आज की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता और लोक-सेवा

October 1967

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आँधी, तूफान आने के समय जो पेड़ अकड़े खड़े रहते हैं वे अक्सर उखड़ जाते हैं किन्तु जो नम जाते हैं- झुक जाते हैं- वे आसानी से बच जाते हैं। बेंत जैसे पौधे और गिलोय जैसी बेलें किसी भी आँधी तूफान में अपना अस्तित्व इसलिये बचाये रखने में समर्थ होते हैं कि वे समय की गति को समझ कर अपनी रीति-नीति बदल देते हैं। आँधी का प्रवाह जिधर झुकने के लिये उन्हें विवश करता है उधर झुक जाते हैं।

बेशक आदर्शों को छोड़ने के सम्बन्ध में कोई समझौता नहीं हो सकता। पाप के साथ पटरी नहीं बिठाई जा सकती। पर इतना तो हो ही सकता है कि जहाँ अपनी भूल हो वहाँ दुराग्रह छोड़ दिया जाय। इतनी समझदारी तो बरतनी ही चाहिये कि जब तक अनीति का दंड सिर पर आ गरजे तब तक पैर रोक कर चलने और हाथ रोक कर करने की बात स्वीकारी जाय। चोर भी जब पकड़ा जाता है और अदालत के सामने लाया जाता है तो सज्जनता और दीनता का इजहार करता है ताकि कठोर दंड से थोड़ा बहुत बचाव सम्भव हो सके। महाकाल का कठोर दंड जब कि सिर पर आ पहुँचा है, हमें चाहिये कि अपनी गतिविधियाँ बदल दें। उस दिशा में झुक जायें जिधर अगले ही दिनों झुकने के लिये सर्व-साधारण को विवश होना पड़ेगा। समय से पूर्व सम्भल जाना बुद्धिमानी है। जो सूर्योदय से पूर्व उठ बैठते हैं वे नफे में रहते हैं।

अब तक जो हो चुका सो हो चुका पर अब अविलम्ब हमें सुधारना और बदलना चाहिये, यह निष्कर्ष इस उद्बोधन का है जो भविष्य की सम्भावनाओं की चर्चाओं के साथ प्रस्तुत किया गया है। महाकाल समय पलट देने के लिए समुद्यत हैं। यह गंदा और फूहड़ जमाना निकम्मा और नाकारा सिद्ध हो चुका है आज की रीति-नीति असफल सिद्ध हो चुकी है। जिस दिशा में हम चल रहे हैं वह दिन-दिन अधिकाधिक संकट उत्पन्न करती चली आई है और अब सर्वनाश की सम्भावना सामने आ खड़ी हुई है। ऐसी दशा में वापिस लौटने और दिशा बदलने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। दुराग्रहपूर्वक यही रीति-नीति जारी रखी गई तो मानवीय अस्तित्व को सुरक्षित रख सकना भी सम्भव न रह जायगा।

गर्मी आने पर भी जो जाड़े के गरम कपड़े धारण किये रहने का आग्रह करता है उसे नासमझी ही कहा जायगा। जब तक पोल चल सकती थी चल गई पर अब जब कि मनुष्य जाति के भावनात्मक पुनर्निर्माण का सारा सरंजाम तैयार खड़ा है तब पुराने ढर्रे पर अड़े रहने से कोई लाभ नहीं। नये युग में संकीर्ण स्वार्थपरता का लक्ष्य लेकर जीना और तृष्णा, वासना के गोरख धंधों में उलझे रहना शायद ही किसी अत्यन्त घृणित व्यक्ति के लिये संभव हो। आज तो यही लोक रीति है और सब इसी चाल-ढाल में मदमस्त हैं, पर कल तो यह सब आमूलचूल बदलने वाला है। दौलत समेटने, अहंकार को पोसने और विलासिता के ठाठ-बाठ जमाने की आज की लोक नीति अगले कल एक अजायब घर की चीज बनने जा रही है। तब कोई इस ढर्रे पर न जियेगा। हर व्यक्ति अपने अन्तरंग जीवन में उत्कृष्टता और बाह्य जीवन में आदर्शवादिता को प्रश्रय देगा। इस प्रतिस्पर्धा में जो जितना आगे बढ़ जायेगा। संकीर्ण स्वार्थों की गंदगी में लिपटे हुए लोग तो अस्पर्शों जैसे घृणित बने खड़े होंगे। तब राई, रत्ती दान पुण्य या कुछ कर्मकाण्ड पूरे करके कोई स्वर्ग मुक्ति के सपने न देखेगा वरन् जीवन को सांगोपांग रूप से उत्कृष्ट बनाने की जीवन साधना द्वारा ही आत्म कल्याण की मंजिल पार किया करेंगे।

उस नवयुग के आगमन की संभावना स्पष्ट है। आगामी विश्व व्यापी उथल-पुथल- समग्र क्राँति- उसी की पूर्व सूचना प्रसव पीड़ा है। अच्छा हो ईश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा मिलाकर कर हम चलें। आँधी तूफान से टकराने की अपेक्षा समय रहते अपने को झुका लें। जो अवश्यम्भावी है, जो उचित है उसके अनुकूल चलना ही ठीक है। ‘अखण्ड ज्योति’ परिवार में यही रीति-नीति अपनाने का अभ्यास डालने के लिये शत सूत्री युग निर्माण योजना का आविर्भाव हुआ है। उस आचार संहिता को अपना कर अपने भावना स्तर और क्रिया कलाप को उस प्रकार का छोर दिया जा सकता है जो नव युग में हर किसी को शिरोधार्य-स्वीकार करना पड़ेगा। परमार्थ में रुचि बढ़े, लोक मंगल में कुछ श्रम, समय लगे तो धीरे-धीरे उस प्रकार का अभ्यास हो जायगा, जो नव युग के अनुरूप, अनुकूल है। एक बारगी बदलना कठिन पड़ेगा। इसलिये शुभारम्भ आज से ही करना उपयुक्त है।

स्वयं तो हम बदलें ही, दूसरे उन सब को भी बदलने की प्रेरणा दें, जिनको वस्तुतः प्यार करते हैं और हित चाहते हैं। स्त्री, पुत्र, भाई, भतीजे, कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र, परिजन सभी को इस प्रकार की प्रेरणा करें कि सभी अपनी रीति-नीति बदलें सुधारें। यह कर्त्तव्य हमें इन दिनों अधिक तत्परतापूर्वक पालन करना चाहिये। क्योंकि महाकाल की भावी दंड व्यवस्था अन्धाधुन्ध नहीं सप्रयोजन हैं। यदि लोग बदल जाते हैं, सुधर जाते हैं तो उस क्रूर कर्म की विशेष आवश्यकता न रह जायगी। हमारा परिवर्तन भावी आपत्तियों को टाल सकने या घटा सकने में समर्थ हो सकता है। विश्व मानव की आज सबसे बड़ी सेवा यही हो सकती है कि हम जन साधारण को दुर्बुद्धि त्यागने और सत्मार्ग पर चलने के लिये रजामन्द करने का प्रयत्न करें। युग निर्माण योजना एक ऐसा ही व्यापक कार्यक्रम है। महाकाल की इच्छा भी पूरी हो जाय और हम काल दंड के प्रहारों से बच भी जायं इसका यदि कोई उपाय हो सकता हैं तो वह- युग निर्माण योजना के क्रिया कलापों के माध्यम से जन मानस में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत कर देना ही होगा। यही आज का सबसे बड़ा परमार्थ है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118