युग-दधीचि को गुरुपर्व पर श्रद्धाँजलि

July 1991

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संवत् 248 के इस गुरुपूर्णिमा के पावन-पर्व पर जिस गुरुतत्व को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए हम अपने श्रद्धासुमन चढ़ा रहे हैं, उनके जीवन के अनेकानेक प्रसंग सहज ही मस्तिष्क पटल पर आ जाते हैं। एक तड़ित की तरह अनेकानेक यादें कौंधने लगती हैं व हमें अहसास कराती है कि एक युगाँतरकारी व्यक्तित्व का सान्निध्य, जीवन में स्पर्श पाकर हम सब किस प्रकार धन्य हो गए।

गुरु शब्द भौतिकी के परिप्रेक्ष्य में भारीपन के लिए प्रयुक्त होता है। वजनदार भारी व्यक्तित्व से संपन्न, महान के अंधकार से अनेकों को त्राण दिलाकर श्रेष्ठता पर चलने वाले पथ को दिखाने वाली दैवी सत्ता गुरु कहलाती है। गुरु वह जो आत्म सत्ता के व परमात्म सत्ता के मिलन में सहायक हो, जो गोविन्द अर्थात् ईश्वरीय सत्ता से साक्षात्कार कराती हो।

आज मनुष्य के पास सभी कुछ है वैभव, समर्थता, कला कौशल, पर जो नहीं है वही मानव जाति के पतन का निमित्त कारण भी है। वह है सही चिंतन पद्धति का न होना व उसी के कारण जीवन जीते हुए भी उस जीने की कला से अनभिज्ञ होते हुए महज काटते भर रहना। ऐसी स्थिति में यदि किसी सत्ता का अनायास हमारे जीवन में उदय हो व हमें उँगली पकड़ कर वह सही राह पर ला खड़ा कर दे तो इसे परम सौभाग्य ही मानना चाहिए। आज सारी सुविधाएँ बाजार में उपलब्ध हैं, मात्र सच्चे मार्ग दर्शकों की, मित्रों की कमी है, वरन् अकाल है। यदि सच्चा पथप्रदर्शक, एक हित सोचने वाला मित्र मिल जाय तो दुरूह कण्टकों से भरा जीवन पथ पार करने में कोई हिचक नहीं लगती। एक ऐसी ही मित्र सत्ता के रूप में हमारे बीच परम पूज्य गुरुदेव का आगमन हुआ।

अनेकानेक पत्रों में से जो उनके द्वारा समय-समय पर परिजनों को लिखे गए, एक पत्र को उद्धृत करने का यहाँ मन हो रहा है।

हमारे आत्म स्वरूप, आपके कुशल समाचार पढ़कर प्रसन्नता हुई। हमारा शरीर नहीं, अन्तःकरण ही श्रद्धा के योग्य है। आप हमारी भावनाओं को सुविस्तृत करके हमारी सच्ची सहायता और प्रसन्नता का माध्यम बनते हैं। आपके ब्राह्मण शरीर से जीवन भर ऋषि कार्य ही होते रहेंगे और आप पूर्णता का लक्ष्य इसी जन्म में प्राप्त करेंगे, ऐसा विश्वास है। उस क्षेत्र में आप अपने संकल्प द्वारा प्रकाशवान सूर्य की तरह चमकें और असंख्यों का कल्याण करें, ऐसी कामना है।

यहाँ पत्र में दिये गए शब्दों पर यदि ध्यान गहराई से दिया जाय तो भली-भाँति समझ में आता है कि व्यक्ति के रूप में शरीर की नहीं, विचारों-भावनाओं की श्रेष्ठता को मानते हुए उसे ही अपना इष्ट लक्ष्य मानकर उसकी प्राप्ति हेतु पुरुषार्थरत रहने की प्रेरणा वे सदा परिजनों को देते रहे। आप हम नितान्त उलटा देखते हैं। धर्माचार्य तो अनेक हैं पर श्रद्धा योग्य अन्तःकरण किस के पास है? यदि यही सब देखकर मन नास्तिकता की ओर मुड़ जाय तो गलत क्या है? गुरुतत्व के प्रति कैसी, किस स्तर की किस प्रकार की घनिष्ठतम आस्था होनी चाहिए, पत्र की प्रथम पंक्तियां स्पष्ट करती हैं।

भगवान की प्रसन्नता भौतिक साधनों से नहीं उनके कार्य को आगे बढ़ाने में निहित है। गुरुसत्ता यही कराती है, सतत प्रेरणा देती है कि पीड़ित पतित मानवता के उत्थान के लिए सतत प्रयास चलते रहें। समर्थ रामदास इसी कार्य के लिए शिवाजी को शक्ति देते हैं। रामकृष्ण परमहंस इन्हीं उद्देश्यों को दृष्टि में रखते हुए विवेकानन्द पर अपनी सारा सामर्थ्य उड़ेल देते हैं तथा विरजानन्द अपनी ज्ञान सम्पदा से लेकर संचित शक्ति दयानन्द को वितरित कर देते हैं। यह शाश्वत गुरु-शिष्य की लेन−देन परम्परा है। गुरु को भावनाओं की उत्कृष्टता का उपहार चाहिए, और कुछ नहीं। वे बदले में मनोबल बढ़ाते हैं, आत्मबल को उठा देते हैं व सामान्य से मानव से असंभव दीख पड़ने वाले पुरुषार्थ करा लेते हैं। व्यक्ति औरों के बलबूते नहीं, अपने संकल्पबल की ताकत से असंख्यों को प्रकाश दिखाने वाले सूर्य की तरह चमके-अज्ञान का अंधकार मिटाए, इससे बड़ा आशीर्वाद और क्या हो सकता है? प्रत्यक्ष धन-संपत्ति, पुत्र-पुत्री, नौकरी वरदान रूप में चाहने वालों को यह लग सकता है कि यह वरदान कुछ समझ में नहीं आया पर आत्म संतोष, लोक सम्मान व दैवी अनुग्रह की त्रिवेणी में स्नान कर उसका महत्व समझने वाला फिर और कोई क्षुद्र चाह नहीं रखता।

सबसे बड़ा अनुदान पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में आने वालों को जो मिला वह था। विवेकशीलता का जागरण, दृष्टिकोण का परिष्कार। यही सही अर्थों में गुरु का शिष्य पर शक्तिपात है, यदि भ्रान्तियों से मुक्ति मिल जाए एवं इनसे उबर कर जीने की नई दृष्टि विकसित हो जाए तो जीवन में आनन्द आ जाता है। उनके सान्निध्य में आने वाले वे सब जिनके सोचने का तरीका बदला जानते हैं कि एक प्रकार से उनका कायाकल्प हो गया। साँसारिक दृष्टिकोण रखते हुए अध्यात्मिक मूल्यों को जीवन में कैसे प्रविष्ट किया जा सकता है, यह उन्होंने धीरे-धीरे शिक्षण दिया। सामान्यतया मनुष्य अतिवादी होते हैं। या तो वे भौतिकवाद के एक सिरे पर प्रगति करते दीखेंगे अथवा वैराग्य के शीर्ष की ओर मुड़ जाएँगे। परमपूज्य गुरुदेव ने बीच का मार्ग सुझाया अध्यात्मवादी भौतिकता का। उन्होंने कभी भौतिकवादी जीवन की उपेक्षा किये जाने की बात नहीं की। सतत जोर इसी बात पर दिया कि जीवन को श्रेष्ठ बनाने वाले विचारों व मूल्यों को इसी हमारे दैनन्दिन जीवन में न्यूनाधिक रूप में समाविष्ट किया जाता रहे। इसे उन्होंने जीवन साधना नाम दिया। जिन्हें भय था कि उनके परिवारीजन गायत्री परिवार से जुड़कर बैरागी, बाबाजी, पलायनवादी बन जाएँगे, उन्हें उससे मुक्ति मिली व लगा कि उनके लिए भी जीवन को नया मोड़ देने वाला यह मार्ग खुला पड़ा है।

सद्गृहस्थों का निर्माण परमपूज्य गुरुदेव का मानव जाति के लिए किया गया ऐसा महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है, जिसका मूल्याँकन जब भी होगा तो लोग जानेंगे कि कितनी सहजता से एक दूसरे के लिए जीने वाले समर्पण भाव से साथ रहने वाले दम्पत्ति विकसित होते चले गए। पश्चिम का उन्मुक्त भोगवाद स्वच्छन्द यौनाचार व पारिवारिक कलह-विघटन से भरा समाज हमारे अपने देश में भी विकसित हो रहा था। अभी भी बड़े महानगरों में उसको किन्हीं-किन्हीं रूपों में देखा जा सकता है। ऐसे में परस्पर सौहार्द बढ़ाते हुए पारिवारिकता के संस्कारों को सींचने हेतु पति-पत्नि दोनों को उद्यत कर देना तथा सतत प्रेरणा देते रहने का कार्य हमारी गुरुसत्ता ने 65 वर्षों तक किया। स्वयं वैसा जीवन जिया व अन्यों को प्रेरणा दी। देखते-देखते लाखों परिजनों का एक संस्कारवान परिवार नमूने के रूप में खड़ा हो गया। उसी की छोटी अनुकृति के रूप में शांतिकुंज हरिद्वार, गायत्री तपोभूमि मथुरा का देव परिवार देखा जा सकता है।

किसी महापुरुष का मूल्यांकन लोग उनके चमत्कारी कृत्यों से करते हैं, यह परिपाटी रही है। रामकृष्ण वचनामृत में संभवतः लोगों की रुचि कम होगी पर लीला प्रसंगों में खूब रस आता है। पर रामकृष्ण परमहंस को गहराई से समझने वालों को पता है कि यदि उन्हें जानना है तो कौतूहल वाले प्रसंगों को बाद में, पहले उनके अमूल्य विचारों दृष्टत-कथानक वाली शैली से युक्त प्रतिपादनों को पढ़ा जाना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव का जीवन चमत्कारी प्रसंगों से भरा पड़ा है। उसी के एक हजारवें अंश पर परिजनों ने विगत जून अंक में दृष्टिपात किया है। समय पर श्रद्धा संवर्धन हेतु वह भी जरूरी है किन्तु वही सब कुछ नहीं है। उन्होंने समय-समय पर जो प्रेरणा भिन्न-भिन्न रूपों में देकर व्यक्ति के सोचने की, लोक-व्यवहार की शैली जिस प्रकार आमूल चूल बदली, वह प्रकरण और बड़ा चमत्कारी है। बीच-बीच में सुधी पाठकों को वह भी देखने को मिलता रहता है। पर तथ्य एक ही समझा जाना चाहिए कि सिद्धि चमत्कार सारे विकसित सम्पन्न व्यक्तित्व में जन्म लेते हैं। जीवन परिष्कार से लेकर सर्वांगपूर्ण विकास के सारे स्वर्णिम सूत्र पूज्यवर के चिन्तन व लेखनी से प्रस्तुत हुए हैं। यदि उन पर अमल किया जा सके तो सारी सिद्धियाँ इसी मस्तिष्क रूपी कल्पवृक्ष से, व्यक्तित्व के उद्यान से उपजती रह सकती हैं।

यहाँ पूज्य गुरुदेव द्वारा दिये गए अमूल्य विचार रत्नों में से मात्र एक का ही हवाला व्याख्या सहित देने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा। एक वाक्य जो स्टीकर तथा आदर्श वाक्य के रूप में लोकप्रिय हुआ, पूज्यवर द्वारा 1966-67 में दिया गया था- जीवन्त वे हैं, जिनका मस्तिष्क ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल तथा पुरुषार्थ प्रखर है। इस वाक्य को ध्यान से देखा जाय तो यह एक शोध प्रबन्ध लिखे जाने योग्य है। ग्रंथि रहित आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण जिन सोपानों पर होता है, वे इसमें दिये गए हैं। जीवंत वे जिनसे कुछ आशा अपेक्षा समाज विश्व मानवता को है। जो ग्रुप लीडर्स बनते हैं व युग नेतृत्व करते है। महामानव बनने को इच्छुक ऐसे सभी लोगों के विषय में कहा गया है कि यदि उन्हें निज की प्रगति व समाज देवता की आराधना अभीष्ट है तो उन्हें चार बातों पर ध्यान देना चाहिए। पहली यह कि उनका मस्तिष्क ठण्डा हो। आज अधिकाँश व्यक्तियों के मस्तिष्क गरम हैं, आवेश ग्रस्त हैं। यही कारण है कि परस्पर टकराव देखा जाता है। चिंता, आतुरता, बेचैनी, अनिद्रा ग्रस्त लोगों को देखा जा सकता है। ठण्डा मस्तिष्क अर्थात् संतुलित सोचने का तरीका। कभी भी अहंकार प्राप्त न होने वाला, आवेश में, अतिवाद में न आने वाला मस्तिष्क। निन्दा स्तुति से परे ऐसा व्यक्ति जो हर निर्णय सोच समझकर ठण्डे दिमाग से ले। गीता में अनेकानेक दैवी विभूतियों में से एक यह भी है कि व्यक्ति में समस्वरता हो, मनःसंतुलन हो। दूसरी बात और महत्वपूर्ण है। ठण्डे मस्तिष्क के साथ यदि रक्त भी ठण्डा हो गया तो व्यक्ति कापुरुष कहलाएगा। रक्त में गरमी अर्थात् सतत कार्य करने की उमंग, ऊर्जा स्थिति, उत्साह, स्फूर्ति तथा अनीति को देखते ही उसे मिटाने का साहस व्यक्ति में होना। ब्राह्मण मस्तिष्क के साथ क्षत्रिय रक्त इसीलिए जरूरी है कि वह व्यक्ति को कर्मठ पुरुषार्थवादी बनाता है।

तीसरा है हृदय की कोमलता। भाव संवेदना से लिया गया निर्णय ही विवेक युक्त-न्याय के पक्ष वाला निर्णय होता है। हृदय यदि कोमल न हुआ तो समाज में संव्याप्त दुःख, दारिद्रय दैन्य,पतन दिखाई नहीं देंगे व फिर दिशाधारा विलासिता के संचय की ओर होगी। जो भी महामानव, लोक सेवी अवतार हुए हैं वे भाव संवेदना की प्रेरणा से ही श्रेष्ठ पथ पर अग्रगामी हुए है। हृदय की कठोरता व्यक्ति को नर पशु बनाती है व कोमलता उसे देवमानव बनाती है। हृदय मात्र माँसपेशियों की स्पन्दन करते रहने वाली एक थैली नहीं है, वह प्रतीक है व्यक्ति के अंदर की उस गंगोत्री की जो करुणा, भावनाओं, संवेदना के रूप में सतत निस्तृत होती रहती है। जब यह सूख जाती है तो व्यक्ति निष्ठुर, दुर्भावग्रस्त, कठोर बन जाता है व अचिन्त्य चिन्तन व न करने योग्य दुष्कर्म करने लगता है।

जीवन्त व्यक्तित्व की चौथी पहचान है पुरुषार्थ प्रखर होना। यदि उपरोक्त तीन गुण होते हुए भी व्यक्ति भाग्यवादी बना रहा, अकर्मण्य रहा तो क्या लाभ? प्रेरणा उसे ऐसी मिले कि शरीर का पुरजा-पुरजा कट जाए पर वह रण क्षेत्र न छोड़े। दुःखी अज्ञानग्रस्त मानव जाति के लिए उसकी माँसपेशियाँ फड़कें व वह रामकृष्ण, बुद्ध, गाँधी की तरह उन्हें ऊँचा उठाने के लिए कृत संकल्प हो जाए। कहना न होगा कि जिसमें इन चारों गुणों का समन्वय हो गया, वह व्यक्ति नर मानव के चोले में देव पुरुष बन गया। सारी सफलताओं की जननी ये छोटे-छोटे प्रतीत होने वाले विचार बिन्दू हैं, जिनका जीवन में समावेश कायाकल्प वाला परिवर्तन ला देता है।

हम उस महामानव को श्रद्धा की अथाह गरिमा को, श्रद्धा निधि को आज गुरुपूर्णिमा पर क्या श्रद्धाँजलि समर्पित करें? हम उस युग दधीचि को शक्ति कलश की साक्षी में यही आश्वासन दे सकते हैं कि हम जन मंगल के निमित्त लोक कल्याण के लिए सतत् गलेंगे। हम वह प्रकाशस्तम्भ बनेंगे जो विकराल लहरों से भरे समुद्र में भटकते जहाजों को मार्ग दिखाते हैं। हमसे उनकी अपेक्षाएँ निश्चित ही पूरी होंगी इस आश्वासन के साथ ही हम सब की इस गुरुपर्व पर श्रद्धाँजलि चढ़े।


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