जादूगरी या छल

March 1947

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जादू के खेल इन पंक्तियों के पाठकों ने अनेक बार अवश्य देखे होंगे। इन खेलों को देखकर सभी को आश्चर्य कौतुहल होता है। जैसे-जैसे ज्ञान का प्रकाश बढ़ता है वैसे-वैसे लोगों को समझ में यह आता जाता है कि यह खेल है। इसका आधार हाथ की सफाई और चतुरता है। परन्तु फिर भी ऐसे अनेक लोग हैं जो जादू के खेलों में भी किसी भूत प्रेत का, देवी देवता का या सिद्धि साधना का आधार देखते हैं। प्रशिक्षित, अनजान, भोले भाले, छल−छिद्रों के वातावरण से दूर रहने वाले, ग्रामीण ही नहीं, पढ़े लिखे शहरी और अपने को शिक्षित कहने वाले लोग भी भ्रम में पड़ जाते हैं और वे इन खेलों में किसी अदृश्य सत्ता का हाथ देखने लगते हैं।

अपरिपक्व बुद्धि के नवयुवक एवं अंध विश्वास के वातावरण में पले हुए तथा अदृश्य देवी देवताओं पर अधिक भरोसा करने वाले वयोवृद्ध लोग विशेष रूप से इन कौतुहलों से प्रभावित होते हैं। हमें भी अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में ऐसे ही वातावरण में होकर गुजारना पड़ा है। बालकपन में गाँव में बाजीगरों के अनेकों प्रकार के खेल हमने देखे थे। हमारी जन्मभूमि खुश हाल लोगों की बड़ी बस्ती में है, वहाँ भिक्षुक वृत्ति के लोग बहुत आया करते थे। रीछ वाले, बन्दर वाले, नट, बाजीगर, गवैये, स्वाँगिये, रासधारी, बाबाजी जैसे लोगों का ताँता लगा ही रहता था। उनके अनोखे-अनोखे चरित्र बड़ा कौतुहल उत्पन्न करते थे।

इन सब को देखने में हमें बड़ा रस आता था। बाजीगरों के खेल इन सब में विशेष रूप से प्रिय लगते थे क्योंकि उनमें रहस्य छिपे रहते थे। मनुष्य का स्वभाव छिपी हुई बातों को, रहस्यमय भेदों को, जानने के लिए विशेष रूप से उत्सुक होता है। जादूगर के तमाशे ऐसे अद्भुत होते हैं कि उनका कारण समझ में नहीं आता। अनहोनी बात जो संसार की साधारण व्यवस्था में आमतौर से दृष्टि गोचर नहीं होती पर जादूगर उन्हें कर दिखाता है। यह असाधारण, अलौकिक प्रदर्शन साधारण बुद्धि को स्तंभित कर देता है। मस्तिष्क उसका कारण ढूंढ़ नहीं पाता और संभ्रम में पड़ा रहता है। हमारी भी यही दशा थी। अपनी अपरिपक्व बुद्धि कुछ निर्णय निकालने में असमर्थ थी। बाजीगर खेल करते समय बीच-बीच में देवी देवताओं का आह्वान करता था और मंत्र पढ़ता था। इससे दर्शक पर यह प्रभाव पड़ता था कि यह अद्भुत बातें देवताओं के अथवा मंत्रों के बल से हो रही हैं। घर आकर जब बड़े बूढ़ों से पूछते तो वह भी “सेबड़े की विद्या” ‘देवी की सिद्धि’। आदि बातें कहते थे। उस समय जादू के रहस्य हमारे लिए एक प्रमुख पहेली थे।

खेल देखने के बाद कभी-कभी मस्तिष्क में विचारों कल्पनाओं और आकाँक्षाओं की घुड़दौड़ मच जाती। यदि यह विद्या हमें आ जाय तो फिर बड़े-बड़े काम किये जा सकते हैं। हाथ में धूल लेकर ऊपर से लकड़ी फिरा कर रुपया बना लिया करेंगे। इस प्रकार दो चार हजार रुपया नित्य बनाये जा सकते हैं। बाजीगर जैसे पिटारी में खरगोश, कबूतर, न्यौला आदि बना देता है वैसे ही हम घोड़े, हाथी, गाय, भैंसे आदि जब चाहें तब बना लिया करेंगे। तरह-तरह की चीजें देवी देवताओं के द्वारा मंगाना और पास की चीजों को गायब कर देना कितनी बड़ी शक्ति है। मित्रों के लिए, स्वजनों और संबंधियों के लिये उनकी जरूरत की चीजें तुरन्त मँगा लिया करेंगे और जो अपने से लड़ाई झगड़ा करेगा उसकी चीजों को जादू के जोर से उड़ा दिया करेंगे। फिर तो चारों तरफ हमारी धाक बँध जायगी, जहाँ जाओ वहीं राजाओं की सी आवभगत होगी। इस प्रकार की अनेकों कल्पनाएं मन में घुमड़तीं पर वे जहाँ की तहाँ रह जातीं। अपने जादूगर बनने का कोई मार्ग समझ में न आता था, कोई उपाय सूझ न पड़ता था।

गाँव के स्कूल की पढ़ाई समाप्त करके आगे की शिक्षा के लिए शहर में आना पड़ा। वहाँ भी कई बार एक से एक आश्चर्यजनक खेल देखे। देहाती फूहड़ बाजीगरों की अपेक्षा इन शहरी सफेदपोश जादूगरों के खेल और भी अधिक आकर्षक होते थे। बचपन की अटपटी कल्पनाएं तो अब न उठती थीं इतना तो समझ में आ गया था कि यह सब बनावटी बातें हैं परन्तु तो भी उनके प्रति काफी आकर्षण था, जिस प्रकार जादूगर लोग दूसरों को आश्चर्य में डालकर अपना सिक्का जमाते हैं, वैसी स्थिति प्राप्त करना भी कुछ कम आकर्षक न जँचता था। मन में यह इच्छा उठा करती थी कि किसी प्रकार “जादूगरी विद्या” सीख पाते तो बड़ा अच्छा होता।

इच्छा में बल शक्ति है। वह ऐसे ही अवसर प्रस्तुत करती रहती है जिस में अभीष्ट वस्तु प्राप्त हो सके। जादूगरों और बाजीगरों से संपर्क स्थापित करने की दिशा में कदम उठाया गया। वे लोग अपनी भेद रोजी का रहस्य प्रकट करके अपना व्यापार नष्ट करने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते। अपने भेदों को बड़ी सावधानी से छिपाये रहते हैं। उन लोगों के इन मनोभावों के कारण सफलता बड़ी कठिनता से, बहुत धीरे-धीरे काफी धन खर्च करने और शिष्यत्व स्वीकार करके अत्यन्त विनम्र सेवा चाकरी करने पर मिली। थोड़ा-थोड़ा करके स्कूली शिक्षा में साथ-साथ पाँच वर्ष में जादूगरी भी सीख ली इन खेलों के सीखने में लगभग एक हजार रुपया हमें खर्च करना पड़ा और इतना समय लगाना पड़ा जिससे शिक्षा में काफी बाधा पड़ी, एक वर्ष तो फेल होते-होते ईश्वर की कृपा से ही बच गये।

जो खेल हमने सीखे हैं। उनकी संख्या इन पृष्ठों पर लिखे हुए खेलों की अपेक्षा अनेक गुनी है। उन सब को लिख कर इस महंगाई के समय में अधिक कागज खर्च करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। उनमें से कितनों ही की तो याद भी नहीं रही है कितने ही ऐसे हैं जो इन पृष्ठों पर लिखे हुए खेलों के आधार पर ही होते हैं। केवल वस्तुएं बदल जाती हैं, जैसे अँगूठी गायब करके बक्स के अन्दर से निकालना, और रुपया गायब करके लिफाफे में से निकालना यह दो खेल देखने में अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं पर तरीका एक है। एक-एक तरीके से वस्तुएं बदल-बदल कर सैंकड़ों खेल बनाये जा सकते हैं। इस प्रकार दस पाँच तरीकों के आधार पर ही हजारों खेल दिखाये जा सकते हैं। इतना विस्तार करने का न तो हमें समय है और न पाठकों को लाभ। इन पृष्ठों को लिखने का केवल मात्र हमारा प्रयोजन यह है कि जिन लोगों को जादूगरी के खेलों को देख कर विशेष कौतुहल होता है और जो उनका ठीक कारण न जानने के कारण मन में गलत धारणाएं स्थापित करते हैं उनका भ्रम निवारण हो सके। अपरिपक्व अवस्था में हम स्वयं जितने इस दिशा में आकर्षित हुए थे, इसके आधार पर बड़ी-बड़ी निराधार कल्पनाएं करने लगे थे, तथा सीखने में बहुमूल्य समय एवं इतना धन व्यय करने को उद्यत हुए संभव है अन्य व्यक्ति इसी प्रकार लालायित हों उनकी उत्सुकता को शान्त करने के लिए यह पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं। हमारे पास प्रतिदिन सैंकड़ों पत्र आते हैं, उनमें से नित्य अनेक पत्र ऐसे आते हैं जिनमें जादूगरी और योग का क्या संबंध है इस विषय में जिज्ञासा प्रकट की जाती है कितने ही पाठक इन खेलों को सीखने की उत्सुकता प्रकट करते हैं ऐसे लोगों की उत्सुकता इन पृष्ठों को पढ़ने से दूर हो जायगी।

जादूगरी के खेलों में छल प्रधान है। हर एक खेल इस मनोवैज्ञानिक तथ्य पर निर्भर है कि इससे मनुष्य को धोखे में डाला जा सकता है। कोई व्यक्ति कितना ही चतुर तार्किक एवं होशियार क्यों न हो उसमें कुछ न कुछ विश्वास का अंश होता ही है। इस विश्वास के छोटे अंश के साथ ही छल किया जाता है और दर्शक भ्रम में पड़ जाते हैं। किसी खेल को दिखाते समय जादूगर मोटे तौर पर संदेह निवारण करा देता है, दर्शक उतने से ही सन्तुष्ट हो जाता है और अधिक गहराई में नहीं जाता, बस उसी भूल से लाभ उठा कर जादूगर अपने करतब करता है और अपनी सफलता पर प्रसन्न होता है। यदि दर्शक बिल्कुल अविश्वासी बन जावे और जरा भी विश्वास न करे हर चीज की तलाशी ले, तो सारी जादूगरी धूलि में मिल सकती है। चुनौती देकर एक भी खेल कोई आदमी नहीं दिखा सकता।

इन खेलों को दिखाने से मनुष्य का स्वभाव धोखा देने का, छल करने का और दूसरों के विश्वास का अनुचित लाभ उठाने का अभ्यास पड़ता है। यह बातें धीरे-धीरे स्वभाव में शामिल हो जाती हैं, जिससे मनुष्य का सदाचार चरित्र बल, नैतिकता, सात्विकता, पवित्रता, सरलता एवं सद्भाव नष्ट होता है। तेजाब को शरीर के किसी भी भाग में कितनी ही कम मात्रा में प्रयुक्त क्यों न किया जाय वहाँ हानि पहुँचाये बिना नहीं रह सकता। इस प्रकार छल चाहे मनोरंजन के लिए ही क्यों न किया जाय उसके मन में आने से आत्मिक पतन ही होता है। इसलिए अखंड ज्योति के पाठकों को हमारी यही सलाह है कि वे इन लेखों का रहस्य समझ कर इन की निरर्थकता का अनुभव कर लें, इनकी ओर प्रवृत्ति न बढ़ावें, अब आगे के पृष्ठों पर कुछ खेलों का तरीका बताया जाता है।


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