सद्विचार निर्झर

November 1954

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-मैंने कोई ऐसा आदमी नहीं देखा जिसने अपने आप को तुच्छ-हीन और बेकार समझते हुए कोई महान कार्य किया हो। जितनी योग्यता का हम अपने आपको समझेंगे उतना ही महत्व पूर्ण कार्य कर सकेंगे।

-मन में यदि भोग है तो मंदिर में जाकर भी भोगी को ही पूजेंगे। वहाँ जाकर देखेंगे- भगवान के क्या गहना है, कैसी पोशाक है।

-जिस समय कोई युगावतार होता है उस समय उसी के साथ-साथ जगत में कुछ विलक्षण विभूतियाँ भी अवतीर्ण हुआ करती हैं जो भस्म से ढंकी हुई अग्नि की तरह स्थान-स्थान पर छिपी रहती हैं, परन्तु समय पर अवतारी पुरुष का संकेत मिलते ही प्रकाश में आकर अपना पावन कार्य करने लगती हैं।

-सारे विश्व में एक ही तत्व काम कर रहा है एक ही जीवन एक ही सत्य वर्तमान है। सब इस दैवी प्रवाह की ओर जा रहे हैं जो ईश्वर तक जाता है। इस तरह की मनोभावनाएं खाने से हमें एक अलौकिक प्रोत्साहन प्राप्त होता है। हमारे मन का भय नष्ट हो जाता है।

-हम उसी परम तत्व के अंश हैं हम उससे अलग नहीं हैं। जो गुण ईश्वर में हैं वह हमें भी भली- भाँति प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि हम उसी के अंश हैं, हम पूर्ण और अमर हो सकते हैं, क्योंकि पूर्ण परमात्मा से हमारी उत्पत्ति है।

-जितना हम दैवी तत्व से एकता का सम्बन्ध जोड़ेंगे, जितना हम अपने परम पिता परमात्मा में तन्मय होंगे, उतना ही हमारा जीवन शान्तिमय, आश्वासन पूर्ण और उत्पादन शक्ति युक्त होगा।

-प्रेम ही सब रोगों की अद्भुत औषधि है। प्रेम ही जीवनदाता है। प्रेम ही जीवन है। प्रेम ही हमारी व्यथाओं का शमन करने वाला है। प्रेम ही जीवन का वास्तविक आनन्द देने वाला है।

वर्ष-14 संपादक-श्री राम शर्मा, आचार्य अंक-11


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