवता ने क्या दुर्गति कर दी!

कराह दोनों ही रहे थे, आत्मा भी, परमात्मा भी। मानव भी और विश्व-मानव भी। काम देवता की माया भरा जाल-जंजाल जितना आकर्षक था उतना ही दारुण भी। उसे पकड़े रहते बनता था और न छोड़ते। स्थिति असह्य हो उठी तो धरती आसमान की आत्मायें मिलकर भगवान शिव के पास पहुँची और उनसे विनय करते हुए बोली- महाकाल! विश्व की यह दयनीय दुर्दशा अब असह्य है। धरती पर विलासिता ही जीवित रहे और सभी उसकी विशेषतायें, सभी सुन्दरतायें समाप्त हो जाय यह उचित नहीं। सृष्टि का मुकुटमणि-परमेश्वर का उत्तराधिकारी मनुष्य केवल तृष्णाओं की पूर्ति के लिए अपने पुण्य अवतरण को कलंकित करता रहे यह अवांछनीय है। इस असह्य स्थिति को आप ही बदल सकते हैं, सो आप ही बदलें।

भगवान शंकर ने ध्यानमग्न होकर देखा तो स्थिति को वैसा ही पाया जैसा कि बताया जा रहा है। उन्होंने परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव किया और ऐसी ही परिस्थिति में बार-बार दुहराई जाने वाली अपनी प्रत्यावर्तन पद्धति को पुनः क्रियान्वित करने का निश्चय किया।

मनुष्य और भगवान दोनों को ही कलंकित करने वाले काम देवता के दुष्ट कौतुक पर भगवान शंकर बहुत कुपित हो उठे, उसे उचित दंड देने तथा इस माया मरीचिका को निरस्त करने के लिए त्रिशूल उठाया। भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला। उसके खुलते ही एक भयंकर दावानल प्रकट हुई, जिससे वह सारा माया कलेवर देखते-देखते घास-फूँस की तरह जल-वल कर भस्म हो गया, साथ ही काम देवता का कलेवर भी नष्ट हो गया। संसार को शान्ति मिली और मनुष्य अपने और भगवान अपने वास्तविक स्वरूप में आ गये। जब धरती माता और महिमामयी मानवता का चिर गौरव पुनः प्रतिष्ठापित हो गया तो देवता दुंदुभी बजाने लगे और दशों-दिशाओं में महाकाल का जय-जयकार होने लगा।

अतीत काल का यह कथानक आज फिर अपनी पुनरावृत्ति कर रहा है। काम देवता ने मानवीय चेतना में असंख्य प्रकार की कामनायें भड़का दी हैं। विलासिता के इतने अधिक आकर्षण विनिर्मित हो गये हैं कि उनका आकर्षण छोड़ते नहीं बनता। स्वार्थ बढ़ रहा है, पाप प्रचंड हो रहा है और नरक की ज्वालायें हर क्षेत्र में धधकती चली जा रही हैं। स्थिति फिर असह्य हो उठी हम सर्वनाश के कगार पर खड़े हैं। धरती और आकाश की आत्मायें सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने में संलग्न हैं। सो लगता है कि महाकाल अब तीसरा नेत्र खोलने ही वाले हैं। मस्तिष्क के महा बिन्दु में अवस्थित यह तीसरा नेत्र और कुछ नहीं व्यापक विवेक ही है। उसी के उन्मीलन से अज्ञान का अवसान होता है और तभी असंख्य समस्याओं के समाधान का मार्ग निकलता है। वर्तमान ‘विचार क्रान्ति’ महाकाल का तीसरा नेत्र ही है जो प्रचंड दावानल का रूप धारण कर अज्ञान युग की सारी विडम्बनाओं को भस्मसात कर स्वस्थ और स्वच्छ दृष्टिकोण प्रदान करेगी। इन उपलब्धियों के बाद विश्व शान्ति के मार्ग में कोई कठिनाई शेष न रह जायगी।


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