गायत्री की महान महिमा

October 1955

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गायत्री सनातन एवं अनादि मंत्र है। पुराणों में कहा गया कि—“सृष्टि कर्ता ब्रह्मा को आकाश वाणी द्वारा गायत्री मन्त्र प्राप्त हुआ था, इसी की साधना का तप करके उन्हें सृष्टि निर्माण की शक्ति प्राप्त हुई थी। गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप हो ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया। गायत्री को वेदमाता कहते हैं। चारों वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं।” गायत्री को जानने वाला वेदों को जानने का लाभ प्राप्त करता है।

गायत्री के 24 अक्षर अत्यंत ही महत्वपूर्ण शिक्षाओं के प्रतीक हैं। वेद, शास्त्र, पुराण, स्मृति, उपनिषद् आदि में जो शिक्षाएँ मनुष्य जाति को दी गई हैं, उन सबका सार इन 24 अक्षरों में मौजूद है। इन्हें अपनाकर मनुष्य प्राणी व्यक्ति गत तथा सामाजिक सुख शान्ति को पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकता है।

गायत्री,गीता,गंगा और गौ यह भारतीय संस्कृति की चार आधार शिला हैं, इन सब में गायत्री का स्थान सर्व प्रथम हैं। जिसने गायत्री के छिपे हुए रहस्यों को जान लिया उसके लिये और कुछ जानना शेष नहीं रहता।

समस्त धर्म ग्रन्थों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई है। समस्त ऋषि, मुनि मुक्त कण्ठ से गायत्री का गुणगान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा बताने वाला इतना साहित्य भरा पड़ा है कि उसका संग्रह किया जाय तो एक बड़ा ग्रन्थ ही बन सकता है। गीता में भगवान ने स्वयं कहा है—‘गायत्री छंदसामहम् अर्थात्—गायत्री मन्त्र में स्वयं ही हूँ।’

गायत्री सर्व श्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम मंत्र है। जो कार्य संसार में किसी अन्य मंत्र से हो सकता है, गायत्री से भी अवश्य हो सकता है। इस साधना में कोई भूल रहने पर भी किसी का अनिष्ट नहीं होता, इससे सरल, स्वल्प श्रम साध्य और शीघ्र फलदायिनी साधना दूसरी नहीं है। समस्त धर्म ग्रन्थों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई है। अथर्ववेद में गायत्री को आयु विद्या, संतान कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है।

गायत्री की साधना द्वारा आत्मा पर जमे हुए मल विक्षेप हट जाते हैं, तो आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है और अनेक ऋषि−सिद्धियाँ परिलक्षित होने लगती हैं। दर्पण माँज देने पर उसका मैल छूट जाता है। उसी प्रकार गायत्री साधना से आत्मा निर्मल एवं प्रकाशमान होकर ईश्वरीय शक्तियों, गुणों,सामर्थ्यों एवं सिद्धियों से परिपूर्ण बन जाती है।

गायत्री मंत्र से आत्मिक कायाकल्प हो जाता है। इस महामंत्र की उपासना आरम्भ करते ही साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे आन्तरिक क्षेत्र में एक नई हल−चल एवं रद्दोबदल आरम्भ हो गई है। सतोगुणी तत्वों की अभिवृद्धि होने से दुर्गुण, कुविचार, दुःस्वभाव एवं दुर्भाव घटने आरम्भ हो जाते हैं और संयम, नम्रता, उत्साह, स्फूर्ति, श्रम−शीलता,मधुरता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, उदारता,प्रेम, संतोष, शान्ति, सेवा भाव,आत्मीयता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन−दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप लोग उसके स्वभाव, एवं आचरण से संतुष्ट होकर बदले में प्रशंसा, कृतज्ञता, श्रद्धा एवं सम्मान के भाव रखते हैं और समय−समय पर उसकी अनेक प्रकार से सहायता करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं कि जिस हृदय में इनका निवास होता है वहाँ आत्मा−संतोष की परम शाँतिदायक शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहती है। ऐसे लोग सदा स्वर्गीय सुख का आस्वादन करते रहते हैं।

गायत्री—साधना से साधक के मनःक्षेत्र में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। विवेक, दूरदर्शिता, तत्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञान जन्य दुःखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश, अनिवार्य कर्म फल के कारण कष्ट साध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती है। हानि, शोक,वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों से जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य कष्ट पात हैं वहाँ आत्म बल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक,ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा,धैर्य, संतोष, संयम और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते−हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी वह अपने आनन्द का मार्ग ढूंढ़ निकालता है और मस्ती, प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है।

गायत्री को भूलोक की कामधेनु कहा गया है क्योंकि यह आत्मा की समस्त क्षुधा पिपासाएं शाँत करती है। गायत्री को ‘सुधा’ कहा गया है—क्योंकि जन्म मृत्यु के चक्र से छुड़ा कर सच्चा अमृत प्रदान करने की शक्ति से वह परिपूर्ण है। गायत्री को ‘पारसमणि’ कहा गया है क्योंकि उसके स्पर्श से लोहे के समान कलुषित अंतःकरणों का शुद्ध स्वर्ण जैसा महत्वपूर्ण परिवर्तन हो जाता है। गायत्री को ‘कल्पवृक्ष’ कहा गया हे क्योंकि इसकी छाया में बैठ कर मनुष्य उन सब कामनाओं को पूर्ण कर सकता है जो उसके लिये उचित एवं आवश्यक हैं।

श्रद्धापूर्वक गायत्री माता का अञ्चल पकड़ने का परिणाम सदा कल्याणकारक ही होता है। गायत्री को ‘ब्रह्मास्त्र’ कहा गया है क्योंकि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। इसका प्रयोग कभी व्यर्थ नहीं होता।

सब से उत्तम यह है कि निष्काम होकर अटूट श्रद्धा और भक्ति भव से गायत्री की उपासना की जाय, कोई कामना पूर्ति की शर्त न लगाई जाय। क्योंकि मनुष्य अपने वास्तविक लाभ या हानि और आवश्यकता को स्वयं उतना नहीं समझता जितना घट−घट वासिनी सर्व शक्ति मान माता समझती है। वह हमारी वास्तविक आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करती है। प्रारब्ध वश कोई अटल दुर्भाग्य न भी टल सके तो भी साधना निष्फल नहीं जाती। वह किसी न किसी अन्य मार्ग से साधक को उसके श्रम की अपेक्षा अनेक गुना लाभ अवश्य पहुँचा देती है। सबसे बड़ा लाभ आत्म कल्याण है। जो यदि संसार के समस्त दुःखों को अपने ऊपर लेने से प्राप्त होता हो, तो भी प्राप्त करने ही योग्य है।

गायत्री उपासना से प्रमुखतः आध्यात्मिक उन्नति होती है। वही लाभ पुण्य है। साथ ही कुछ न कुछ साँसारिक लाभ भी होते हैं। इन लाभों का कुछ विवरण गायत्री उपासकों के द्वारा लिखा हुआ इस अंक में उपस्थित किया जा रहा है। आशा है कि इससे उपासना मार्ग के पाठकों को आत्मकल्याण की, सुख शान्ति की दिशा में अग्रसर होने का अवसर मिलेगा।


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