साधना काल के विक्षेप।

June 1948

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कार्यतो यदि चोत्तिप्ठेन्मध्य एव ततः पुनः। जल प्रक्षालनं कृत्वा शुद्धै क्डैगरुपाविशेस्॥

(यदि च) और यदि (कार्यतः) किसी काम से (उत्तिष्टेत्) उठना पड़े (ततः) तो (पुनः) फिर (जल प्रक्षालनं कृत्वा) पानी से प्रक्षालन करके (शुद्धैः) शुद्ध (अंगैः) अंगों को करके (उपाविशेत्) बैठे।

कई बार साधना के समय−कारण वश बीच में ही उठना पड़ता है। मल, मूत्र, कफ, नाक आदि की शुद्धि के लिए कभी कभी बीच में उठने की आवश्यकता होती है। कुत्ते, बिल्ली, बन्दर आदि का उपद्रव, कोई वस्तु गिरना, जरूरी आदेश करना, भली हुई वस्तु उठाना, किसी आगन्तुक को आसन देना आदि कार्यों के लिए जब कोई दूसरा व्यक्ति नहीं होता और वह अपने को ही करना होता है तो उठना आवश्यक हो जाता है। वैसे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि वहाँ तक हो सके ऐसे अवसर न आवें या कम से कम आवें, पर यदि आवें ही तो उठने के पश्चात् पुनः ज्यों का त्यों ही न बैठ जाना चाहिए, वरन् शुद्ध जल से हाथ पाँव तथा मुख धोकर आचमन करके तब आसन पर बैठना चाहिए।

बीच में विक्षेप आजाने से चलता हुआ साधना प्रवाह टूट जाता है। इस अवरोध से उसी प्रकार नियत क्रम में गड़बड़ पड़ जाती है जैसे पकती हुई देगची के नीचे की आग बुझ जाने से दाल ठंडी हो जाय और फिर दुबारा लकड़ी जलाकर उसे पकाया जाय। कुम्हार का ‘अवा’ पकने के लिए लगातार आग चाहता है, पर आधा पक कर वह ठंडा हो जाय और फिर दुबारा आग जलानी पड़े तो उसमें कुछ न कुछ दोष ही रह जाता है। इस गड़बड़ी को सुधारने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता पड़ती है। सूत कातते समय तागा टूट जाय तो टूटे हुए स्थान को एक विशेष प्रकार से ऐंठ कर दोनों सिरे जोड़े जाते हैं, टूटे हुए लोहे को जोड़ने के लिए उसका विशेष संस्कार करना पड़ता है आग में तपा कर पीटना पड़ता है तब वह टुकड़े जुड़ते हैं। साधना की शृंखला टूटने पर भी एक विशेष संस्कार की आवश्यकता होती है, जिसे जल प्रक्षालन कहते है। जल शुद्धि से अवसाद चला जाता है और उत्साह जाता है। उचटा हुआ मन जल शुद्धि से पुनः शाँत एवं शीतल होकर अपने काम में लगता है और टूटी हुई साधना शृंखला पुनः जुड़ जाती है।

यदि वा साधना कालेऽसध्यायः स्यात्प्रमादतः। तदा प्रायश्चितं नूनं कार्य मन्येद्युरेव हिं। प्रायश्चितं समाख्यातं तस्मै सद्भिर्मनीषिमिः। दिन स्यैकस्य गायत्री मंत्राणामधिकं जपः।।

(यदि वा) अगर (प्रमादतः) भूल से वश (साधना काले) साधना काल में (अनध्यायः स्यात्) अनध्याय हो जावे (तदा) तो (अन्येद्यु एवं) दूसरे ही दिन (नूनं) निश्चय से प्रायश्चित करे। (तस्मै) उसके लिए (सद्भिमनीषिभिः) सत्पुरुषों ने (एकस्य दिनस्य) एक दिन के (गायत्री मंत्राणाँ) गायत्री मंत्रों को (अधिक जपः) अधिक जप करना (प्रायश्चित) प्रायश्चित (समाख्यातं) कहा है।

कभी कभी अपनी भूल से ऐसे हेतु उपस्थित हो जाते है जिनके कारण साधना की व्यवस्थित क्रिया प्रणाली में विक्षेप पड़ जाता है। रात्रि को कारण वश अधिक जागने में ऐसा हो सकता है कि प्रातःकाल देर तक सोते रहे और साधना का ब्राह्ममुहूर्त निकल जाए। कोई बीमारी उठ खड़ी होने, घर में कोई आकस्मिक घटना घटित हो जाने से, तथा किसी प्रकार की आपत्ति जनक परिस्थिति सामने आजाने से साधना में विघ्न पड़ सकता है। और कुछ समय के लिए साधन स्थगित करना पड़ सकता है। ऐसी दशा में यह नहीं समझ लेना चाहिए कि हमारा साधन खंडित हो गया।

यदि इच्छा पूर्वक किसी विशेष लाभ के लिए साधना को स्थगित रखा हो तो प्रतिदिन जितना जप करते है उतना एक दिन का जप प्रायश्चित्त स्वरूप, जुर्माने में करना चाहिए और उसे साधना पूर्ति की जप संख्या में नहीं गिनना चाहिए। कभी कभी कई दिन तक साधना बन्द रखने की स्थिति सामने आ सकती है।

ऐसी आकस्मिक स्थिति के कारण साधना में पड़े हुए विघ्न के लिए शास्त्रकारों ने एक प्रायश्चित्य बताया है वह यह कि एक दिन की छुट्टी के लिए एक हजार मंत्र अधिक जप करने चाहिए। यह एक प्रकार का जुर्माना है जो मूलधन में शुमार नहीं होता। जैसे किसी व्यक्ति ने दो दिन साधना बंद रखी तो उसे दो हजार मंत्र−नियत योजना कम के अतिरिक्त जपने होंगे। जहाँ तक हो सके ऐसे अवसर कम से कम आने देने चाहिए। क्योंकि टूटी हुई रस्सी को चाहे कितनी ही सावधानी और चतुरता से जोड़ दिया जाय तो भी वहाँ गाँठ तो रह ही जाती है।

जनन और मृत्यु के सूतक हो जाने पर शुद्धि न हो जाने तक जप को स्थगित रखना पड़ता है। यह दैवी कारण होने से इसमें मनुष्य का दोष नहीं है। सूतक के दिनों में अविधि पूर्वक मौन जप का क्रम तो चालू रखना चाहिए। पर व्यवस्थित क्रम बन्द रखना चाहिए। सूतक काल के दिन समाप्त होने पर जिस संख्या पर जप को विश्राम दिया था वहाँ से आगे आरंभ कर देना चाहिए।

यदावस्थासु स्याल्लोके विपन्नासु तदातुसः। मौनं मानसिकं चैव गायत्री जप माचरेत्॥

(यदा सः) जब वह (लोके) संसार में (विपन्नासु) विपन्न (अवस्थासु) अवस्थाओं में (स्यात्) हो (तदा) तब वह (मौनं) मौन (मानसिकं) मानसिक (गायत्री जपं) गायत्री जप (आचरेत्) करे।

कई बार ऐसे अवसर आते है जब मनुष्य को अपवित्र स्थिति में रहना पड़ता है। स्वयं रोगी हो जाने पर स्नान, शौच आदि की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती। कई बार किसी दूसरे रोगी या विपत्ति ग्रस्त की सेवा में रहने के कारण शुद्धि का प्रबंध नहीं हो सकता। ऐसी दशा में शुद्ध होकर की जाने वाली गायत्री साधना किस प्रकार हो? यह प्रश्न उपस्थित होता है।

शास्त्रकारों ने ऐसी विपन्न अवस्थाओं के लिए वह उपाय बताया है कि उस समय मौन होकर जप करे। अर्थात् केवल मानसिक जप करे अन्य किसी उपादान का प्रयोग न करें।

सामान्य त्रुटिभ्यस्तु प्रायश्चित्तं समादिशत्। सहस्त्राणं हि गायत्री मंत्राणामधिकं जपः॥

(सामान्य त्रु टिभ्यस्तु) साधारण भूलों के लिए (सहस्राणाँ गायत्री मंत्राणं) एक सहस्र गायत्री मंत्रों का (अधिकं) अधिक (जपः) जप करना (प्रायश्चितं) प्रायश्चित (समादिशत्) कहा है।

साधना के समय बोल जाना, अशुद्ध गुप्त अंगों का स्पर्श कर लेना, नींद की झपकी ले जाना, छींक आदि असावधानी से लेकर पूजा सामग्री को अशुद्ध कर देना आदि आकस्मिक भूलों के लिए प्रायश्चित स्वरूप एक हजार मंत्र जपने चाहिए।

आभ्यन्तरे तु गायर्त्या अनेके योग संचयाः। अन्तर्हिता विराजन्ते कश्चिदत्र न संशयः॥

(गायर्त्याः) गायत्री के (आभ्यन्तरे) अर्न्तगत (तु) तो (अनेके) अनेक (योग संचयाः) योग समूह (अन्तर्हिताः) छिपे हुए (विराजन्ते) रहते हैं (अब) इसमें (कश्चित्) कोई (संशयः) सन्देह (न) नहीं है।

घारयन् हृदि गायत्री साघ को धौतकिल्विषः। शक्तीरनुभवत्युग्राः स्वस्मिनात्मन्य लौकिकाः॥

(घौत किल्विषः) पाप रहित (साधकः) साधक (हृदि) हृदय में (गायत्री) गायत्री को (धारयनु) धारण करता हुआ (स्वस्मिन् आत्मनि) अपनी आत्मा में (अलौकिकाः) अलौकिक (उग्राः) तीव्र (शक्ति) शक्तियों का (अनुभवति) अनुभव करता है।

योग पद्धतियों की संख्या अनन्त है। राजयोग, हठयोग, लययोग, नाद योग, विन्दुयोग, ऋजुयोग, ज्ञान योग, भक्तियों कर्मयोज, कौलयोग, ब्रह्मयोग, परायोग, तंत्रयोग, शक्तियोग, जपयोग गुह्य योग आदि अनेकों योग पद्धतियाँ प्रचलित है। इनके विज्ञान, विधि विधान, फल, एवं कर्मकाण्ड प्रथक प्रथक हैं। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में अनेक धर्म एवं दर्शन प्रचलित है उनके अंतर्गत भी बहुत सी योग पद्धतियों का विधान है। इतने असंख्य योगों का पार्थिक्य यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें कोई भारी अन्तर है, एक दूसरे में कोई असाधारण मतभेद या असामंजस्य विद्यमान है अथवा एक दूसरे के विरोधी है। परन्तु गहराई तक प्रदेश करने के उपरान्त यह प्रकट हो जाता है कि वस्तुतः ऐसी कोई बात नहीं है। यह प्रथकता बाहर से ही दीखती है। खरबूजे की धारियाँ ऐसा भ्रम उत्पन्न है कि यह भीतर से टुकड़े टुकड़े निकलेगा पर वस्तुतः ऐसा होता नहीं। वे सब एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए हैं, उन सब साधना प्रहालियों की निर्धारित दिशा एक ही है। एक स्थान पर पहुँचने के अनेकों रास्ते होते है। जो पूर्व में है वह निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचने के लिए पच्छिम को चलता है और जो पच्छिम में है उसे पूर्व की ओर चलना पड़ता है। देखने में दोनों भिन्न दिशाओं में चलते हुए दीखते हैं, यह भिन्नता होते हुए भी वे एक ही स्थान पर जा पहुँचते है।

स्वामी विवेकानंद ने इस अनेकता में एकता सिद्ध करते हुए एक उदाहरण दिया है कि− जैसे खाँड की भरी एक बोरी है उस बोरी में अनेकों छेद है। बहुत सी चींटियाँ इन छेदों में होकर खाँड में भीतर घुसती है। वे सभी समान मधुरता का रसास्वादन करती है। यद्यपि उनके मार्ग प्रथक प्रथक है तो भी वे एक ही लाभ का अनुभव करती है। यही बात विविध साधनाओं के साधकों के संबंध में है। जिस शिक्षक ने जिस मार्ग से अनुभव किया है वह अपने अनुयायी को उसी मार्ग पर चलने की शिक्षा देता है इस परम्परा के अनुसार अनेकों मार्ग बन जाते है और वे स्वतंत्र नामों से पुकारे जाने लगते है। दूसरी बात यह है कि अलग अलग व्यक्तियों की मनोभूमि, इच्छा, स्थिति और आवश्यकता अलग अलग होती है। उसे देखते हुए अध्यात्म मार्ग के सुयोग्य शिक्षक साधकों को प्रथक प्रथक साधनाएं बताते है। वैद्य के औषधालय में अनेक प्रकार की दवाएं भरी रहती है। पर उनमें से रोगी को वही दी जाती है जो उसके रोग के अनुकूल है। जिस प्रकार सभी औषधियों का उद्देश्य रोग निवारण और स्वास्थ्य संस्थापन है वैसे ही सब योगों का उद्देश्य भी अनात्म तत्वों का निवारण और आध्यात्मिकता की स्थापना, बंधन का निवारण और मुक्ति की स्थापना है। परन्तु हर औषधि हर रोगी के लिए उपयोगी नहीं होती इसी प्रकार हर व्यक्ति के लिए हर योग ठीक नहीं होता। किसके लिए क्या औषधि चाहिए इसका निर्णय वैद्य करता है, इसी प्रकार सुयोग्य गुरु यह निर्णय करता है कि किस व्यक्ति को कौन सी साधना करनी चाहिए।

गायत्री मंत्र को एक औषधालय कह सकते है जिसमें सभी रोगों की औषधियाँ विद्यमान है। ‘अमृत धारा’ औषधि को अनुपान भेद से बहुत से रोगों पर काम में लाया जाता है। खाँसी, सिर दर्द, हैजा, दस्त, फुन्सी, आदि कितने ही रोगों पर यह एक ही दवा प्रयोग की जाती है, केवल सेवन विधि में अन्तर कर दिया जाता है। गायत्री साधना ऐसी ही आध्यात्मिक अमृत धारा है जिससे अनेक औषधियों की अनेक योग साधनाओं की आवश्यकता पूरी हो जाती है, अनेक रोगियों को, अनेक साधकों को, उपचार भेद से−साधना विधि में अन्तर कराकर इस एक ही औषधि से, एक ही मंत्र से चंगा किया जा सकता है, अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त कराया जा सकता है। इस रामबाण साधना में वे सब लाभ बल और रहस्य छिपे हुए है जो संसार भर की किसी भी साधना में पाये जाते है।

इस साधना के साधक पर सब से प्रथम प्रतिक्रिया यह होती है कि वह निष्पाप हो जाता है। पाप पुण्य की उलझन जिस श्रेणी के लोगों को परेशान करती है वह उससे ऊंचा उठ जात है। हमारा कोई अंग जब तक जल की सतह से नीचा रहता है तब तक वह पानी में भीगा रहता है पर जब वह ऊँचा उठ जाता है तो पानी उसे स्पर्श नहीं करता। जब तक मनुष्य का ‘अहम्’ संकुचित, सीमित, स्वार्थ रहा रहता है। अपने तुच्छ ‘अहंकार’ को तृप्त करने के लिए कार्य करता है तब तक किये हुए कार्य पाप पुण्य बनकर उसके पीछे पड़ते हैं और उनका परिणाम भोगने के लिए उसे विवश होना पड़ता है। पर जब वह अपने ‘अहम्’ को व्यापक बना लेता है, तुच्छता की केंचुली उतार कर अपने को विभु व्यापक एवं अजर अमर अनुभव करता है तो उसके कार्य में भी व्यापक दृष्टिकोण निहित हो जाता है। फलस्वरूप उसे पाप पुण्य के बंधन में नहीं बँधना पड़ता। एक कसाई एक प्राणी के शरीर में छुरा घुसेड़ कर रक्त बहाता है, दूसरी ओर एक डॉक्टर भी रोगी के शरीर में छुरी घुसेड़ता है और उसी प्रकार खून खच्चर करता है, हाड़ माँस आदि को काटता है। बाहर से देखने से दोनों क्रियाएं एक सी है पर एक को पाप लगता है दूसरे को नहीं। हत्यारा डाकू भी मनुष्यों के प्राण लेता है और जज भी अनेकों अभियुक्तों को फाँसी पर लटकवाता है, पर डाकू को पाप लगता है जज को नहीं। पाप पुण्य में ‘क्रिया’ प्रधान नहीं होती, कर्ता का दृष्टि कोण−प्रधान होता है।

एक व्यक्ति बुरे उद्देश्य की सिद्धि ने लिए दिखावे के रूप में कुछ पुण्य करके लोगों को उल्लू बनाना चाहता है, दूसरा आदमी किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए बुरे प्रतीत होने वाले काम करता है तो उन कार्यों का फल क्रिया के अनुसार नहीं कर्ता की दृष्टि के अनुसार होता है। कभी ब्रह्मचर्य भी पाप हो सकता है और कभी व्यभिचार पुण्य भी। कभी सत्य भाषण पाप हो सकता है और असत्य भाषण पुण्य भी। कभी कभी दया, उदारता, दान आदि पाप बन जाते है और कभी कठोरता, हिंसा, अनुदारता और छल पुण्य रूप होते है। कौरव, पाण्डवों की माताओं ने वंश नाश होते देखकर व्यभिचार करके संतान उत्पन्न की थी / व्यासजी ने जब देखा कि सुपुत्र उत्पन्न करने की एक अमूल्य बेला व्यर्थ निकली जा रही है तो उन्होंने निषाद कन्या से व्यभिचार करके शुकदेवजी को जन्म दिया। देवताओं का संकट दूर करने के लिए योगेश्वर शंकर ने दूसरा विवाह भी किया और दो पुत्र भी उत्पन्न किये। स्वयं भगवान ने वृन्दा का सतीत्व नष्ट किया। वलि को साथ छल किया। यह सच बातें स्थूल दृष्टि से बुरी हैं, पाप हैं, पर ऊंचे दृष्टिकोण से निस्वार्थ भाव से किये जाने के कारण यह पाप नहीं ठहराई गईं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों ने लूट, चोरी डकैती, हत्या, छल आदि सभी कुछ किया, पर उद्देश्य ऊँचा होने के कारण वे पापी नहीं कहे जा सकते। इसके विपरीत दुर्भाव से नीच दृष्टि कोण से किये हुए पुण्य कार्य भी पाप बन जाते हैं। राजा नृग को गौदान करते हुए भी नरक में पड़ना पड़ा, त्रिशंकु को तप करते हुए भी उलटा लटकाना पड़ा, दक्ष का यज्ञ विध्वंस हुआ, कालनेमि का ब्रह्म भोज प्राण घातक सिद्ध हुआ।

गायत्री की साधक से मनोभूमि सात्विकता में विकसित हो जाने के कारण उसका दृष्टिकोण ऊंचा बन जाता है। उसके कार्य स्वभावतः लोक हितकारी और सतोगुणी होते हैं। भूल से था लोक हित की दृष्टि से वह कोई ऐसा काम कर बैठता है जो लोकाचार के अनुसार हेय समझा जाता है तो भी वह पाप का भागी नहीं बनता। शुद्ध हृदय से, परमार्थ के लिए, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ का ध्यान न करते हुए जो कार्य किये जाते हैं वे गलत भले ही हों, पर उनके कारण कर्ता के पाप नहीं लगता। इस प्रकार ब्रह्म निष्ठ अध्यात्म वादी अपनी हृदयगत पवित्रता के कारण प्रत्येक दशा में निष्पाप रहता है। पूर्व संचित संस्कार जो पक चुके हैं, प्रारब्ध बन चुके हैं उन्हें तो भोगना ही पड़ेगा पर अब के कर्म आगे के लिए उसके लिए बन्धन नहीं बनते, मुक्ति में बाधा नहीं डालते।

निष्पाप अन्तःकरण वाला व्यक्ति अपने आप में ऐसी शक्तियों का अनुभव करता है जो अलौकिक होती है। अलौकिक उन्हें कहते हैं जो आमतौर से सब में नहीं होती। आत्मा, परमात्मा की संतान होने के कारण उसमें अपने पिता की समस्त योग्यताएं समस्त शक्तियां रहती है, परन्तु विषय विकारों के कारण वे वैसे ही अस्त व्यस्त और कुँठित हो जाती हैं जैसे राख से ढंका हुआ अंगार बाहर से छूने पर दाहक शक्ति से सर्वथा शून्य प्रतीत होता है। जब उस राख की हटा दिया जाता है तो शृंगार का जलता हुआ अग्नि स्वरूप पुनः प्रकट हो जाता है इसी प्रकार आन्तरिक कषाय, कल्मष हटते ही आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में प्रकट होता है, उसकी जन्म जात, स्वाभाविक योग्यताएं स्वयमेव प्रकाश में, अनुभव में, आने लगती है।

साधन सम्पन्न आत्माएं अधिक सूक्ष्म हो जाती है। सूक्ष्म आकाश में विचरण करने वाले तत्वों को वे देख समझ और सुन सकती है। जो घटनाएं भूतकाल में घटित हो चुकी है उनके अंकन सूक्ष्म आकाश में फोटोग्राफ की तरह बने रहते हैं, उन्हें देखकर किसी का भूतकाल जाना जा सकता है। भविष्य में जो घटित होने वाला है, उसकी तैयारी के चक्रों को देखकर यह विदित हो जाता है कि भविष्य में क्या होने वाला है। उसकी आत्मशक्ति इतनी हलकी हो जाती है कि उसको दूसरों की सहायता में प्रयुक्त किया जा सकता है। आत्म निग्रह की सफलता के कारण हर घड़ी परमानंद का आस्वादन किया जा सकता है। वरदान को फलित किया जा सकता है। अज्ञात बातों को जाना जा सकता है। मानस संतानों (भूत प्रेत देवी देवता आदि) को पैदा करना और मिटाना संभव हो जाता है। इन सबको गिनाना न तो आवश्यक है और लाभ दायक, क्योंकि उनका कोई अन्त नहीं है। साधक का आत्म बल जितना ही ऊंचा उठता जाता है उतनी ही ईश्वरीय कलाएं उसमें बढ़ती जाती है, तदनुसार उतनी ही आलौकिक शक्तियों की मात्रा बढ़ती है। पातंजलि योग में वर्णन है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि यम नियमों से एवं प्रत्याहार, धारण, ध्यान समाधि आदि साधनाओं से एक से एक बढ़कर चमत्कारी शक्तियां प्राप्त होती है। यह चमत्कार उन नियमों से या साधनाओं से होने वाले आत्म विकास द्वारा प्राप्त होते हैं। यह आत्म विकास अन्य साधनों से भी हो सकता है, और वे ही लाभ तथा उनके अतिरिक्त अन्य भी अनेकों लाभ प्राप्त हो सकते हैं।

गायत्री एक ऐसी साधना है जो किसी भी अन्य साधना से किसी प्रकार कम नहीं, इसके द्वारा आत्म विकास होता है और उस विकास के साथ साथ आलौकिक शक्तियां उत्पन्न होती हैं। साधक को उनका अनुभव होता है, आभास मिलता हैं, पर जैसे किशोर बालक अपने नव उत्पन्न वीर्य को सुरक्षित रखते हैं उसे बाहर नहीं निकलने देते उसी प्रकार बुद्धिमान साधक भी अपनी इन शक्तियों को अपने अन्दर ही धारण किये रहते हैं। प्रकट नहीं करते, उन्हें साँसारिक कर्मों में खर्च नहीं करते। वरन् आत्म कल्याण में परमानंद की प्राप्ति में, जीवन मुक्ति में उसे लगाते हैं। परमात्मा की सृष्टि का क्रम कर्म भोगों के आधार पर चल रहा हैं, कर्म की, प्रयत्न की, श्रम की प्रधानता से व्यक्ति की उन्नति होने का ईश्वरीय नियम है। सिद्धि प्राप्त व्यक्ति बड़ी सावधानी से इस बात के लिए सचेष्ट रहता है कि कहीं उसकी शक्तियां किसी ऐसे कार्य में प्रयुक्त न हों जिससे ईश्वरीय विधान में विक्षेप पड़े। आध्यात्मिक शक्तियों का उपयोग आत्मोन्नति के लिए ही हैं, बुद्धिमान साधक उसे उचित मार्ग में ही लगाता है। उससे प्रदर्शन नहीं करता।

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