जागरण गीत (Kavita)

September 1954

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जग रे, जीवन के राग जाग, प्राणों की धूमिल आग जाग!

जो गिरते-गिरते उठ न सके, जो रोते-रोते हँस न सके, उन मरणशील इतिहासों के- उपवन के सुगम पराग जाग!

जग रे, जीवन के राग जाग! प्राणों की धूमिल आग जाग!!

अन्तः निःसृत निःश्वासों में- अपमान भरे उपहासों में- जिनका अणु-अणु हो गया भस्म, उनके संस्मरण विहाग जाग!

जग रे, जीवन के राग जाग, प्राणों की धूमिल आग जाग!!

पीड़ित जन की परवशता में, शोषित दल की दुर्बलता में, जो चिनगारियाँ सुषुप्त रहीं- उनकी लपटों के नाग जाग!

जग रे, जीवन के राग जाग, प्राणों की धूमिल आग जाग!!


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