अपने प्रभु की खोज

March 1947

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(श्री. महावीर प्रसाद विद्यार्थी, ‘साहित्य-रत्न’)

जिसे खोजता वन-वन में, तू खोज उसे अपने मन में।

मन की शीतल सुरभित कुँजों में मन मोहन रमता है।

जहाँ प्रेम की कालिन्दी का अमृत कल-कल करता है,

लीलामय वह उसी मधुर मधुबन में, करता है क्रीड़ा,

राग रसीला मुरली का वह रोम-रोम में भरता है॥

देख हृदय की आँखों से, प्रतिबिम्ब उसी का जीवन में।

जिसे खोजता वन-वन में, तू खोज उसे अपने मन में॥

कहाँ-कहाँ सुख की मृगतृष्णा मानव को भटकाती है।

यही, यही तो मानव को दानव-सा क्रूर बनाती है,

कौर छीन भूखों के मुँह से यह घर भरती है अपना,

पृथ्वी को कर पाप-रंक मय मन्द-मन्द मुसकाती है॥

फूल, शूल दोनों है चुन ले चाहे जो इस उपवन में।

जिसे खोजता वन-वन में, तू खोज उसे अपने मन में॥

सागर की मँझदार ओर तू नौका अपनी खेता है।

देख, क्षितिज-तल में विनाश तेरा अंगड़ाई लेता है,

दलन दूसरों का करके चाहता पहनना जय-माला,

तुझे ‘अहम्’ के आगे मानव! कुछ न दिखाई देता है॥

ढहकर तेरे महल तुझे ही कर देंगे विनष्ट क्षण में।

जिसे खोजता वन-वन में, तू खोज उसे अपने मन में॥

नव जीवन संचार करे मरु में तेरी जीवन धारा।

‘युक्ताहार विहार बने तेरा पथ-दर्शक ध्रुवतारा

इन्द्रिय भोगों की अतृप्त है तृष्णा अन्ध न हो मानव!

सुखमय वासस्थान बने तेरा यह पृथ्वीतल प्यारा॥

उतर स्वर्ग आएगा भू पर, रस छलकेगा कण-कण में।

जिसे खोजता वन-वन में तू, खोज उसे अपने मन में॥

*समाप्त*


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