गायत्री उपासना के आध्यात्मिक अनुभव

October 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चरित्र में भारी परिवर्तन (श्री चिरंजीलाल—ऐरिनपुरा रोड)

मेरी छः माह की उम्र में ही मेरे पूज्य पिता जी का स्वर्गवास हो गया। जब मैं आठ वर्ष का हुआ तो मेरे ताऊजी ने मुझे स्कूल में भर्ती करा दिया। कुसंगति अथवा प्रारब्ध वश मेरा मन पढ़ने में नहीं लगा। ताऊजी ने बहुत प्रयत्न किये पर सब विफल रहे। फिर भी उनके प्रेमपूर्वक कठिन प्रयत्न से मैं पाँच कक्षा हिन्दी तक ही पढ़ सका। कुबुद्धि जाग्रत हुई और मैं घर छोड़ कर भाग गया। इस प्रकार दो तीन बार घर आया और फिर भाग गया। इधर−उधर भटकता फिरा, कई बुरे व्यसन भी लग गये। मेरा जीवन यों ही सब बरबाद हो रहा था। ताऊ जी मेरे कारनामों से बहुत दुखी थे और उन्होंने प्रयत्न किया कि मैं कोई काम ही सीख लूँ, परन्तु मैं तो ठेढ व्यक्ति ठहरा। पन्द्रह वर्ष की अवस्था में मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हो गया। हमारे ब्राह्मण कुल के अनुसार नौ वर्ष की अवस्था में ही यज्ञोपवीत हो जाना चाहिये था। यज्ञोपवीत संस्कार के समय मेरे मामा जी ने पवित्र गायत्री मन्त्र की दीक्षा दी थी। मैं उस समय गायत्री मन्त्र की व्याख्या, मंत्र का महत्त्व, मंत्र की शक्ति व जप विधि आदि किसी से परिचित नहीं था। मेरे मामा जी ने इतना अवश्य कहा था कि अब यज्ञोपवीत हो जाने पर कम से कम तीन माला मुझे नित्य जपना चाहिये पर में मूढ़ ऐसा करने में असफल रहा। बिना किसी नियम के एक दो माला कभी कभी जप लेता था, क्योंकि मामा जी ने कहा था कि गायत्री मंत्र ही सबसे बड़ा माना गया है।

जोधपुर में मैं ताऊजी के साथ जिस मकान में रहता था, उसके मालिक जवाई बाँध ऐरिनपुरा रोड पर, कार्य करते थे। माता गायत्री की कृपा हुई। मकान मालिक का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हुआ और उनके प्रयत्न से मुझे राजकीय मोटर पर 35) मासिक की नौकरी मिल गई। कुछ दिन बाद मेरी माता जी भी मेरे पास आ गई। दैवयोग वे बीमार पड़ गई, खर्च बढ़ गया और मैं कर्जदार बन गया।

भाग्य का उदय, समय का परिवर्तन, मुझे एक पुरानी “अखण्ड ज्योति” पत्रिका कहीं से प्राप्त हो गई। मैंने उसे प्रेम पूर्वक आद्योपान्त पढ़ा। मैंने परमपूज्य आचार्य जी को अपनी सारी जीवन कथा लिखी और उन्होंने गायत्री उपासना का आदेश दिया। मैंने विशेष रूप से साधना आरम्भ कर दी। इसके फल स्वरूप मैंने माता जी की सेवा करना व पूनम का व्रत भी गायत्री उपासना के साथ साथ आरम्भ कर दिया। कुछ ही समय बाद मुझे 60) मासिक वेतन पर पेंटर की जगह मिल गई। दो माह बाद राजकीय पदाधिकारियों द्वारा ट्रेसर के पद पर नियुक्त कर दिया गया और वेतन में सन्तोषजनक वृद्धि हुई अब वेतन से हमारा खर्च आराम से चलने लगा। और कर्ज भी चुक गया। मेरा जीवन सुख से व्यतीत हो रहा है। मेरा यह दृढ़ विश्वास हो गया है कि गायत्री उपासना किसी भी रूप से की जाये, वह न कोई अनिष्ट करती है और न कभी निष्फल ही जाती है।

माता की कृपा से दो अनुभव

(गत वर्ष से ही में प्रतिदिन 1000 गायत्री मन्त्र जप नियमित रूप से करते रहने का प्रयत्न करता आ रहा हूँ पर ऐसा नहीं कि इस प्रयत्न में कभी त्रुटि नहीं आयी। इसमें कई कई दिन खाड़े (नागा) जरूर होते हैं और उसका पश्चाताप भी जरूर होता है। वर्ष भर में दो हवन हुए हैं, एक चैत्र रामनवमी को और दूसरा आश्विन (दुर्गा पूजन) की नवरात्रि में, दोनों नवरात्रियों दो लघु अनुष्ठान भी किये गये है।

गत वर्ष में गुरुदेव के आज्ञानुसार 28 दिन का “उप पोषण” किया था, जिसमें फलाहार में केवल आधा पाव दूध और दो मुसम्बी रोज लेता था, इसके अलावा और कुछ भी नहीं। इन 28 दिनों में निष्काम भाव से सवालक्ष के अनुष्ठान का भी संकल्प सम्मिलित था। चूँकि यह आयोजन सार्वजनिक था, इसलिये इस के सारे कार्य पूर्ण शास्त्रोक्त नियमों सहित तथा सर्वथा निष्काम होकर ही किया गया था।

चौथे दिन मेरी हालत बड़ी ही दयनीय हो गयी। आगे उपवास करने का साहस और सहन शक्ति दोनों नहीं रहे। अब तो आगे मैं उपवास ही कर सकता था और न उसे छोड़ने की शक्ति ही मुझ में थी। पांचवें दिन मुझ में जरा भी शक्ति बोध नहीं होती थी। ज्यों त्यों कर दिवस कटा। रात में गायत्री माता का स्मरण करता सो गया। ब्राह्ममुहूर्त था। मैं स्वप्न या सत्य ही देख रहा था—पूजन पीठ पर, पुष्पों का हार धारण किये हमारे गुरुदेव ध्यान मग्न से बैठे है, और मुझे आशीर्वाद देते हुए कह रहे हैं, हिम्मत नहीं हारना—मैं सदैव तुम्हारे पीछे हूँ। मैंने अपने को उनके चरणों में समर्पित कर दिया। नींद टूटने पर मैंने अपने में, अत्याधिक स्फूर्ति एवं उपवास जन्य अशक्ति का अभाव पाया। इसके उपरान्त शेष तेईस दिन, उपवास में कैसा कष्ट होता है, इसका जरा सा भान भी मुझे नहीं हुआ, एक सबल स्वस्थ पुरुष की भाँति सारा क्रम निभाता रहा।

उपवास की बीसवीं रात में घनीभूत कालिमा की छोटी छोटी बिन्दी मेरे सामने आकर चारों ओर फिरने लगीं। इक्कीसवें दिन उस में भिन्न−भिन्न रंगों की ज्योतियाँ विकीर्णित होने लगीं और चौबीसवें दिन दो बजे रात में, माता की छवि से पीत रश्मियों की धारा साक्षात् रूप से निकल कर मेरी ओर आने लगीं। मधुरता के आधिक्य से मैंने आंखें बन्द कर लीं, उसके उपरान्त ज्योतिबिन्दु से माता की साक्षात् प्रतिमा को निकलते देखा, जो सम्पूर्णतया चेतना से भरी हुई थी- वे मुझे आशीर्वाद दे रही थीं- मैं अपने शारीरिक मान से ऊपर उठ गया था। वह मेरे जीवन की अपूर्व आनंदमयी अवर्णनीय स्थिति थी।

सत्यनिष्ठा में प्रवृत्ति (श्रीमती फूलवती शर्मा देहरादून)

गायत्री को वेदमाता कहा जाता है। इससे लगता है कि वेदों में वर्णित सारे ज्ञान इसमें अवश्य ही केन्द्रित हैं।

वैदिक काल में हमारे सभी ऋषि यज्ञ परायण थे, इससे बोध होता है यज्ञ प्रक्रिया की सारी विधियां, गायत्री माता की शुभ प्रेरणा का वरदान स्वरूप है। इसी से हमारे वेद शास्त्रों और पुराणों में यज्ञों की महिमा सर्वत्र दर्शन होता है। इसीलिये गायत्री या किसी भी मन्त्रों का अनुष्ठान केवल जप करने से कभी पूरा नहीं होता। यज्ञ ही एकमात्र उस की परिपूर्ति के साधन हैं। यज्ञ द्वारा प्राचीन काल से लेकर आज तक अनेकों ने अपने मनोरथ सफल कर पाये हैं, इसी से यज्ञ का कामधेनुत्व आज भी सुप्रसिद्ध है। मैंने श्री गायत्री अनुष्ठान द्वारा किस भांति अपने हृदय में “सत्य भाषण” को प्रतिष्ठित कर शान्ति पायी है, उसे ही सुनाकर गायत्री माता की स्नेहिल करुणा का परिचय देना चाहती हूं।

अपने अतीत जीवन में, अज्ञानता वश मैं सत्य को छोड़कर असत्य से ही अधिक नाता जोड़ते रही थी। मेरे परिवार में प्रायः सभी, क्रोध पर अपना अधिकार जमाने में असमर्थ थे, इसीलिये जब कभी मुझ से कोई गलती हो जाती, मैं भयभीत सी उसे छिपाने के प्रयत्न में असत्याचरण के द्वारा अपनी रक्षा करती, पर झूठ बोलने के पश्चात् अन्तर में बड़ी पीड़ा होती। माता की कृपा से एक दिन अचानक या बिना किसी प्रयत्न के ही मुझे एक ऐसी पुस्तक मिल गयी जिसमें गायत्री मन्त्रानुष्ठान द्वारा होने वाले लाभों को बड़े विस्तार से वर्णन किया गया था, मैं पढ़कर बड़ी प्रभावित हुई और अपनी समझ के अनुसार मैंने उसका अनुष्ठान करना प्रारम्भ किया। ज्यों ज्यों समय बीतते गये, मेरे अन्तर में सत्य धारण करने की शक्ति भी बढ़ती गयी। अब तो यहाँ तक हो गया है कि सत्य बोलने के कारण मेरे ऊपर कितने भी संकट क्यों न आवे-उसकी बिना परवाह किये मैं सत्य बोलती हूँ। हानि-लाभ की चिन्ता से ऊपर उठ कर सत्य बोलने का जैसे मेरा स्वभाव ही हो गया है।

गायत्री माता की शरण लेने से मुझे जो लाभ हुए हैं, उस अनुभव के आधार पर मैं अखण्ड ज्योति पढ़ने−सुनने वाली तथा अन्य बहनों से बल-पूर्वक प्रार्थना करती हूँ कि आप सभी गायत्री मन्त्र का सहारा लेकर अपने जीवन के असत्यों, दुःख और पीड़ाओं से अपना उद्धार पायें। जिस भाँति प्राण के सहारे ही शरीर के सभी अंग जीवित और क्रियाशील हैं, उसी भाँति गायत्री शक्ति ही मनुष्यों की साधना के अनुसार स्वर्ग और मुक्ति को देने वाली हैं। गायत्री मन्त्र, ईश्वर प्राप्ति का अचूक साधन है, भक्ति प्रदाता और जन−मन निर्मल कर्त्ता है। माताओं को स्वयं इसकी उपासना करने हुए शैशव काल से ही बच्चों को इसमें प्रवृत्त करना चाहिये। मैं तो यहाँ तक कहना चाहती हूँ कि यदि भारत की प्रत्येक नर−नारी इस परमोद्वारक मन्त्र को धारण कर ले, तो देश का उद्धार हो जाय।

दिव्य व्यक्तित्व का क्रम विकास (श्री मु॰ ग॰ पाटील, खाभगाँव)

मेरे विचार बुरे थे−सपने भी इतने बुरे आते थे कि जिसकी हद नहीं। किसी प्रेरणा ने गायत्री उपासना में प्रवृत्त किया। फिर देखा वे सारे बुरे सपने क्रमशः लुप्त होते गये और उसके स्थान पर ज्योतिर्मय स्वप्न अवतरित होने लगे।

ध्यानावस्था में, प्रकाशपुञ्ज के मध्य दिव्य आलोक पूर्ण ॐ का आविर्भाव हुआ और मैं न जाने कितनी देर तक मुग्ध भाव से, सुस्पष्ट रूपेण देखता रहा। उसी दिन से मेरे अन्तर हृदय में असीम शान्ति का अवतरण हुआ, जो कि आज भी क्रमशः बढ़ती ही जा रही है।

कई बार मैं अपने को स्वप्न में एक दिव्य देवी, की उपासना करते हुए पाता हूँ। कभी गायत्री माता, दिव्य सूर्य बनकर, जिसकी किरणें अत्यन्त सौम्य, सुखद स्पर्श वाली हैं—सपने में मेरे सामने आ जाती हैं और अपने मधुस्रावी रश्मिधारा से मेरे शरीर और प्राण के कण−कण को सींच देती है, मैं भीग उठता हूँ और मेरे शरीर से भी किरणें विकीर्णित होने लगती हैं। शरीर शिथिल हो जाते हैं एवं अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति होती हैं। इस आनन्द का प्रभाव ऐसा चिरन्तन है कि, किसी दुःखद स्थिति में पड़ने पर भी मुझे आनन्द का वेग ऊपर ही उठाये रखता है। दुःख की पीड़ा जरा भी अनुभूत नहीं होती।

भौतिक दृष्टि से भी मेरी अभ्युन्नति हुई। साम्पत्तिक दुरवस्था का प्रवेश मेरे जीवन में कभी नहीं हो पाया।

मुझे जटिल खाँसी रोग था। मैंने कितने ही डाक्टरों से इसके अनेक इलाज किये, किन्तु इससे पिण्ड न छूटा। खाँसी क्रानिक एवं दुःसाध्य हो गयी। डाक्टरों ने असाध्य रोग घोषित कर पराजय स्वीकार कर लिया। माता की कृपा से यह रोग कैसे मूल से ही नष्ट हो गया−इसका मुझे भी पता नहीं चला। आज मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ।

पहले मेरी बात की ओर कोई ध्यान नहीं देता था, पर आज जैसे मैं चुम्बक बनता जा रहा हूँ। सभी मेरी बात ध्यान से सुनते हैं, उसे सम्मान देते हैं, मुझ से मिलकर प्रसन्नता लाभ करते हैं−पुनः मिलने की उत्कण्ठा अनुभव करते हैं। मानसिक विश्वास और शारीरिक ओज दिनानुदिन बढ़ता सा अनुभव होता है। मुझ में व्यक्तिमत्व का परिविकास हो रहा है। सभी माता की कृपा से ही साधित हो रहे हैं।

जीविका का स्थिर आधार मिला

श्री सदाशिव किसन बोडखे खामगाँव घोर नास्तिक थे। जप−उपासना को, मानव−बुद्धि की अन्धता और मूढ़ता समझते थे। जब उनके ऊपर जीविका समाधान का भार आया तो वे भटकने लगे एक काम आता, फिर हाथ से निकल जाता। उनके सारे पुरुषार्थ और बुद्धिवादिता उसे स्थिर कर पाने में सदा असफल रहतीं। बार−बार असफल होकर वे निराशा के अन्धकार में हतोत्साह होकर पड़ा रहने लगे।

किसी अज्ञात प्रेरणा ने उनके अन्तर को उकसाया “क्यों नहीं एकबार आध्यात्मिक पथ का भी अवलम्बन करके उसकी सचाई−झुठाई अपने निजी अनुभव से जान लें” और वे गायत्री उपासना में लग गये। उपासना करते ही उनमें एकाएक श्रद्धा उमड़ पड़ी; जैसे बहुत दिन का जल से भरा पूरा बाँध अचानक ही टूट पड़ा हो।

बहुत दिनों से बिना रोजगार धन्धे के बेकार फिर रहे हैं। ऐसा बेकार और आजीविका विहीन व्यक्ति कितना परेशान होता है, इसे भुक्त भोगी ही जानते हैं। गायत्री उपासना के फलस्वरूप बेकारी दूर हुई उन्हें स्थायी नौकरी मिल गयी है। निराशा के बादल कब नष्ट हो गये या उड़ गये, पता नहीं। आज उनमें अद्भुत उत्साह है, अपार प्रसन्नता। माता की कृपा से सर्वत्र सुविधा−ही सुविधा दीख पड़ती है।

योगीराज द्वारा स्वप्नादेश (पुरुषोत्तम आत्मारामजी साखरे, जासलपुर)

1955 की गुरुपूर्णिमा की सुपुनीत रात्रि। ब्राह्ममुहूर्त का आरम्भ हो चला था और मैं स्वप्न देख रहा था—एक योगीराज एक हाथ से स्वादेंद्रिय (जिह्वा) और दूसरे हाथ से शिश्नेन्द्रिय पकड़े मेरे सामने खड़े हैं और मुझसे पूछते हैं—क्या इसका अर्थ तुम समझते हो? उत्तर देने के प्रथम ही मेरी नीन्द टूट गयी।

प्रातः ही सौभाग्य से उस योगीराज का दर्शन मिला। उन्होंने बिना पूछे ही मुझसे कहा—वत्स! जब तक तुम स्वप्न निर्देशित दोनों प्रधान इन्द्रिय पर काबू नहीं पा लेते तब तक इष्ट की प्राप्ति असम्भव है। एक और अपेक्षा कृत सूक्ष्म चाहना है—मान−प्रतिष्ठा। इस चाहना को भी छोड़ना अनिवार्य है।

एक दिन वे मधुर स्वर लहरी में गायत्री हवन कर रहे थे। मैं भी सौभाग्य वश उपस्थिति हुआ यज्ञ से उठते ही उन्होंने मुझे गायत्री उपासना विधि बताई और कहा इससे तुम्हारे सारे संकट दूर हो जायेंगे।

आज हमारे जीवन में गायत्री उपासना के लाभ नित प्रति प्रत्यक्ष हो रहे हैं।

गायत्री उपासना के कुछ अनुभव (दिव्य ज्याति ए॰ जोशी, मालद)

मेरी आर्थिक दशा बड़ी खराब थी। कोई उपाय नजर नहीं आता था। लाचार होकर मैंने गायत्री माता से प्रार्थना की और अचानक एक दिन ऐसा हुआ कि एक सज्जन व्यक्ति आग्रह पूर्वक मुझे बुला कर ले गये और मेरी रुचि के अनुकूल अपने काम पर नियुक्त कर दिया। वेतन भी इतना मिलता है, कि मैं परिवार सहित भली भाँति निर्वाह कर कुछ बचा भी लेता हूँ। ऐसी दयामयी माता की जय हो।

श्रीकनुभाई, त्रिभुवनदास, एक वर्ष से बेकार बैठे समय गँवा रहे थे। गायत्री उपासना से उन्हें भी एक अच्छी और स्थायी नौकरी मिल गयी।

श्री हीरालाल लोहाण ने गायत्री उपासना के द्वारा ही नौकरी प्राप्त कर अपनी जीविका का भार सम्भाल पाया है।

श्री रसिकलालजी का लड़का बड़ा दुराचारी था। उसके पिता ने उसकी प्रवृत्ति बदलने की कामना से गायत्री साधना आरम्भ की। फलतः कुछ दिनों के उपरान्त लड़के ने स्वतः ही आकर पिता से माफी माँगी और अब पिता के साथ मिलकर सदाचार सहित अपनी जीविका का उपार्जन करता है।

श्री सविता बहन के आधे अंग में लकवा (अर्द्धांग-बात) हो गया था। चिकित्सा से लाभ नहीं होते देख, उसने गायत्री उपासना प्रारम्भ करदी, कुछ दिन उपासना के उपरान्त अब उस अंग से काम करने लग गयी हैं। धीरे−धीरे वह अंग अपनी पूर्व दशा में आता जा रहा है।

मेरे पड़ोस के एक व्यक्ति की पत्नी उससे असन्तुष्ट होकर अपने मायके में ही रहती थी। ये कई बार, आदर−ग्रह सहित उसे लिवाने गये, पर वह नहीं आयी। मेरे परामर्श से उसने खुशामद करना छोड़ कर गायत्री माता की उपासना प्रारम्भ कर दी और एक दिन गायत्री माता की सद् प्रेरणा से वह स्वतः ही नैहर छोड़कर चली आयी और यहाँ आकर सुस्थिर हो गयी। अब उनका दाम्पत्य−जीवन बड़ा ही मधुर और आनन्दमय हो गया है। दोनों परस्पर एक दूसरे को सुखी बनाने के लिये आतुर रहते हैं। माता की कृपा के सिवाय इस कलहपूर्ण दाम्पत्य−जीवन को सुधार कर रसमय बनाने की शक्ति और किसमें है?

निराश माता−पिता को सान्त्वना (डा॰ जी॰ के शर्मा, करेंजा)

मेरे जीवन में सबसे प्रथम, ‘अखण्ड−ज्योति’ रूपी गुरुदेव ने आकर्षित कर मुझे गायत्री उपासना में प्रवृत्त कर दिया पर इसे सींचकर पुष्ट करने में जिस प्रत्यक्ष चमत्कार का हाथ है, आज मैं उसे ही वर्णन करना चाहता हूँ।

उपासना को स्वीकार करने के कुछ ही दिन बाद मुझे दक्षिण भारत का भ्रमण करने का अवसर प्राप्त हुआ, और इस पुण्य यात्रा में श्री गायत्री स्वरूपजी महाराज के दर्शन का सौभाग्य मुझे गायत्री माता ने प्रदान किया। मैंने पाया कि अपनी उत्कृष्ट कल्पना के सहारे जिस ऋषित्व को अंतर्जगत में सुचित्रित कर रक्खा था, वह जैसे साक्षात्कार हो गया हो। मैंने श्रद्धावनत हो अपने को उन पावन पद−पद्मों में डाल दिया।

उस दिन एक गुजराती समाज में विवाहोत्सव था। उसका पुत्र, जो कई दिनों से बीमार था, उसकी हालत उस दिन बेहद खराब हो गयी। डाक्टर आये। सभी ने एक स्वर से कहा कि इसे बचने की कोई आशा नहीं है। परिवार में हाहाकार पड़ गया। रुदन−ध्वनि से आकाश भी प्रकम्पित हो रहा।

उनके किसी हित−चिन्तक ने श्री गायत्री स्वरूपजी महाराज को बुला लाया। उनके आते ही बालक के माता पिता दोनों हाहाकार करते हुए चरणों में आ गिरे और लोटने लगे। उनके करुण विलाप से महात्माजी के परम दयालु हृदय की वाणी फूट पड़ी-सहसा ही उनके मुख से निकला—तुम्हारे पुत्र का बाल−बाँका भी न होगा। सहसा ही आश्वासन का वातावरण छा गया। सभी के रुदन, एक वरगी ही रुक गये उन्होंने पवित्र−जल मंगाकर गायत्री से अभिमन्त्रित कर बालक को पिला दिया। घण्टों से बेहोश बालक नीन्द टूटने की भाँति उठ बैठे। चिकित्सक−गण विस्मित और निस्तब्ध से देखते रहे।

उसके उपरान्त विवाहोत्सव किसी भाँति पूरा कर लिया गया। बालक का ज्वर छूटा नहीं था। फिर एक दिन वेग आया और बालक मुमुर्ष−अवस्था में पहुँच गया। आज तो आशा ही नहीं रह गयी थी। आज भी महात्माजी को बुलाया गया। मैं भी साथ था। महात्माजी भी उसकी मरणासन्न दशा से कुछ चिंतित दीख पड़े। सहसा ही वे बोले—आज या तो हम दोनों ही इस विश्व में रहेंगे या बालक और हम दोनों ही कूच कर जायेंगे। ऐसा कह कर पुनः उन्होंने गायत्री अभिमन्त्रित जल बालक को पिलाया और गायत्री यज्ञ का भस्म, जो वे अपने साथ लिये आये थे, रोगी के सारे शरीर पर लगाना प्रारम्भ कर दिया। अब बालक सम्पूर्ण होश में था और हम लोग विस्मित−नेत्रों से यह आश्चर्य−लीला देख रहे थे। फिर उन्होंने और जल मंगवाया तथा उसे भी गायत्री से अभिमन्त्रित करके बोले—इसे प्रति दिन पिलाते रहना, मैं अभी कार्यवश बम्बई जा रहा हूँ।

गायत्री के प्रति अनजाने ही मेरी श्रद्धा गहरी होती जा रही थी।

बम्बई से कुछ दिनों के उपरान्त स्वामी जी लौटे। बालक स्वस्थ था। उसने चरणों से साष्टाँग प्रणाम किया और कहा—गुरुदेव! आज मुझसे आप गुरु दक्षिणा लीजिये। उन्होंने कहा—गुरु दक्षिणा? क्या सचमुच ही तुम देने को तैयार हो?

बालक ने स्वीकृति जतायी, इस पर स्वामी जी बोले—मैं तुम्हें गुरुमन्त्र देता हूँ, तुम विधिपूर्वक जीवन भर इसकी नियमित उपासना करते रहना। यही मेरी गुरु दक्षिणा है।

इस घटना से प्रभावित होकर मैं मुग्ध होकर दंड की भाँति उनके चरणों में गिर पड़ा। वे मेरे शिर पर अपना कल्याण−वरद−हस्त फेर रहे थे।

मैंने अपना अध्यात्मिक गुरु वरण लिया है, और उनके निर्देश का अनुसरण करते हुए जो कुछ मैं अनुभव कर रहा हूँ, वह अवर्णनीय है।

दूरवर्ती घटनाओं का आभास (मातादीन शर्मा, दोहद)

मैं अपने जन्म भूमि से छः सौ मील की दूरी पर रह रहा हूँ। अपंगू हूँ। गायत्री ही मेरा सब सार−सम्भाल करने वाली माता है। मेरी एकमात्र यही उपासना है। एक दिन मैं जप कर रहा था, सहसा देखता हूँ कि “मेरा एक भाई क्षय रोग से मर गया है और हमारे मकान को नष्ट कर चचेरे भाइयों ने उस स्थान को अन्याय−पूर्वक कब्जा कर लिया है।” इसके दूसरे दिन ही पत्र आया, उसमें ध्यान में देखी सभी बातें ठीक ठीक अंकित थी। यह माता की कृपा का ही प्रसाद था कि 600 मील की घटना को मैंने प्रत्यक्ष की भाँति देखा। गायत्री उपासना के फल स्वरूप ऐसी दिव्य दृष्टि का खुलना एक चमत्कार ही है।

नवजीवन की प्राप्ति (श्री गशेश जी, इन्द्रनगर, सिंहभूमि)

मैं सारे उपाय करके हार गया था। पिता जी के बचने की कोई आशा न थी। जब मनुष्य को चारों ओर से सहारा नहीं मिलता तो स्वभावतया ही उनकी दृष्टि ईश्वर की ओर उठ जाती है। मैं प्रथम से ही गायत्री उपासक था। पिता जी के प्राण रक्षा की भावना लिये मैंने जप संख्या में वृद्धि की और रक्षा के लिये प्रार्थना किया करता। दूसरे दिन ही पिता जी के अन्तर में शान्ति का बोध हुआ और मैंने तीसरे−चौथे दिन उनकी दशा में स्पष्ट सुधार पाया। माता की कृपा का साक्षात कराने के लिये, अभी भी हमारे पिता स्वस्थ जीवन यापन कर रहे हैं।

आर्थिक−दुश्चिंता सदा मुझे घेरे रहती। कितनी भी कोशिश करता, न तो बाहर की हालत सुधरती और न मेरा सन्ताप ही दूर होता। सोचा—अब माता से ही प्रार्थना करूं। यह सफलता मेरी शक्ति से बाहर है। उस दिन जप कर रहा था—सहसा ही अन्तर में अधीर मत होओ, बाहर में कोई तुम्हारी सहायता नहीं करेगा। मैं ही तुम्हें निभाये ले चलूँगी।” यह सुनते ही मुझमें आत्म−शक्ति और धैर्य का संचार हुआ। आज भी मेरी बाहरी जीविका का साधन पूर्ववत् है, पर उस दिन के उपरान्त कोई ऐसा अभाव रहा ही नहीं, जिसकी पूर्ति नहीं हुई। कल्याणमयी माता की जय हो।

दिव्य ज्योति के प्रत्यक्ष दर्शन (श्री महावीर प्रसाद गुप्त, शाहजहाँपुर)

दो वर्ष बीत गये। वायु मंडल स्वच्छ था। शीतल सुगन्धित वायु बह रही थी। मैं पद्मासन लगाये माता के ध्यान में तल्लीन था। माला पास में नहीं थी। मैं बड़े ही आर्तभाव से माता की आराधना कर रहा था।

समय भी काफी हो चुका था। उस समय इतना अच्छा ध्यान लगा हुआ कि था वैसा आनंद ध्यान में आज तक नहीं आया। हृदय से एकदम ऐसा प्रकाश पुंज निकला जो सारे शरीर में प्रविष्ट हो गया। ऐसा मालूम होता कि मेरे शरीर के साथ-साथ सारी पृथ्वी काँप रही है। ऐसा बहुत देर तक अनुभव हुआ। सामने हंसारूढ़ माता का वरद्हस्त था। माता कह रही थीं- पुत्र प्रसन्न हूँ!! यह शब्द कई बार हुआ। मुझे माता का वरद्हस्त उसी मूर्ति में सोते जागते चलते फिरते हर समय लगभग दो सप्ताह तक निरन्तर मालूम होता रहा। उस समय मेरे नेत्रों में आँसू बह रहे थे। जब आसन छोड़ा तो माता से प्रणाम करके यही प्रार्थना की कि “जन्मान्तर तक आपके चरणों में ध्यान रहे।”

इस घटना के बाद से मुझे अपने में काफी परिवर्तन मालूम हुआ और जितना कष्ट मुझे आर्थिक एवं मानसिक था, वह सब दूर हो गया। उसी समय से माता के चरणों में मुझे दृढ़ विश्वास है।

माता का साक्षात्कार (श्री गोविन्दलाल - नृसिंह शाह, रामगंज)

मेरा सवालक्ष का अनुष्ठान चल रहा था। अरुणोदय की पुनीतारुण आभा, दिव्य जागरण के सन्देश से हृदय में घुसे जा रहे थे। मैं खुली आँखों जप करता हुआ तल्लीन हो रहा था। सहसा अरुण रंग के मध्य से श्वेतोपम-आलोक का उदय हुआ और वह गायत्री माता की साक्षात प्रतिमा बन गयी। मैंने प्रणाम किया एवं अपनी भूल-चूक के लिये क्षमा याचना की। माता की आँखों से वात्सल्य विकीर्णित होकर मुझे स्पर्श करने से प्रतीत होते। धीरे-2 तिरोधान का क्रम उपस्थित हुआ। प्रेमोद्रेक से मेरी आंखें भर आयी थी और उसी क्षण माता का रूप मेरी दृष्टि से-न जाने कब तक के लिये तिरोहित हो गया। आज भी उस पुनीत-क्षण की याद, मुझे भावविभोर कर देती है।

गायत्री जप से अन्तः करण की शुद्धि ( चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित, मझिया)

मैं गायत्री उपासना से यह प्रत्यक्षवत् अनुभव करता हूं, कि उससे मेरा अन्तःकरण वस्त्र की भाँति स्वच्छ हो गया है। मैं प्रत्येक उपासकों को जोर देकर इसकी आजमाइस करने की प्रार्थना करता हूँ।

गायत्री जप से शाँति (श्री चन्दन लाल शर्मा, फतेहपुर-विश्नोई )

मैं बड़ा ही घमण्डी था। मन चारों ओर नाचते ही रहता। कुछ विचार कर स्थिर नहीं कर पाता था। भीतर अशान्त था। गायत्री उपासना करके मैं अपने अनुभव से कहता हूँ कि इससे घमण्ड क्रमशः नष्ट होता जाता है, मन की चंचलता घटती जाती है, शाँति का अनुभव होने लगता है और विचार में नवीन ज्ञान का प्रकाश निरन्तर बढ़ता ही चला जाता है।

माता के साक्षात्कार का मार्ग (श्री सीताराम श्री अग्रवाल एडवोकेट, आगरा)

इसी बसन्त पंचमी की बात है:- हमने उस दिन श्री गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति दी थी। यज्ञ सानंद सम्पन्न होने से सम्पूर्ण वातावरण हर्ष से तरंगित हो रहा था।

यह समाप्ति के उपरान्त “गायत्री के साक्षात् दर्शन” की सम्भावना में विभिन्न भाँति के तर्क-विचार विमर्श एवं भावना-श्रद्धा के प्रश्न उपस्थित हुए, जिसका यथा सम्भव समाधान कारक उत्तर मेरे द्वारा दिया गया। पर मेरे उत्तर से कदाचित लोगों के आन्तर की भूख तृप्त नहीं होती थी। सभी बुद्धिवादी तर्क प्रवण लोग चाहते थे कि हम यह जानें कि गायत्री माता का साक्षात् दर्शन होता भी है या नहीं और कैसे होता है?

आन्तर-बाह्य सारे वातावरण का प्रभाव मेरे विचार-जगत को ज्ञात-अज्ञात रूपेण संक्रमित कर रहे थे। सायंकाल को नित्य की भाँति अपने एकान्त उपासना-कक्ष में प्रवेश किया। वहाँ एक लकड़ी की चौकी पर शीशे के फ्रेम में जड़ा “अखण्ड-ज्योति “ प्रेस मथुरा से प्राप्त गायत्री की एक वात्सल्यमयी छवि अपनी ममता बिखेरती रहती है। सम्मुख में वृत का अखण्ड दीप जलता रहता है।

आसन पर बैठते ही आज मेरी बुद्धि के सामने वे सारे के सारे प्रश्न एक एक कर उपस्थित होने लगे। मैं स्वयं उन प्रश्नों के सम्यक समाधान के लिये अपने में तीव्र उत्कण्ठा का अनुभव करने लगा।

उस समय सिवाय कण-कण परिव्यापिनी माता को छोड़ और कोई नहीं था जो समाधान करे। मैं ने उस पुनीत चित्र को ही साक्षात् माता मान कर अपने सारे प्रश्नों को उनके सामने रखना प्रारम्भ किया। मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि उस समय अन्तर या बाहर में मैंने माता का कोई स्वरूप नहीं देखा पर जैसे ही मैं काई प्रश्न करता, वैसे ही मेरे मानस−सागर में ठीक बुलबुले की भाँति उत्तर, उत्तर आते। पश्चिमीय विचारधारा ने इस प्रकार की सभी क्रियाओं को नाम “औटो सजेशन्स” रखा है, पर हम इसे माता के साक्षात् प्रसाद रूप में अनुभव करते हैं और माता के आदेशानुसार ही इस प्रसाद को सभी उपासकों में वितरण कर रहे है:−मैंने प्रश्न किया−माँ! क्या इन नेत्रों तुम्हारे दर्शन भी हो सकते हैं?

उत्तर −क्यों नहीं।

प्रश्न−तो इसका सब से सरल साधन क्या है?

उत्तर −दृष्टि योग। यह ऐसा साधन है कि इसे ठीक ठीक कर सकने पर जिस इष्ट देव का दर्शन करना चाहो, कर सकते हो। चाहे मेरा साक्षात्कार कर लो, चाहे भगवान राम, कृष्ण, विष्णु, शंकर आदि किसी भी इष्टदेव का कर लो। इस साधन को एक उर्दू कवि ने अच्छी तरह अभिव्यक्त किया है−

कौन जा है जहाँ जल्वए माशूक नहीं; शौके दीदार अगर है तो नजर पैदा कर।

अर्थात् ऐसा कौन सा स्थान है, जहाँ प्रियतम नहीं है। यदि उसके दर्शन की इच्छा है, तो अपने में दृष्टि पैदा करो।

प्रश्न− तो माँ! यह दृष्टि कैसे पैदा करें और यह दृष्टि किस प्रकार देखती है? क्या इसके लिये इन चर्म चक्षुओं को अपने स्थान से हटाना पड़ता है?

उत्तर − इसे दिव्य दृष्टि कहते हैं। इसके लिये चर्म दृष्टि को हटाने की जरूरत नहीं, वरन् उसके अनुकूल करने का प्रयत्न करना होगा। जिस प्रकार दूर की वस्तु देखने के लिये दूरबीन को आंखों के आगे नियत दूरी और केन्द्र बिन्दु पर रखने की आवश्यकता होती है, उसी भाँति इस चर्म दृष्टि को, दिव्य दृष्टि के अनुकूल बनाने के लिये इसे भी दिव्य दृष्टि के लक्ष्य पर केन्द्रित करना पड़ेगा। अपने दृष्टि कोण−नुक्ते नजर−ऐंगिल ऑफ विजन को बदलना पड़ेगा।

अब “दिव्य दृष्टि “ को बुद्धि के द्वारा समझने का प्रयत्न करो। इसे समझने के उपरान्त ही तुम अपनी बाह्य दृष्टि को इसके अनुकूल करने का प्रयत्न कर सकोगे।

इन चक्षुओं से दूसरों के अवगुण ने देखकर गुण ही गण देखो। गुण दृष्टि के प्राप्त करते ही तुम्हारे चर्म चक्षु दिव्य चक्षुओं द्वारा देखने के योग्य बन जायेंगे। देखो, संसार में कोई भी व्यक्ति या वस्तु ऐसी नहीं है कि जिसमें कोई अवगुण न हो और इसी प्रकार कोई भी व्यक्ति या वस्तु ऐसी नहीं है कि जिस में कोई गुण न हो। तुम अवगुणों को न देखकर केवल गुण ही गुण देखने की आदत डालो। अवगुण देखो केवल अपने। देखो परमात्मा ने मनुष्य को जो दर्शन की शक्ति दी है वह दी है केवल अपने दोष देखने के लिये परन्तु मनुष्य करता इसका उल्टा है अर्थात् अपने दोष न देखकर देखने लगता है दूसरों के दोष।

परन्तु माँ, यदि हम किसी व्यक्ति को उसके दोष न बतलायेंगे तो उसका सुधार कैसे होगा?

प्रश्न हल करना चाहते हो मेरे साक्षात्कार का, प्रभु दर्शन का और बनना चाहते हो सुधारक सुधार करने का काम तो छोड़ दो, गुरु, महात्माओं और साधु सन्तों के लिये। हाँ जिन व्यक्ति यों के पतन ये अवनति की उत्तरदायित्व तुम्हारे ऊपर है उनके दोष जरूर देखो और उनके हित के लिये उन दोषों को उनको बतलाओ भी और उनके दूर करने का प्रयत्न भी करो।

माँ। चीज़ तो आपने बड़ी सुन्दर बताई परी गुण दृष्टि पैदा करने की आदत कैसे पड़ेगी।

उसका भी बड़ा सरल उपाय है। गोस्वामी तुलसीदास ने मानस के बालकाँड में इस विषय का बड़ा सुन्दर विवेचन किया है। बस उनकी निम्न चौपाइयों का मनन व चिंतन करते रहो। कुछ समय में अवश्य ही गुण दृष्टि उत्पन्न हो जायेगी:−

कहहिं वेद इतिहास पुराना। विधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥ दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥ दानव देव ऊंच अरु नीचू। अमिअ सजीवनु माहुरु मीचू॥ माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥ कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरू माख महिदेव गवासा॥ सरग नरक अनुराग विरागा। निगमागम गुन दोष विभागा॥

दो.—जड़ चेतन गुन दोषमय, विस्व कीन्ह करतार॥ संत हंस गुन गहंहिं पय, परिहरि बारि बिकार॥6॥ अस विवेक जब देइ विधाता। तब तजि दोष गुनहि मनु राता॥

परन्तु माँ। इन चौपाइयों के अनुसार तो गण दृष्टि का उत्पन्न होना विधाता के विवेक देने पर निर्भर हो गया?

क्या बुराई है। माँगो विवेक विधाता से, वह मना थोड़े ही करते हैं।

पर माँगें कैसे?

विधाता से माँगने का एक ही सर्वान्तक तरीका है− ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्। की उपासना।

माता की इस अन्तः प्रेरणा से मेरा समाधान हो गया। माता के दर्शन का प्रयत्न करता हूँ। जितने ही कदम बढ़ते जाते हैं उतना ही धुँधलापन दूर होकर स्पष्ट साक्षात्कार होता जाता है। दूसरे लोग भी जो इस मार्ग एवं दृष्टि कोण को अपनायेंगे वह भी मेरी ही भाँति साक्षात्कार का अनुभव कर सकेंगे।

गायत्री माता के आश्रय में (प्रेमचन्द्र, अग्रवाल. महोवा)

“गायत्री मन्त्र का थोड़ा सा ज


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118