साधक का आहार−व्यवहार।

June 1948

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आहारे व्यवहारे च विचारषु तथैवहि। सात्विकेन सदा भाव्यं साधकेन मनीषिण॥

(आहारे) आहार में (व्यवहारे) व्यवहार में (तथैव च) और उसी प्रकार (विचारेणु) विचारों में भी (मनीषिण) बुद्धिमान (साधकेन) साधक को (सदा) सर्वदा (सात्विकेन भाव्यं) सात्विक होना चाहिए।

कर्तव्यं धर्मतः कर्म विपरीतेषु यद्भवेत्। तत्साधकस्तु मतिमानाचेरन्न कदाचन॥

(यर्त्कम) जो काम (कर्तव्य धर्मतः) कर्तव्य धर्म से (विपरीतं) विपरीत (भवेत्) हो (तत्) वह कर्म (मतिमान् साधकः) बुद्धिमान साधक (कदाचत्) कभी (न) नहीं (आचरेत्) करें।

अपनी वैज्ञानिक अध्यात्मवाद पुस्तक में हम सुविस्तार वह बता चुके हैं कि जितने भी आध्यात्मपरक दर्शन शास्त्र, जितने भी विचार, विश्वास एवं मान्यताएं हैं उन सबका एकमात्र हेतु मनुष्य को धर्मपरायण, कर्तव्य निष्ठ तथा समाज सेवी बनाना है। जीव चौरासी लाख पशु योनियों में भ्रमण करता हुआ मनुष्य योनि को प्राप्त करता है। उसके पिछले जन्मों के अनेक कुसंस्कार भी इस जन्म में साथ आते हैं, इन कुसंस्कारों पर नियंत्रण करके धर्म परायणता को हृदयंगम करने के लिए तत्वदर्शी आचार्यों ने अध्यात्म विचार विज्ञान की रचना की है। ईश्वर धर्म, पुनर्जन्म, कर्मफल, स्वर्ग−नरक आदि की विषद विवेचनाओं से हमारे धर्मशास्त्रों का सुविस्तृत साहित्य विनिर्मित हुआ हैं। इस इतने बड़े साहित्य के केवल मात्र दो उद्देश्य हैं (1) अपनी पाश्विक वृत्तियों का नियंत्रण करना (2) अपनी शक्तियों को समाज परक बनाना, उन्हें दूसरों के लाभ के लिए अधिक मात्रा में व्यय करना। इन दो तथ्यों को मानव अन्तःकरण पर अधिक गहराई से अंकित करने के लिए नानाप्रकार के उपाख्यानों, संवादों, विधि निषेधों की रचना हुई हैं। समस्त धर्मग्रन्थों का दृष्टि बिन्दु यही है।

उपरोक्त दृष्टि बिंदु को मनोविज्ञान के आधार पर मानव मन में वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ मानव मन पर अंकित कर देने के लिए विविध प्रकार के धार्मिक कर्मकाण्डों और अध्यात्मिक साधनाओं का आयोजन हुआ है। इनके द्वारा अंतर्जगत और दिव्यलोक के महत्व की ओर चित्त आकर्षित होता है और भोगोन्मुखी माया बंधनों में बाँधने वाली, स्वार्थपूर्ण तुच्छ वृत्तियों की ओर से मन विमुख होकर एक अदृश्य आनन्द की ओर अग्रसर होता है। उस अदृश्य आनन्द की प्राप्ति के लिए उसे जो कर्मकाण्ड और साधन करने होते हैं उनका सूक्ष्म निरीक्षण करने से पता चलता है कि इन सबकी साधक के अंतर्मन पर एक विशेष छाप पड़ती है और वह छाप उन दो मूल धर्म तत्वों का आत्म निग्रह और परमार्थ परायणता का−पोषण करती है। यह समस्त धर्म और आध्यात्म एक मानसिक शासन है जिसे विश्वासों और कर्मकाण्डों के आधार पर मानव मस्तिष्क के ऊपर स्थापित किया जाता है। इस भाव शासन में बंध कर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है और उस आनन्द को प्राप्त करता है जो उसके लिए अभीष्ट है।

स्वस्थ विचार और स्वस्थ विश्वास का निश्चित परिणाम किया होती है। जो विचार था विश्वास किया रूप में परिणत न हो सके, केवल मन में ही घुमड़ता रहे उसे अपूर्ण, असक्त एवं अपरिपक्व समझना चाहिए। जिन दो आधारों के ऊपर धर्म और अध्यात्म का भवन खड़ा किया गया है यदि वे क्रिया रूप में परिणत नहीं होते, व्यक्तियों के आचरण में उनका समावेश न हो तो इस इतनी बड़ी प्रक्रिया को निरर्थक ही समझना चाहिए। इस बात को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकारों ने इस बात की जाँच करते रहने की व्यवस्था की है कि धर्म की धारणा साधक के मन में भली प्रकार हुई या नहीं। इस जाँच की कसौटी साधक का आचरण ही हो सकता है।

गायत्री का साधक यदि वस्तुतः आत्मलाभ प्राप्त करना चाहता है तो उसे अपने व्यवहारिक जीवन में सात्विकता का अधिक से अधिक समावेश करना आवश्यक है। इसी लिए उपरोक्त श्लोक में कहा गया है कि साधक के आहार, व्यवहार और विचारों को सदा सात्विक रखना चाहिए। उसके आहार में सतोगुणी, सादा, सुपाच्य पदार्थ होने चाहिए। अधिक मिर्च मसाले वाले, घी तेल हुए पकवान्, मिष्टान्न, बासी, बुसे, दुर्गन्धित, मद्य माँस आदि से युक्त अभक्ष, उष्ण, दाहक, अनीति उपार्जित, अशुचि मनुष्यों के बनाये हुए आहार को ग्रहण न करने का आदेश किया गया है। साधक का आहार दूध, फल, शाक, दलिया, चावल, गेहूँ, मूँग जैसे पदार्थ होने चाहिए। स्वाद की दृष्टि से उन्हें अस्वाद ही रखना चाहिए। नमक मिर्च मसाले या मीठा भोजन के साथ न लिया जाय तो उनकी सात्विकता बढ़ जाती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि नमक या शक्कर की आवश्यकता प्रतीत हो तो उसे भोजन से आगे या पीछे लिया जा सकता है। व्यवहार में फैशन परस्ती, रात्रि में जागना, दिन में सोना, सिनेमा, नाच रंग देखना, किसी को चिढ़ाना, निन्दा करना, लड़ना, सताना, कटुवचन कहना, जैसे व्यवहार से बचना चाहिए। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, कलह, चिन्ता, भय, शोक, स्वार्थ, वासना, व्यभिचार, चोरी, परिग्रह, निष्ठुरता, आलस्य, प्रमाद, अहंकार, मद, मत्सर, लालच, तृष्णा, घबराहट, कायरता जैसे मानसिक शत्रुओं को विचार क्षेत्र में स्थान नहीं देना चाहिए। कुविचारों कंटीले झाड़ झंखाड़ों को बीन बीनकर मनोभूमि में से दूर हटाते जाना चाहिए। मन जितना ही पवित्र होगा उतना ही साधना के लिए क्षेत्र उर्वर होगा। मन की पवित्रता स्वच्छ आहार और शुद्ध विचारों पर रहता है। यह उक्ति सर्वथा सत्य है कि “जैसा खावें अन्न−वैसा बने मन”।

दूसरे श्लोक में कुकर्मी से, निषिद्ध कार्यों से, अधर्मों से बचे रहने का आदेश किया गया है। चोरी, व्यभिचार, विश्वासघात, असत्य, दंभ, बेईमानी, हिंसा, शोषण, अपहरण, जुआ, अभक्ष−भक्षण, नशेबाजी, जैसे अधर्म मूलक त्याज्य कर्मों से यदि सदा ही बचे रहा जाय तो बहुत ही उत्तम है पर साधना काल में दो इनका अधिक ध्यान रखना चाहिए और जितना अधिक इससे बचे रहा जा सके।

साधनाओं से अनेक सिद्धियाँ मिलती है। उन सिद्धि दायक साधनाओं में आहार, व्यवहार और विचारों की सात्विकता एक स्वतंत्र साधना है। इसको बिना किसी जप तप आदि को क्रिया जाय तो भी वह आश्चर्य जनक ऋद्धियों को प्रदान करती है। पातंजलि ऋषि ने यम नियमों की, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि उत्तम आचरणों की साधना से अद्भुत सिद्धियाँ मिलने का वर्णन योग दर्शन में किया है। यदि गायत्री की साधना और सात्विक आचरण इन दोनों का एक साथ समन्वय हो जाने से दो साधनाओं का दुहरा फल मिलता है और योग विद्या का वह मूलभूत सिद्धान्त की पूरा होता है, जिसके अनुसार आत्मनिग्रह और परमार्थ परायणता के आधार पर मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की व्यवस्था की गई हैं।

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