भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि

September 1954

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जिस प्रकार धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध आदि भारतीय धर्म के आदर्श किसी वर्ग विशेष के लिये नहीं वरन् सम्पूर्ण मनुष्य जाति के परम कल्याण के लिए हैं। उसी प्रकार जीवन यापन की भारतीय पद्धति भी किसी सम्प्रदाय विशेष से बंधी हुई नहीं है वरन् मनोविज्ञान और भौतिक विज्ञान के ठोस सिद्धान्तों की कसौटी पर कसने के पश्चात् ही विनिर्मित हुई हैं। हमारे परम पूजनीय ऋषि महर्षि रूढ़िवादी, अन्धविश्वासी, फिर्केबाज न थे, वे बहुत समय तक अनेक दृष्टियों से किसी बात को परीक्षा करने के बाद जब सर्वोपयोगी मान लेते थे, तभी उसे जन साधारण के लिए उपस्थित करते थे। इस प्रकार वे एक ऐसा उपयोगी मार्ग सबके लिए बनाते थे जिस पर चलाने से जीवन यापन में अनेक साँसारिक सुविधाएं सफलताएं प्राप्त होती थीं और आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त होता जाता था।

हिन्दू धर्म के आचार विचार ऐसे ही हैं। उनका निर्माण मनुष्य जीवन की सुख-सुविधाएं बढ़ाने के लिए विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से ही किया गया है। आज उन नियमों में कुछ विकृतियाँ आ गई हैं जिन्हें सुधार कर उसका मूल रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता है। साथ ही उन तथ्यों को समझने और समझाने की व्यवस्था न रहने के कारण उन लोगों की जो अरुचि एवं उपेक्षा वृत्ति उत्पन्न हो रही है उसे ठीक करने की आवश्यकता है। यदि हिन्दू जीवनयापन पद्धति के रहस्यों को जन साधारण के समक्ष वैज्ञानिक एवं बुद्धि संगत रीति से तर्क, प्रमाण, उदाहरण के साथ उपस्थित किया जाए तो निस्सन्देह उन महान तथ्यों से हम सब फिर पहले की भाँति लाभाँवित हो सकते हैं।

वर्णाश्रम धर्म को ही लीजिए यह सामाजिक सुव्यवस्था की सर्वोत्तम पद्धति है। हर व्यक्ति दूसरों की सुख-सुविधा का अधिक और अपनी तृष्णा एवं सुखेच्छा का कम ध्यान रखे तभी समाज में प्रेम, सहयोग, सद्भाव, सुव्यवस्था और सुख-समृद्धि सम्भव है। यदि हर कोई अपने अपने मतलब को प्रधानता देने लगे और दूसरों की सुविधा का विचार न करे तो समाज में घोर क्लेश और संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। इस अव्यवस्था से बचने के लिए चार वर्ग बनाये गये। यह कहा गया कि जो द्विज है वस्तुतः वही मनुष्य है। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म। एक जन्म जो माता-पिता के रज वीर्य से सभी का होता है वह शूद्र जन्म है। जब मनुष्य गायत्री माता रूपी सद्बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा को, यज्ञ पिता रूपी संयम और त्याग को अपना अभिभावक मान लेता है तब वह द्विज बनता हैं। यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, गुरुदीक्षा नाम से द्विजत्व ग्रहण करने का समारोह संस्कार धूमधाम के साथ होता है ताकि वह व्यक्ति उस प्रतिज्ञा को, लक्ष को, वस्तुस्थिति को भली प्रकार समझें। द्विज का कर्त्तव्य है कि जीवन धारण जितनी वस्तुएं अपने लिये लेकर शेष योग्यता, सामर्थ्य, शक्ति, क्रिया और भावना को समाज की भलाई के लिए लगावें।

ब्राह्मण अत्यन्त तप और त्याग पूर्ण जीवन जीता है। अपना उज्ज्वल आदर्श ऐसा रखता है जिसमें अन्य वर्ण उसका अनुकरण करके अधिक संयमी जीवन बितावें। वह अपना सारा समय सद्ज्ञान के संग्रह में लगाता है और उस ज्ञान को जनता में बिना मूल्य वितरण करता है। इस प्रकार हर आदमी को लाभ शोध का महान श्रम न करते हुए भी उसका लाभ अनायास ही प्राप्त हो जाता है। वेदों में सन्निहित अनेकों विद्याओं की शोध, उनका प्रकटीकरण, प्रयोग, उपदेश, आदि के द्वारा यह वर्ग जनता की भारी सेवा करने में संलग्न रहता है। दूसरा वर्ण क्षत्रिय है इसका काम है समाज में जो आसुरी तत्व भरें उन्हें न उभरने दें। चोर, डाकू, लुटेरे, हत्यारे, बेईमान, गुण्डे, व्यभिचारी, अन्यायी तत्वों के आतंक से प्रायः हर कोई अलग-अलग होकर आत्मरक्षा नहीं कर सकता। इसलिए यह वर्ण संगठित रूप से अपनी शक्ति को बढ़ाता है और उसका उपयोग केवल अनीति के निवारण और न्याय की रक्षा में करता है। इस प्रकार जनता को दुष्टता के आतंक से छुटकारा पाकर निर्भयतापूर्वक अपने अपने कामों में लगने का अवसर मिलता है। ये क्षत्रिय लोग समाज हित के लिए अपनी जान को हर वक्त हथेली पर रखते हैं और ब्राह्मण के समान ही त्यागी, उदार तथा दयार्द्र भावनाओं से ओत-प्रोत होते हैं। जिस प्रकार ब्राह्मण अज्ञान का, क्षत्रिय अशक्ति का निवारण करने के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करते हैं। उसी प्रकार वैश्य समाज के अनेक अभावों को दूर करके उनकी आवश्यकताओं का सामान जुटाने में संलग्न रहते हैं। कृषि, गौ रक्षा, वाणिज्य के द्वारा जनता में अन्न, दूध, घी, वस्त्र, औषधि, धातु आदि पदार्थों को जन-जन के लिए उपलब्ध कराने में प्रयत्नशील रहते हैं। शुद्ध, उत्तम, उपयोगी वस्तुएं उचित मूल्य पर जुटाते रहना इनका कार्यक्रम होता है। इस रीति से यदि कुछ धन संग्रह भी हो जाय तो उसे समाज की आवश्यकता के लिए मुक्त हस्त से दान करके अपने को ब्राह्मण क्षत्रिय से किसी भी प्रकार कम त्यागी सिद्ध नहीं होने देते।

इस प्रकार जो लोग संसार में दुखों के तीन प्रधान कारण अज्ञान, अशक्ति और अभाव को दूर करने के लिए-व्यक्तिगत सुख सुविधाओं को तिलाँजलि देकर-संलग्न हैं वे द्विज माने गये हैं। ऐसे लोग जिस समाज में भरे हुए हों वह देश निस्संदेह देवताओं का वर्ग होता है। जो लोग उपरोक्त प्रकार के त्याग न कर सकें वे शूद्र ठहराये गये। उन पर भी यह प्रतिबन्ध रहा कि वे अपनी शारीरिक मानसिक शक्तियों को केवल समाज की सेवा में ही लगावे। सेवा ही अपना धर्म माने। इन नियमों से बंधा हुआ चातुर्वण्य निस्संदेह समाज रचना का उत्तम आधार था। आज यह आधार टूट रहा है। लोग अपने कर्त्तव्यों को भूल कर केवल जन्म मात्र से जाति मानने लगे हैं और व्यर्थ ही एक दूसरे से ऊँच-नीच बनते हैं। इन विकृतियों को सुधार करके यदि प्राचीन काल जैसा धर्म, प्रतिष्ठापित हो जाय तो निश्चय ही सब लोग प्रसन्नतादायक स्थिति का रसास्वादन कर सकते हैं। अपने-अपने व्यवसाय को लोग पैतृक परम्परा के साथ पकड़े रहें तो उसमें आसानी से बहुत चतुरता एवं सफलता प्राप्त करके अपनी उत्कृष्टता एवं विशेषज्ञता से राष्ट्र को लाभ पहुँचा सकते हैं। हर पीढ़ी पर पेशा बदलना एक सामाजिक अव्यवस्था का कारण ही बनता है।

आश्रम धर्म ही इसी प्रकार महत्वपूर्ण है। यौवन के समुचित विकास तक ब्रह्मचर्य वीर्य रक्षा होने से शरीर का रक्त माँस, नसें, हड्डियाँ परिपुष्ट होकर रोग निवारिणी और दीर्घजीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है। बल, बुद्धि, विद्या, ओज एवं मानसिक और आत्मिक विकास का पर्याप्त समय मिल जाता है तथा भावी संतति उन्नतिशील होती है। गृहस्थ धर्म में प्रवेश करके समाज के नव निर्माण में अपना महत्वपूर्ण पार्ट अदा करना भी आवश्यक है। इसके उपरान्त जब आयु ढलने लगे नवीन वीर्य या उत्पन्न होना बन्द हो जाय तो वानप्रस्थ लेकर, घर की जिम्मेदारी बड़े बच्चों को सौंपनी चाहिए और अपनी देख-रेख में ही उन्हें सुयोग्य बना देना चाहिये। साथ ही जीवन के अन्तिम भाग को परमार्थ साधना के लिए तैयारी आरम्भ कर देनी चाहिए। जीवन के चतुर्थ अध्याय में पारिवारिक जिम्मेदारियों से छुटकारा पाकर अपने परिपक्व ज्ञान और अनुभव को जनता में फैलाने के लिये तथा अपनी वासनाओं को परिमार्जित करने के लिए संन्यास ले लेना चाहिए। आयु का यह विभाजन कितना वास्तविक बुद्धिमतापूर्ण एवं उपयोगी है इसका अनुभव वे ही कर सकते हैं जो इसे क्रिया रूप में लाते हैं। आज तो जब तक वासना का उदय नहीं होता तब से लेकर मृत्यु पर्यन्त मनुष्य वासना और तृष्णा में ही कण्ठ तक डूबा रहता है। यह प्रवृत्ति स्वास्थ्य, सुसन्तति, समाज व्यवस्था तीनों ही दृष्टियों से हानिकारक है। यदि यह विकृति दूर हो जाय तो मनुष्य सब प्रकार व्यवस्थित एवं सुविधाजनक बन सकता है।

कृतज्ञता हिन्दू धर्म का प्रधान आचार है। जो भी जड़ चेतन हमारे साथ में उपकार करते हैं उनके प्रति कृतज्ञ होना। अपनी कृतज्ञता की भावना को किसी न किसी रूप में समारोहपूर्वक अभिव्यक्त करके अपने मन पर उस प्रकार के संस्कारों को सुदृढ़ बनाना हमारे समाज की एक प्रधान विशेषता है। तुलसी, पीपल, आँवला, वट आदि पेड़, गौ, बैल, घोड़ा, कुत्ता आदि पशु, चील, कौए आदि पक्षी ही नहीं पूजे जाते, निर्जीव वस्तुओं में चूल्हा, चक्की, कुआँ, घूरा, कुम्हार का चाक, हल, मूसल, कलम, दवात, रुई, पट्टी, बही, तलवार, तराजू आदि वस्तुओं की पूजा समय-समय पर होती है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस भी जीवों या वस्तुओं से हमें सहायता मिलती है उनके लिए हम कृतज्ञ होते हैं, उनका उपकार मानते हैं। यह भावना यदि स्थिरता पूर्वक मन में जम जावे तो मनुष्य अपने को समाज का ऋणी समझे और उस ऋण को चुकाने के लिये प्रत्युपकार के लिए उत्तम कार्य ही करता रहे। जीवित गुरुजनों की सेवा सुश्रूषा, चरण वन्दन तथा स्वर्गीय पितरों का श्राद्ध तर्पण, सन्तानों की कृतज्ञता के प्रतीक हैं। इनसे एक ऐसी भावना की पुष्टि होती है जिससे नई सन्ततियाँ पितृभक्त बनती हैं। आज तो इनकी चिन्ह पूजा मात्र रह गई है, पर यदि इस पूजा का वास्तविक रहस्य समझ कर भावनापूर्वक उपयोग करें तो यह पार्थिव पूजा मनुष्य के अन्तः करण को कृतज्ञता की दिव्य भावना से अभिप्रेत करके उसे निरन्तर संसार का प्रत्युपकार करने के लिए प्रेरित कर सकती है।

गर्भाधान, पुँसवन, सीमन्त, नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास, अन्त्येष्टि आदि 16 संस्कारों द्वारा समय-समय पर एक विशेष प्रभाव मनुष्य पर डाला जाता है। वेदमन्त्र की शक्ति द्वारा, तपस्वी वेदपाठी विद्वान अपनी व्यक्तिगत आत्म-शक्ति का प्रयोग करते हुए, यज्ञ एवं देवाव्हान द्वारा उस व्यक्ति पर एक सूक्ष्म प्रभाव डालते हैं जिसका संस्कार होता है। इस प्रभाव के कारण उसकी मनोभूमि में कुछ विशेष तत्वों का बीज पवन होता है और वह बीज कालान्तर में परिपुष्ट होकर उस व्यक्ति को महापुरुष बनाने के लिए अग्रसर करता है। सोलहों संस्कारों में से एक-एक की महत्ता ऐसी अद्भुत है कि यदि आर्य प्रणाली संस्कार कराने वाले और करने वाले मिल जावें तो निश्चय ही गीली मिट्टी की तरह मनुष्य को कुछ से कुछ ढाला जा सकता है। संस्कारों का शास्त्रोक्त विधान ऐसी ही रहस्यमय शक्तियों एवं सम्भावनाओं से भरा हुआ है। इन संस्कारों के समय जो प्रियजन, परिजन उपस्थित होते हैं उनकी उपस्थिति से उस समय दी गई शिक्षाओं को चरितार्थ करने का जो संकल्प यजमान लेता है उसका भी मन पर प्रभाव पड़ता है और कई बार तो वह स्वयं ही नहीं उपस्थित जन समुह में सन्मार्गगामी होता है। साधारण समय की शिक्षाओं की अपेक्षा संस्कार समारोह के समय दी हुई शिक्षाएं अधिक प्रभावपूर्ण होती हैं। यदि कोई पुरोहित ठीक प्रकार विवाह संस्कार करा सके तो प्रतिज्ञा पूर्वक यह कहा जा सकता है कि इनका दाम्पत्ति जीवन सदा सुखमय एवं प्रेम पूर्ण रहेगा। आज तो टकापंथी पण्डित और श्रद्धालु यजमान इन संस्कारों को एक समारोह मात्र मानकर कुछ मनोरंजन या लकीर पीटना मात्र कर लेते हैं। पर यदि इनमें प्राचीन काल जैसा सुधार हो सके तो मनोभूमि को उत्तम दिशा में विनिर्मित करने का एक महत्वपूर्ण कार्य हो सकता है। हर वर्ष जन्म तिथि मनाकर ही व्यक्ति अपने विगत जीवन की आलोचना तथा भावी जीवन के निर्माण का विशेष उपकरण कर सकता है।

व्रत त्यौहारों के आयोजन एक प्रकार से समाज के सामूहिक संस्कार हैं। जिस प्रकार किसी व्यक्ति के समय-समय पर सोलह संस्कार किये जाते हैं और उस पर व्यक्तिगत रूप से उत्तम भावनाओं की छाप डाली जाती है उसी प्रकार सामूहिक जन समाज के मनों पर जमते रहने वाली विकृतियों को माँज धोकर शुद्ध करने एवं नवीन संस्कार जमाने के लिए त्यौहार मनाये जाते हैं। श्रावणी, कृष्णाष्टमी, अनन्त चतुर्दशी, पितृ पक्ष, नव दुर्गा, विजय दशमी, धन तेरस, दिवाली, गोवर्धन, भैया दूज, गोपाष्टमी, देवोत्थान, शरद पूर्णिमा, मार्गश्री, मकर संक्रान्ति, बसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली, धूलि, सम्वत्सर, राम नवमी, गंगा दशहरा, देव शयनी, व्यास पूर्णिमा, हरियाली तीज आदि त्यौहारों को यदि प्राचीन काल की भाँति सामूहिक रूप से मनाया जाय तथा इनसे सम्बन्धित कथाओं, शिक्षाओं, सन्देशों, विधानों का सभी प्रकार विवेचन किया जाय तो इनके आधार पर समाज में उत्पन्न होती रहने वाली विकृतियाँ उन उत्सवों के भावावेश पूर्ण प्रवाह में उसी प्रकार बह जा सकती हैं, जैसे आँधी में तिनके उड़ जाते हैं जन समाज के सामूहिक विचार प्रवाह को सही दिशा में प्रवाहित करने के लिये त्यौहारों के आयोजन बहुत ही महत्व पूर्ण सिद्ध हो सकते हैं। आज केवल पकवान मिठाई खाने और उत्सव मनाने तक ही ये त्यौहार सीमित हैं पर उनको प्राचीन रीति से मनाया जाये तो निस्संदेह समाज का जीर्णोद्धार हो सकता है।

खान-पान की पवित्रता में मानवीय विद्युत शक्ति के चमत्कार का भारी तत्व ज्ञान छिपा पड़ा है। यह बात विज्ञान सहमत है कि भोजन बनाने या परोसने वाले व्यक्ति की मनोवृत्तियों, गुण कर्म स्वभावों की छाप उस पदार्थ पर पड़ती है और जो कोई खाता है उस पर वे संस्कार प्रभाव डालते हैं। इसलिए भोजन देने वाले, बनाने वाले, परोसने वाले, व्यक्ति के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लेना और उपयुक्त व्यक्तियों को ही इस कार्य के लिये स्वीकार करना उचित है। माँस, मदिरा, अण्डे, मछली, मिर्च, मसाले जैसे उत्तेजक और तमोगुणी पदार्थ बुद्धि को आसुरी बनाते हैं इसलिये उन्हें अभक्ष माना गया है। भोजन की पवित्रता, सात्विकता का पूरा ध्यान रखना धर्म सम्मत इसलिए माना गया है कि इसी के द्वारा हमारा रस रक्त का, मन बुद्धि का, आचार-विचार का निर्माण होता है। यह साम्प्रदायिकता का नहीं भोजन विज्ञान का प्रश्न है। इस सम्बन्ध में आज जो धाँधली बरती जा रही है उसमें सुधार होने की आवश्यकता है।

हमारी वेष भूषा, पोशाक इस देश के जलवायु तथा शील के उपयुक्त है। हल्के, ढीले, कम, सादे, सफेद कपड़े भारत जैसे उष्ण प्रदेश तथा सतोगुणी प्रकृति के लिए उचित हैं। हर पोशाक के साथ हजारों वर्षों के भावों के साथ एक संस्कार भी संबद्ध हो जाता है। जो जैसी पोशाक पहनता है वह अज्ञात रूप से उस पोशाक के साथ छिपी हुई संस्कृति को भी अपनाता है। धोती कुर्ता पहनने वाले के मन में सदा भारतीयता का भाव रहेगा पर अंग्रेजी पोशाक धारण किये हुए व्यक्ति अनायास ही अंग्रेजी मान्यताओं ओर विचारधाराओं को अपनाने लगेगा। योरोपीय ठण्डे देशों की पोशाक वहाँ के जलवायु के तथा उन लोगों की कार्यप्रणाली के उपयुक्त हो सकती है पर भारतीय यदि अपने को हीन और योरोपियों को महान मानकर उनकी पोशाकों को धारण करें तो अपने मन की ओर उनकी उपेक्षा एवं तिरस्कार वृत्ति बढ़ेगी। साथ ही विदेशीपन से उनकी मनोभूमि भरने लगेगी। जातीय गौरव को भूल जाना एक प्रकार से साँस्कृतिक पराधीनता स्वीकार करना है। उसके परिणाम भी बौद्धिक क्षेत्र में वैसे ही होते हैं जैसे आर्थिक क्षेत्र में राजनैतिक गुलामी के होते हैं। लड़के और लड़कियाँ आज योरोपियन पोशाक की और बहुत आकर्षित हो रहे हैं। फलस्वरूप उनके आचार-विचार भी वैसे ही बनते जा रहे हैं। भारतीयता में छिपी हुई महानता की रक्षा के लिए भाषा, वेष, और भाव की रक्षा करना आवश्यक है उसके बिना हम अपनी सभी विशेषताओं एवं परम्पराओं में धीरे-धीरे रहित होते चले जाएंगे।

प्राचीन काल में और भी अनेक हमारी साँस्कृतिक विशेषताएं थीं जो आज हानिकारक विकृतियों का रूप धारण करती जा रही हैं। भगवान की अनेक सूक्ष्म शक्तियों को पहचान कर उनको अध्यात्म विज्ञान के अनुसार अपनी आंतरिक चुम्बक शक्ति से खींचना और अपने अन्दर धारण करने की विद्या देवविद्या-कहलाती थी। अनेक देव शक्तियों से देव पूजा विधानों के अनुसार लोग घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करते थे और लोकोत्तर पदार्थ तथा अनुभव प्राप्त करते थे। पर आज तो वह विद्या केवल थोड़े से पण्डे पुजारियों की जीविका चलाने मात्र की रूढ़ि मात्र रह गई है।

तीर्थों में प्राचीन काल के महान व्यक्तियों, ऋषियों, उनके कार्यों तथा वहाँ की भूमिगत विशेषताओं के कारण वह सिद्ध पीठ जैसे तत्व पाये जाते थे। वहाँ अनेक महापुरुषों का सत्संग लाभ होता था। जलवायु उत्तम थी। वहाँ के निवासी यज्ञ आदि के द्वारा उस प्रदेश के शान्तिदायक वायु मण्डल को बढ़ाते रहते थे। लोग पैदल यात्रा करके देशाटन से ज्ञान और स्वास्थ्य की वृद्धि करते थे और तीर्थ स्थानों में पहुँचकर वहाँ के वातावरण तथा सत्संग से शान्ति लाभ करते थे। आज वैसा वातावरण नहीं रहा। धूर्तता, और लूट−खसोट का बोलबाला है पर निराशा की कोई बात नहीं। तथ्य मजबूत है मनस्वी लोग उनमें परिवर्तन करके वहाँ पुनः प्राचीन वातावरण उत्पन्न कर सकते हैं। पण्डे, पुजारी, पुरोहित, साधु, भिखारी आदि की 53 लाभ मुफ्तखोर सेना आदि देश के लिए भार बनी हुई है और नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ तथा बुराई फैलाती हैं। इसलिए इनके प्रति जनसाधारण में दुर्भावनाएं उत्पन्न होना उचित ही है। पर प्राचीन काल में यह लोग ऐसे न होते थे। वे राष्ट्र कि लिए घोर परिश्रम करते थे और अपना सर्वस्व होम कर रोटी मात्र पर गुजारा करते हुए अपने महान ज्ञान से जनता को लाभ पहुँचाते थे। उसी प्रणाली को जागृत करने का अब समय आ गया है।

पेटू, निठल्ले, अयोग्य लोगों को सामाजिक बहिष्कार या राजदण्ड द्वारा इस पवित्र कार्य से हटा दिया जावे और केवल सच्चे त्यागी, सन्त, लोकसेवी लोग ही इस मार्ग में रहें तो यह साधु संस्था राष्ट्र के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक शिक्षा सम्बन्धी, स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को हल करने का बहुत भारी कार्य कर सकती है। गौ पालन, गौ संवर्धन, सहयोग, समितियाँ, वन श्री की वृद्धि, सार्वजनिक श्रमदान, साक्षरता प्रचार आदि अनेक राष्ट्र निर्माण के कार्य जिन्हें सरकार नहीं कर पा रही है। उन्हें यह जनसेवी, सन्तों और पुरोहितों की सेना अपने प्रभाव एवं उदाहरण से जनता द्वारा आसानी से पूरा करा सकती है। सन्त पुरोहितों की पद्धति बुरी नहीं है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने जनहित के महत्वपूर्ण प्रयोजनों को पूरा करने के लिये ही इनका प्रवचन किया था। मन्दिर देवालयों में करोड़ों रुपयों की चल-अचल सम्पत्ति जमा है। ऐसी सम्पत्ति धर्म प्रचार के लिये भक्त लोग ईश्वरार्पण किया करते थे, उस धन से अनेकों धार्मिक योजनाएं पूरी की जाती थीं, पर आज तो वह केवल मूर्तियों के राज भोग शृंगार में या मठाधीशों के मौज-मजे में खर्च होता है। यह धर्म-धन यदि धर्म प्रसार के लिये ही होने लगे तो साँस्कृतिक पुनरुत्थान का बहुत कार्य हो सकता है।

प्राचीन काल में विद्वान लोग एकत्रित होकर उस समय की परिस्थितियों के अनुसार यह निर्णय करते थे कि इन दिनों किस प्रकार के धार्मिक कार्यक्रमों की आवश्यकता है। धर्म साधन का उद्देश्य आत्मा की उन्नति और सामाजिक सुव्यवस्था ही है। चूँकि समय-समय पर परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, अनेक नई विकृतियाँ और समस्याएं उत्पन्न होती रहती हैं। उनका समाधान करने के लिये मनीषी लोग स्वयं उस प्रकार के कार्यक्रम में प्रवृत्त होते हैं और जनता को उसी मार्ग पर अग्रसर करते हैं। आज उस प्रकार की व्यवस्था लुप्त होती जा रही है। प्राचीन काल की परिस्थितियों के अनुसार कार्यक्रम जनता के सामने रखे गये थे पर वे अब वैसा वातावरण न रहने के कारण निरर्थक हो गये हैं और नई समस्याएं उत्पन्न हो जाने के कारण नये कार्यक्रम आवश्यक हो गये हैं। परन्तु वे मनीषी अब दिखाई नहीं देते जो देश, काल, पात्र का समय, परिस्थिति और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए तद्नुसार धार्मिक भावना की जनता का पथ-प्रदर्शन कर सकें। आज तो लकीर का फकीर बनने की कहावत ही चरितार्थ हो रही है। आज अनेक रीति-रिवाज, विधान, पुरोजन आदि में भारी हेर-फेर किये जाने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है ताकि धर्म भावना का युग धर्म के साथ मेल बिठाया जा सके। संस्कृति निर्जीव नहीं है जो सदा अचल रहे। वह गतिशील, प्रवाह शील, चैतन्य तत्वों की शाँति अपने में आवश्यक हेर-फेर करती रहती है। आज के समय के अनुकूल हेर-फेर करने वाले तत्वज्ञानी सूक्ष्मदर्शी मनीषियों को इस दिशा में बहुत काम करने की आवश्यकता है। अनेक धार्मिक पुस्तकों में जो साँभ्राँतिक मतभेद पाये जाते हैं, उनसे जनता में बुद्धिभ्रम पैदा होता है। लोग उसे एक दूसरे के विरोधी समझते हैं पर वस्तुतः एक दूसरे के पूरक है। जो बात एक से छूट गई है वह दूसरे ने पूरी की है। आज इस दार्शनिक अनेकता के एकीकरण तथा समन्वय करने की ऐसी आवश्यकता है जिससे साधारण लोग भी भारतीय धर्म की पृष्ठभूमि को आसानी से समझ सकें।

चोटी, यज्ञोपवीत, व्रत, उपवास, चन्दन, तिलक, छाप, कथा, कीर्तन, उद्यापन, प्रयोजन आदि अनेक धर्म चिन्ह हैं। अनेक सम्प्रदायों में विविध प्रकार की मान्यताएं हैं। अनेक देवी देवताओं के नाना प्रकार के रूप, वेष, वाहन, आयुद्य आदि है। इन सब में अलंकारिक रूप- संकेत भाव से ऋषियों ने अत्यन्त ही मूल्यवान ज्ञान विज्ञान छिपा कर रखें हैं। लोग इन्हें आज पाखण्ड मात्र समझते हैं पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। यह देश कवियों का, कल्पना शील लोगों का देश रहा है। पहेली के ढंग से किसी बात को अलंकारिक रूप बना कर कहना यहाँ के लोगों की विशेषता रही है। रहस्यमय आध्यात्म विज्ञान को भी उन्होंने ऐसा ही अलंकारिक रूप दिया है जैसा पहेली बुझोअल करते समय बच्चों के सामने उपस्थित किया जाता है। आज इनके रहस्यों को जानने और बताने वाले लोग उत्पन्न हो जावें तो लोग उनका उपहास करना छोड़ कर एक बहुत भारी रहस्य पूर्ण विद्या के ज्ञाता बन सकते हैं। अथर्व वेद में वर्णित मन्त्र के अंतर्गत उतना विज्ञान भरा पड़ा है जितना कि आज के वैज्ञानिकों को कल्पना भी नहीं है। उस विज्ञान की यदि खोज की जाय तो यह देश इस दिशा में भी संसार का शिरोमणि सिद्ध हो सकता है। ग्रह−नक्षत्र विद्या, चिकित्सा शास्त्र, अग्नि विद्या, मन्त्र विद्या, प्राण विद्या, जीव विज्ञान आदि अनेक रहस्यमयी विद्याओं का किसी समय भारत पूर्ण ज्ञाता रहा है और रावण नागार्जुन, आदि अनेक वैज्ञानिक, प्रकृति की असंख्यों शक्तियों पर काबू प्राप्त करके ऐसे ऐसे लाभ प्राप्त कर चुके हैं जैसे मशीनों द्वारा खोज करने वाले वैज्ञानिकों के लिए कभी भी सम्भव नहीं है। यदि प्रयत्न किया जाय तो पूर्वजों की संग्रहीत उस अपार सम्पत्ति को ढूँढ़ निकाल सकते हैं और वैज्ञानिक क्षेत्र में भी उतना आगे बढ़ सकते हैं।

इन रहस्य पूर्ण विद्याओं को छोटे-बड़े रूप में दैनिक जीवन से संबद्ध करते हुए पूजा पाठ तथा कर्मकाण्ड के विधान बनाये गये थे। उनसे चमत्कारी सिद्धियाँ न सही पर जीवन को सुख शान्तिमय बनाने लायक कामचलाऊ लाभ तो मिलते ही रहते थे, पर आज तो लोग उन सब बातों को भूलते और छोड़ते जा रहे हैं। फलस्वरूप उन्हें एक बहुत भारी दिव्य लाभ से वंचित होना पड़ रहा है।

भारतीय, साँस्कृतिक परम्पराओं का सूक्ष्म विज्ञान और रहस्य समझ कर यदि हम उसी पद्धति से जीवन यापन करना आरम्भ करें तो निश्चय समझिये हमारा व्यक्तिगत जीवन सभी उलझनों से मुक्त और सुख साधनों से सम्पन्न बन सकता है। ऋषियों ने हजारों लाखों वर्षों की तपस्या से उत्पन्न सूक्ष्म दृष्टि एवं दूरदर्शिता के साथ इन्हें बनाया था। वे सब बातें प्राचीन काल के लिए जितनी महत्वपूर्ण थी उतनी ही आज भी महान हैं। अन्तर केवल समझने व समझाने का है।


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