(श्री विक्रमादित्य जी आचार्य)
स्वाध्याय शब्द का अर्थ है स्व+अध्याय, अर्थात् अपना अध्ययन या अपने को जानना या आत्म-निरीक्षण करना। यह संसार जिसे हम नित्य-प्रति देखते हैं क्या है? हमारा इससे क्या सम्बन्ध है? हमारा वास्तविक स्वरूप कैसा है? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? हम अपने आस-पास अनेक जीवों को देखते हैं उनके साथ हमें कैसा बर्ताव करना चाहिये? जो ग्रन्थ इन प्रश्नों का उत्तर देते हैं या देने का यत्न करते हैं उन ग्रन्थों के अध्ययन को हम स्वाध्याय कहते हैं।
हमारे प्राचीन ग्रन्थ स्वाध्याय की महिमा से भरे पड़े हैं। हमारे तत्ववेत्ता ऋषियों ने स्वाध्याय को जीवन की उन्नति के लिए आवश्यक अंग माना था। योग सूत्रों के रचयिता महामुनि पातंजलि ने तो स्वाध्याय को श्रष्टाँग योग के पाँच में से एक नियम माना है। उन्होंने लिखा है-
“शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पाँच नियम हैं, जिस प्रकार आन्तरिक और बाह्य पवित्रता, सन्तोष, तप और ईश्वर का स्मरण ज्ञान प्राप्ति में सहायक हैं उसी प्रकार स्वाध्याय भी सहायता पहुँचाता है। स्वाध्याय के बिना हम ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे इसमें सन्देह है।”
हम अपनी वर्तमान अवस्था से कभी सन्तुष्ट नहीं होते। यद्यपि हम जानते हैं कि हमारे अन्दर कुछ कमी है और एक सीमा से आगे काम नहीं कर सकते। पर तब भी हम अधिक शक्ति प्राप्त करने के लिए यत्न करते रहते हैं। हमारे अन्दर कोई एक ऐसी अज्ञान शक्ति है जो हमें निराश नहीं होने देती और निरन्तर अधिक उन्नति के लिए प्रेरणा करती रहती है। हम इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं, कि यह शक्ति हमें तभी चैन लेने देगी जब हम पूर्णता को प्राप्त कर लेंगे-अर्थात् इतनी उन्नति कर लेंगे कि जिससे आगे बढ़ना असम्भव हो जाय। इस पूर्णता की प्राप्ति के लिए स्वाध्याय बड़ी जरूरी चीज है। सत्य तो यह है कि स्वाध्याय हमारे लिए अनिवार्य है।
प्रत्येक देश में समय-समय पर महापुरुष जन्म लेते रहते हैं वे अपनी अलौकिक शक्ति से संसार का उपकार करते हैं। भूले-भटके को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। पर वे अपने नश्वर शरीर से हमारा अधिक लाभ नहीं कर पाते। उनका यह भौतिक शरीर कुछ समय पश्चात नष्ट हो जाता है। पर वे हम लोगों के लिए एक ऐसी वस्तु छोड़ जाते हैं जो कभी नष्ट नहीं हो सकती, जिसमें हम हर समय लाभ उठा सकते हैं। हजारों वर्षों पूर्व भगवान् कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। उपदेश देने वाले के शरीर का तो अब कहीं पता नहीं पर हाँ गीता एक ऐसा ग्रन्थ अवश्य हमारे पास है जो ज्ञान का भण्डार है और हम उसको पढ़ कर अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं। उपनिषदों के ऋषियों के कहीं दर्शन नहीं होते पर उनकी अमर कृतियों को पढ़ कर हम कृत-कृत्य हो जाते हैं। बुद्ध, ईसा और मुहम्मद के नश्वर शरीर ढूँढ़ने से भी कहीं नहीं मिलेंगे पर उनके लिखे ग्रन्थों को पढ़ कर हम उनके विचारों को जान सकते हैं। जब हम महापुरुषों के इन ग्रंथों को पढ़ते हैं तो ऐसा जान पड़ता है कि हम उनके पास बैठे हुए हैं। उनसे बातें कर रहे हैं। इस प्रकार हमने देखा कि स्वाध्याय महापुरुषों से मिलने का एक साधन है।
स्वाध्याय के सम्बन्ध में आजकल लोगों में एक बड़ा भ्रम पैदा हो गया है। हम उस भ्रम को दूर कर देना भी अपना कर्त्तव्य समझते हैं। मुद्रण-कला के आविष्कार से हजारों पुस्तकें प्रतिदिन छपती हैं। इन पुस्तकों में से अधिकाँश तो ऐसी होती हैं कि जिनमें पढ़ने से लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है। किसी भी प्रकार की पुस्तक का पढ़ना स्वाध्याय नहीं कहला सकता। कुछ लोगों में पुस्तकें पढ़ने की एक लत पड़ जाती है। पुस्तकें भी पढ़े बिना उनसे रहा नहीं जाता। कैसी ही पुस्तक हो उन्हें पढ़ने को चाहिये। उससे लाभ होगा या हानि इसकी परवाह नहीं। इन लोगों के हाथ में जो पुस्तकें दिखाई पड़ती हैं वे हैं-अश्लील उपन्यास, काम वासना को उत्तेजित करने वाली कहानियाँ, बाजारू कवियों की गन्दी कविताएं और सिनेमा के चलते हुए गाने। ऐसी पुस्तकों के अध्ययन को हम स्वाध्याय कदापि नहीं कह सकते। इनको स्वाध्याय के लिए रखना महान भूल है। इनके पढ़ने से समय और धन दोनों ही नष्ट होते हैं।
अगर हम किसी व्यक्ति के विचारों को जानना चाहते हैं तो हमें उसके पुस्तकालय में जाना चाहिये। उसके पुस्तकालय में जैसी पुस्तकें होंगी वैसे ही उसके विचार होंगे। कवि को घर में आपको कवियों की पुस्तकें अधिकता से मिलेंगी और दार्शनिक के यहाँ आपको दर्शन के ग्रंथ ही दिखाई पड़ेंगे। दूसरी ओर कामी और विषयासक्त व्यक्ति के यहाँ आपको विषयों को उत्तेजना देने वाले साहित्य के ही दर्शन होंगे। पुस्तकें हमारे विचारों को बनाने और बिगाड़ने में बड़ा काम करती हैं इसलिये हमें इनके चुनाव में बड़ी सावधानी रखनी चाहिए। गन्दे और समाज पर बुरा असर डालने वाले साहित्य को हमें अपने पास कभी भूल कर भी नहीं रखना चाहिए, अगर कोई मुफ्त में भी दे तब भी ग्रहण नहीं करना चाहिए।