उद्धत दक्ष की मूर्खता और सती की आत्महत्या

October 1967

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राजा दक्ष चतुर बहुत थे, उनकी चतुरता इतनी प्रसिद्ध हो गई थी कि लोग उनके इस गुण के कारण ही असली नाम भूल कर ‘दक्ष’ अर्थात् ‘चतुर’ नाम से पुकारने लगे। तप त्याग के बलबूते नहीं, वे चतुरता के द्वारा ही ऊंचे पद पर पहुँचे थे। चतुरता परमार्थ प्रयोजन में लगे तो ही श्रेयस्कर है अन्यथा वह अनुपयुक्त दिशा में लगने पर संसार के लिए एक संकट बन जाती है। इससे कुकर्मी चतुरों की तुलना में भले-भोले मूर्खों को मुक्त कण्ठ से सराहा जाता हैं। जड़ भरत व्यवहार में बुद्धू थे, फिर भी उनका अन्तःकरण निर्मल था, उद्देश्य ऊंचा था अतएव उन्हें महान ऋषियों की गणना में गिना जाता है। दक्ष को प्रजापति का- शासक का उत्तरदायित्व मिल गया था, पर वे उस योग्य थे नहीं।

दक्ष ने एक यज्ञानुष्ठान किया उसमें उनकी पुत्री सती बिना बुलाये भी आई और उनने अपने पिता को वह करने के लिये- उस मार्ग पर चलने के लिये कहा जो उनके लिये शोभनीय था। दक्ष न माने, अपने ही रास्ते चलते रहे। सती को मार्मिक आघात लगा और उसने आत्महत्या कर ली।

मनुष्य में चातुर्य बहुत है। इसी से तो वह सृष्टि का मुकुट मणि बना हुआ है। इस चातुर्य का उपयोग जब वह संकीर्ण एवं घृणित स्वार्थों की पूर्ति में निरंकुश होकर करता है तो उसका निज का भी और समस्त समाज का भी घोर अहित होने लगता है। आत्मा उसे रोकती है, मनुष्यता की सीमा में रहने की पुकार करती है, पर जब अहंकारी जीव नहीं मानता अपनी दक्षता की धुन में किसी की नहीं सुनता, तो उद्धत आचरण से क्षुब्ध आत्मा एक प्रकार से नैतिक आत्महत्या कर बैठती है। सामाजिक दृष्टि से ऐसा उद्धत आचरण मनुष्यता को आत्म हत्या करने के लिए विवश करता है। दक्ष के उद्धत आचरण से क्षुब्ध उसकी पुत्री सती ने आत्म-हत्या कर ली। पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता हैं।

सती, दक्ष की पुत्री थी पर विवाही भगवान शंकर को थी। सती अर्थात् सत प्रवृत्ति, अर्थात्- नैतिकता-प्रबुद्धता-विवेकशीलता-मनुष्यता। कल्याणकर्त्ता भगवान शंकर उसे प्राणप्रिय रखते थे। उसी के साथ उनका आनन्द जुड़ा हुआ था। सती शिव की अर्धांगिनी बनी हुई थी। अर्ध नारी नटेश्वर- शिव के शरीर का आधा भाग नारी और आधा नर जैसा चित्रित किया जाता है। इसका अर्थ है कि ‘सती’ (सत्प्रवृत्ति) उनके अस्तित्व में इतनी अधिक घुली हुई है कि दोनों की सत्ता और महत्ता एक ही मानी समझी जा सकती है। सत् है वही शिव है। जो सत्प्रवृत्ति है वही भगवती है। सत्य ही नारायण है। मनुष्यता को भगवान का प्रिय प्रत्यक्ष रूप कहा जाय तो यह उचित ही है। सती और शिव का जोड़ा ऐसा ही था।

भगवान शिव को जब यह पता चला कि दक्ष की उद्धतता इस सीमा तक बढ़ गई है कि उनकी प्राणप्रिया सती को आत्महत्या करनी पड़ी है तो उनके क्षोभ का पारावार न रहा। वे सती के बिना रह नहीं सकते थे। सत्प्रवृत्ति को, मनुष्यता को, जिस चतुरता के- दक्षता के कारण आत्महत्या करने को विवश होना पड़े उसके प्रति समर्थ शंकर को कुपित होना ही चाहिये। शिवजी ने प्रतिनिधि स्वरूप वीरभद्र को काली, भैरव, नन्दी आदि गणों के साथ दक्ष की माया नगरी का विध्वंस करने का आदेश दिया। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उन गणों ने दक्ष और उसके स्वार्थी- पक्षपातियों का कचूमर निकाल कर महानाश का दृश्य उपस्थित कर दिया। दक्ष की नगरी वीरभद्र ने तोड़-फोड़ कर रख दी। भैरव ने प्रजापति के समर्थक सहयोगियों की बड़ी मिट्टी खराब की। नन्दी ने शासन शृंखला के सूत्रों को तोड़-फोड़ कर फेंक दिया। दक्ष की चतुरता धूल में मिल गई। उसकी चिर संचित कमाई देखते-देखते चूर्ण विचूर्ण हो गई। शंकर ने दक्ष को उसकी कुमार्गगामिता का छटावेश हटाकर वस्तु स्थिति का प्रकटीकरण करने की दृष्टि से इतना दंड देना आवश्यक समझा कि उसका मानवी सिर काटकर वहाँ बकरे का चिपका दिया। दक्ष का, चतुरता का वास्तविक स्वरूप यही था। वह हर घड़ी मैं-मैं बखानता था और वाचालता से प्रभावित कर लोगों को भुलावे में डालता था। यही दोनों गुण बकरे में होते हैं। वह हर घड़ी मैं-मैं, की रट लगाता हैं और अनर्गल शब्दोच्चारण की आदत से अपनी ओर दूसरों का ध्यान आकर्षित करता है।

आज भी ‘दक्षों’ ने यही कर रखा है। ये तथाकथित चतुर लोग- समाज के मूर्धन्य बने बैठे व्यक्ति चतुरता तिकड़म को ही अपना आधार बनाये हुए हैं दूसरों के सहारे वे छल-बल से आगे बढ़े-ऊंचे उठे हैं। तप और त्याग का नाम भी नहीं, ऐसे मूर्धन्य लोगों का बाहुल्य व्यक्ति और समाज की आत्मा को कुचल मसल रहा है। इससे मनुष्यता आत्महत्या जैसी स्थिति में जा पहुँचती है। यह स्थिति महाकाल को असह्य है। सदाचरण में ही भगवान के संसार की शोभा है। वे हरी-भरी-फली मानवता में ही मोद मानते हैं। यह सती ही उसकी सहचरी है। इसे जो आघात पहुँचाता है वही भगवान का सबसे बड़ा शत्रु है। स्थिति जब असह्य हो जाती है तब महाकाल को अपना ध्वंस शस्त्र प्रयुक्त करना पड़ता है। दक्ष की सारी शासन सत्ता विधि व्यवस्था नन्दी गणों ने देखते-देखते विध्वंस के गर्त में फेंक दी थी। आज का मानवीय चातुर्य- जो सुविधा साधनों की अभिवृद्धि के अहंकार में- अपनी वास्तविक राह छोड़ बैठा है, उसी दुर्गति का अधिकारी बनेगा जैसा कि दक्ष का सारा परिवार बना था।

मृत सती की लाश को कंधों पर रख कर रुद्र उन्मत्तों की तरह विचरण करने लगे। उनके शोक और क्षोभ का पारावार न था। ऐसा विकराल और रुद्र रूप देख दसों दिशाएं काँपने लगीं। सती के- सत्प्रवृत्ति के न रहने की स्थिति उन्हें असह्य थी। आपे से बाहर होकर वे हुँकारें भरने लगे। उनके श्वाँस-प्रश्वाँस से अग्नि की भयानक लपटें निकलने लगीं। उनचासों पवन, आँधी, तूफान बन कर स्थिति को प्रलय में बदलने का आयोजन करने लगे।

देवता काँपे। स्थिति विषम हो गई। विचार हुआ। सृष्टि के पालक और पोषक विष्णु आगे आये। उन्होंने चक्र सुदर्शन से सती के मृतक शरीर को ग्यारह हिस्सों में काट दिया। वे टुकड़े दूर-दूर फेंके गये। सती मर तो सकती नहीं, वे अमर हैं। आत्महत्या की थी पर उनकी सत्ता नष्ट कैसे होती। यह ग्यारह टुकड़े जहाँ भी गिरे वहाँ एक शक्ति पीठ की स्थापना हुई। संसार में ग्यारह शक्ति पीठ प्रसिद्ध हैं। हर जगह एक नई सती उत्पन्न हुई। शिव अपनी सहधर्मिणी को- ग्यारह गुनी विकसित पाकर संतुष्ट हो गये और ग्यारह रुद्रों के रूप में पुनः आनन्दपूर्वक अपने नियत-नियमित कार्य में लग गये। 1 और 1 के अंक समीप आ जाने से 11 बन जाते है। शिव और सती का-परमात्मा और सत्प्रवृत्ति का सुयोग जब कभी भी-जहाँ कहीं भी-होगा वहीं एक और एक मिल कर ग्यारह होने की उक्ति चरितार्थ होती है। शिव सती का सौम्य समन्वय एकादश शक्ति पीठ और एकादश रुद्रों का आनन्द उत्पन्न करता हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

पौराणिक गाथा की पुनरावृत्ति उसी घटना-क्रम के साथ फिर सामने आ रही है। दक्षों ने हर क्षेत्र के नेतृत्व पर अपना आधिपत्य किया हुआ है। समाज के मूर्धन्य बने व्यक्ति न अपना व्यक्तित्व उत्कृष्ट बना रहे हैं और न आदर्शवादिता की प्रवृत्ति बढ़ने दे रहे हैं। जन साधारण बड़ों की देखा-देखी हेय स्तर पर अधःपतित होता चला जा रहा है। मनुष्यता मर रही है। सत्प्रवृत्तियां मूर्छित पड़ी हैं। लगता है सती ने आत्म-हत्या कर ली है। यह स्थिति महाकाल को असह्य है, उनकी सारी प्रसन्नता सती के साथ-सत्प्रवृत्ति के साथ जुड़ी हुई है। इस आत्म-हत्या के लिये जो भी दोषी होंगे उन्हें रास्ते पर लाने के लिये कड़ा पाठ पढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है तो रुद्र उसकी व्यवस्था करना भी जानते हैं। उनके भैरव, वीरभद्र और नन्दी गण उथल-पुथल और तोड़-फोड़ की कला में प्रवीण हैं। दक्ष का अहंकार कैसे चूर-चूर किया जाता है, इसे वे जानते हैं। सम्भवतः अशान्ति से शान्ति उत्पन्न करने का प्रकरण फिर दुहराया जाय। महायुद्ध-गृहयुद्ध, प्रकृति प्रकोप जैसे वीरभद्र सम्भवतः मनुष्य की कुमार्ग पर जा रही दक्षता को पुनः पीछे लौटने और रास्ते पर लगने के लिये विवश करें। सम्भव है आज जिस अनैतिक चतुरता को सर्वत्र सराहा जाता है कल उसी को बकरे के मुँह वाली बकवासी-अहंकारी-बताकर तिरस्कृत और बहिष्कृत किया जाय।

आज अनैतिक चतुरता ने समस्त समाज को अस्त-व्यस्त और त्रस्त कर दिया है जो हरकतें न्याय-नीति की दृष्टि से स्पष्टतः घृणित और निन्दनीय हैं, वे ही खुले आम दुहराई जा रही हैं और जनता तथा सरकार दोनों उसका निराकरण करने में अपने को असमर्थ पा रहे है। मालूम होता है इस उच्छृंखलता को मिटाने के लिये दैवी शक्ति को ही कोई योजना करनी पड़ेगी।

महाकाल का विक्षोभ एक ही तरह शान्त हुआ था-एक ही तरह शान्त हो सकता है, उनकी प्राणप्रिय सती को पुनः पुनर्जीवित किया जाय। सती के शव से एकादश सतियाँ प्रादुर्भूत हुई थी, ग्यारह शक्ति पीठ बने थे। हम मानवता के उन्नायक अगणित शक्ति केन्द्र ऐसे स्थापित करें जो भगवान शिव के संसार को सुरम्य, सुविकसित और सुसंस्कृत बनाये रखने में समर्थ हो सकें। रुद्र कोप से बचने का यदि कोई उपाय हो सकता है-यदि कभी कोई समाधान होगा तो वह उसी स्तर का होगा जैसा कि उपरोक्त पौराणिक उपाख्यान के अनुसार अतीत काल में हो चुका है।


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