पापनाशक प्रायश्चित्य।

June 1948

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

उच्चता पतितानाँ च पापानाँ पापनाषनम्। जायते कृपयैवास्याः वेदमातुरनन्तया॥

(पतितानाँ) पतितों को (उच्चता) उच्चता (च) और (पापानाँ) पापियों को (पापनाषनें) उसके पापों का नाष ये दोनों (अस्याः) इस (वेदमातुः) वेदों की माता गायत्री की (अनन्तया) अनन्त (कृपया) कृपा से (एव) ही (जायते) होते हैं।

प्रायष्चितं मतं श्रेष्ठं त्रुटीनाँ पापकर्मणाम्। तपष्चर्यैव गायत्रयाः नातोऽन्य दृष्यते क्वचित्॥

(त्रुटीनाँ) गलतियों का (पापकर्माणाँ) पापकर्मों का (प्रायष्चितं) प्रायष्चित (गायत्रयाः) गायत्री की (तपष्चर्यैव) तपष्चर्या ही (श्रेष्ठंमतं) श्रेष्ठ मानी गई हैं।

गायत्री की अनन्त कृपा से पतितों को उच्चता मिलती है और पापियों के पापनाश होते हैं। इस तथ्य पर विचार करते हुए हमें यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि आत्मा सर्वथा स्वच्छ, निर्मल, पवित्र, शुद्ध बुद्ध और निर्लिप्त है। स्वेत काँच का पारदर्शी पात्र अपने आप में स्वच्छ होता है उसमें कोई रंग नहीं होता, पर उस पात्र में किसी रंग का पानी भर दिया जाय तो वह उसी रंग का दीखने लगेगा। साधारणतः उसे उसी रंग का पात्र कहा जायेगा इतने पर भी पात्र का मूल रूप सर्वथा रंग रहित ही रहता है। एक रंग का पानी उस काँच के पात्र में भरा हुआ है उसे फैला कर यदि दूसरे रंग का पानी भर दिया जाय तो फिर इस परिवर्तन के साथ ही पात्र दूसरे रंग का दिखाई देने लगेगा। मनुष्य की भी यहाँ स्थिति है। आत्मा स्वभावतः निर्विकार है पर उसमें जिस प्रकार के गुण कर्म, स्वभाव भर जाते हैं वह उसी प्रकार का दिखाई देने लगता है।

गीता में कहा गया है कि−“विद्या विनय संपन्न, ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल आदि को जो समत्व बुद्धि से देखता है वह पण्डित है।” इस समत्व का रहस्य यही है कि आत्मा सर्वदा निर्विकार हैं, उसकी मूल स्थिति में परिवर्तन नहीं होता, केवल मन बुद्धि चित्त अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय रंगीन−विकार ग्रस्त−हो जाता हैं जिसके कारण मनुष्य अस्वाभाविक, विपन्न, विकृत दशा में पड़ा हुआ प्रतीत होता है। इस स्थिति में यदि परिवर्तन हो जाये तो आज के ‘दुष्ट’ का कल ही ‘सन्त’ बन जाना कुछ भी कठिन नहीं है। इतिहास बताता है कि एक चांडाल कुलोत्पन्न भयंकर तस्कर बदल कर महर्षि वाल्मिकी हो गया। जीवन भर वेश्या वृत्ति करने वाली गणिका आन्तरिक परिवर्तन के कारण परम साध्वी देवियों को प्राप्त होने वाली परमगति की अधिकारिणी हुई, कसाई का पेशा करते हुए जिन्दगी गुजार देने वाला अजामिल और सदन परम भागवत कहलाये। इस प्रकार अनेकों नीच काम करने वाले उच्चता को प्राप्त हुए हैं और ही कुलोत्पन्नों को उच्च वर्ण की प्रतिष्ठा मिली है। रैदास चमार, कबीर जुलाहे, रामानुज शुद्ध, षटकोपाचार्य खटीक, तिरुवल्लुवर अत्यजवर्ण में उत्पन्न हुए थे पर उनकी स्थिति अनेकों ब्राह्मण से ऊंची थी। विश्वामित्र क्षत्री से ब्राह्मण बने थे।

जहाँ प्रति स्थान से ऊपर चढ़ने के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है वहां उच्च स्थिति के लोगों के प्रतीत होने के भी उदाहरण कम नहीं है। पुलस्त्य के उत्तम ब्रह्म कुल में उत्पन्न हुआ चारों वेदों का महापंडित रावण, मनुष्यता से भी पतित होकर राक्षस कहलाया, खोटा श्रत्रडडडडडड खाने से द्रोण और भीष्म जैसे ज्ञानी पुरुष, अन्यायी कौरवों के समर्थक हो गये विश्वामित्र ने क्रोध में आकर वशिष्ठ के निर्दोष बालकों की हत्या कर डाली, व्यास ने घीवर की कुमारी कन्या से व्यभिचार करके सन्तान उत्पन्न की, विश्वामित्र ने वेश्या पर आसक्त होकर उसे लम्बे समय तक अपने रखा, चन्द्रमा जैसा देवता गुरु माता के साथ कुमार्ग गामी बना, देवताओं के राजा इन्द्र को व्यभिचार के कारण शाप का भाजन होना पड़ा, ब्रह्मा जी अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गये, ब्रह्मचारी नारद मोहग्रस्त होकर विवाह कराने को स्वयंवर में पहुँचे, सड़ी गली काया वाले वयोवृद्ध च्यवन ऋषि को सुकुमार कन्या से विवाह करने की सूझी, बलिराजा के दान में भाँजी मारते हुए शुक्राचार्य ने अपनी आँख गंवादी, धर्मराज युधिष्ठिर तक ने अश्वत्थामा मरने की पुष्टि करके अपने मुँड पर कालिख पोती और धीरे से ‘नरोवा कुँजरोवा’ गुनगुना कर अपने को छझडडडडडड से बचाने की प्रवंचना की। कहाँ तक कहें−किस 2 कहें−इस दृष्टि से इतिहास देखते हैं तो बड़े बड़ों को स्थान च्युत हुआ पाते हैं। इससे प्रकट होता है कि आन्तरिक स्थिति में हेर फेर हो जाने से भले मनुष्य बुरे और बुरे भले बन सकते हैं।

शास्त्र कहता है कि जन्म से सभी लोग शूद्र पैदा होते हैं पर पीछे संस्कारों के प्रभाव से वे द्विज बनते हैं असल में यह संस्कार ही है जो शूद्र को द्विज और द्विज को शूद्र बनी देते हैं। गायत्री के तत्व ज्ञान को हृदय में धारण करने से पैसे संस्कारों की उत्पत्ति होती है जो मनुष्य को एक विशेष प्रकार का बना देते हैं। उस पात्र में भरा हुआ पहला लाल रंग निवृत्त जाता है और उसका स्थान पर नीलवर्ण परिलक्षित होने लगता है।

पतित कितनी देर में उच्चता को प्राप्त होगा यह उसके मानसिक परिवर्तन की स्थिति पर निर्भर है। वह शिथिल और मन्द कम से होगा तो प्रगति में भी मन्दता रहेगी और यदि तीव्र एवं सुदृढ़ परिवर्तन हुआ तो थोड़े से क्षणों के अन्दर पापी का धर्मात्मा बन जाना संभव है। यदि परिवर्तन मन्द गति से हो तो भी उसकी पतितावस्था में सुधार और उच्चता में अभिवृद्धि तो होने ही लगेगी। केवल गायत्री मंत्र के श्रवण, स्मरण, चिन्तन, मनन एवं जप करने मात्र से से सात्विकता के किन्हीं अंशों की निश्चित रूप से वृद्धि होती है, जितने यह अंश बढ़ेंगे उतने अंशों पुराने दूषित तत्वों में कमी होगी। एक वर्तन में जितना पानी भरा जाता है उतनी ही हवा उसमें से निकलती जाती है। इसी तरह जितने सात्विक अंश हृदय में भरते जाते हैं पतित अवस्था को निश्चित रूप से सुधार होता है। यह क्रम यदि दृढ़ता पूर्वक, अधिक तत्परता के साथ चलाया जाय तो अन्तःकरण चतुष्टय में सतोगुण की तीव्रगति से वृद्धि होती है और पतितावस्था विलीन होती जाती है।

पाप की बुराई को समझते हुए, उसका विरोध करने वाली आत्मा को कुचलते हुए, दुराग्रह पूर्वक वाली आत्मा को कुचलते हुए, दुराग्रह पूर्वक जो पाप किये जाते हैं, कालान्तर में वे पक कर प्रारब्ध का रूप धारण कर लेते हैं तब उनका पाप फल भोगना आवश्यक होता है, परन्तु अज्ञान वश, मनोभूमि की निर्बलावस्था में, कौतुहल वश, कुसंग में या ऐसे ही हल्के कारणों से जो छोटी मोटी बुराइयाँ बन पड़ती है यदि आगे चलकर मनुष्य उन्हें छोड़ते तो उन ‘निर्बल वीर्य’ पापों का फल नष्ट हो जाता है। माता पिता की की असावधानी से कई बार छोटे बच्चे उनकी कामकीहाएंडडडडड देख लेते हैं और फिर उन चेष्टाओं को कौतुहल वश आपस में दुहराते हैं। यद्यपि यह चेष्टाएं सर्वथा अवांछनीय है तो भी उन बालकों को उस श्रेणी का दोषी नहीं ठहराया जाता जिस श्रेणी का दोष कि तरुण लड़के लड़कियों पर उस प्रकार की चेष्टाएं करने का होता है। बच्चे भी चोरी करते देखे जाते हैं पर उन्हें बढ़ी आयु के चोर डाकुओं जैसा कठोर कारावास नहीं मिलता। कारण यह है कि मनोभूमि की निर्बलता और परिपुष्टता को न्यायकर्ता ध्यान में रखता हैं। ऐसे छोटे मोटे अपराधों का कुफल तभी मिलता है जब वह शृंखला लगातार लंबी चले और दिन दिन बढ़ती जाय। पर यदि यह शृंखला टूट जाती हैं, दिशा बदल जाती है तो रेत पर बने हुए पद चिन्हों की तरह वे पाप कृत्य भी मिट जाते हैं।

पापों की भी कई श्रेणियों है। हत्या, विश्वासघात, मिथ्या लाँछन, निर्दोषों का बलात्कार, सताया जाना, अभाव ग्रस्तों से भी अपहरण किया जाता, किन्हीं असमर्थों को निराश्रित कर देना, जीविका छीनना जैसे आत्मा को सीधी चोट पहुँचाने वाले, तिलमिला देने वाले, न्याय की हत्या करने वाले, ऐसे बाप जो दुष्ट बुद्धि से जान बूझकर किये गये ही सचमुच भयंकर छातडडडडडडड हैं और सताये जाने वाले की आह उसे ले डूबती है। पर कुछ पाप ऐसे हैं जिनमें यह बात तो नहीं हैं पर सामाजिक व्यवस्था की गड़बड़ पैदा करने के कारण बुरे माने गये हैं ऐसे पापों को स्थिति के अनुसार छोटे पापों में भी गिना जा सकता है। गप्पे हाँकना, बेकार फिरना, सुन्नाडडडडडडडड देखना, नशा पीना, अखाद्य खाना, दोनों पन्नों के सहयोग से हुए व्यभिचार इसी श्रेणी में आते हैं। ये पाप भी बुरे तो हैं ही पर चित्त वृत्तियों में अन्तर आजाने से उनका कुफल नष्ट हो जाता है। छोटी फुन्सियाँ मरहम लगाने से अच्छा हो जाता है पर पुराने नासूर के लिए आपरेशन कराना पड़ता है। इसी प्रकार अल्प वीर्य पापों का समूह गायत्री की सतोगुणी धारणा से नष्ट हो जाता है पर वे महापातक जो प्रारब्ध बन चुके हैं पर वे महापातक जो प्रारब्ध बन चुके हैं उनका भोगा जाना, उनका आपरेशन होना, आवश्यक है।

पापों का नाष आत्म तेज की प्रचण्डता से होता है। यह तेजी जितनी ही अधिक होती है उतना ही संसार का कार्य शीघ्र और अधिक परिमाण में होता है। बिना धार की लोहे की छह से वह कार्य नहीं हो सकता जो तीक्ष्ण तलवार से होता है। यह तेजी किस प्रकार आवे ! उपाय तपाना और रगड़ना है। लोहे को आग में तपा कर उसमें धार बनाई जाती है और पत्थर पर रगड़ कर उसे तेज किया जाता है। तब वह तलवार दुश्मन की सेना का सफाया करने योग्य होती है। हमें भी अपनी आत्म शक्ति तेज करने के लिए इसी तपाने, घिसने वाली प्राणी को अपनाना पड़ता है−इसे आध्यात्मिक भाषा में ‘तप’ या ‘प्रायश्चित’ नाम से पुकारते हैं।

अपराधों की निवृत्ति के लिए हर जगह दंड का विधान काम में लाया जाता है। बच्चे ने गड़बड़ी की कि माता की डाँट चपत पड़ी, शिष्य से प्रमोद किया कि गुरु ने छड़ी संभाला, सामाजिक नियमों को भंग किया कि पंचायत ने दंड दिया, कानून का उल्लंघन हुआ कि जुर्माना, जेल, कालापानी या फाँसी तैयार है, ईश्वर भी दैनिक, दैहिक, भौतिक दंड देकर पापों का दंड देता है। यह दंड विधान प्रतिशोध या प्रतिहिंसा मात्र नहीं है। ‘खून का बदला खून’ की जंगली प्रथा के कारण नहीं, दंड विधान का निर्माण उच्च आध्यात्मिक विज्ञान के आधार पर किया गया है। कारण यह है कि दंड स्वरूप जो कष्ट दिये जाते हैं उनसे मनुष्य के भीतर एक खलबली मचती हैं, प्रतिक्रिया होती हैं, तेजी आती है जिससे उसका सुप्त मानस चौंक पड़ता हैं और भूल को छोड़कर उचित मार्ग पर आ जाता है। ‘तप’ में ऐसी ही शक्ति है। तप की गर्मी से अनात्म तत्वों का संहार होता है।

दूसरों द्वारा दंड के रूप में चलात् तप कराके हमारी शुद्धि की जाती है। इस प्रणाली को हम स्वयं ही अपनालें अपने गुप्त प्रकट पापों का दंड स्वयं अपने को दे लें, स्वेच्छा पूर्वक तप करें तो वह दूसरों द्वारा चलात् कराये हुए तप की अपेक्षा असंख्य गुना उत्तम है। उसमें न अपमान होता है न प्रतिहिंसा एवं आत्म ग्लानि से चित्त क्षुधित होता है वरन् स्वेच्छा तप से एक आध्यात्मिक आनंद आता है, शौर्य और साहस प्रकट होता है तथा दूसरों की दृष्टि में अपनी श्रेष्ठता, प्रतिष्ठा बढ़ती है। पापों की निवृत्ति के लिए आत्म तेज की अग्नि चाहिए इस अग्नि की उत्पत्ति से दुहरा लाभ होता है एक तो हानिकारक तत्वों का कषाय कल्मषों का नाष होता है, दूसरे उसकी ऊष्मा और प्रकाश से दैवी तत्वों का विकास, पोष्य, एवं अभिवर्द्धन होता है। जिसके कारण तपस्वी मनस्वी सच्चे अर्थों में तेजस्वी बन जाता है। हमारे धर्म शास्त्रों में पग पग पर व्रत, उपवास, दान, स्नान, आचार विचार आदि के विधि विधान इसी दृष्टि से किये हैं कि उन्हें अपना कर मनुष्य इन दुहरे लाभों को उठा सके।

अपने से कोई भूल, पाप या बुराइयों बन पड़ी हों उनके अशुभ फलों के निवारण के लिए तथा आवश्यकताओं को छोड़कर उनके अभाव का कष्ट सहते हुए रहना व्रत कहलाता है। काम सेवन त्याग कर ब्रह्मचर्य से रहना, जूता न पहन कर नंगे पैर रहना या खड़ाऊं पहनना पलंग पर न सोकर तख्त या भूमि पर शयन करना, स्वल्प वस्त्र धारण करना, खाद्य पदार्थों में थोड़ी चीजों को स्वीकार करके शेष को त्याग देना, धातु के पात्रों में भोजन न करके पत्तल पर या हाथ पर भोजन करना, हजामत बनाने की मर्यादा निर्धारित कर लेना, पशुओं की सवारी पर न चढ़ना, खादी पहनना आदि अनेकों प्रकार के व्रत हो सकते हैं।

(4) कष्ट सहना−हठयोगी बड़ी बड़ी कठिन कष्ट साध्य साधनाएं करते हैं, एक बाहु को ऊपर उठाये रहना, चौरासी धूनी तपना, एक आसन से बैठना, रात्रि को न सोना जैसे साधनों को करते हैं पर हम अपने पाठकों को बिना किसी अनुभवी गुरु की आज्ञा के इस प्रकार के तीव्र कष्ट सहन का निषेध करते हैं क्योंकि इनमें थोड़ी भी भूल हो जाने से अनिष्ट का काफी खतरा रहता है। साधारणतः निम्न कष्ट सहन ऐसे है जिनमें से अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार किसी को अपनाया जा सकता है। गर्मी में पंखा, छाता और बरफ का त्याग, सर्दी में बिना गरम (ताजे) जल से स्नान, प्रातःकाल एक दो घंटा रात रहे उठकर नित्य कर्म में लग जाना, सर्दी में अधिक वस्त्रों का उपयोग अथवा अग्नि पर तापने का त्याग, अपने हाथ से भोजन बनाना, एक हाथ से कुँए से जल खींचकर अपने लिए पीने को रखना, पैदल तीर्थ यात्रा करना, अपने हाथ से अपने सब काम वस्त्र सीना, धोना, झाड़ू लगाना, बर्तन मलना आदि काम करना, दूसरों की सेवा और सहायता कम से कम लेना आदि ऐसे कष्ट सहन किये जा सकते हैं जिनमें उस कष्ट सहिष्णुता का कुछ प्रत्यक्ष लाभ भी होता हो।

(5) दान− अपने पास जो शक्ति हो उसमें से अपने लिए कम मात्रा में रखकर दूसरों को अधिक मात्रा में देना, समय, बुद्धि, शान, विद्या, सहयोग, उधार आदि का देना भी दान ही है। धन दान तो प्रसिद्ध है ही। सत्कार्यों में जीवन को नियोजित करने वाले ब्रह्म परायण लोकसेवी, सेवा संस्थाएं तथा आपत्ति ग्रस्त, दान के अधिकारी है। इसके अतिरिक्त अपनी उदार वृत्ति को चरितार्थ करने के लिए अनेकों प्रकार के ऐसे कार्य किये जा सकते हैं जिनसे उपयोगी प्राणियों की सुख वृद्धि होती हो। अन्न दान, पुस्तक दान, पाठशाला, औषधालय, अनाथालय, अवखाश्रयडडडडडडडड, पुस्तकालय, गौशाला, धर्मशाला, कुंआ, बावड़ी, प्याऊ, बगीचा आदि के लिए धन या समय देना। भाषण, लेखन, सत्संग द्वारा सद्ज्ञान का प्रसार करना आदि अनेकों लोकोपयोगी कार्य है। विद्याधन वाले भी सेवा समिति आदि लोक सेवा संस्थाओं को अपना समय देकर या स्वतंत्र रूप से स्थानीय आवश्यकता के अनुरूप सेवा करके दान का पुण्य फल प्राप्त कर सकते हैं। गौ, चींटी, चिड़ियाँ, कछुए, मछली आदि को थोड़ा बहुत भोजन देकर दान की भावना को स्वल्प व्यय में चरितार्थ किया जा सकता है। और भी अनेकों मार्ग हो सकते हैं।

(6) दोष प्रकाशन अपनी बुराइयों को या गुप्त पापों को छिपाये रहने से मन भारी रहता है और उसमें कलुषित भाव भरे रहते हैं। जिस प्रकार उदर में गंदा मल भरा रहे तो स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, इस दोष के निवारण के लिए जुलाब देकर पेट साफ कराया जाता है, तब स्वास्थ्य ठीक होता है। इसी प्रकार अपनी भूलों और पापों को छिपाने बैठे रहा जाय तो वह विषैला मल अध्यात्मिक स्वास्थ्य को ठीक नहीं होने देता। इसलिए प्रायश्चितों में दोष प्रकाशन का महत्वपूर्ण स्थान दिया है। गौ हत्या हो जाने का प्रायश्चित शास्त्रों ने यह बताया हैं कि मरी गौ की पूँछ हाथ में लेकर एक सौ गाँवों में वह व्यक्ति उच्च स्वर से चिल्ला−चिल्ला कर यह कहे कि मुझसे गौ हत्या हो गई हैं। इस प्रकार दोष प्रकाशन से गौ हत्या का दोष छूट जाता है। हमने जिसके साथ बुराई की हो उससे क्षमा माँगनी चाहिए। उसकी क्षति पूर्ति करनी चाहिए, और जिस प्रकार वह संतुष्ट हो वह करने का यथा शक्ति प्रयत्न करना चाहिए। यह न हो सके तो कम से कम अपने किन्हीं अभिन्न सच्चे विश्वासी मित्रों अथवा गुरु के सन्मुख अपने प्रत्येक दोष को सविस्तार प्रकट कर देना चाहिए। इससे भी बहुत हद तक मन स्वच्छ हो जाता हैं, और अन्तरात्मा पर रखा हुआ एक भारी बोझ हलका हो जाता है।

(7) साधना−गायत्री अनुष्ठान, ब्रह्मसंध्या, गायत्री हवन, पुरश्चरण गायत्री, योग आदि साधनों से आत्मबल सतेज किया जा सकता है।

अन्य उद्देश्यों के लिए अन्य अनेकों प्रायश्चित हो सकते हैं, पर यहाँ तो सर्व साधारण के उपयोगी सामान्य तपश्चर्याओं का ही वर्णन किया जा रहा है। पाठक किसी विज्ञ पुरुष से सलाह लेकर ही अपनी स्थिति को ध्यान में रख कर इस दिशा में कदम बढ़ावें, यदि आवश्यकता प्रतीत हो तो अखंडज्योति कार्यालय से भी इस संबंध में सलाह ले सकते है और गायत्री तत्वों की तपश्चर्या एवं प्रायश्चितों द्वारा पतितावस्था से उच्चता की ओर अग्रसर हो सकते हैं और पापों का नाष कर सकते हैं।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: