नव चेतना (Kavita)

November 1954

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नये देश को मैं नई भक्ति दूँगा! जगा देश सारी मिटी कालिमा है,

चतुर्दिक छिटकने लगी ललिमा है, निशानाथ सोये जग अंशुमाली,

मगर अर्चना की अभी रिक्त थाली, प्रगति-पंथ पर वेग से बढ़ चलें जो-

करोड़ों पगों को नई शक्ति दूँगा! जवानी न रुकती कभी आँधियों से,

जवानी सहमती न बरबादियों से, जवानी ने चाहा कि फिर करके छोड़ा,

जवानी ने डरकर कभी मुँह न मोड़ा, कसम खाके उट्ठी जवानी हमारी-

मैं बलि की जवानों को आसक्ति दूँगा! नये देश को मैं नई भक्ति दूँगा!

न होगा कभी दृष्टि से लक्ष्य ओझल, बनेगा हमारा हृदय-बल ही सम्बल,

अतुल शक्ति अपने पगों में छिपी है, झुकेगा किसी दिन इन्हीं पर हिमाचल,

धरा पर नया स्वर्ग बसकर रहेगा- मनुज को विवशता से मैं मुक्ति दूँगा!

अभी कल्पना हो सकी है न पूरी, अभी साधना रह गई है अधूरी,

अभी तो खुला द्वार केवल प्रगति का, अभी लक्ष्य में शेष है और दूरी,

बिना लक्ष्य की प्राप्ति के जो न लौटे- मैं ऐसी प्रखर शक्ति के व्यक्ति दूँगा!

नये देश को मैं नई भक्ति दूँगा!


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