तपोभूमि में गायत्री महापुरश्चरण

November 1954

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(पं. राजकिशोर मिश्रा, पटियाली)

गायत्री तपोभूमि में आश्विन की नवरात्रि का गायत्री महापुरश्चरण बड़े ही आनन्द पूर्वक सम्पन्न हुआ। मथुरा शहर से एक मील दूर, यमुना तट पर यह तपोभूमि ऐसे पुनीत स्थान पर अवस्थित है जहाँ पूर्व काल में अनेक संतों ने तपश्चर्याएं करके सिद्धियाँ प्राप्त की हैं। इस स्थान पर जो भी साधन किये जाते हैं वे बड़े अद्भुत रूप से सफल होते हैं। इस बार का यह महापुरश्चरण भी ऐसा ही सफल रहा। उड़ीसा, गुजरात, हैदराबाद, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, आदि प्रायः प्रान्तों से गायत्री उपासक लगभग 100 की संख्या में आये थे।

आश्विन शुक्ल 1 को प्रातःकाल सब लोग 24 हजार अनुष्ठान का संकल्प लेकर साधना में प्रवृत्त हो गए। तपस्वी जीवन के कष्टसाध्य नियमों को प्रायः सभी ने बड़ी प्रसन्नता पूर्वक निभाया। प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सब लोग नित्यकर्म स्नानादि से निवृत्त होकर गायत्री जप में संलग्न हो जाते थे। पीले दुपट्टे ओढ़े हुए पंक्ति बद्ध साधना करते हुए साधकों का दृश्य बड़ा ही हृदयग्राही होता था। प्राचीन काल में तपोवनों में ऋषिगण इकट्ठे होकर किस प्रकार वेदोक्त साधनाएँ करते होंगे इसकी एक प्रत्यक्ष झाँकी देखकर दर्शक के मन में सहज ही आस्तिकता का उदय होता था।

यज्ञ सूर्योदय होते ही आरम्भ हो जाता था। 108 आहुतियों का हवन करके दस-दस उपासकों की टोली उठती जाती थी और नई टोलियाँ आती जाती थी। इस प्रकार दस बजे तक क्रम चलते रहते। सभी साधक अपने जप में शताँश हवन से कीं अधिक हवन कर लेते थे। 10 बजे जब हवन समाप्त होता तो उस दिन की सभी हवन करने वाली टोलियाँ आकर शास्त्रोक्त विधि से तर्पण, मार्जन, आदि कृत्य करती और सामूहिक प्रार्थना तथा प्रदक्षिणा के साथ उस दिन का कार्य-क्रम समाप्त होता है।

मध्याह्न को भोजन विश्राम के उपरान्त 2 से 6 बजे तक प्रवचन होते। जिसमें गायत्री, यज्ञ धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, नीति, व्यवहार तथा मनुष्य जीवन की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डाला जाता है। आचार्य जी का इन दिनों 9 दिन तक केवल जल लेकर उपवास रहता है तो भी वे डेढ़ दो घंटे ही मार्मिक प्रवचन प्रतिदिन करते अन्य विद्वान वक्ताओं का क्रम प्रतिदिन बदलता रहता। सत्संग का यह स्वर्णीय समय बड़ा ही प्रभावोत्पादक होता। प्रातः काल जप, यज्ञ आदि से शुद्ध एवं परिष्कृत हुई आत्माओं में सच्चे अन्तःकरणों से निकले हुए उद्गार जोती हुई भूमि पर बीज बोने का काम करते थे। इन प्रवचनों का लोगों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा, जितना हजारों कथा व्याख्यान सुनने पर भी पड़ना कठिन है।

एक दिन प्रवचन, दूसरे दिन तीर्थ यात्रा यह क्रम बनाया गया या तीर्थ यात्रा का कार्यक्रम ऐसा रखा गया था कि 4 दिन में मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, महावन, ब्रह्माण्डघाट, दाऊजी, गोवर्धन, जतीपुरा, राधाकुण्ड, नंदगाँव बरसाना आदि सभी प्रमुख स्थान भली प्रकार देख लिए गये। करीब 5 रुपये कुल किराया खर्च पड़ा। लारियाँ तपोभूमि में आकर सबको ले जाती थीं और वहीं उतार जाती थीं। ठहरने और भोजन की समुचित व्यवस्था थी। इस प्रकार की सामूहिक तीर्थ यात्रा में ऐसा आनन्द रहा जैसा अकेली यात्राओं में प्राप्त हो सकना कभी भी संभव नहीं है। 10 दिन का दोनों समय का भोजन व्यय 10) रखा गया था। जो प्रायः सभी ने जमा करा दिया था।

गीता प्रेस गोरखपुर वाले श्री जयदयाल गोयन्दका भी इस पुनीत अवसर पर पधारे और उनका गायत्री महामन्त्र की महत्ता पर एक घण्टा बड़ा ही मार्मिक प्रवचन हुआ। वे इस आयोजन को देखकर प्रसन्नता से पुलकित और गदगद हो गये। उन्होंने 101) दान भी दिए।

जैसे पवित्रतम एवं भावना पूर्ण वातावरण में यह महापुरश्चरण हो रहा था, उससे तपोभूमि में एक अलौकिक आध्यात्मिक तत्व का उद्भव होते हुए लोगों ने प्रत्यक्ष देखा। अनेकों साधकों को बड़ी ही दिव्य अनुभूतियां हुई जिनके कारण उन्होंने अपने जीवन को सफल एवं धन्य हुआ माना। गायत्री तत्व का प्रत्यक्ष अनुभव करने वालों में जाँजमेर (गुजरात) के भट्ट धीरज लाल मन्छाराम जी अग्रणी रहे। यह महात्मा लम्बे समय से मौन रह कर अत्यन्त निष्ठा और पवित्रता पूर्वक गायत्री पुरश्चरण कर रहे हैं। इन्हें जो लालसा थी उसके संबंध में उन्हें माता की प्रेरणा हुई कि वह तुम्हें मथुरा प्राप्त होगी। तद्नुसार वे बिना किसी पूर्व तैयारी के तुरन्त मथुरा चल पड़े और अन्ततः उन्हें यहाँ आकर अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त हुआ। इसी प्रकार और भी कई साधकों को दिव्य अनुभव हुए उनकी आँखों में से कई दिन आनन्द के आँसू निरन्तर बरसते रहे। यद्यपि ऐसे लोगों ने अपने साक्षात्कार का पूरा वृत्तान्त आचार्य जी को बता दिया था फिर भी विषय गोपनीय होने के कारण उसका विवरण अन्य लोगों को पूछने पर भी नहीं बताया गया।

अन्तिम दिन पूर्णाहुति में सभी साधकों ने एक साथ भाग लिया। सभी कृत्य पूर्ण शास्त्रोक्त रीति से सम्पन्न हुए। यहाँ का वातावरण ऐसा प्रेम पूर्ण एवं स्वर्गीय बन गया था कि जाते समय लोगों के दिल टूट रहे थे। उस समय लोगों कि आँखों में से प्रेम गंगा उमड़ रही थी। कितने ही तो बालकों की तरह फूट-2 कर रो रहे थे। साँसारिक कर्त्तव्यों के कारण विलग होना पड़ रहा था पर मन सबका यहाँ ही अटका हुआ था। यदि विवशता न होती तो इस साक्षात् स्वर्ग को छोड़ कर कोई भी यहाँ से जाने को तैयार नहीं होता। 9 दिन के निराहार उपवास के कारण आचार्य जी का शरीर और भी दुर्बल हो गया था फिर भी अपने सभी कर्त्तव्य भली प्रकार पूरे कर रहे थे।

आगे के लिए यह निश्चय हुआ है कि प्रति वर्ष आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में ऐसे ही 24 लक्ष जप के दो महापुरश्चरण हुआ करेंगे और जून की छुट्टियों में विद्यार्थियों के लिए साँस्कृतिक शिक्षण शिविर हुआ करेगा। अधिक यज्ञ और तप होने से तपोभूमि की भूमि में यह दिव्य प्रभाव बढ़ेगा। जिससे इस पुनीत स्थान में प्रवेश करने व लोगों स्वल्प प्रयत्न से अधिक शान्ति एवं शक्ति मिल सके। अपने घरों पर साधना करने की अपेक्षा यहाँ के शक्तिशाली वातावरण में किया हुआ तप निश्चय ही अनेक गुना अधिक परिणाम कारक होगा। यह एक सिद्धपीठ इस तपोभूमि को बनाने के लिए आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में यहाँ महापुरश्चरणों की सदा ही व्यवस्था रहेगी। अगले चैत्र के महापुरश्चरण के अन्त में पूर्णाहुति के दिन ही नरमेध यज्ञ भी होगा। जिसमें गायत्री माता, यज्ञ पिता एवं भारतीय संस्कृति के लिए जो लोग जीवन दान करेंगे, उनके महत्व पूर्ण संकल्पों को शास्त्रोक्त विधि से वृहत समारोह पूर्वक सम्पन्न कराया जायगा और बताया जायगा कि प्राचीन काल में किस प्रकार नरमेध यज्ञ होते थे।

तपोभूमि में 24000 के लघु अनुष्ठान 2400 की संख्या में हों ऐसा संकल्प किया है। इस संकल्प के दो लाभ हैं। एक तो इतना तप होने से यह तीर्थ सच्चे अर्थों में ‘सिद्धपीठ’ बन जायेगा और दूसरे जो तपस्वी यहाँ तप करेंगे उन्हें अन्यत्र कहीं भी गायत्री उपासना करने की अपेक्षा अधिक सफलता मिलेगी। इसलिए आगामी नवरात्रियों में मथुरा अधिक संख्या में लोगों को न आने की वैसी कड़ाई न बरती जायेगी जितनी अब तक बरती जाती रही है।

लोग श्रोत स्मार्त यज्ञों के शास्त्रोक्त विधानों को भूल गये हैं। अच्छे कर्मकाण्डी पंडितों का मिलना कठिन हो रहा है। देश में सात्विक वातावरण पैदा करने के लिए यज्ञों की बड़ी आवश्यकता है क्योंकि उनके बिना उस प्रचण्ड शक्ति का आविर्भाव नहीं हो सकता जो समय और वातावरण को अदृश्य रूप से परिवर्तित करने में समर्थ होती है। ठीक यज्ञों के लिए अच्छे याज्ञिकों की भी आवश्यकता है। इसलिए यह भी निश्चय किया है कि तपोभूमि में यज्ञों की शास्त्रोक्त विधि व्यवस्था की सांगोपांग शिक्षा देने के लिए एक विद्यालय की स्थापना की जाय, यज्ञीय वनस्पतियाँ पैदा की जाएं, यज्ञपात्र, कुण्ड आदि सभी की शिक्षाएं यहाँ हों। षोडश संस्कारों और पर्व त्यौहारों का विधान भी सिखाया जाय। जिससे हमारा समाज वस्तुतः सुसंस्कारी बन सके।

क्योंकि अभी हमारे साधन बहुत सीमित हैं। वैसा विद्यालय चलाने के लायक अर्थव्यवस्था जुटाने में भारी कठिनाई है। इसलिए तात्कालिक कार्यक्रम यह बनाया गया है कि चैत्र वदी 5 सं. 2011 तद्नुसार 13 मार्च सन् 1955 से एक मास या छः सप्ताह का एक शिक्षण शिविर किया जाय, जिसमें विभिन्न प्रकार के यज्ञों तथा अन्य कर्मकाण्डों की शास्त्रीय शिक्षा देकर कुछ ऐसे याज्ञिक तैयार किए जायं जो यज्ञविद्या का चमत्कार दिखा सकने लायक स्थिति तक पहुँच सकें।

गायत्री सम्बन्धी आवश्यक सभी जानकारियाँ एक स्थान पर अत्यधिक सस्ते रूप में छापने के लिए इस महापुरश्चरण में आये हुए साधकों ने बहुत जोर दिया। तद्नुसार “अखण्ड-ज्योति, प्रेस” ने तीन हजार रुपये का घाटा देना स्वीकार करके एक ‘गायत्री ज्ञान अंक’ जनवरी 55 में छापने की व्यवस्था की है। इस ज्ञान अंक में इतनी सामग्री ठूँस दी जायगी कि एक नये व्यक्ति को सब कुछ नहीं तो काम चलाऊ बहुत कुछ मिल जायेगा। बिना कुछ अधिक पूछ-ताछ की अपेक्षा रखे इस अंक में साधारण अंकों को बराबर या उससे अधिक पृष्ठ रहेंगे दो चित्र भी भीतर रहेंगे पर असली लागत की अपेक्षा इसका मूल्य आधा रखा जायगा। यह अंक उतना ही अधिक छपेगा जितना तीन हजार घाटा देकर छप सकेगा। हर बार घाटा देते रहना भी संभव नहीं इसलिए दुबारा इसके छपने की भी आशा नहीं है। ‘अखण्ड-ज्योति’ के ग्राहक या गायत्री प्रेमी जितनी अधिक संख्या में इन्हें दान के लिए या बेचने के लिए मँगाना चाहें अपनी कापियाँ अभी से रिजर्व करा लें।

आश्विन की नवरात्रि का गायत्री महापुरश्चरण बड़े ही स्वर्गीय एवं आनन्द मय वातावरण में समाप्त हो गया। जहाँ उससे अदृश्य वातावरण में बड़े ही महत्वपूर्ण तत्व उत्पन्न हुए हैं एवं सम्मिलित होने वालों को आशातीत शान्ति मिली है वहाँ आगे के लिए कुछ कार्यक्रम भी बने हैं। जिनमें 4 मुख्य हैं (1) सामूहिक उपासना आयोजनों का कार्यक्रम जिसके सम्बन्ध में पिछले पृष्ठों पर एक लेख छपा है। (2) आगामी चैत्र की नवरात्रि में अधिक उपासकों को तपोभूमि के महापुरश्चरण में भाग लेने आने के लिए प्रोत्साहन (3) चैत्र वदी 5 ता0 13 मार्च से एक या डेढ़ महीने के लिए शास्त्रोक्त यज्ञ विधि का शिक्षण शिविर (4) आश्चर्यजनक सस्ता एवं अपनी सामर्थ्य से अधिक घाटा देकर छपने वाला जनवरी 55 का ‘गायत्री ज्ञान अंक’। इन चारों कार्य क्रमों के लिए यथासम्भव सहयोग करना और इन्हें आगे बढ़ाने के लिए उत्साहपूर्वक शक्ति भर प्रयत्न करना, हम सब का परम पुनीत कर्त्तव्य है।


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