वह कालजयी

July 1991

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तेज धमाके ने पाम्पिआई निवासियों को स्वप्नों के रंग-बिरंगे संसार से जागरण की भूमि पर ला पटका। आंखें मलते हुए वे सोचने लगे इसका कारण क्या है? सभी का मन सोच पाने में अवश महसूस कर रहा था। प्रायः सबके सब एक अनचाही बेचैनी से घिर गए थे, जिसकी तीव्रता वातावरण में फैलती जा रही गर्म लहर की तरह लगातार बढ़ती जा रही थी। कोई अपने को सँभाल पाए तब तक मकान के दरवाजे की तली से धुआँ प्रवेश करने लगा। रात का घना अन्धकार धुएँ से लिपट कर गहराता जा रहा था। तरह-तरह की आशंकाओं से प्रत्येक मन घिरा था। शाम को सभी प्रसन्न थे। प्रसन्नतापूर्वक सभी ने नींद की चादर ओढ़ी थी। ओढ़ते समय कितनी कल्पनाएँ की थी प्रत्येक ने नींद में जाने से पहले मन न जाने कितने तरह के सुखद-दुखद कल्पनाओं की चादर बुनता रहता है।

विवश होकर मकानों के दरवाजे खुलने लगे। बाहर आते हुए लोग भय और आश्चर्य से जड़ प्राय हो गए थे। यदा-कदा एक दूसरे की ओर सूनी आँखों से देख लेते। दहकते-अंगारों और जलते उछलते पत्थरों से दिशाएँ चमक उठी थी। गर्मागर्म लावा आग की नदी बन नगर की ओर बहता चला आ रहा था।

‘ज्वालामुखी’ अनेकानेक कण्ठ चीत्कार उठे। इस चीत्कार के साथ वातावरण चीख पुकारों से भर गया। सभी को अपना जीवन बचाने की पड़ी थी। जीवन क्या है? एक अनोखा प्रश्न चिन्ह उभर कर जनसमूह के बीच फैलने लगा। साथ ही उभरने लगे अनेकों जवाब। कहीं निर्ममता तो नहीं, अन्यथा बिलखते शिशुओं-असहाय वृद्धों अपंग-अपाहिजों को आग की भट्टी में छोड़कर लोग इस तरह क्यों भागते? तब निश्चित ही यह स्वार्थ होगा। इसी कारण हड़बड़ी में कुछ औरों के कीमती सामान को हथिया कर भागकर सुरक्षित स्थान में जा छुपना चाहते थे।

एक प्रश्न के अनेक उत्तर चिन्तन के द्वारा नहीं क्रिया के माध्यम से अभिव्यक्त हो रहे थे। इनके सत्य-असत्य होने का निर्णय होता तब चीख पुकार के बीच एक अन्य वाणी उभरी। इसमें आश्वासन था। सभी स्वर मौन हो गए। बस वही मुखर था। वह सभी को व्यवस्थित करता हुआ नगर द्वार से बाहर कर सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए निर्देश देने लगा। एक-एक कर सभी बाहर निकलने लगे। अब पहले जैसी हड़बड़ी न थी। उसकी निश्चितता स्वयं की ओर से बेफिक्र होकर औरों को बचाने के प्रयास को देख दूसरों के मन में भी विश्वास जगने लगा था।

एक समूह नगर से बाहर होता। वह दूसरों को व्यवस्थित कर नगर द्वार से बाहर करने के प्रयास में लीन हो जाता। द्वार से बाहर निकलते लोग उससे कहते ‘आप भी भाग चलिए।’ इन वाक्यों के साथ उसके होठों पर हँसी की एक क्षीण रेखा उभर उठती। उन्हें जाने का संकेत करता हुआ वह कह देता ‘आप लोग जाएँ मुझे औरों को बाहर करना है।’ ऐसे विकट समय में औरों की चिन्ता भीड़ आश्चर्य से उसकी ओर देखती। शंकाकुल मन-प्रश्न उछालने में कुशल बुद्धि से सवाल टपक पड़ते ‘कौन है यह जिसे अपने जीवन की परवाह नहीं?’

हड़बड़ी में उभरे इन प्रश्न चिह्नों के उत्तर तलाशने जितना समय किसी को न था। एक समूह के बाद दूसरा समूह उसकी निर्भीकता पर आश्चर्य प्रकट करता बाहर चला जाता। धीरे-धीरे सारा नगर खाली हो गया। वह बाहर निकला। नगर द्वार के लौह कपाट बन्द किए। द्वार से सटकर एक कोने में खड़ा हो गया। यह उसका चिर परिचित स्थान था। पिछले कई दशकों से वह यहाँ खड़ा होता रहा था। वह नगर का रक्षक था विकट समय में भी उसे अपने कर्त्तव्य का ध्यान था। उसके लिए कर्त्तव्य जीवन का पर्याय था। कर्तव्य की सुरक्षा जीवन की सुरक्षा थी।

इतनी देर में लावे का उफान समीप आ चुका था। एक गर्म झोंका उठा वह आकण्ठ आग में डूब गया। सारा शरीर जल गया। अन्तिम क्षणों में भी उसके चेहरे पर आनन्द की लहरें थिरक रही थीं।

बहुत दिनों के बाद भूकम्प के गर्भ में विलीन हुए पाम्पिआई नगर के ध्वंसावशेषों की खुदाई हुई तो किले के फाटक पर एक सन्तरी का कंकाल सटा पाया गया। वह सावधान की स्थिति में सीधा खड़ा था। बन्दूक उसके कन्धे पर थी।

इस कंकाल को शीशे की अलमारी में सावधानीपूर्वक सजाया गया। उसे उस स्थान पर बने म्यूजियम के फाटक पर लगा दिया गया। अब वह अकेली पम्पिआई अकेली इटली का गर्व नहीं जीवन की परिभाषा बन चुका था। “जिसने जीवन को कर्त्तव्यनिष्ठ के रूप में पहचान लिया। वह मृत्युंजयी है, कालजयी है।” शीशे की अलमारी के ऊपर टँके ये शब्द आज भी जिज्ञासुओं के मनों को स्पन्दित करते हैं, जीवन का नया द्वार खोलते हैं।


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