षट्चक्रों का जागरण।

June 1948

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एतस्माप्तुजपान्नुनं ध्यानमग्नेन चेतसा। जायते क्रमशश्चैव षट् चक्राणाँ तु जाग्रतिः॥

(नूनं) निश्चय ही (ध्यान मग्नेन चेतसा) ध्यान में रत चित्त के द्वारा (एतस्मात् जपात्) इस जप को करने से (क्रमशः) धीरे धीरे (षट् चक्राणाँ) षट् चक्र (जाग्रतिः जायते) जागृत हो जाते है।

षट् चक्राणि यदेतानि जागृतानि भवन्ति हिं। षट् सिद्धयोऽभिजायन्ते चक्रैरेतैस्तदानरम्॥

(हि) निश्चय से (यदा) जब (एतानि) ये (षट् चक्राणि) षट् चक्र (जागृतार्निभवन्ति) जागृत हो जाते है (तदा) तब (नरं) मनुष्य को (एतैः एतैः) इन चक्रों के द्वारा (षट्सिद्धयः) छै सिद्धियाँ (अभि जायन्ते) प्राप्त होती है।

कुण्डलिनी के शक्ति मूल तक पहुँचने के मार्ग में छह फाटक हैं, अथवा यों कहना चाहिए कि छह ताले लगे हुए हैं। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई जीव उस शक्ति केन्द्र तक पहुँच सकता है। इन छह अवरोधों को आध्यात्मिक भाषा में षट्चक्र कहते है।

सुषुम्ना के अंतर्गत रहने वाली तीन नाडियों में सब से भीतर स्थिर ब्रह्म नाडी से यह छह चक्र संबंधित है। माला के सूत्र में पिरोये हुए कमल पुष्पों से इनकी ऊष्मा दी जाती है। अन्यत्र दिये हुए चित्र में पाठक यह देख सकेंगे कि कौन सा चक्र किस स्थान पर है। आधार मूलाधार चक्र योनि की सीध में स्वाधिष्ठानचक्र पेडू की सीध में, मणिपूर चक्र नाभि की सीध में अनाहतचक्र हृदय की सीध में, विशुद्धाख्य चक्र कंठ की सीध में और आज्ञाचक्र भृकुटि के मध्य में अवस्थित है। इनसे ऊपर सहस्रार कमल है।

सुषुम्ना, तथा उसके अंतर्गत रहने वाली चित्रिणी आदि नाड़ियां इतनी सूक्ष्म हैं कि उन्हें साधारण नेत्रों से देख सकना कठिन है। फिर उनसे संबंधित यह चक्र तो और भी सूक्ष्म है किसी शरीर की चीर फाड़ करते समय इन चक्रों को नल नाडियों की तरह स्पष्ट रूप से नहीं देखा जा सकता क्यों कि हमारे चर्मचक्षुओं की तीक्ष्ण शक्ति बहुत ही सीमित है। शब्द की तरंगें, वायु के परमाणु, तथा रोगों के कीटाणु हमें आँखों से दिखाई नहीं पड़ते तो भी उनमें अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता इन चक्रों को योगियों ने अपनी योग दृष्टि से देखा है और उनका वैज्ञानिक परीक्षण करके महत्वपूर्ण लाभ उठाया है और उसके व्यवस्थित विज्ञान का निर्माण करके योग मार्ग के पथिक के लिए उसे उपस्थित किया है।

षट्चक्र एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ है जो ब्राह्मनाडी के मार्ग में बनी हुई है। इन चक्र ग्रन्थियों में जब साधक अपने ध्यान को केंद्रित करता है तो उसे वहाँ की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। वे ग्रंथियाँ गोल नहीं होती वरन् उनमें इस प्रकार कोण निकले हो है जैसे पुष्प में पंखुरियाँ होती है इन कोण पंखुरियों को ‘डडडडडडडडडपऽ−दल’ कहते है। यह एक प्रकार के तन्तु गुच्छक है।

इन चक्रों के रंग भी विविध प्रकार के होते है। क्योंकि किसी ग्रन्थि में कोई और किसी में कोई तत्व प्रधान होता है। इस तत्व प्रधानता का तत् स्थानीय रक्त पर प्रभाव पड़ता है और उसका रंग बदल जाता है। पृथ्वी तत्व की प्रधान का मिश्रण होने से रक्त का रंग पीला, जल के मिश्रण से गुलाबी, अग्नि से नीला, वायु से शुद्ध लाल और आकाश से घुमैला हो जाता है। यही मिश्रण चक्रों का रंग बदल देता है।

धन नामक कीड़ा लकड़ी को काटता हुआ चलता है तो उस काटे हुए स्थान की कुछ आकृतियाँ भी बन जाती है। इन चक्रों में होता हुआ प्राण वायु आता जाता है उसका मार्ग उस ग्रन्थि की स्थिति के अनुसार कुछ टेढ़ा मेढ़ा होता है, इस गति की आकृति कई देवनागरी अक्षरों की आकृति से मिलती है, इसलिए उस वायु मार्ग को चक्रों के अक्षर कहते है।

द्रुतगति बहती हुई नदी में कुछ विशेष स्थानों में भ्रमर पड़ जाते है। यह पानी के भंवर कहीं उथले कही गहरे, कहीं तिरछे कहीं गोल कहीं चौकोर हो जाते है। प्राण वायु का सुषुम्ना प्रवाह इन चक्र में होकर जब द्रुतगति से गुजरता है तो वहाँ एक प्रकार के सूक्ष्म भ्रमर पड़ते हैं जिनकी आकृति चतुष्कोण अर्धचन्द्राकार, त्रिकोण, षट्कोण, गोलाकार, लिंगाकार तथा पूर्ण चन्द्रकार बनती है। अग्नि जब भी जलती है उसकी लौ ऊपर को उठती है जो नीचे मोटी और ऊपर पतली होती है, इस प्रकार एक अध्यवस्थित त्रिकोण सा बन जाता है। इसी प्रकार विविध आकृतियाँ वायु प्रवाह से बनती है। इन आकृतियाँ को चक्रों के यंत्र कहते है।

शरीर पंच तत्वों का बना हुआ है। इन तत्वों के न्यूनाधिक संमिश्रण से विविध अंग प्रत्यंगों का निर्माण और उनका कार्य संचालन होता है। जिस स्थान में जिस तत्व की जितनी आवश्यकता है उससे न्यूनाधिक हो जाने पर वह अंग रोग ग्रस्त हो जाता है। तत्वों का यथास्थान, यथा मात्रा में होना ही निरोगता का चिन्ह समझा जाता है। चक्रों में भी एक एक तत्व की प्रधानता होती है। जिस चक्र में जो तत्व प्रधान होता है वही उसका ‘तत्व’ कहा जाता है।

ब्रह्मनाडी की पोली नली में होकर जब वायु का अभिगमन होता है तो चक्रों के सूक्ष्म छिद्रों के आघात से उसमें एक वैसी ही ध्वनि होती है जैसी कि बांसुरी में वायु का प्रवेश होने पर छिद्रों के आघात से ध्वनि उत्पन्न होती है। हर चक्र में एक सूक्ष्म छिद्र है उस छिद्र की वंशी के स्तर छिद्र की सी प्रतिक्रिया होने के कारण स, रे, ग, म, जैसे स्वरों का एक विशेष ध्वनि प्रवाह होता है जो थँ, लँ, वँ, रँ, हँ, ऊँ, जैसे स्वरों में सुनाई पड़ता है। इसे चक्रों का बीज कहते है।

चक्रों में वायु की चाल में भी अन्तर होता है। जैसे बात, पित्त, कफ की नाडी कपोत, मंडूक, सर्प, कुकुट आदि की चाल से चलती है उस चाल को पहचान कर वैद्य लोग अपना कार्य करते है। तत्वों के मिश्रण, हेडा मेडा मार्ग, भ्रमर बीज आदि के समन्वय से प्रत्येक चक्र में रक्ताभिषरण और वायु अभिगमन के संयोग से एक विशेष चाल वहाँ परिलक्षित होती है। यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मंद गामी, किसी में मगर की तरह डुबकी मारने वाली, किसी में हिरन सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेढक की तरह फुदकने वाली होती है उस चाल को चक्रों का वाहन कहते है।

इन चक्रों में विविध दैवी शक्तियाँ सन्निहित है, उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि बल आदि शक्तियों को देवता विशेषों की शक्ति माना गया है। अथवा यों कहिए कि यह शक्तियाँ ही देवता है। प्रत्येक चक्र में एक पुरुष वर्ग की उष्णवीर्य और एक स्त्री वर्ग की शीत वीर्य शक्ति रहती है। क्योंकि ऋण और धन, अग्नि और सोम दोनों तत्वों के मिले बिना गति और जीवन का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता। यह शक्तियाँ ही सभी के देवी देवता है।

पंचतत्वों के अपने अपने गुण होते है। पृथ्वी का गंध, जल का रस, अग्नि का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश का शब्द गुण होता है। चक्रों में तत्वों की प्रधानता के अनुरूप उनके गुण भी प्रधानता में होते है। यही चक्रों के गुण है।

यह चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को वैसे तो समस्त शरीर में प्रवाहित करते है पर एक ज्ञानेन्द्रिय और एक कर्मेन्द्रिय से उनका संबंध विशेष रूप से होता है। संबंधित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते है। चक्रों के जागरण के चिन्ह उन इन्द्रियों पर तुरन्त परिलक्षित होते है। इसी संबंध विशेष के कारण वे इन्द्रियाँ चक्रों की इन्द्रियाँ कहलाती है।

देव शक्तियों में डाकिनी, राकिनी, लाकिनी, शाकिनी, हाकिनी आदि के विचित्र नामों को सुनकर उनके भूतिनी, चुड़ैल, मसानी, जैसी कोई चीज होने का भ्रम होता है। वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। मुख से लेकर नाभि तक चक्राकार का से लेकर ह तक के समस्त अक्षरों की एक माला है, उस माला के दोनों को मातृकाएं कहते है। इन मातृकाओं को योग दर्शन द्वारा ही ऋषियों ने देवनागरी वर्णमाला के अक्षरों की रचना की है। चक्रों के देव जिन मातृकाओं से झंकृत होते है, संबद्ध होते है, उन्हें उन देवों की देव शक्ति कहते है। उ, र, ल, क, श आदि आगे मातृकाओं का बोधक ‘किनी’ शब्द जोड़ कर राकिनी डाकिनी, शाकिनी नाम बना दिये गये है। यही देव शक्तियाँ है।

उपरोक्त परिभाषाओं को समझ लेने के उपरान्त प्रत्येक चक्र की निम्न जानकारी को ठीक प्रकार समझ लेना पाठकों के लिए सुगम होगा। अब छहों चक्रों का परिचय नीचे दिया जाता है−

मूलाधार चक्र−

स्थान−योनि (गुदा के समीप)। दल−4। वर्ण−लाल। लोक भू।लोक। दलों के अक्षर− बँ, शँ, पँ, सँ। तत्व−पृथिवी, तत्व बीज−लँ। वाहन− ऐरावत हाथी। गुण−गंध। देव−ब्रह्मा। देव शक्ति−डाकिनी। यंत्र−चतुष्कोण। ज्ञानेन्द्रिय−नासिका। कर्मेन्द्रिय−गुदा। ध्यान का फल−वक्ता, मनुष्य में श्रेष्ठ, सर्व विद्या विनोदौ, आरोग्य, आनन्द चित्त, काव्य और लेखन की सामर्थ्य।

स्वाधिष्ठान चक्र−

स्थान−पेडू (शिश्न के सामने)। दल−छह। वर्ण−सिन्दूर। लोक−भुवः। दलों के अक्षर− बँ, भँ, मँ, रँ, लँ। तत्व− जल। तत्व बीज− बँ। बीज का वाहन− मगर। गुण− रस। देव− विष्णु। देव शक्ति−डाकिनी। यंत्र−चन्द्रकार। ज्ञानेन्द्रिय−रसना। कर्मेन्द्रिय−लिंग। ध्यान का पल−अहंकारादि विकारों का नाश, श्रेष्ठ योग, मोह निवृत्ति, रचना शक्ति।

मणिपूर चक्र−

स्थान−नाभि। दल−दस। वर्ण−नील। लोक−स्वः। दलों के अक्षर− उँ, ढँ, णँ, तँ, थँ, दँ, धँ, नँ, पँ, फँ। तत्व−अग्नि। तत्व बीज− रँ। बीज का बाहन−मेंढा। गुण− रूप। देव− वृद्ध रुद्र। देवशक्ति−लाकिनी। यंत्र−त्रिकोण। ज्ञानेन्द्रिय−चक्षु। कर्मेन्द्रिय−चरण। ध्यान का फल−संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन सिद्धि।

अनाहत चक्र−

स्थान−हृदय। दल−बारह। वर्ण−अरुण। लोक−महः। दलों के अश्रर− कँ, खँ, गँ, घँ, डँ, चँ, छँ, जँ, झँ, जँ, टं, ठं। तत्व−वायु। तत्वबीज−यं। वाहन−मृग। गुण−स्पर्श। देव−ईश रुद्र। देव शक्ति−काकिनी। यंत्र− षट्कोण। ज्ञानेन्द्रिय−त्वचा। कर्मेन्द्रिय−हाथ। फल−स्वभित्व, योग सिद्धि, ज्ञान जागृति, इन्द्रिय जय, परकाया प्रवेश।

विशुद्धार चक्र−

स्थान−कंठ। दल−सोलह। दल−सोहल। वर्ण−धूम्र। लोक−जनः। दलो के अक्षर− अ से लेकर अः तक सोलह अक्षर। तत्व−आकाश। तत्व बीज− हँ। वाहन−हाथी। गुण−शब्द। देव−पंचमुखी सदाशिव। देवशक्ति−शाकिनी। यंत्र−शून्य (गोलाकार)। ज्ञानेन्द्रिय−कर्ण। कर्मेन्द्रिय−वाक। ध्यान फल−चित्त शाँति, त्रिकाल दर्शित्व, दीर्घजीवन, तेजस्विता, सर्वाहित परायणता।

आज्ञाचक्र−

स्थान−भ्रु मध्य। दल−दो। वर्ण−श्वेत। दलों के अक्षर− हँ क्षँ। तत्व−मह तत्व। तत्व बीज− ऊँ। बीज का वाहन−नाद। देव−ज्योति−लिंग। देवशक्ति−हाकिनी। यंत्र−लिंगाकार। लोक−तपः। ध्यान फल− सर्वार्थ साधन।

षट् चक्रों में उपरोक्त छह चक्र ही आते है। परन्तु सहस्रार कमल या सशस्त्र दल पऽ को भी कोई कोई योग सातवाँ शून्य चक्र मानते हैं। उसका भी वर्णन नीचे दिया जाता है।

शून्य चक्र−

स्थान−मस्तक। दल−सहस्र। दलों के अक्षर अं से क्षँ तक की पुनरावृत्तियाँ। लोक सत्यः। तत्व−तत्वों से अतीत। बीज तत्व−(ः) विसर्ग। बीज का वाहन−बिन्दु। देव−परब्रह्म। देव शक्ति महाशक्ति। यंत्र−पूर्ण चन्द्रवत् प्रकाश−निराकार। ध्यान फल−भक्ति, अमरता, समाधि, समस्त ऋद्धि सिद्धियों का करतलगत होना।

पाठक जानते है कि कुण्डलिनी, शक्ति का स्त्रोत है। वह हमारे शरीर का सबसे अधिक सजीव चैतन्य स्फुल्लिंग है, उसमें बीज रूप से इतनी रहस्य मय शक्तियाँ गर्भित है जिनकी कल्पना तक नहीं हो सकती। कुण्डलिनी शक्ति के इन छह केन्द्रों में, षट्चक्रों में भी उसका काफी प्रकाश है। जैसे सौर मण्डल में नौ ग्रह है, सूर्य उनका केन्द्र है और चन्द्रमा मंगल आदि उससे संबद्ध होने के कारण सूर्य की परिक्रमा करते है। वे सूर्य ऊष्मा, आकर्षणी, विलयिनी आदि शक्तियों से प्रभावित और ओत प्रोत रहते है वैसे ही कुण्डलिनी की शक्तियाँ चक्रों में भी प्रसारित होती रहती है। एक बड़ी तिजोरी में जैसे कई छोटे छोटे दराज होते है, जैसे मधु मक्खी के एक बड़े छत्ते में छोटे अनेक छिद्र होते है और उनमें भी कुछ अंश भरा रहता है वैसे ही कुण्डलिनी की कुछ शक्ति का प्रकाश चक्रों में भी होता है। चक्रों के जागरण के साथ साथ उनमें सन्निहित कितनी ही रहस्य मय शक्तियाँ भी जाग पड़ती है उनका संक्षिप्त का संकेत ऊपर चक्रों के ध्यान फल में बताया गया है। इनको विस्तार करके कहा जाए तो यह शक्तियाँ भी अद्भुत आश्चर्यों से किसी प्रकार कम प्रतीत नहीं होगी।

चक्रों का बेधन।

षट्चक्रों को बेधन करते हुए कुण्डलिनी तक पहुँचना और उसे जागृत करके आत्मोन्नति के मार्ग में लगा देना यह एक महा विज्ञान है। ऐसा ही महाविज्ञान−जैसा का परमाणु बम का निर्माण उसका विस्फोट करना एक अत्यंत उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य है। इसे यों ही अपने आप, केवल पुस्तक पढ़कर आरंभ नहीं कर देना चाहिए, वरन् किसी अनुभवी पथ प्रदर्शक की संरक्षकता में यह सब किया जाना चाहिए।

चक्रों को बेधन ध्यान शक्ति के द्वारा किया जाता है। यह सब जानते है कि हमारा मस्तिष्क एक प्रकार का बिजली घर है और उस बिजली घर भी प्रमुख धारा का नाम− “मन” है। मन की गति चंचल और बहुमुखी होती है। वह हर घड़ी चंचलता में मग्न और सदा उछल कूद में व्यस्त रहता है। इस उथल पुथल के कारण उस विद्युत पुँज का एक स्थान पर केन्द्री करण नहीं होता जिससे कोई महत्वपूर्ण कार्य सम्पादन हो, इस अभाव में जन जीवन के यों ही अस्त व्यस्त अन्त होते रहते है। यदि उस शक्ति का एकत्रीकरण हो जाता है उसे एक स्थान पर संचित कर लिया जाता है तो आतिशी शीशे द्वार एकत्रित हुई किरणें द्वारा आग की लपटें उठने लगना जैसे दृश्य उपस्थित हो जाते है। “ध्यान” एक ऐसा सूक्ष्म विज्ञान है जिनके द्वारा सबकी बिखरी हुई बहुमुखी शक्तियाँ एक स्थान पर एकत्रित होकर एक कार्य में लगती है फल स्वरूप वहाँ असाधारण शक्ति−स्त्रोत प्रवाहित हो जाता है। ध्यान द्वारा मनः क्षेत्र की केन्द्रीभूत इस बिजली से साधक षटचक्रों का बेधन कर सकता है।

षट्चक्र बेधन की साधना करने के लिए अनेक ग्रन्थों में अनेक मार्ग बताये गये है। इसी प्रकार गुस्डडडडडडडड परम्परा से चली आने वाली साधनाएं भी विविध प्रकार की है। इन सभी मार्गों से उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है, सफलता मिल सकती है पर शर्त यह है कि उसे पूर्ण विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा और उचित पथ प्रदर्शक की संरक्षकता में किया जाए।

अन्य साधनों की चर्चा करना और तुलना करके उनकी आलोचना प्रत्यालोचना करना यहाँ हमें अभीष्ट नहीं है। इन पंक्तियों में तो हम एक ऐसी सुलभ साधना पाठको के सामने उपस्थित करना चाहते हैं जिसके द्वारा गायत्री शक्ति षट्चक्रों का जागरण बड़ी सुविधा पूर्वक हो सकता है और अन्य साधनाओं में आने वाली असाधारण कठिनाइयों एवं खतरों से स्वतंत्र रहा जा सकता है।

प्रातःकाल शुद्ध शरीर और स्वस्थ चित्त से सावधान होकर पऽसन से बैठिये। पूर्व वर्णित ब्रह्मा संध्या के आरंभिक पंच कोषों की क्रिया कीजिए, आचमन, शिखाबन्धन, प्राणायाम, अघमर्षण, और न्यास करने के बाद गायत्री के एक सौ आठ मंत्रों की एक माला जपिये।

ब्रह्म संध्या कर चुकने के पश्चात् मस्तिष्क के मध्य भाग त्रिकुटी में (एक रेखा एक कान से दूसरे कान तक खींची जाय और दूसरी रेखा दोनों ध्रुवों के मध्य में से मस्तिष्क के पीछे तक खींची जाए तो दोनों का मिलन जहाँ होता है उस स्थान को त्रिकुटी कहते है।) वेदमाता गायत्री का ज्योतिः स्वरूप ध्यान करना चाहिए। मन को उस ज्योतिर्लिंग के मध्य में इस प्रकार अवस्थित करना चाहिए जैसे लुहार अपने लोहे को गरम करने के लिए भट्टी में डाल देता है और जब वह लाल हो जाता है तो उसे बाहर निकाल कर ठोंकता पीटता और अभीष्ट वस्तु बनाता है। त्रिकुटी स्थित गायत्री ज्योति में मन को कुछ देर अवस्थित रखने से मन स्वयं भी तेज स्वरूप हो जाता है। तब उसे आज्ञाचक्र के स्थान में लाना चाहिए। ब्रह्मनाड़ी मेरुदंड से आगे बढ़कर त्रिकुटी में होती हुई सहस्रार को गई है। इस ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में दीप्तिमान मन को प्रदेश करके आज्ञाचक्र में ले जाया जाता है। वहाँ स्थिरता करने पर वे सब अनुभव होते है जो चक्र के लक्षणों में वर्णित है। मन को−चक्र के दलों का, अक्षरों का, तत्व का, बीज का, देव का, देवशक्ति का, यंत्र का, लोक का, वाहन का, गुण का, रंग का, अनुभव होता है। आरंभ में यह अनुभव बहुत अधूरे होते है। चक्र के कुछ लक्षण स्पष्ट कुछ अस्पष्ट और कुछ विकृत परिलक्षित होते है। धीरे धीरे वे अधिक स्पष्ट होते जाते है। कभी कभी किन्हीं व्यक्तियों के चक्रों में कुछ लक्षण भेद भी होता है। उसे अपने अंदर के चक्र की आकृति का ही अनुभव होगा।

स्वस्थ चित्त से, सावधान होकर, एक मास तक एक चक्र की साधना करने से वह प्रस्फुटित हो जाता है, ध्यान में उसके लक्षण अधिक स्पष्ट होने लगते है और चक्र के स्थान पर उससे संबंधित मातृकाओं, ज्ञानेन्द्रियों कर्मेन्द्रियों में अचानक कम्पन, रोमाँच, प्रस्फुरण, उत्तेजना, दाह, खुजली जैसे अनुभव होते है, यह इस बात के चिन्ह है कि चक्रों का जागरण हो रहा है। एक मास या न्यूनाधिक काल में इस प्रकार के चिन्ह प्रकट होने लगें ध्यान में चक्र का रूप स्पष्ट होने लगे तो उससे बढ़कर नीचे की ओर दूसरे चक्र में प्रवेश करना चाहिए। विधि वही है− मार्ग वही है। गायत्री ज्योति में मन को तपाकर ब्रह्मनाड़ी में प्रवेश करना और उसमें होकर पहले चक्र में जाना−फिर उसे पार करके दूसरे में जाना−इस प्रकार प्रत्येक चक्र में लगभग एक मास का समय लगता है। जब साधन पक जाती है तो एक चक्र से दूसरे चक्र से दूसरे चक्र में जाने का द्वार खुला जाता है। जब तक साधन कच्चा रहता है− तब तक द्वार रुका रहता है। साधक का मन आगे बढ़ना चाहे तो भी उसे द्वार नहीं मिलता और वह उसी चक्र के तन्तु जाल की भूलभुलैयों में उलझा रह जाता है।

जब साधना देर तक नहीं पकती और साधक को आगे का मार्ग नहीं मिलता तो उसे अनुभवी गुरु ही सहायता की आवश्यकता होती है, वह जैसा उपाय बतावे वैसे उसे करना होता है। इसी प्रकार धीरे धीरे क्रमशः छहों चक्रों को पार करता हुआ साधक मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी तक पहुँचता है और वहाँ उस ज्वालामुखी, कराल काल स्वरूप, महाशक्ति सर्पिणी के विकराल रूप का दर्शन करता है। महाकाली का प्रचण्ड स्वरूप यही दिखाई पड़ता है। कई साधक इस सोते सिंह को जगाने का साहस करते हुए काँप जाते है।

कुण्डलिनी को जगाने में उसे पीड़ित करना पड़ता है, छेड़ना पड़ता है, जैसे परमाणु का विस्फोट करने के लिए उसे बीच में से तोड़ना पड़ता है उसी प्रकार गुप्त कुँडलिनी को गतिशील बनाने के लिए उप पर आघात करना होता है इसे आध्यात्मिक भाषा में कुण्डलिनी पीडन कहते है। इससे पीड़ित होकर क्षुब्ध कुण्डलिनी फुसकारती हुई जाग पड़ती है और उसका सबसे प्रथम आक्रमण मन में लगे हुए जन्म जन्मान्तरों के संस्कारों पर होता है, वह संस्कारों को चबा खाता है, मन की छाती पर अपने शस्त्रों सहित जड़ बैठती है और उसके स्थूलता, माया परायणता को नष्ट कर ब्रह्म भाव में परिवर्तित कर देती है।

इस कुण्डलिनी को जगाने और उसका जीव पर आक्रमण होने की क्रिया का पुराणों ने बड़े ही अलंकारिक और हृदयग्राही रूप से वर्णन किया है।

महिषासुर और दुर्गा का युद्ध इसी आध्यात्मिक रहस्य का प्रतीक है। अपनी मुक्ति की कामना करता हुआ, देवी के हाथों मरने की कामना से उत्साहित होकर−महिषासुर− (महि पृथ्वी आदि पंच भूतों से बना हुआ मन) चण्डी से− कुण्डलिनी से− लड़ने जाता है। उस चुपचाप बैठी हुई पर आक्रमण करता है। देवी कुद्ध होकर उससे युद्ध करती है उस पर प्रत्याक्रमण करती है। उसके वाहन महिष को− संस्कारों के समूह को−चबा डालती है। मन के भौतिक आवरण को− महिषासुर के शरीर को− दसों भुजाओं से −दसों दिशाओँ से−सब ओर से विदीर्ण कर डालती है और अंत में महिषासुर− साधारण जीव− चण्डी की ज्योति में भिन्न जाता है। महाशक्ति का अंग होकर जीवन लाभ को प्राप्त कर लेता है। भक्तिमयी साधना का यह रौद्ररूप बड़ा विचित्र है। इसे ‘साधन समझ’ कहते है।

जहाँ कितने ही भक्त, प्रेम और मौज द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते है, वहाँ ऐसे कितने ही भक्त है जो साधन समर में ब्रह्म से लड़कर उसे प्राप्त करते है। भगवान तो निष्ठा के भूखे है वे सच्चे प्रेमी को भी मिल सकते है और सच्चे प्रेमी को भी मिल सकते है और सच्चे शत्रु को भी। भक्ति योगी भी उन्हें पा सकते है और साधन समर में अपने दो दो हाथ दिखाने वाले हठयोगी तंत्र प्राणी भी उन्हें प्राप्त करते है। कुण्डलिनी जागरण ऐसा ही हठ तंत्र है। जिसके आधार पर आत्मा तुच्छ से महान और अणु को विभु बनकर ईश्वरीय सर्व शक्तियों से सम्पन्न हो जाती है।

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इन पुस्तकों की एक एक पंक्ति, हमारे अनुभव और अनुसंधान के साथ लिखी गई हैं।

(1) मैं क्या हूं।

(2) सूर्य, चिकित्सा विज्ञान

(3) प्राण, चिकित्सा विज्ञान

(4) परकाया प्रवेश

(5) स्वस्थ और सुन्दर बनने की विद्या

(6) मानवीय विद्युत के चमत्कार

(7) स्वर योग से दिव्य ज्ञान

(8) भोग में योग

(9) बुद्धि बढ़ने के उपाय

(1) धनवान बनने के गुप्त रहस्य

(11) पुत्र या पुत्री उत्पन्न करने की विधि

(12) वशी करण की सच्ची सिद्धि

(13) मरने के बाद हमारा क्या होता है?

(14) जीव जन्तुओं की बोली समझना

(15) ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है?

(16) क्या धर्म ? क्या अधर्म

(17) गहना कर्मणो गतिः

(18) जीवन की गूढ गुत्थियों पर प्रकाश

(2) शक्ति संचय के पथ पर

(21) आत्मगौरव की साधना

(22) प्रतिष्ठा का उच्च सोपान

(23) मित्रभाव बढ़ाने की कला

(24) आन्तरिक उल्लास का विकास

(25) आगे बढ़ने की तैयारी

(26) अध्यात्म धर्म का अवलम्बन

(27) ब्रह्म विद्या का रहस्योद्घाटन

(28) ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्तियोग

(29) यम और नियम

(3) आसन और प्राणायाम

(31) प्रत्याहार, धारणा ध्यान और समाधि

(32) तुलसी के अमृतोपम गुण

(33) आकृति देखकर मनुष्य की पहचान

(34) मैस्मरेजम की अनुभव पूर्व शिक्षा

(35) ईश्वर और स्वर्ग प्राप्ति का सच्चा मार्ग

(36) हस्तरेखा विज्ञान

(37) विवेक सतसई

(38) संजीवनी विद्या

(39) गायत्री की चमत्कारी साधना

(4) महान जागरण

(41) तुम महान हो

(42) गृहस्थ योग

(43) अमृत पारस और कल्पवृक्ष की प्राप्ति

(44) घरेलू चिकित्सा

(45) बिना औषधि के कायाकल्प

(46) पंच तत्वों से सम्पूर्ण रोगों का निवारण

(47) हमें स्वप्न क्यों दीखते है?

(48) विचार करने की कला

(49) दीर्घ जीवन के रहस्य

(5) हम वक्ता कैसे बन सकते है

(51) लेखन कला

(52) प्रार्थना के प्रत्यक्ष चमत्कार

(53) विचार संचालन विद्या

(54) नेत्ररोगों की प्राकृतिक चिकित्सा

(55) अध्यात्म शास्त्र

(56) स्वप्नदोष की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा

(57) सफलता के तीन साधन

(58) शिखा और यज्ञोपवीत का रहस्य

(59) दूध की चमत्कारिक शक्ति

(6) दैवी संपदाएं

(61) अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार

(62) कुछ धार्मिक प्रश्नों का उचित समाधान

(63) सुखी वृद्धावस्था

(64) आत्मोन्नति का मनोवैज्ञानिक मार्ग

(65) वैज्ञानिक अध्यात्मवाद

(66) प्रत्यक्ष फलदायिनी साधनाएं

(67) योग के नाम पर मायाचार

(68) जादूगरी या छल?

(69) सौभाग्य बढ़ाने की कला

(7) सम्मोहन विज्ञान

(71) उन्नति का मूलमंत्र ब्रह्मचर्य

(72) प्रभावशाली व्यक्तित्व

(73) प्रेम का रहस्य

(74) अमृत कण

मूल्य में कमी के लिए लिखा पढ़ी व्यर्थ। छह रु. से अधिक की पुस्तकें लेने पर डाक खर्च माफ।

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