(महाभारत शाँति पर्व अध्याय 110 से)
क्लिश्यमानेषु भूतेषु तैस्तेर्भावैस्तस्ततः।
दुर्गाणितित द्येन तन्में ब्रुहि पितामह॥
युधिष्ठिरजी ने भीष्मजी से पूछा कि हे पितामह। कष्टों से पड़ा हुआ मनुष्य किस प्रकार विपत्तियों से छुटकारा पा सकता है, उन उपायों को आप मुझे से कहिए।
ये दंभान्नाचरन्तिस्म येषा वृत्तिश्च संयतो।
विषयाँश्च निगृहणन्ति दुर्गाणियति तरन्तिते॥
भीष्म जी ने उत्तर दिया :- हे युधिष्ठर! जो ढोंग नहीं करते, जिनकी वृत्ति संयमित है जो विषयों पर काबू रखते हैं वे दुखों से छूट जाते हैं।
प्रत्याहुनोच्य मानाये न हिसन्ति च हिंसताः।
प्रयच्छन्ति न याचन्ते दुर्गाण्यति तरन्ति ते॥
किसी के निन्दा करने पर भी उसकी निन्दा नहीं करते, स्वयं पीड़ित होने पर भी दूसरों को पीड़ा नहीं देते, कुछ न कुछ औरों को देते हैं परन्तु स्वयं याचना नहीं करते, ऐसे लोग दुखों से छूट जाते हैं।
स्वेषु दोरेणु वतन्ते न्याय वृत्तिमृतावृतौ।
अग्नि होत्रपराः सन्तो दुर्गाण्यति तरन्ति ते॥
जो अपनी पत्नी से सन्तुष्ट हैं, न्याय से कमाया हुआ अमृत रूपी अन्न सेवन करते हैं, अग्निहोत्र परायण हैं (त्याग वृत्ति के हैं) वे कष्टों से तर जाते हैं।
आहवेषु च में शूगस्त्यक्त्वा मरणजं भयम्।
धर्मेण जयमिच्छन्ति दुर्गाण्यति तरन्ति ते॥
जो मृत्यु के भय को त्याग कर वीरों की भाँति जीवन युद्ध में प्रकृति होते हैं और धर्म से विजय पाना चाहते हैं वे कठिनाइयों से पार हो जाते हैं।
ये तपश्च तपस्यन्ति कोमार ब्रह्मचारिणः।
वेद विद्याव्रत स्नाता दुर्गाण्यति तरन्तिते॥
जो अपने को तपस्वी कष्ट सहिष्णु बनाते हैं, कुमार अवस्था से ब्रह्मचारी रहते हैं। नियमपूर्वक सत् विद्याओं की प्राप्ति में प्रयत्नशील रहते हैं वे कष्टों से छुटकारा पा जाते हैं।
ये च संशान्त रजसः संशान्त तमसश्च ये।
सत्वेस्थितामहात्मानो दुर्गाण्यति तरन्ति ते॥
जिनका रजोगुण (मद, तृष्णा, गर्व आदि) तथा तमोगुण (काम, क्रोध, लोभ, मोह) शान्त पड़ गया है, जो सत्वगुण (शम, दम, तितिक्षा आदि) का सेवन करते हैं वे सत्पुरुष दुखों से पार हो जाते हैं।
यात्रार्थ भोजन येवाँ, संतानाथं च मैथुनम्।
वाक् सत्य वचनार्थाय दुर्गाण्यति तरन्ति ते॥
जीवन निर्वाह के लिए जिनको भोजन है, जिह्वा के स्वाद के लिए नहीं। संतान के निमित्त मैथुन करते हैं। विषय वासना के लिए नहीं सत् वचनों के लिए बोलते हैं बकवाद के लिए नहीं ऐसे पुरुष दुखों से तर जाते हैं।
मधु माँसं च य नित्य वर्जयन् तीह मानवाः।
जन्म प्रभृति मद्यज्च दुर्गाण्यति तरन्ति ते॥
जो जीवन भर मद्य, माँस और नशीली चीजों का सर्व प्रकार परित्याग करते हैं वे कष्टों से पार हो जाते हैं।
येन मानित्वमिच्छन्ति मानयन्ति चये परान्।
मन्यमानान्नस्यमयन्ति दुर्गाण्यति तरन्ति ते॥
जो स्वयं मान की इच्छा नहीं करते परन्तु दूसरों को मान देते हैं और सम्माननीय सज्जनों के लिए नवते हैं वे कठिनाईयों को पार कर जाते हैं।