आत्म बलिदान के लिए आह्वान

September 1954

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पशु अपना पेट पालने, अपनी इन्द्रिय लिप्साएं पूरी करने के लिए जीता है। मनुष्य को पशु से ऊंचा सिद्ध करने वाली विशेषता यह है कि वह आत्मकल्याण के महत्व को पहचानता है और इसके लिये सर्वोपरि साधन-परोपकार-को अपनाता है। जो मनुष्य परमार्थ से परोपकार से-लोक सेवा से -उदासीन हैं उन्हें पशु ही मानना चाहिये। धनवान विद्वान, बलवान, रूपवान होने से किसी व्यक्ति को कुछ भी महत्व नहीं बढ़ता, केवल वह कुछ मौज-मजा अधिक कर सकता है पर इससे उसकी महानता में कोई वृद्धि नहीं होती है। जिसका धन, ज्ञान, बल, चातुर्य, पद, समय दूसरों को ऊँचा उठाने में, राष्ट्र, समाज और धर्म का उत्कर्ष करने में नहीं लगता, वह अपने लिए कितना ही बड़ा क्यों न बने, विवेक की दृष्टि से वह नितान्त तुच्छ और नीच ही रहेगा। आज ऐसे नरपशुओं की कमी नहीं है जो धन की तृष्णा और इंद्रिय लिप्सा इन दो बातों के अलावा तीसरी बात पर विचार नहीं करते। पशु तो पेट भर जाने पर और इन्द्रिय तृप्ति हो जाने पर शान्ति के लिए विश्राम करता है पर इन्हें तो जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त दिन-रात इसी गोरख धन्धे में लगना पड़ता है। काम चलाऊ साधन सामग्री जिन्हें उपलब्ध है ये भी तृष्णा से पागल मृग की तरह हर समय तृष्णा और वासना के रेतीले प्रदेश में कुलांचे भरते रहते हैं। इन्हीं बाल क्रीड़ाओं में जब जीवन लीला समाप्त हो जाती है, काल की कराल ढ़ाढ़ें उन्हें चबाने लगती तब वे सोचते हैं कि मनुष्य जन्म जैसे महान सुअवसर के साथ हम कैसी खिलवाड़ करते रहे और भव बन्धनों से छुटकारा पाने का कैसा अमूल्य अवसर हाथ से गंवा दिया। कहते हैं कि मृत्यु के समय हजार बिच्छुओं के काटने के समान पीड़ा होती है, उसका कारण शारीरिक कष्ट नहीं वरन् वह मानसिक वेदना है जो मनुष्य जैसे सौभाग्य को व्यर्थ गंवा देने के कारण होती है।

प्राचीन काल में भारत भूमि का प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य को भली प्रकार जानता था। इसलिए कितने ही व्यक्ति आजीवन ब्रह्मचारी रह कर अपनी आवश्यकताएं नहीं बढ़ने देते थे और अनेकों पारिवारिक झंझटों से निश्चिन्त रह कर परमार्थ कार्यों में लगे रहते थे। जो गृहस्थ में प्रवेश करते थे वे पहला लड़का समर्थ होते ही उसे छोटे भाई बहिनों की जिम्मेदारी सौंप कर समाज सेवा में प्रवृत्त होने की तैयारी करने लगते थे। जब गृह व्यवस्था का भार बच्चे उठा लेते थे और अपनी तैयारी परिपक्व हो जाती थी तब संन्यास ले लेते थे। इस प्रकार राष्ट्र को अनेकों अनुभवी कार्यकर्त्ता बिना वेतन दिये ही मिल जाते थे और उनके प्रयत्नों से इस देश का वातावरण सदा उन्नतिशील रहता था। आज लोग लोभ मोह में इतने निमग्न हो गये हैं। कि घर वाले तिरस्कार करते हैं। उनकी कोई उपयोगिता नहीं समझते तो भी अपनी टाँग अड़ाना अपनी मालिकी चलाना नहीं छोड़ते। परमार्थ की बात तो दूर आयु जैसे-जैसे समाप्त होती जाती है। वैसे-वैसे ही उनकी तृष्णा और वासना दूनी होती जाती है। स्वार्थ से बाहर की किसी बात पर ध्यान ही नहीं जाता। लोक सेवा की बात, आत्मकल्याण की बात उन्हें उपहासास्पद मालूम पढ़ती है। ऐसी पशुवृत्ति जिस समाज में घुसी हुई हो उसको कल्याण की आशा करना कठिन ही है।

यदि हम भारत भूमि को अवनति के गर्त में गिरने से रोकना चाहते हैं। और प्राचीन काल की विशेषताओं की पुनः प्रतिष्ठापना करना चाहते हैं तो प्राचीन काल की उस परम्परा को भी जागृत करना पड़ेगा जिसके अनुसार लोग अपने जीवन का अधिकाँश भाग लोग सेवा के लिए समर्पण करते थे। सच्चे, आत्मत्यागी मनुष्य ही अपनी सच्चाई, अनुभवशीलता और त्यागवृत्ति के कारण दूसरों को प्रभावित करने एवं ऊँचा उठाने में समर्थ हो सकते हैं। नौकरी या फीस के उद्देश्य से उपदेश की बात करने वाले पेशेवर लोगों के लैक्चर चाहे कितने ही धुँआधार क्यों न हों उनका वास्तविक प्रभाव किसी पर भी नहीं पड़ता। वे केवल जनता का मनोरंजन कर सकते हैं, कानों की खुजली मिटा सकते हैं। राष्ट्र निर्माण ऐसे लोगों से नहीं हो सकता। जनता का मानसिक स्तर ऊँचा उठाने के लिये संकल्पवान, भावनावान, निष्ठावान तपस्वी और कठोर परिश्रम में संलग्न व्यक्तियों की आवश्यकता है। इन गुणों के आधार पर ही साँस्कृतिक पुनरुत्थान सम्भव हो सकेगा। आज आलसी, हरामखोर, कामचोर, घोर स्वार्थी, मानसिक दृष्टि से अपाहिज लोग ही अधिकाँश में साधु बाबाजी बने घूमते हैं। इनसे कुछ आशा करना बालु में से तेल निकालने की बराबर है। अब ऐसे साधुओं की आवश्यकता है जो वेष न रंगे पर मन को गहरे रंग में रंग डाले और युग परिवर्तन जब कभी भी हुआ है ऐसे ही आत्म त्यागी लोगों के द्वारा हुआ है।

भारत में सांस्कृतिक पुनरुत्थान करने का महान कार्य करने के लिये आत्मदान देने वाले लोगों की आवश्यकता है। बिना बलिदान के ऐसे कार्य पूर्ण नहीं होते। प्राचीन काल में जब वर्णाश्रम जीवित था लोग अपने जीवन का बहुत थोड़ा भाग साँसारिक कार्यों में लगा कर शेष को परमार्थ के लिये अर्पण कर देते थे। इस प्रकार कोटि-कोटि सत्पुरुषों के जीवन पुण्यों की श्रद्धाँजलि माता के चरणों पर चढ़ती रहती थी। साँस्कृतिक सुरक्षा के लिये एक बड़ी सेना स्वयमेव संगठित होती रहती थी और समय-समय पर जो विकृतियाँ उत्पन्न होती रहती थीं उनका तत्काल सुधार होता चलता था। अब वह पद्धति टूट गई। सुयोग्य लोक सेवी आगे आना बन्द हो गये। ऐसे लोक सेवियों के लिये जनता ने आदर तथा सुदृढ़ निर्वाह व्यवस्था पहले ही कर रखी थी। मन्दिर, मठ, सदावर्त, अन्न क्षेत्र, धर्मादे, मिष्ठादान, दक्षिणा आदि में लाखों करोड़ों रुपया इन्हीं लोगों के निर्वाह के लिये नियत था। साधु, सन्त, महात्मा पण्डित, पुरोहित, पुजारी, गुरु आदि के लिये जनता के मन में अपार श्रद्धा भी थी। इस प्रकार इस लोक सेवी सेना का सब कार्य व्यवस्था पूर्वक चलता रहता था। जब सच्चे अधिकारी लोगों ने में आना बन्द कर दिया तो एक बड़ा सुविधा जनक स्थान खाली देखकर हराम खाऊ धूर्त लोगों की भीड़ दौड़ पड़ी और उन पुनीत स्थानों पर कब्जा करके अपनी बुराइयों से समाज को भी बुरा बनाने में लग गये। हमारे अधः पतन का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है। लाखों व्यक्ति जिस रचनात्मक कार्य में पूर्ण तत्परता के साथ लगे रहते थे वह रचना तो बन्द हो गई उलटे जड़ खोदने वाली नकली भीड़ उलटे कार्य करने के लिए वहाँ आ गई। ऐसी दशा में अवनति का होना स्वाभाविक था।

अब नये युग का सूत्रपात करने के लिये आत्म-त्यागी, आत्म-बलिदानी सच्चे साधु कर्मवीरों की आवश्यकता है। पिछले दो तीन अंकों में अखण्ड ज्योति द्वारा इस संस्था की यही पुकार उद्घोषित की जा रही है। नरमेध का अर्थ ऐसे ही पुनीत कार्यों के लिये अपने जीवन को समर्पण करना है। इस कसौटी पर अपने आपको कसवाने में लोगों को झिझक लगती है। साधु हो जाना सहज है क्योंकि उसमें सब प्रकार की जिम्मेदारी छोड़ कर निरुद्देश्य? स्वेच्छाचारी जीवन बिताने और हर जगह भोजन तथा मान पाने की सुविधा रहती है। पर सच्चे साधु बनने में तो आदमी को पसीना बहाना पड़ता है। साधुता की परीक्षा देनी होती है, और समाज के कष्ट को अपना कष्ट, दूसरों के हित को अपना हित मान कर चलना पड़ता है। जिम्मेदारी और परिश्रम से डर कर तो साधु ही बने थे। यदि उसमें भी वही दोनों बातें सिर पर आ पड़ें तब उनको साधु होने से क्या फायदा हुआ। भगवान का भजन तो आदमी हर स्थिति में कर सकता है, गृहस्थ में भी वह सब हो सकता है। भजन के लिये घर त्यागने की कोई जरूरत नहीं है। कपड़े रंगना और घर त्यागना तो लोकसेवा के व्रत का प्रतीक है। इस प्रतीक के उद्देश्यों को जो पूर्ण करते हैं वस्तुतः उन्हीं की साधुता वास्तविक कही जा सकती है। अन्यथा कोई भजन के बहाने कोई किसी बहाने आराम की निर्द्वन्द्व जिन्दगी बनाने का अवसर ढूँढ़ते ही रहते हैं और वे जिन्हें मिलना होता है उन्हें मिल भी जाता है। यह एक संयोग की ही बात है, साधुता बिल्कुल दूसरी बात है। साधु का हृदय इतना कोमल होता है कि वह जन समाज की दुर्दशा देख कर आँसू बहाये बिना नहीं रहता, उनकी पीड़ा से पीड़ित हुये बिना नहीं रह सकता और धर्म, समाज, राष्ट्र एवं आत्मा के कल्याण के लिए कठोर कर्त्तव्य पालन करने के निमित्त अपना सर्वस्व त्याग करने के लिये तत्पर हो जाता है।

साँस्कृतिक पुनरुत्थान यदि हमें अभीष्ट है तो उसके लिये नारद और दधीच जैसे आत्मत्यागियों को आगे आना होगा। नये युग के लिए नये प्रकार के सन्तों की आवश्यकता है। मालपुआ खाने वाले और पैर पुजाने वालों की नहीं, अब भागीरथ के समान ज्ञान गंगा का अवतरण कराने वाले तपस्वियों की पुकार है। सच्चे आत्म त्यागी सदा ही बहुत थोड़े होते रहे हैं पर होते हर युग में रहे है। यदि न होते तो धर्म की रक्षा और संस्कृति की सुव्यवस्था अब तक बनी न रही होती। जब धर्म की ग्लानि, और अधर्म का अभ्युत्थान होता रहा है वे दुष्कृतों को विनाश करने और साधुता का परित्राण करने के लिये ईश्वरीय प्रेरणा का संसार में आगमन होता रहा है। उस प्रेरणा से प्रेरित होकर अनेक जागृत आत्माएं उस ईश्वरीय उद्देश्य को पूर्ण करने में लग जाती है। हम देखते हैं कि इस प्रकार की प्रेरणा और भावनाएं आज अनेक व्यक्तियों के हृदय में काम कर रही हैं। पिछले दिनों इस सम्बन्ध में जब से व्यवस्थित कार्यक्रम बनाया जा रहा है तब से अनेकों पुण्य आत्माएं इस दिशा में कार्य करने के लिए तैयारी करने में लगी हुई हैं। ऐसे कितने ही पत्र हमारे पास आये हुए हैं जिनमें चिरकाल से केवल भजन और एकान्त सेवन करने वाले महात्मा अब अपनी साधना का प्रधान अंग धर्म प्रचार को बनाने वाले हैं। कई ऐसे व्यक्ति जो पारिवारिक उत्तरदायित्व को पूर्ण कर चुके हैं, पैंशन पा रहे हैं, जिनके बाल बच्चे घर का काम सम्भाल रहे हैं अथवा जिनकी स्थायी आमदनी है कि आश्रितों का काम भली प्रकार चलता रह सकता है, अब अपना पूरा समय देश की मनोदशा सुधारने की साधना में लगाने के लिये कटिबद्ध हो रहे हैं। योगियों और साधकों की साधनाएं अनेक प्रकार की होती हैं, इन सब साधनाओं में आज के युग के उपयुक्त साँस्कृतिक पुनरुत्थान की साधना है। क्योंकि उसमें आत्मा का कल्याण वैसा ही होता है जैसा हठयोग, जपयोग लययोग, प्राणयोग आदि द्वारा होना सम्भव है। अपने कल्याण के साथ संसार का भी कल्याण होने से यह साधना दुहरे पुण्यफल का हेतु बन जाती है। इस प्रकार यह अन्य साधनाओं की अपेक्षा दूना सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली है। यह सोच के विचारवान आत्मत्यागी, भागवत भक्त, परमार्थ प्रेमी, विरासत एवं साधुता की ओर अग्रसर होने वाले कर्त्तव्यपरायण साधु बनने में अधिक महानता देख रहे हैं। निवृत्त प्रधान एकान्तवासी महानुभाव उस मार्ग को बदल कर इस अत्युत्तम कार्यक्रम की उपयोगिता स्वीकार करने जा रहे हैं।

कुछ ऐसे सज्जनों के भी पत्र हमें मिले हैं जो अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों को लगभग पूर्ण कर चुके हैं परन्तु घर रह कर ही इस साँस्कृतिक साधना को करना चाहते हैं क्योंकि अभी कुछ महत्वपूर्ण घरेलू काम करने उन्हें शेष रह गये हैं। तीसरे प्रकार के वे लोग हैं जिनका उत्साह इन कार्यों के लिए बहुत भारी है परन्तु परिवार के कारण पोषण की जिम्मेदारी अपने ऊपर रहने के कारण आजीविका सम्बन्धी कार्यों को करते रहना भी आवश्यक है। वे अपने बचे हुए समय को इस सेवा कार्य में लगाने के उत्सुक हैं। विद्यार्थी वर्ग विद्याध्ययन करते हुए साँस्कृतिक ज्ञान उपार्जन करने को उत्सुक मालूम पड़ता है। कुछ महिलाओं के पत्र भी ऐसे आये हैं जिनकी अधिक उपयोगिता उनके परिवार में नहीं है। बच्चों का बोझ भी उन पर नहीं हैं, इसलिए अपने को भगवान के चरणों में अर्पण करके अपने जीवन को सफल बनाना चाहती हैं।

इन प्रस्तावों से हमारा हृदय प्रसन्नता से भर जाता है। ऐसा लगता है कि कोई ईश्वरीय प्रेरणा हमारे भीतर ही नहीं हमारी ही शाँति अनेक आत्माओं के भीतर अपना कार्य कर रही है और उन्हें ऐसे मार्ग पर चलने के लिये तैयार कर रही है जिससे भारत भूमि के प्राचीन गौरव की प्रतिष्ठापना का साँस्कृतिक पुनरुत्थान का महान कार्य पूर्ण हो सके। भावना इन सभी की एक है पर परिस्थितियों के कारण समय और अवसर सबका समान नहीं। इसलिए जिनको जैसा अवसर है उनको उसी श्रेणी में रखने और ही कार्यक्रम देने का निश्चय किया गया है। साधारणतया इनकी श्रेणियाँ इस प्रकार रखी जा रही हैं-

(1) आत्म-त्यागी- जो अपने समय शरीर और मन वचन कर्म को ज्ञान ओर परमार्थ के निमित्त-समाज और धर्म के निमित्त-गायत्री और यज्ञ के निमित्त-सर्वतो-भावेन अर्पण करें। शेष जीवन को इन्हीं कार्यों के निमित्त लगायें। ऐसे लोगों का पारिवारिक जिम्मेदारियों से पूर्ण मुक्त होना आवश्यक है। ऐसे लोगों को एक प्रकार का संन्यासी सर्वत्यागी माना जायेगा।

(2) आत्म-दानी- जो कमाने की चिन्ता से मुक्त हैं, पर घर की देख भाल रखना जिनके जिम्मे शेष हैं वे मन से अपने को धर्म के निमित्त अर्पण करते हैं परन्तु इस आशा के साथ कि संस्था उन्हें अपना मान लेने के उपरान्त पारिवारिक व्यवस्थाओं को भी एक उपयोगी कार्य मान कर उचित समय तक अपने प्रतिनिधि के रूप में काम करने देगी। ऐसे लोग अपने घर की व्यवस्था की सामान्य देख भाल करते हुए अपना शेष समय अपने निकटवर्ती क्षेत्र के कार्य करने के लिये लगाते रह सकते हैं। जिस प्रकार कन्या का दान कर देने के बाद भी वह पिता के घर में सहयोग करती रह सकती है, उसी प्रकार आत्मदानी अपने जीवन का प्रधान कार्य लोक सेवा समझते हुए, साधारण गृह व्यवस्था करते रह सकते हैं। ऐसे लोगों को वानप्रस्थी कहा जा सकता है।

(3) आत्म-सेवी - पारिवारिक जिम्मेदारी को पूरा करते हुए कुछ न कुछ समय नियमित रूप से साधना के लिए तथा जन सेवा के कार्यों में लगाते रहना। जिस प्रकार शरीर का, परिवार का एवं अर्थ व्यवस्था का ध्यान रखा जाता है उससे कम ध्यान लोक सेवा का न रखा जाय। ऐसे लोग सद्गृहस्थ एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान सेना के सैनिक तथा स्वयं सेवक कहे जा सकते हैं।

(4) आत्म-निर्माता- अपने अनुभव एवं ज्ञान को स्वाध्याय तथा आत्म चिन्तन द्वारा ऐसा बनाना कि सुसंस्कृत समाज का अपने आपको एक महत्वपूर्ण अंग सिद्ध कर सकें। अपने आपको इस प्रकार के गुण कर्म और स्वभाव का बना सकें कि जिसे देख कर लोग यह समझ सकें कि सुसंस्कृत संस्कारित व्यक्ति किस प्रकार के होते हैं। विद्यार्थी वयोवृद्ध, रोगी, कन्याएं, महिलाएं आदि इस श्रेणी वे लोग आते हैं जिनको अधिकतर जन समाज से अलग रह कर एक सीमित क्षेत्र के काम करना होता है। महिलाएं अपनी सहेलियों में अथवा किसी विवाह उत्सव में जाने पर उत्तम विचारों का प्रसार कर सकता है, उपरोक्त चार श्रेणी पुरुषों की भाँति परमार्थ प्रेमी महिलाओं की भी हो सकती हैं।

हमारे पास सुयोग्य महिला कार्यकर्त्रियाँ नहीं हैं। इसलिए स्त्रियों के लिए कोई व्यापक योजना नहीं बन पा रही है क्योंकि हम सदा से इस बात के पक्षपाती हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के कार्य क्षेत्र अलग-अलग रहने चाहिये। स्त्रियों में स्त्रियाँ ही काम करे जिससे कभी किसी विकृति की सम्भावना न रहे। अभी अखण्ड-ज्योति सम्पादक की माता जी, धर्म पत्नी तथा बहिन ने मिल कर योजना बनाई है कि अखण्ड-ज्योति प्रेस तथा कार्यालय का कार्य ऐसा है जो घर के भीतर हो सकता है। इस कार्य को स्त्रियाँ भी आसानी से कर सकती हैं। पुरुष इस कार्य को छोड़ कर अन्य महत्वपूर्ण कार्यों के लिये बाहर रहें और इस संस्था का आदि से अन्त तक पूरा कार्य महिलाएं ही सम्भाल लें। जिस प्रकार आत्म त्यागी पुरुष अपना जीवन दान देकर समाज सेवा करेंगे, उसी प्रकार इस छोटे क्षेत्र में रह कर महिलाएं भी देश-व्यापी ज्ञान प्रसार का महान कार्य प्रेस प्रकाशन एवं लेखन के द्वारा कर सकती हैं।

जो महिलाएं पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो चुकी हैं अथवा जिनका विचार पारिवारिक उत्तरदायित्व में प्रवेश करने का नहीं है ऐसी शिक्षित महिलाएं यदि ब्रह्मचर्य, शील और सदाचारपूर्वक जीवन लगाना चाहें और अध्यात्म साधना, स्वाध्याय, यज्ञ, व्रत तथा ज्ञान प्रसार के कार्यों के लिये शेष जीवन को देना चाहें तो मथुरा में उनको इस परिवार में भर्ती किया जा सकता है। थोड़े समय श्रम करने से वे अपने निर्वाह खर्च तो बड़ी आसानी से वहाँ ही उपार्जित कर सकती हैं। एक दो ऐसी अशिक्षित देवियों के लिये भी गुंजाइश हो सकती है जो शारीरिक श्रम में उत्साही हों और घरेलू काम काजों में हाथ बंटा लिया करें। इच्छुक महिलाएं- इस पते पर पत्र व्यवहार कर सकती हैं। श्रीमती भगवती देवी धर्मपत्नी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य अखण्ड-ज्योति प्रेस, मथुरा।

उपरोक्त चारों प्रकार के परमार्थ परायण व्यक्तियों के समुचित पथ प्रदर्शन एवं सहयोग की व्यवस्था की जायगी। किसी को नौकरी पाने या आर्थिक लाभ मिलने की आशा नहीं करनी चाहिए। जो अपनी आर्थिक जिम्मेदारियों तथा व्यक्तिगत चिन्ताओं से जितने मुक्त हैं, उनके लिये उतना ही यह सेवा मार्ग सुविधा जनक होगा। गायत्री माता से कुछ साँसारिक लाभ पाने के लोभी नहीं, उनके चरणों पर अपनी सामर्थ्य को अर्पण करके अपने को धन्य मानने वाले त्यागी ही इस दिशा में ठीक प्रकार कदम उठा सकते हैं। आत्म दानी, आत्म सेवी, आत्म निर्माता तीन श्रेणी के व्यक्ति अपना संकल्प घर रह कर ही कर सकते हैं और अपनी परिस्थितियों के अनुसार साधना तथा सेवा का कार्य आरम्भ कर सकते हैं, पर आत्म-त्यागियों का कार्यक्रम दूसरा ही होगा। उनके संकल्प को समारोहपूर्वक घोषित किया जायेगा। एक बड़ा विशाल नरमेध यज्ञ अगले वर्ष हम करने जा रहे हैं। इसमें कोई मनुष्य काट कर हवन नहीं किया जायेगा पर वह अपने मन, बुद्धि, प्राण, जीवन, इच्छा, आकाँक्षा आदि को परमार्थ के लिए-यज्ञ भगवान के लिये आहुति देता हुआ संकल्प करेगा। नरमेध यज्ञ के बारे में लोगों की बड़ी भ्राँतियाँ हैं, उन्हें निवारण करने और उस और उस वैदिक संस्कृति के महान उपकरण को प्रत्यक्ष करने के लिये यह आयोजन किया जा रहा है। उस युग में आत्म त्यागी लोग समाज सेवा के लिए जीवन अर्पण करते थे। उनका शुभ संकल्प समारोह पूर्वक यज्ञ भगवान की साक्षी में उद्घोषित होता था, ताकि उसकी सफलता अधिक सुनिश्चित हो जाय। वह पद्धति बहुत दिनों से भ्रम एवं अज्ञान के गर्त में चली गई। अब उसे पुनः प्रकट करने के लिए साँस्कृतिक पुनरुत्थान के महान आयोजन के साथ प्रारम्भ किया जा रहा है। नरमेध यज्ञ में अपनी आहुतियाँ देते हुए हम लोग इस अभियान के लिए अग्रसर होंगे। चित्तौड़ की रानियों ने जलती हुई चिताओं में अपने शरीरों को धर्म रक्षा के लिए अर्पण किया था। हम साँस्कृतिक पुनरुत्थान के धर्म यज्ञ में प्राचीन महानताओं की प्रतिष्ठापना के लिये अपने मन, वचन, कर्म की सर्वस्व की आहुतियाँ देने को बढ़ेंगे। यही नरमेध यज्ञ है। इसका आयोजन विशाल पैमाने पर अगले वर्ष होगा। इसमें आत्मबलि देने वाले हुतात्मा न मिलें ऐसा नहीं हो सकता। भारत भूमि निर्वीय नहीं हुई है। ऋषियों की सन्तान के रक्त में अभी जीवन बाकी है। दधीच, सुनिशेष, भागीरथ, नारद, आदि की परम्परा नष्ट हो गई ऐसा कहने को न मिलेगा। भारत भूमि त्यागी वीरों के लिए प्रसिद्ध रही है। नरमेध में अपनी आहुति देने के लिये भी कुछ न कुछ हुतात्माओं के मन में अन्तः प्रेरणा उत्पन्न होगी और नरमेध में आहुतियाँ पड़ेंगी। श्री तारकेश्वर झाँ का संकल्प पिछले महीने अखण्ड-ज्योति में प्रकाशित हो चुका है और भी कुछ संकल्प शीघ्र ही सामने आ रहे है ऐसा हमें स्पष्ट दीखता है।

धर्म और संस्कृति के लिये जीवन दान देना आराम तलबी छोड़कर घोर परिश्रम करने का व्रत लेना, स्वार्थ को तिलांजलि देकर परमार्थ के लिये अपनी आहुति देना, यह सब कोई साधारण त्याग नहीं है। ऐसे त्यागियों का समुचित सम्मान करना उनके व्यक्तित्व का नहीं वरन् उस त्याग भावना और कर्म वीरता का मान करना है। निश्चय किया गया है कि जीवित रहते उनके पुनीत व्रत के सम्बन्ध में समुचित जानकारी जनता को कराई जायेगी। उनके चित्र, मनोभाव एवं कार्य जनता के सम्मुख लाये जायेंगे और उनका स्वर्गवास होने के बाद उनके सचित्र जीवन वृत्तान्त, प्रवचन एवं कार्य अत्यन्त सुन्दर पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किये जायेंगे। चूँकि आत्मत्यागियों का घर एक प्रकार से गायत्री तपोभूमि ही होगा, इसलिये उनके शरीर की समाधि स्मारक वहाँ बनाया जायगा। यह स्मारक मूल्यवान कलापूर्ण और चिरस्थायी बनाये जायेंगे। उन पर स्वर्गीय आत्मा का जीवन वृत्तांत धातुओं के अक्षरों में जड़ा रहेगा। यह स्मारक यहाँ आते रहने वाले लाखों धर्मप्रेमी यात्रियों को चिरकाल तक एक प्रकाश एवं सन्देश देते रहेंगे। ऐसे आत्म-त्यागियों की कभी मृत्यु नहीं होती। दधीच की हड्डियाँ मात्र गई हैं उनका यश तब तक नहीं मर सकता जब तक इस संसार में सूर्य चन्द्र मौजूद हैं। इन हुतात्माओं का भी कार्य लगभग वैसा ही होगा। तद्नुसार उन्हें वैसा ही श्रेय मिलना भी स्वाभाविक है। इस युग में नरमेध यज्ञ नया ही हो रहा है, इसका कौतूहल देखते ही जनता नहीं आवेगी वरन् सच्ची बात यह है कि युग प्रवाह के विपरीत परमार्थ के लिए इस प्रकार का यह विलक्षण त्याग देखने को ही जन समूह उमड़ेगा। नरमेध में आहुति देने वाले हुतात्मा व्यक्ति ही वस्तुतः जनता के आकर्षण-केन्द्र होंगे। साँस्कृतिक पुनरुत्थान का महान कार्य ईश्वरीय प्रेरणा से हो रहा है। वह भगवान के सुनिश्चित विधान के अनुसार पूर्ण होकर रहेगा। प्रश्न केवल श्रेय का है। जिनकी आत्मा को प्रभु यह श्रेय देने की सोच रहे होंगे, उन्हीं के अन्दर वे ऐसी प्रेरणा भी करेंगे।

परिस्थिति और योग्यता के अनुकूल इनके कार्यक्रम भी भिन्न ही होंगे। सबके कार्यक्रम एक से नहीं हो सकते वह तो पत्र व्यवहार एवं परामर्श से तय होंगे। आत्म-त्यागी और आत्म-दानियों के संकल्प मथुरा में ही स्वीकार किये जायेंगे। आत्म-सेवा और आत्म-निर्माता अपने संकल्प पत्रों से भी भेज सकते हैं। जब नरमेध यज्ञ होगा तब इस सेना के सैनिकों का परिचय छापने के लिए अखण्ड-ज्योति का एक विशेषाँक भी प्रकाशित किया जायेगा।

इन पंक्तियों के द्वारा हम ऋषि रक्त के अन्दर छिपे हुए त्याग तत्व को आह्वान करते हैं। ऐसा त्याग जिस आत्मा में भी, जहाँ भी, जिस स्थिति में भी मौजूद हो, हम चाहते हैं कि वह वहीं से बोले, वहीं से उठे, वहीं से चमके और अपनी परिस्थिति के अनुरूप वहीं से कार्य आरम्भ कर दे। युग निर्माण की इस बेला में बलिदानों की आवश्यकता है जो जितना कर सकता हो उसे उतना करने के लिये लाभ और वासना पर काबू करके इस पुनीत मार्ग पर अग्रसर होना चाहिये।


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