गायत्री द्वारा सुख समृद्धि और सफलता

October 1955

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गायत्री उपासना से परीक्षा में उत्तीर्ण (श्री॰ मेधावी दीक्षित, अतरौली जि॰ अलीगढ़)

नारायणी देवी अतरौली की निवासी हैं। आपके एक ही लड़का है रमेश। नारायणी देवी एक श्रद्धालु देवी हैं पर गायत्री उपासना का रहस्य अब तक इनसे छिपा रहा। पिछले वर्ष रमेश इंटर में पड़ता था। वह पढ़ने में बहुत कमजोर था। पिछले वर्ष फेल हो गया। माता को चिन्ता हुई। इसी बीच मुझसे परिचय हुआ। मैंने उन्हें यथाशक्ति गायत्री विद्या का रहस्य एवं चमत्कार बतलाया। गायत्री तपोभूमि में चल रहे विशद् गायत्री महायज्ञ का कुल विवरण बताया। यज्ञ सम्बन्धी पर्चे व एक ज्ञानांक भेंट किया। श्रीमती नारायणी देवी व उनका लड़का महायज्ञ के संरक्षक बने और अब भागीदारी पूर्ण करने में लगे हैं। इस वर्ष परीक्षा हुई। पढ़ाई में कोई विशेष उन्नति नहीं हुई। नतीजा आया। देखा तो नम्बर गायब। माता से दोनों ने हृदय खोलकर प्रार्थना की। पाँच दिन बाद फिर नतीजा निकला। वह लड़का द्वितीय श्रेणी में पास हो गया। जब से उन्होंने साधना आरम्भ की है तब से लड़के की बुद्धि का भी विकास हुआ। दोनों व्यक्ति 11 माला नित्य जपते हैं। नारायणी देवी माता की अनन्य भक्त हैं।

मुझे प्रेरणा कैसे हुई (श्रीलाल मिश्र, एम॰ वी॰ टी॰ डूँडलोद)

मुझे सर्व प्रथम 1929 में अपने गाँव विसाऊ में स्वामी गोपाल दास जी द्वारा गायत्री महिमा सम्बन्धी एक पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य मिला। उसे पढ़ने के बाद ही प्रतिदिन एक माला गायत्री जपने का निश्चय कर लिया।

वहीं के सेठ चेतराम जी खेम का, मेरे मित्र थे। उन्होंने गायत्री उपासना के अपने अनुभव मुझे सुनाये। वह वृत्तांत श्रवण कर मेरी आस्था, गायत्री उपासना के प्रति और भी दृढ़ हो गई। वह वृत्तान्त यों है:—

श्री चेतराम जी प्रति दिन नियम निष्ठा के साथ 11 माला गायत्री मन्त्र का जप किया करते थे। एक बार उनकी पत्नी बीमार पड़ी। चिकित्सा के लिये जितना भी जो कुछ किया जा सकता था, उन्होंने दिल खोलकर अविश्रान्त गति में सब कुछ किया, पर क्रमशः बीमारी की दशा बिगड़ती ही गयी। एक दिन उनकी आसन्न मृत्यु हो गयी। उसे खाट से उतार कर नीचे सुला दिया गया। श्री चेतराम जी उपासना कर रहे थे−करते जा रहे थे, सहसा उन्हें सुश्वेत वर्ण दिव्य नारी के दर्शन हुए। उन्होंने रक्षा— का संकेत और आश्वासन भाव प्रगट किया और तिरोहित हो गयीं। श्री चेतराम जी उठे और सबों के विरोध करने पर प्रेयसी को नीचे से उठाकर पुनः शय्या पर सुला दिया।

दूसरे दिन सबों ने आश्चर्य के साथ देखा कि वह सम्पूर्ण सचेतन अवस्था में मन्दस्मित ध्वनि में बातें कर रही हैं। रात भर में ही वह—उतने दिन की निर्बलता और शिथिलता कैसे नव चेतना की उर्म्मियाँ ले रही थीं। माता की करुणा की प्रसाद स्वरूपा उनकी प्राणमयी प्रेयसी, आज भी अपने जीवन द्वारा सहस्रों अश्रद्धालुओं के विष भरे हृदय में, विश्वास—सुधा का परिपुनीत अभिसिञ्चन कर रही है।

उनकी उपासना और प्रेम, वर्षा की सरिता की भाँति बढ़ती हुई जा रही है— अनुष्ठान पर अनुष्ठान और पुरश्चरण पर पुरश्चरण किये जा रहे हैं। जरा भी श्रान्ति नहीं, वरन् उत्साह की शुभ्र तरंगें ऊपर ही उठती जा रहीं हैं।

एक बार उनके पिता जी के ऊपर कानूनी जाल बिछाया गया। देखते-देखते लाखों के कारबार चौपट हो गये। व्यापार के सारे साधन—स्थानादि भी छिन गये। कल का राजा, आज रंक बनकर दुनिया में प्रारब्ध भोग के नमूना बन कर जीने लगेगा।

चेतराम जी की उपासना बिना धैर्य खोये, गंगा की धारा के समान निरन्तर आगे ही आगे बहती जा रही थी। फिर उनके पिछले दिन कैसे लौट आये, यह किसी को पता नहीं चला और आज भी वे पूर्ववत् बाह्य ऐश्वर्य से सम्पन्न होकर माता की अञ्चल —छाया में विश्राम कर रहे हैं—उस विश्राम में माता की सेवा के कर्म और प्रेम की सुमधुरता लहरा रही है।

उस समय जयपुर में कोई कालेज नहीं था। सब को बनारस जाना पड़ता था पर स्टेट के उम्मीदवारों के आगे किसी अन्य की बारी कभी आती ही नहीं थी। सन् 1929 ई॰ मैंने भी उम्मीद वारी का पर्चा साहस के साथ दाखिल कर दिया था और चेतराम जी के निर्देशानुसार सवालक्ष गायत्री अनुष्ठान का व्रत ले लिया था।

अनुष्ठान पूरा होने के प्रथम ही मेरा ट्रेनिंग का नम्बर आ गया और में 1940 में उत्तीर्ण हो गया।

सन् 1948 में डूँडलोद आया तो यहाँ भी डाक्टर रावल जी एवं मास्टर कन्हैया लाल जी की गायत्री निष्ठा देखने का सौभाग्य मिला।

गायत्री उपासना के बल से डाक्टर साहब अपने अपने आस पास के सभी चिकित्सकों में अग्रगण्य और सफलता के लिये सुप्रसिद्ध हो रहे हैं। उनकी मुख—मुद्रा स्वभावतया ही स्थिर, गम्भीर, सौम्य एवं मृदुल है। सभी सन्तति भी सुन्दर एवं सदाचारी हैं। पूरी और सुखी गृहस्थी है। डाक्टर साहब इन सारी स्थितियों को गायत्री माता की ही दया और सद्प्रेरणा का परिणाम मानते हैं।

डाक्टर साहब के भाई रसिक लाल जी रावल, अभी तक कई गायत्री पुरश्चरण कर चुके हैं। एक बार ये कई महीने तक बीमार पड़े रहे, पर फिर भी अपनी दैनिक नियमित उपासना का परित्याग नहीं किया। उन्होंने बताया इस बीमारी में मुझे अपने बचने की आशा नहीं थी। गायत्री माता की कृपा से ही यह जीवन उपभोग कर रहा हूँ। उनकी सदा सुप्रसन्न—हास्यमयी—मुद्रा, बरबश हृदय को आकर्षित कर लेती है।

पं. कन्हैया लाल जी का स्वभाव, प्रथम बहुत क्रोधी, उग्र, प्रतिहिंसा मय एवं तिकड़मबाज़ी से भरा था। गायत्री उपासना के प्रभाव से आज वे शान्त, उदार एवं विश्व प्रेम की भावना से भरते जा रहे हैं।

इन सारी सत संगतियों के प्रभाव से मैं भी एक गायत्री उपासक बन गया हूँ। शायद ही कोई ऐसा वर्ष हो, जिसमें मैंने सवालक्ष जप न किया हो और इस उपासना के प्रभाव से अज्ञाततः ही मेरा मन ऐसा निर्मित कर दिया गया है कि, “यथा लाभ सन्तोष” जिसे स्वभाव ही बन गया है। श्रद्धा और भक्ति को नित्य प्रति बढ़ते हुए अनुभव करता हूँ। कष्ट सहन करने में रस मिलता है। अहंकार क्रमशः घटता जा रहा है। अपने द्वारा होने वाले सभी सत्कर्मों को माता की कृपा शक्ति से अनुप्रेरित मानता हूँ।

एक बार कन्ट्रोल के जमाने में मुझे सारे गाँव का उच्चाधिकारी बनाया गया। मेरे सामने अनेकों प्रलोभन थे। यदि मैं गायत्री उपासना नहीं करता होता, तो कितने ही अन्याय और अनाचार मेरे द्वारा हो जाते। सत्व गुणों की सुस्थिरता का मूल आधार गायत्री उपासना ही है। मेरा चित्त जब कभी किसी कारण से अशान्त होता है, तो दस सहस्र जप करते−करते निश्चय ही मैं शान्ति से भर उठता हूँ। यह हमारा नित्य का अनुभव है। सभी पुत्र अपनी माता को पहचान कर उनकी शरण में आकर विश्राम करें−−यही हमारी सदा की प्रार्थना है।

परीक्षा में सफलता विद्यार्थी सन्तोष कुमार श्रीवास्तव)

मैंने पाँच−छह महीना मिडल वर्ग में पढ़कर विद्यालय छोड़ दिया क्योंकि मुझे पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता था। परिवार के सभी लोगों के बार−बार समझाने पर भी मैं नहीं गया। यहाँ तक मेरे पढ़ने के सारे सामान, जो मैं विद्यालय में ही छोड़ आया था, मेरे बड़े भाई साहब उठा लाये।

अनुपस्थिति अधिक होने पर विद्यालय के रजिस्टर से मेरा नाम भी काट दिया गया। कुछ दिनों के उपरान्त मेरे चाचा साहब, जो गायत्री उपासक थे, आये, उन्होंने भी मुझे पढ़ने के लिये कहा। में जरा भी तैयार नहीं हुआ। वे चुप रहे। पुनः उन्होंने पता नहीं गायत्री माता से क्या प्रार्थना की और उसके दूसरे दिन उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए जाने को कहा और इस बार बिना कुछ विरोध किये, मैं विद्यालय चला आया। प्रधान अध्यापक जी ने कहा—अब तो परीक्षा के दिन एक महीने शेष है, अतः तुम्हें भर्ती करना व्यर्थ हैं। फिर कहा—डिप्टी साहब के कहने से ही मैं ऐसा कर सकता हूँ। गायत्री माता की कृपा पता नहीं किधर से कुछ देर में डिप्टी साहब भी आ गये। उनसे पूछने पर उन्होंने स्वीकृति दे दी।

उस दिन से मुझे भी गायत्री माता पर श्रद्धा हुई मैं भी यथा सम्भव उपासना करने लगा। मैं पढ़ने में इतना कमजोर था कि विद्यालय के सहपाठी गण मुझे गधा कहा करते थे और सबको विश्वास था ही मैं अवश्य फेल होऊँगा। परीक्षा काल आया। मैंने मात का स्मरण करते हुए सभी विषयों की परीक्षा दी। परीक्षा फल निकला। सबों ने आश्चर्य से देखा कि मेरा रोल नं॰ 355 भी उसमें अंकित था। मैंने माता की चरणों में प्रेम के आँसू चढ़ाये।

गायत्री उपासना से सन्तान प्राप्ति (सरस्वती प्रसाद, कानपुर)

मेरे पुत्र चि॰ बजरंग सहाय जी के सन्तान हो−हो कर मर जाती थी उसे बचाने के लिये उसने चिकित्सकों और देवी−देवताओं की पर्याप्त पूजा−अर्चना की, पर कोई फल न हुआ। अन्ततः एक गायत्री उपासक की सलाह से उसने सन्तान को जीवित रखने की भावना लेकर विधि सहित गायत्री उपासना प्रारम्भ की। उसके उपराँत एक पुत्र का जन्म हुआ। माता की कृपा से वह लड़का बच गया। उसकी उम्र आज चार वर्ष 6 महीने की है। उस लड़के के बाद उन्हें एक कन्या की भी प्राप्ति हुई, जिसकी उम्र अभी एक वर्ष आठ महीने की है। मुझे तो लगता है माता की कृपा से दुनिया में पायी जाने वाली सारी वस्तुयें पायी जा सकती हैं। कोई भी श्रद्धा−पवित्रता सहित अपने जीवन में प्रयोग कर देख सकते हैं।

सन्तान सुख प्राप्ति (श्री कृष्णाचन्द्र गौतम इन्सपेक्टर सहकारी विभाग राय सिंह नगर)

लगभग दो वर्ष बीत गये, मुझे “अखण्ड ज्योति” पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अत्यधिक प्रभावित होकर मैं इसका ग्राहक बन गया। मैं कई भौतिक संकटों में ग्रस्त था। अतः मैंने अपनी दुखद कथा पूज्य आचार्य जी के समक्ष रखी और उन समस्याओं के समाधान का उपाय पूछा। उन्होंने कृपा करके गायत्री साधना का उपदेश दिया। उसी समय से मैं अपनी धर्मपत्नी सहित गायत्री उपासना में लग गये। हमारे कुटुम्ब में मैं ही इकलौता पुत्र हूँ। मेरे शादी हुये लगभग 7−8 वर्ष हो गये, किंतु कोई सन्तान न होने से घर वाले दुखी थे। मैंने इसके लिये भी चरणों से प्रार्थना की थी। ज्योतिषियों से पूछताछ की, सबने एक स्वर से कहा कि संतानोत्पत्ति का कोई योग नहीं है। पूज्य आचार्य जी के आदेशानुसार मेरी धर्मपत्नी ने भी मेरे साथ 2 ही आराधना शुरू की थी और वह अब माँ भगवती के कृपा से गर्भवती है। शीघ्र इस या अगले माह में प्रसव होगा। माता की कृपा से सब ठीक ही होगा। साथ ही साथ मुझे अच्छी नौकरी मिल जाने से आर्थिक समस्या भी सुलझ गई है। हमारे परिवार के सभी व्यक्ति सुख शाँति का जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

अग्नि से रक्षा (श्री गोमतीबाई दुबे, दमोह)

एकबार मैं रसोई बना रही थी। मेरे अनजाने में साड़ी में आग लग गई। आधी साड़ी जलने के बाद मुझे पता लगा−पर मेरे अंग के किसी भाग में जरा आँच न आयी।

दूसरी बार मैं बाहर गृहकार्य में संलग्न थी। खाट पर छोटी बच्ची सो रही थी। रजाई का एक कोना नीचे लटक रहा था। सहसा घर की बड़ी बच्ची ने एक दहकते हुए अंगारे से भरे तसले को ले जाकर खाट से नीचे रख दिया और चली आई। रसोई का वह भाग तसले से सटा हुआ था, पर अग्नि के स्पर्श से जरा सा ही अलग था। यह गायत्री माता की ही कृपा थी जो वह अबोध शिशु और मैं जलने से बच सकी।

मैं स्वयं बवासीर और वायु दोष की रोगिणी थी। अनेकों इलाज किये जा चुके थे पर गायत्री उपासना करते हुये स्वयं ही वे रोग नष्ट हो गये हैं।

हमारे पड़ोस के एक दंपत्ति निःसन्तान थे। अनेक उपाय किये जा चुके थे, पर कोई परिणाम नहीं हुआ। एक दिन वह नारी मर्माहत−हृदय लिये मेरे पास आयी और अपनी सारी व्यथा कह सुनाई। मैंने मात का स्मरण कर गायत्री से अभिमन्त्रित कर उसे जल मिला दिया और उसे भी जप करने के लिये निवेदन किया। आज वह सन्तानवती बन गई है। इस घटना से मैं स्वयं ही विस्मित और आनन्द विभोर हूँ। अन्तर देश में जो कुछ देख और पा रही हूँ—वह लिख नहीं सकती केवल भाव−दृष्टि से देख−देख मुग्ध हो रही हूँ।

मेरे पतिदेव भी गायत्री उपासक हैं, साधारण क्लर्क का काम करते हैं। एक संस्था के अवैतनिक व्यवस्थापक भी हैं। पुत्र शल्य चिकित्सा की शिक्षा ले रहा है। वे कहते हैं—ये सारे खर्च और संस्था के ऊपर आये हुए अनेकों संकट पूर्ण समस्याओं का समाधान कैसे होता जा रहा है, उन्हें स्वयं पता नहीं है। हम दंपत्ति का विश्वास गायत्री माता पर बढ़ता ही जाता है क्योंकि माता ही हमारा सभी भार और आवश्यकता निभाती और पूरी करती जा रहीं हैं।

पुत्री की सम्भावना पुत्र रूप में परिणत (श्री गोवर्धन सिंह जी, राँची)

हमारी पत्नी को तीन महीने के अंतर्गत ही सन्तति की उत्पत्ति होने वाली थी। हमारे समाज में विशेष कर नारी समाज में ऐसी अनेकों गर्भ विज्ञाता होती हैं, जो दो तीन की मास की गर्भवती नारी को देखकर निश्चित भविष्य को बता देती हैं कि इस नारी को बालक या बालिका होने वाली है। मुझे पुत्र प्राप्ति की बड़ी अभिलाषा थी, किन्तु भाग्य चक्र ने पुत्री को ही गर्भाशय में रख छोड़ा था। यह जान कर मुझे उत्साह नहीं था। यद्यपि मैं गायत्री उपासक था, पर घर के कार्य सम्बन्धी उलझनों के कारण थोड़ा सा जप करना भी मुश्किल जान पड़ता। खूँटी में सामूहिक यज्ञ की आयोजना हुई थी, उसमें सबों की प्रार्थना से श्रीकृष्ण जन्मभूमि मथुरा से आचार्य श्रीराम शर्मा भी पधारे थे। मेरे घर के निकट होने के कारण मैं उसमें भाग ले रहा था। यज्ञ के उपरान्त मैंने अपनी लालसा उनके सामने प्रगट की। उन्होंने कहा:—“तुम्हें लड़की तो अवश्य ही होने वाली है, पर यदि तुम सवा लाख गायत्री महामन्त्र का जप−अनुष्ठान करो तो, तुम्हें पुत्र की प्राप्ति हो जायगी, क्योंकि कभी−कभी गायत्री माता असम्भव को भी सम्भव बना सकती हैं।”

मैंने कहा—अब तो तीन महीने ही शेष रह गये, भला, अय वह कैसे बदल सकता है? उत्तर मिला—माता को कार्य करने के लिये पर्याप्त समय है।

मैं चुपचाप आदेशानुसार साधना में लग गया। आश्चर्य यह कि प्रथम जो थोड़ा सा जप करने में मेरा मन ऊब और थक सा जाता था, वह इस बार इतने अधिक जप करने पर भी थकित नहीं हुआ।

हमारे यहाँ की अनुभवी नारियों ने एक स्वर से कह दिया—इसे तो लड़की ही होने वाली है, हम भी देखना चाहती हैं कि कैसे गायत्री माता इसे लड़का बना देती हैं?

30/7/55 की दो रात में सब को आश्चर्य में डालते हुए गायत्री माता की कृपा से गुरुदेव की भविष्य−नव निर्माण की वाणी से सुन्दर पुत्र हुआ। प्रातः ही उसे देखने की अभिलाषा वालों की भीड़ लग गयी।

मुझे तो पूर्ण विश्वास हो गया है, कि गायत्री माता अपने उपासकों के लिये सब कुछ करने को तैयार रहती हैं।

तेरहवीं सन्तान पुत्र (श्री पातीराम त्रिपाठी ‘विशारद्’ उदईपुर)

मैंने दो वर्ष तक बड़ी तन्मयता से अध्ययन किया और ‘विशारद्’ की परीक्षा दी पर उत्तीर्ण नहीं हो सका। उसके उपरान्त मैंने प्रतिदिन गायत्री जप करते हुए पड़ा और इस बार बिना श्रान्ति बोध किये द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया।

उपासना करने से स्वतः सत्य बोलने की प्रवृत्ति और अभ्यास बढ़ता जा रहा है। भविष्य की उन्नति के लिये नवीन विचार स्वतः ही उत्पन्न होते रहते हैं और उसने निरन्तर लाभ हो रहा है।

मेरे गाँव के छेदीलाल ब्रह्मभट्ट जी को केवल लड़कियाँ ही उत्पन्न होतीं थी, अतः वे पुत्र प्राप्ति के लिये बड़े ही व्याकुल और चिन्तित रहते थे। उन्हें अनुक्रम 12 लड़कियाँ हो चुकीं थीं। तेरहवाँ गर्भकाल था। वे मुझ से मिले। मैंने उन्हें पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से गायत्री माता की उपासना करने की सलाह दी। 5) पाँच रुपये की हवन सामग्री मंगाकर गायत्री मन्त्र से आहुति दी गयी। ब्रह्मभोज भी हुआ।

गायत्री माता की कृपा से तेरहवीं सन्तान पुत्र हुआ, जो स्वस्थ और सुन्दर है। माता सभी का सद्−अभीष्ट पूरा करे, ऐसी मेरी प्रार्थना है।

पारिवारिक कलह की शाँति (श्री लक्ष्मीनारायण साईं वाल इन्दौर)

जुलाई सन् 1953 तक मैंने कभी भी गायत्री माता की उपासना नहीं की। मुझे इसके लिये श्री सुरेन्द्रनाथ तिवारी सदैव ही माता की उपासना करने के हेतु बारम्बार कहा करते थे। परन्तु उस समय मैं उनकी इन पूजा पाठ की बातों पर विशेष ध्यान नहीं देता था। अन्ततः जब मैं चारों ओर से घोर विपत्तियों में फँस गया, उस समय मुझे माता की उपासना का ध्यान आया कि कम से कम नियमित रूप से एक माला व गायत्री चालीसा का पाठ करते ही रहने चाहिये। अतः सितम्बर 53 से आजीवन उपासना करने के दृढ़ संकल्प ले लिया।

लगभग 12 साल से मेरे कुटुम्ब में कलह हो रहा था। दोनों ओर से इतना मन मुटाव हो गया था कि एक दूसरे की ओर देखना भी अच्छा नहीं समझते थे। इतनी कट्टर−द्वेष भावना हम दोनों पक्ष में हो गई थी कि एक दूसरे को जान से मार डालने तक का इरादा हो गया था। दोनों पक्षों का काफी पैसा भी नष्ट हुआ। जब से हमने माता की शरण ग्रहण की, तब से हमारे स्वभावों में बड़ा परिवर्तन हो गया है। हमारे द्वेष भाव के विचार नष्ट हो गये हैं। आपस में मिलने जुलने भी लगे हैं और पहले की भाँति परस्पर पर मिल जुल कर रह रहे हैं।

माता की कृपा से में विद्याध्ययन में भी दिन प्रतिदिन सफलता भी प्राप्त कर रहा हूँ और उन्हीं कृपादृष्टि से मैंने इस वर्ष दो परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण करली हैं जिनमें कि मैं लगभग 5 वर्ष से प्रविष्ट होते हुए भी सफलता प्राप्त नहीं कर सका। मेरी नौकरी में 6 वर्ष से कोई तरक्की नहीं हुई थी, वह अब माता की कृपा से हो गई। इस प्रकार आज तक मेरी कई बाधाओं का निवारण माता ने दूर किया है और करती भी जा रही हैं तथा दिन प्रतिदिन विश्वास दृढ़ होने से एक माला बढ़ा आठ माला प्रति दिन जप करता हूं। आगे जप बढ़ाने की इच्छा है।

मुकदमे में सफलता (श्री जगदीश स्वामी कटनी)

लगभग दो वर्ष हुये मुझे “अखण्ड ज्योति” पत्रिका पढ़ने को मिली। मैं इस पत्रिका से ऐसा प्रभावित हुआ कि इसका ग्राहक बन गया। मैंने परम पूज्य आचार्य जी द्वारा बताए हुये नियमानुसार गायत्री उपासना प्रारम्भ कर दी। प्रारम्भ में मन नहीं लगता था, अब उन्हीं की कृपा से स्थिरता बढ़ रही है। दैवयोग से आपस में कुछ कलह हो जाने से मुझे दो मुझे मुकदमों में फंसना पड़ा। कुछ महीनों के बाद मुकदमा समाप्त हुये और फैसले में असफलता मेरे भाग्य में आई। मैं दुःखी रहने लगा। मैंने गुरुदेव को पत्र लिखा और संकट निवृत्ति के लिये प्रार्थना की। उन्होंने अधिक श्रद्धा एवं विश्वास के साथ गायत्री साधना में लग जाने को कहा। मैंने तद्नुसार संकल्प सहित उपासना बढ़ा दी। माता की कृपा से मुझे साहस बढ़ा। प्रेरणावश मुकदमें की अपील कर दी। कुछ माह बाद तारीख पड़ी। मुकदमा नये सिरे से चलाये गये। सच्चाई प्रगट हो गई और अन्त में मुझे सफलता प्राप्त हुई।

शत्रुओं पर विजय (श्री मदनलाल जोशी, गंगाधार)

अखण्ड ज्योति ने मुझे, बिना किसी आवश्यकता के—खींच कर गायत्री उपासना में प्रवृत्त कर दिया और शायद यह अकारण ही दया करने वाली माता की अपार करुणा थी, जिसके कारण मैं भविष्य में आने वाले अटल संकट से निस्तार पा सका।

दुर्भाग्यपूर्ण प्रारब्ध को कारण मेरे दुश्मनों ने पुलिस को पक्ष में कर लिया और मेरे ऊपर ऐसे अभियोग लगाये, कि जिसकी सफलता होने से मेरा सर्वनाश उपस्थित था। एक सप्ताह के अन्दर ही मुकदमों की जटिलता इतनी बढ़ गयी कि मैं दुश्चिन्ता के कारण सो नहीं सकता था। रुपयों तथा उच्च पद स्थित साथियों की सहायता लेने का विचार मन में उत्पन्न हुआ, पर उसी समय अन्तर में एक आवाज आयी—अपना हित चाहते हो तो सारे भरोसों को छोड़ कर गायत्री उपासना करो।” उसी दिन मैंने विधि पूर्वक उपासना प्रारम्भ कर दी। इस सप्ताह में मुझे चिन्ता से नींद नहीं आती थी, पर उपासना करने की रात्रि में इतनी निश्चिन्तता का बोध हुआ, कि मैं सूर्योदय तक बेखबर पड़ा रहा। शौच−स्नान के उपरान्त उपासना की। कलक्टर साहब से मिलने की प्रेरणा हुई। जाकर मिला।

माता के अनुग्रह से, उन विद्वेषियों को पाँच−पाँच सौ रुपये का मुचलका देना पड़ा। हथकड़ियाँ पहनने पड़ी। इतने पर भी उन लोगों के अन्तर की द्वेपाग्नि शान्त नहीं हुई थी, उन लोगों ने पाँच−सात गुण्डों को रुपये का प्रलोभन देकर अप्रगट रूप से मुझे सताने की योजना बनायी। मेरा अनुष्ठान चल ही रहा था। कुछ दिन मुकदमे में मेरी शानदार विजय हुई, उसी समय मुझे बदल कर गंगाधार आ जाना पड़ा। मन में आया, इस परदेश में शायद गुण्डों को मेरे ऊपर आघात करने का अनुकूल अवसर न मिल जाय? पर माता की कृपा। एक गुण्डे की माता जी बीमार पड़ गयी, उसके रुपये उसी में खर्च होने लगे। दो गुण्डों को मारपीट केस में सजा हो गयी और शेष यों ही ठण्डे हो गये।

आप सोच सकते हैं कि यदि मैंने गायत्री उपासना का आश्रय न लिया, होता तो आज मैं जेल में पड़कर सड़ता रहता और जीविका के भी लाले पड़ जाते। माता की असीम कृपा से सारे उलझनों से बाहर निकल कर आज हम निर्द्वन्द भाव से अपना काम करते हुए जीवन यापन कर रहे हैं।

मेरे कुछ अनुभव (श्री बेनी माधव जी, दिल्ली)

गायत्री तपोभूमि। ब्राह्ममुहूर्त। नवरात्रि की पञ्चमी। सहसा दिव्य सूर्य का उदय हुआ। कितनी मुग्धकारिणी हैं, उसकी किरणें! यदा−यदा उसके अंग दर्शन होते ही रहते हैं।

एक मुकदमा था, मेरे पुत्र पर; अपील की गयी थी। 10 दिन पहले ही मुझे बता दिया गया कि तुम जीत जाओगे और वही परिणाम हुआ।

मेरी एक वस्तु खो गयी थी। मुझे ठीक−ठीक पता और स्थान बता दिया। वहाँ जाने पर वह वस्तु मिल गयी। ऐसे कितने ही चमत्कार मेरे जीवन में उपस्थित होते रहते हैं। माता की कृपा की कोई सीमा नहीं है।

गायत्री द्वारा संकटों से निस्तार (ए॰ पी॰ श्रीवास्तव गार्ड, सी॰ रेलवे, दमोर स्टेशन)

मैं एक माल गाड़ी का गार्ड था। दमोह जंक्शन से कटनी जंक्शन तक मेरे ऊपर संरक्षण का उत्तर दायित्व था। एकबार लगभग साढ़े सात बजे रात में सलैया स्टेशन पर एक डब्बे से चोरों ने चोरी करली। मैंने उसी समय, ये बातें सभी को जता दी, तार भी कर दिया। फिर भी छः महीने के उपरान्त हमारे विभाग वालों ने मुझे ‘गार्ड’ पद से च्युत कर ‘नम्बर टेकर’ बनाने का प्रयत्न किया। पुलिस विभाग वालों ने झूठा लांछन लगाने का षड़यंत्र किया, पर उन सभी सारी चेष्टायें व्यर्थ हो गयीं। मैंने अपने भाई शारदा कान्त के निवेदन तथा वीना ड्रायवर भगवती दीन जी, जो एक अनुभवी गायत्री उपासक हैं, के निर्देशानुसार, स्वयं गायत्री उपासना प्रारम्भ कर दीया। थोड़े दिनों के उपराँत मैंने अपील की और माता की कृपा से ये संकट विनष्ट हो गये और जिन लोगों का द्वेपवश, बिना अपराध के मुझे गड्ढे में ढकेलने का प्रयत्न किया था, वे स्वयं ही दण्डित हो कर अपना फल भुगत रहे हैं। अब तो माता की कृपा से मेरे ऊपर आये संकट अनायास ही टल जाया करते हैं।

फाँसी से मुक्ति (श्री रामावतार शर्मा, हस्वा)

मेरे एक सम्बन्धी पर मुकदमा चल रहा था। विरोधी पक्ष के सबूत बहुत ही प्रबल हो रहे थे। सबों का विश्वास था कि अब यह फाँसी से किसी भाँति बच नहीं सकता। स्वयं मेरा भी यही विश्वास था। नजदीक के सम्बन्धी होने के कारण मुझे भी उनके प्रति बड़ी ममता थी। हम सबों ने इस सम्मुख प्राप्त मृत्यु से बचने के लिये एक मात्र गायत्री माता की शरण लेना सर्वोपयुक्त समझा और उसी की उपासना में जुट गये। सभी को आश्चर्य है कि अपने पक्ष के प्रमाण कमजोर होते हुए भी कैसे माता ने उसे बचा लिया।

मैंने भी एकबार परीक्षा में इतना असन्तोष−जनक उत्तर लिखा था कि स्वयं मैं ही कह सकता था कि मैं असफल हूँ, पर माता की कृपा से मुझे सफलता ही प्राप्ति हो गयी। माता की कृपा अपरम्पार है। वह कुछ कर सकती है। मुझे पूरा विश्वास है।

गायत्री माता की सहायता (श्री रमादेवी रस्तोगी. बम्बई)

आज बीस वर्ष से मैं हाथों के रोग से पीड़ित रही हूँ। कितने चिकित्सकों से प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों में जाकर इलाज कर वाया पर कदाचित ही कुछ लाभ हुआ। एकबार हाथ की हालत इतनी खराब हो गयी कि न तो हाथ ऊपर उठता था ओर न पीछे जाता था। उससे कोई काम भी नहीं कर सकती थी। कोई वस्तु पकड़ी भी नहीं जा सकती थी। चारों ओर से निराश होकर मैं घर आ गयी थी और इसके निवारणार्थ गायत्री उपासना में लग गयी। मेरे पुत्रों ने जिद पूर्वक कुछ इलाज कराना भी जारी रखा पर मैं सारी औषधियों से हार चुकी थी अतः मुझे केवल माता पर ही भरोसा था।

यह दशा मेरे दाहिने हाथ की ही थी। वह सुख कर बांये हाथ की अपेक्षा डेढ़ इञ्च पतला हो गया था। एक महीना उपासना बीतते ही मैं उस हाथ से भोजन और अन्य सभी काम करने लगी और आज ये लेख उसी हाथों से लिख कर भेज रही हूं। यह लेख स्वयं माता का प्रसाद है।

जीवन के सभी क्षेत्रों में लाभ (पं॰ राधेश्याम शर्मा, टिमरनी)

माता की कृपा की कोई सीमा नहीं है, केवल हमें उसके अनुकूल होने की आवश्यकता है। मैं और मेरी धर्मपत्नी दोनों ही गायत्री उपासना करते आ रहे हैं, पर मेरी अपेक्षा पत्नी की निष्ठा और भक्ति विशेष है। अखण्ड ज्योति प्रेस की दिव्य पुस्तकें ही मेरी पथ प्रदर्शिका हैं हम अपने जीवन में पग−पग पर अनुभव करते हैं कि माता हमारी सहायता करने के लिये सदा खड़ी रहती हैं, मेरी जीविका का आधार नौकरी है, फिर भी कभी अर्थ के अभाव का अनुभव होते ही माता उसे किसी भाँति पूरी कर देती है। मेरी नौकरी में जब बदली के अवसर आते तो माता ने सदा मेरे इच्छित स्थानों में ही मुझे नियुक्त करवाया और अनचाहे−चाहे, मेरे ऊपर के सभी पदाधिकारी गण मुझसे सदा प्रसन्न ही रहते हैं। ऐसी कृपाओं से हमारे जीवन में सदैव दर्शन होते ही रहते हैं।

एक बार किसी भयंकर ग्रह दोष के कारण मैं बीमार पड़ा। उपचार करते हुए भी रोग बढ़ते ही गये और एक दिन मैं बेहोश हो गया। शरीर शीतल हो गया−नाड़ियाँ। शिथिल पड़ गयी। सभी घबड़ा उठे और सिसकियाँ भरने लगे, पर मेरी धर्मपत्नी की श्रद्धा अविचल थी। उसके मुख पर घबड़ाहट की छाया भी न पड़ी, यद्यपि एक महीने से मेरी सेवा करते हुए उसे भली प्रकार भोजन और शयन का भी पूरा अवसर नहीं मिल पाया था। पाँच घन्टे तक मैं बेहोश रहा और वह उपासना में तल्लीन रही। उसके आते ही मैं ठीक उसी भाँति होश में आ गया, जैसे कोई नींद पूरी होने पर उठ बैठता है। फिर तो एक सप्ताह में ही मैं पूरा चंगा हो गया।

इसी प्रकार मेरी बड़ी बच्ची मोतीझरे की बीमारी में अपना होश−हवास खो बैठी। उसने (मेरी पत्नी न) माता से प्रार्थना की और बच्ची होश में आ गयी और दो−चार दिन में रोग मुक्त भी हो गयी। हम तो सब काम करते हुए माता के भरोसे निश्चिन्त रहते हैं। हमें विश्वास है कि माता कभी बुरा न होने देगी।

मृत्यु मुख से मेरी पत्नी की वापसी (श्री नेमीचन्द मूदण्डा, कलकत्ता)

पूर्वी पाकिस्तान में एक महाजन के यहाँ मैं नौकरी करता था। दुर्भाग्य के कारण एक दिन उस महाजन से मेरा झगड़ा हो गया और मैं नौकरी से हटा दिया गया, साथ ही, मेरे वेतन के (1600) सोलह सो रुपये देने से भी वह इन्कार कर गया। सहसा ही यह आर्थिक वज्रपात होते देख, मेरा साहस और [धैर्य, घबड़ाहट में परिणत हो गया। मैंने कलकत्ते आकर मालिक से अनेकों भाँति अनुनय−विनय किया, पर वह जरा भी न पसीजा। एक पैसा तक न दिया। मैं दर−दर ठोकर खाते फिरा। तीन महीने तक कलकत्ते शहर में अभाव ग्रस्त की जो दशा हो सकती है, वह सभी मुझे भुगतने पड़े। एक मेरे भतीजे ने, जो अखण्ड−ज्योति’ पत्रिका या गायत्री परिवार का एक सदस्य था, गायत्री महा विज्ञान” का प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भाग—मुझे चिन्ता−ग्रस्त देखकर पढ़ने कि लिये दिये साथ ही उसने कहा—गायत्री माता का अंचल पकड़ने से अवश्य ही आप के संकट दूर हो जायेंगे।

आशा और भक्ति भाव से “गायत्री महाविज्ञान तीनों भाग समाप्त कर, तुरन्त ही मैंने 24000 हजार की गायत्री लघु−अनुष्ठान का निश्चय किया पर पास में एक भी पैसा नहीं था। मेरे मन में विचार हुआ कि पाकिस्तान जाकर ही यह अनुष्ठान करूं और उक्त 1600) वेतन के रुपये पाने का प्रयत्न करता रहूँ। हृदय ने अत्यन्त करुण भाव से माँ को पुकारा। दूसरे ही दिन एक मित्र से मुझे 200) दो सौ रुपये मिल गये। हर्ष से मेरी आँखों ने माता के भावमय पाद पद्मों पर आँसुओं का अर्घ्य दिया और पाकिस्तान चल पड़ा। सुविधा से पासपोर्ट भी मिल गया। वहाँ जाते हैं मैंने विधिपूर्वक नौ दिन में 24000 जप पूर्ण करने का अनुष्ठान लिया। जप करते समय मेरी आंखों से आँसू छलक पड़ते। सात ही दिन हुए थे, कि एक दूसरे महाजन ने मुझे बुलाया और कहा कि तुम्हारे मालिक के रुपये मेरे यहाँ बाकी हैं, उसे ले जाओ। मैंने रसीद लिख दी और उन्होंने 2300) तेईस सौ रुपये मुझे दे दिये। आठवें दिन जप करते समय माता की करुणा की याद आते ही धारा सी बहने लगती। नवें दिन अनुष्ठान पूर्ण कर मैं रुपये लेकर मालिक के पास कलकत्ते आया और जानकारी करा कर रुपया सामने रख दिया। उसने बड़ी ही प्रसन्नता से वेतन के 1600) सोलह सौ रुपये मुझे देकर धन्यवाद भी दिया।

माता के प्रति उमड़े हुए प्रेम की धारा सहसा ही गुरुदेव की ओर दौड़ पड़ी। मैं गुरुदेव के दर्शन के लिये व्याकुल हो उठा। मेरी आंखें मथुरा में जा अटकीं। कोई मेरे हृदय और प्राण को साथ शरीर को भी बरवश खींच रहा था। कलकत्ते से टिकट कटाकर कैसे मथुरा आ गया—यह मैं गायत्री तपोभूमि मथुरा आकर ही ख्याल कर सका।

आंखें उनके चरणों का प्रक्षालन कर रहीं थी और गुरुदेव स्नेह से पुचकारते हुए मेरे शरीर पर हाथ फेर रहे थे।

सोचा था, एक सप्ताह तपो भूमि में गुरु चरणों की छाया के नीचे रह कर घर चला जाऊंगा (मेरे घर के रास्ते में ही मथुरा पड़ता था) पर, डेढ़ महीने बीतने के बाद मुझे एक सप्ताह रहने के विचार का ख्याल हुआ और अनिच्छा से घर की ओर प्रस्थान किया। गुरुदेव आँखों से स्नेह बरसा रहे थे।

घर—डिडवाना आया। छः महीने के उपरान्त वहाँ से यशवन्त गढ़ गया। सहसा ही आसोज की नवरात्रि का समय उपस्थित हो गया। मैंने वहीं पर अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया। पांचवें दिन घर से खबर आयी कि आपकी पत्नी को जोरों से बुखार हो आया है। एक बार घर जाने की उतावली सम्पूर्ण मन में व्याप्त हो गयी, फिर गुरुदेव की कृपा से अपने को स्थिर कर—अनुष्ठान पूरा करके ही घर जाने का निश्चय किया। समाप्ति के दूसरे दिन (दसवें दिन) घर आया देखा बीमारी की दशा अत्यन्त खराब हो रही थी। दशा बिगड़ती ही गयी। हम चिकित्सक सहित उसके जीवन से निराश हो गये।

सबे


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