सर्वनाश की विभीषिका से सावधान

September 1954

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भारतीय संस्कृति की-विचारधारा एवं जीवन- यापन पद्धति को अपनाकर हम अपने परिवार का, समाज का-समस्त संसार का वातावरण, सद्भावना, प्रेम, सहयोग, सहृदयता, धार्मिकता और सुख शाँति से परिपूर्ण बना सकते हैं। इसलिये यह ऋषि प्रणीत राज मार्ग हमारे लिए सब प्रकार श्रेयष्कर है। परन्तु यदि इस और ध्यान न दिया गया और आज जनता की मनोदशा जिस भौतिक संस्कृति को अपनाने के लिए बढ़ रही है। उसकी प्रगति यदि जारी रही तो यह भी निश्चित है कि हम थोड़े ही समय में एक घोर अव्यवस्था भरी उलझनों में जा फंसेंगे। आज हमारी मनोवृत्तियाँ किस दिशा में बढ़ रही हैं और उनकी प्रगति हमें कहाँ ले पहुँच सकती है आइए, इस प्रश्न पर कुछ विचार करें।

आज जैसी हवा बह रही है, उसका प्रभाव हर आदमी पर यह पड़ता है कि-मुझे अधिक से अधिक धन संग्रह करना चाहिये। धन की आवश्यकता शरीर को जीवित रखने के लिये अन्न, वस्त्र, घर, पुस्तक आदि आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए है। साधारण प्रयत्न से इतना धन आसानी से कमाया जा सकता है कि हमारी उचित आवश्यकता पूरी होती रहे। पर धन उपार्जन की इस मर्यादा को भूल कर लोग अधिकाधिक संग्रह करने में लगे हुये हैं। जिसके पास जितना अधिक धन है उसे उतनी ही अधिक तृष्णा हैं। ठाट बाट, विलासिता, ऐश आराम, शेखीखोरी की झूठी आवश्यकताएँ लोग बढ़ाते जा रहे हैं। उसकी पूर्ति के लिये जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक धन कमाने की इच्छा होती है। अपने समीपवर्ती लोगों को इसी दशा में तेजी से बढ़ते देख कर सभी की इच्छा एक दूसरे से बाजी मार ले जाने की होती है। फलस्वरूप लोग उचित अनुचित, न्याय अन्याय, धर्म अधर्म का विचार छोड़ कर जैसे बने वैसे जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक धन बटोरने में कमर कस कर तत्पर हो जाते हैं।

जुआ, चोरी, उठाईगीरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार, दगाबाजी, जालसाजी, रिश्वत, लूट, डकैती, हत्या, विश्वासघात, कन्या विक्रय, छल, पाखण्ड प्रपंच, षड़यन्त्र, उत्पीड़न, वेश्यावृत्ति आदि नाना प्रकार के दुष्कर्म करके धनी बनने का उपाय करते हैं। इस घुड़दौड़ में कई व्यक्ति तो बिल्कुल निर्दोषों ओर दीनहीनों को इस बुरी तरह पीस डालते हैं कि उनकी आत्मा जन्म भर कराहती रहती है। कई बार धीरे-धीरे दूसरों को ऐसा चूसा जाता है कि वह बेचारा सब कुछ गंवा कर चतुर पुरुषों का ऐश्वर्य बढ़ाने के लिये बलि हो जाता है। रोगियों को डॉक्टर, मुवक्किलों को वकील, छिछोरों को वेश्या, श्रद्धालुओं को पाखण्डी, चूस कर किस प्रकार निस्वत्व बना देते हैं इसकी कहानी बड़ी करुणाजनक है। खाद्य पदार्थ बेचने वाले, जेवर बनाने वाले, नशे के दुकानदार, माँस चर्बी के व्यवसायी जो कुछ करते हैं उससे ईमान की आत्मा काँप जाती है। ऐसे कुकृत्य भूख नहीं-तृष्णा कराती है।

यह धन की तृष्णा यदि बढ़ती रही, त्याग, सन्तोष, दान, अपरिग्रह, धन का राष्ट्रीयकरण आदि का अंकुश न लगे तो निश्चय है कि एक मनुष्य अपनी हविश बुझाने के लिए दूसरों को भेड़ियों की तरह फाड़ खाने लगेगा। वैसे ही बानग बनते जा रहे हैं। सब ओर लूट खसोट का बोलबाला है। दृष्ट, गुण्डे, डाकू, हत्यारे तलवारें लेकर डकैती, लूट, हत्या करते हुए गाँव-गाँव नृशंसतापूर्ण आतंक पैदा कर रहे हैं। बहुत कम स्थान ऐसे हैं जहाँ लोग अपने को सुरक्षित समझते हों। पढ़े लिखे लोग दूसरे ढंग से, सश्य तरीकों से डाके मारते हैं। जिनके हाथ में शक्ति है वे भी उससे व्यक्तिगत लाभ चलाने की पूरी-पूरी कोशिश करते हैं। एक देश दूसरे को अपने फौलादी पंजों में कस कर चूस जाने के लिए कटिबद्ध है। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति को जो लोग समझते हैं वे जानते हैं कि पूँजीवादी और साम्राज्यवादी देश ऊँचे सिद्धान्तों की दुहाई देने की धूर्तता के साथ साथ कैसी पैंतरेबाजी से अपने फौलादी पंजे फैला रहे हैं।

यह सब बढ़ता गया तो इसका अन्त कहाँ होगी? परस्पर विश्वास उठ जायेगा, एक दूसरे को अपनी शक्ति मात्र समझने लगेगा। हर व्यक्ति अपने को असुरक्षित समझेगा, प्रेम और उदारता नाम की कोई वस्तु न रह जायेगी, निर्बलों को बलवानों का त्रास रहेगा और वह बलवान अपने से अधिक बलवानों की आकांशा से काँपता रहेगा, साधनहीन लोग भूखों मरेंगे, साधन सम्पन्न ऐयाशी करके बीमार पड़ेंगे, घर-घर कलह का वातावरण बनेगा, एक वर्ग दूसरे वर्ग से लड़ेगा, एक समाज एवं देश अपने से भिन्न के साथ शीतयुद्ध या अग्नियुद्ध ठानेगा, इस संघर्ष में मानवीय संस्कृति का कचूमर निकल जायेगा, केवल घोर अव्यवस्था ही हाथ रहेगी। धन की तृष्णा के वशीभूत गरीब और अमीर सभी नष्ट होंगे। मनुष्य जीवन का जो आनन्द मिलना चाहिए था, जो दिव्य अनुभूतियाँ प्राप्त करनी थी उनसे वह सर्वथा वंचित रह जाएंगे। भौतिक संस्कृति का यह प्रथम सोपान लोगों को सत्कर्मों की और न बढ़ने देगा। दान, त्याग, उदारता सेवा, साधना, स्वास्थ्य, परमार्थ आदि के लिए रुचि और समय न बचने देगा, इन प्रवृत्तियों से रहित मनुष्य को बिना सींग पूँछ का पशु ही समझना चाहिए। ऐसे ही पशुओं से सारी पृथ्वी को वह भौतिक संस्कृति भर देगी।

भौतिक संस्कृति का दूसरा सोपान है- कामुकता की अपवित्र भावना। नर-नारी को और नारी-नर को अपवित्र वासना की दृष्टि से देखने लगे हैं और उसके लिए अनावश्यक, अवाँछनीय, उत्तेजक वातावरण उत्पन्न कर रहे हैं। सिनेमाओं में ऐसे चित्र दिखाये जाते हैं जिनमें युवती स्त्रियों के वे क्रिया कलाप, हाव भाव, वेश विन्यास दिखाये जाते हैं जिनका सार्वजनिक प्रदर्शन सर्वथा अनैतिक है। उनके देखने से दर्शकों के मन में वासनापूर्ण उत्तेजना ही उत्पन्न होती है। कमरों में, घरों में, दुकानों में जहाँ देखिए, युवती स्त्रियों के भड़कीले चित्र टंगे मिलेंगे, अश्लील साहित्य की तो बाढ़ सी आ रही है। गन्दे से गन्दे कोकशास्त्र, कामशास्त्र, उपन्यास, दुकानों में घास फूँस की तरह भरे पड़े हैं। पुरुष वर्ग जब युवा स्त्री पर दृष्टि डालता है तो उसमें वासना भरी होती है। स्त्रियाँ भी प्राचीन परम्पराओं को छोड़ कर उसी प्रवाह में बहने लगी हैं। वे घर से बाहर भड़कीली पोशाक, उत्तेजक सजावट तथा बेपर्दगी से भरे हुए तरीके के साथ निकलती हैं कि अनायास ही दूसरों को उनके शील पर संदेह होने लगता है। दाम्पत्ति जीवन में बुरी तरह विकृतियाँ आ रही हैं। अपने-अपने क्षेत्र में संतुष्ट न रह कर नर-नारी भौंरे और तितली बनते जा रहे हैं। ब्रह्मचर्य की मर्यादाएं टूट रही हैं। संयम को लोग अनावश्यक समझने लगे हैं। माता, पुत्री और बहिन का भाव दिन-दिन घटता जा रहा है और नर का नारी के प्रति-नारी का नर के प्रति अनैतिक अवाँछनीय आकर्षण बढ़ रहा है। तद्नुसार व्यभिचार का बोलबाला होता जा रहा है।

रूप और सौंदर्य की प्यास बढ़ रही है। दाम्पत्ति जीवन का आध्यात्मिक पहलू टूट रहा है और केवल रूप यौवन की दृष्टि से पति-पत्नी का चुनाव, परित्याग एवं हेर-फेर होने लगा है। लड़के अब यह फरमाइश करते हैं हमें अपनी रूपवती लड़की पसन्द करने दी जाय। वे यदि गुणों की-स्वास्थ्य की-शिक्षा की-स्वभाव की-भावना की परीक्षा करते कराते तो एक बात भी थी पर यह बातें तो क्षण भर में दृष्टि मात्र में पूरा हो नहीं सकतीं। इनकी उन्हें जरूरत भी नहीं। वासना और विलासिता के लिए रूप यौवन पर्याप्त है सो उसे ही वे देख कर विवाह करने के लिये आग्रह करते हैं। अब बहुत ही शीघ्र यह रोग लड़कियों में महामारी की तरह फैलने वाला है, वे पिता-माता के कहने से नहीं अपनी पसन्द के रूप यौवन वाले लड़के देखेंगे। काले साँवले, नाख सिख में जो जरा भी कम रूप वाला बैठेगा उन लड़कों को लड़कियों आँख उठा कर भी न देखेंगी। रूप सौंदर्य तो बहुत थोड़े लड़के-लड़कियों में होता है, शेष सच तो इस देश में ऐसे वैसे ही होते हैं। इसलिए रूपवान लड़कियों के लिए इच्छुकों में घोर प्रतिद्वंद्विता होगी और ऐसे वैसे रंग रूप के अधिकाँश लड़की-लड़के या तो अविवाहित रहेंगे या मन मसोस कर अपने दुर्भाग्य के लिए सिर धुनते रहेंगे। जब यह असन्तोष बढ़ेगा तो तलाक तैयार है। रूपवान लड़के लड़की भी अधिक अच्छा जोड़ा ढूँढ़ने के लिए नये फूल की तलाश में रहेंगे और सैकिंड हैन्ड से पीछा छुड़ाना चाहेंगे। योरोप अमेरिका में यह समस्या आयकर रूप में उपस्थित है। स्त्री-पुरुष “नयी ऋतु के लिए नया जोड़ा” तलाश करने की फिक्र में रहते हैं स्त्री पुरुष में से किसी को किसी का विश्वास नहीं, किसी के साथ कोई अपना स्थायित्व नहीं समझता। फलस्वरूप दाम्पत्ति जीवन, पारिवारिक जीवन सब व्यस्त हो रहे हैं। इस संघर्ष में संतान को अनाथों की तरह निर्वाह करना होता है। ठीक यही स्थिति कुछ समय बाद हमारे देश में उत्पन्न हो जायेगी। दाम्पत्ति जीवन के आध्यात्मिक महत्व को- काले, कुरूप, कोढ़ी, अन्धे साथी को भी निबाहने की प्रवृत्ति जब स्त्री पुरुषों में से निकल जायेगी तो पशु लिप्सा, वासना, कामुकता के अतिरिक्त दाम्पत्ति जीवन में और कोई आकर्षण न रहेगा। जब जिसे इसमें कुछ कमी आती दीखेगी तब वह दूसरे को साथ छोड़ कर पल्ला झाड़ अलग हो जायेगा। आज पुरुषों की ओर से इस प्रकार का बहुत उत्साह है, कल निश्चित रूप से वह स्त्रियों में बढ़ेगा। ये मारपीट, ताड़ना, धमकी, धौंस, पवित्रता का उपदेश आदि बातों को पूर्णतया उपेक्षा करके पुरुषों को अंगूठे पर नचायेंगी और आज जो उत्साह पुरुष दिखा रहे हैं उससे दस कदम आगे बढ़ कर रहेंगी।

जो लोग आज दहेज की लम्बी-लम्बी फरमाइशें करते हैं वे कुछ ही दिन बाद योरोप की भाँति लड़कियों को भारी उपहार दिये बिना विवाहित होने के लिए तरसते रहेंगे। दहेज के कुकृत्य से लड़कियों के पिताओं को जो कष्ट सहना पड़ता है उन की प्रतिक्रिया उन लड़कियों पर भी होती है। वे विवाह तो कर लेती हैं पर घृणा, क्रोध और प्रतिशोध को साथ लेकर पतिगृह में जाती हैं। यह असन्तोष एक दिन भयंकर रूप से फूटेगा और आज जैसे अछूतों के मन में स्वयं के प्रति घृणा एवं विद्वेष भाव भरे हुए हैं कल स्त्रियों के मन में भी पुरुषों की प्रताड़ना, प्रतिबन्ध, दहेज आदि एक पक्षीय अन्याय पूर्ण व्यवहार के प्रति भयंकर विद्रोह उत्पन्न होगा। फलस्वरूप समाज की स्थिति विषम हो जायेगी।

पुरुषों को उनके दुष्कृत्यों का दण्ड न मिले इसकी चिन्ता हमें नहीं है। हमें तो चिन्ता यह है कि दाम्पत्ति जीवन में अत्यन्त मधुर संबंध, श्रद्धा, आत्मीयता, सहिष्णुता, सेवा की भावना को जब रूप पिपासा नष्ट कर देगी तो उस असन्तोष का प्रतिफल सन्तान पर पड़ेगा। ऐसी सन्तान सूक्ष्म मनोनैतिक एवं आध्यात्मिक नियमों के आधार पर अनेक प्रकार के मानसिक दुर्गुणों से परिपूर्ण होती है। नई पीढ़ियाँ जब इस प्रकार खराब होंगी तो अनेक प्रकार की अनैतिकताओं और बुराइयों की बाढ़ आ जायेगी। ये क्षुब्ध असंस्कृत मनोभूमि लेकर जन्में हुए लड़के जब बड़े होंगे तो वैसे ही उत्पात करेंगे जैसे प्राचीन काल में असुर किया करते थे। असंतुष्ट पति-पत्नी के संयोग से सुसंस्कृत सन्तान उत्पन्न होने की आशा नहीं की जा सकती। व्यभिचारी ओर व्याभिचारिणी स्त्री-पुरुष कभी भी सदाचारी सन्तान के माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं कर सकते। दाम्पत्ति जीवन में से आर्य संस्कृति को हटाकर भौतिक संस्कृति को, रूप यौवन को प्रतिष्ठित कर देने के बाद में अपने घरों में नर रत्न उत्पन्न करने की आशा का भी परित्याग करना पड़ेगा। वह तो तभी सम्भव था जब साँसारिक अनेक त्रुटियाँ रहते हुए भी विवाह को आध्यात्मिक एकता मानकर पति-पत्नी एक दूसरे को भारी आत्म त्याग करके भी प्रसन्नता पूर्वक निर्वाह लेना अपना कर्त्तव्य समझते थे।

काँचन और कामिनी यह भौतिक संस्कृति के दो प्रधान आधार हैं। इनके साथ साथ शेखीखोरी बनावट, फैशन ऐयाशी, उद्दण्डता, उच्छृंखलता, अराजकता, अनैतिकता, अशिष्टता, अहंभावता, समाजिक, मर्यादाओं का उल्लंघन कृतघ्नता, स्वेच्छाचार, अभक्ष भोजन, नास्तिकता, धर्म कर्त्तव्यों का उपहास, गुरुजनों की अवज्ञा, सद्ग्रन्थों में अरुचि आदि अनेक सोपान यथा अवसर उत्पन्न होते जाते हैं। नशेबाजी में, तमाखू, सिगरेट, शराब, भाँग, गाँजा आदि पीने में लोग इतना पैसा फूँक देते हैं जितना कि इस देश में शिक्षा पर भी व्यय नहीं होता। फैशनपरस्ती की चीजें इतने दाम की खरीदी जाती हैं जितना कि दूध घी में भी खर्च नहीं होता। मिर्च मसाले, माँस मछली, अण्डे शराब आदि अभक्षों से रक्त दूषित और मस्तिष्क क्रोधी होता चला जा रहा है। धार्मिकता एवं आस्तिकता के वातावरण से विमुख होते जाने के कारण परलोक, परमार्थ, आत्म कल्याण, ईश्वर प्राप्ति जैसी बातें कपोल कल्पित मालूम पड़ती हैं। कोई-कोई तो धर्म को ‘अफीम की गोली’ बताते हैं और किसी भी प्रकार अपना अभीष्ट साध लेना बुद्धिमता मानते हैं।

इस प्रकार की अनेकों बातें हैं जिनकी चर्चा विस्तार पूर्वक कर सकना इन थोड़ी पंक्तियों में सम्भव नहीं है। चौराहे के मोड़ पर से कुछ ही कदम गलत पड़ जावें, पूर्व जाने वाली सड़क की अपेक्षा पश्चिम जाने वाली सड़क पर चलना आरम्भ हो जाय तो कुछ ही समय में अभीष्ट स्थान बहुत दूर निकल जाता है। इसी प्रकार आर्य संस्कृति को अपनाकर जीवन को महान बनाना जितना सरल होता है। उसके विपरीत अनार्य संस्कृति को अपनाने से वह कठिन हो जात है। लोग पुण्यात्मा बनने की अपेक्षा पापात्मा बनते जाते हैं। बुराइयाँ बढ़ते जाने से हर व्यक्ति अपने को परेशानी, चिन्ता ओर अव्यवस्था से घिरा हुआ पाता है। छोटा सा रोग बढ़ता रहे तो वह कुछ समय बाद असाध्य बन जाता है। उसी प्रकार कुमार्ग की और पैरों की गति बढ़ाना, चाहें वह मन्द गति से ही क्यों न हो भयंकर ही सिद्ध होता है।

राष्ट्र निर्माण के लिए सरकारी और गैर सरकारी अनेकों प्रयत्न एवं आयोजन होते हैं पर उनका सफल होना तब तक सम्भव नहीं, जब तक उन योजनाओं को कार्यान्वित करने वाले व्यक्ति ईमानदार नहीं। आदमी बेईमान हो तो वह अपना स्वार्थ साधने के लिये बड़े उपयोगी कार्य में ऐसे छेद छोड़ सकता है जिससे वह असफल ही रहे। देखा जाता है कि जहाँ रिश्वती, इंजीनियर, ओवर सीयर, ठेकेदार मिल जाते हैं वहाँ ऐसे मकान आदि बनवाये जाते हैं जो चन्द ही दिनों में ढह जायें। इस प्रकार देश की बहुत भारी रकम लग जाने पर भी वह व्यर्थ साबित होती है। राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए सबसे अधिक जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है व्यक्तियों की ईमानदारी। एक संस्कृति को अपनाने पर हमारा दृष्टिकोण ईमानदारी का बनता है दूसरी को अपनाने से बेईमानी का, एक हमें उन्नति की ओर ले जाती है दूसरी ईमानदारी की ओर, एक का परिणाम उत्कर्ष है दूसरी का सर्वनाश। इन दोनों में से हम जिसे चाहें अपना सकते हैं। यदि सर्वनाश से बचना है तो हमें पूरी शक्ति से अपने प्राचीन विचारधाराओं, सिद्धाँतों और आदर्शों को पुनर्जीवित करने के लिए तत्परता पूर्वक घोर प्रयत्न करना पड़ेगा।


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