यजुर्वेद 15/53 का सूत्र है- “सम्प्रच्यध्वमुप सम्प्रयात।” अर्थात् हे मनुष्यों! सभी लोग मिल जुलकर आत्मोत्कर्ष एवं सत्प्रयोजनों के लिए प्रस्थान करो। तात्पर्य यह कि आत्मिक-प्रगति और सामाजिक समृद्धि पारस्परिक स्नेह-सद्भाव एवं उदार सहकारिता पर आधारित है। जीवन में सुख-सुविधा के साधनों से लेकर शान्ति और सुव्यवस्था का समावेश हो पाना इसी साधना द्वारा संभव हो सकेगा। सामाजिक उन्नति और प्रगति का लक्ष्य इन्हीं माध्यमों से प्राप्त होगा। इसी से स्वर्गीय वातावरण का सृजन हो सकेगा।
पर इन दिनों देखा ठीक इसके पहले विपरीत जा रहा है। व्यक्ति और समाज के सामने प्रस्तुत अगणित समस्याओं और भयावह विभीषिकाओं के सम्बन्ध में विचारक मनीषियों ने अपने विचार प्रकट करते हुए आश्चर्य प्रकट किया है। उनका कहना है कि पदार्थ समुच्चय और प्राणि समुदाय में जब हिलमिल कर सहयोगपूर्वक रहने और एक दूसरे के पूरक बनने की व्यवस्था है, तो फिर इस सृष्टि व्यवस्था का व्यतिरेक क्यों हो रहा है? इसका मूलभूत कारण क्या है?
गंभीरतापूर्वक खोजने पर पता चलता है कि नीति-नियमों की मर्यादा का उल्लंघन ही व्यक्ति के निजी एवं सामाजिक जीवन में अनेकानेक आधि-व्याधियों, क्लेश-कलहों, विक्षोभ-विद्रोहों, अभाव, अतिक्रमण का निमित्त कारण बना हुआ है। असंयम शरीर का, असंतुलन मस्तिष्क का, आलस्य उत्कर्ष का, अपव्यय समृद्धि का, अनुदारता एवं अनाचार सहयोग-सद्भाव का मार्ग अवरुद्ध करता और पौराणिक रक्तबीज का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस असुर का रक्त जहाँ भी गिरता था, हर बूँद से एक नया दैत्य उपज पड़ता था। सहस्रबाहु के बारे में कहा जाता है कि उसकी एक भुजा कटने पर दूसरी उसी स्थान पर तत्काल उग आती थी। प्रस्तुत वैयक्तिक एवं सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। न व्यक्ति के लिए अपनी उलझने सुलझा सकना शक्य हो रहा है और न सामूहिक समस्याओं के, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के कोई हल निकल रहे हैं। प्रायः राजनीतिक आधार पर ही हल खोजे जाते हैं। सुविधायें बढ़ाने या दबाने-दण्ड देने की कूटनीति ही हर समस्या के समाधान में चित्र विचित्र तरीकों से प्रयुक्त होती रहती है। फलतः कभी-कभी तात्कालिक हल निकलते से लगते हैं, किन्तु आकर्षण या दबाव घटते ही फिर सारी परिस्थितियाँ ज्यों की त्यों हो जाती हैं।
व्यक्ति के सामने अस्वस्थता, अशिक्षा, दरिद्रता, पारिवारिक कलह, असंतोष, आशंका, छल, आक्रमण जैसी चिन्तायें ही सिर पर चढ़ रहती हैं और नारकीय स्तर का विक्षुब्ध वातावरण बनाये रहती हैं साहित्यकार, कलाकार, सम्पत्तिवान, बुद्धिजीवी, प्रतिभाशाली लोग किसी भी समाज के हृदय और मस्तिष्क माने जाते हैं। उनके हाथ का सामर्थ्य यदि विष-व्यवसाय से बचकर अपनी क्षमता आदर्शवादी उत्कर्ष में लगा सकें, तो बिना किसी शासकीय सहायता के मात्र जन सहयोग से ही सृजन का इतना बड़ा काम हो सकता है कि समूचे समाज को, राष्ट्र को स्वल्प साधनों से भी प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचाया जा सके। किन्तु देखा ठीक विपरीत जा रहा है। प्रतिभायें अपने साधनों समेत पतन-पराभव की खाई इसलिए खोदने में लगी हुई है कि उनका वैभव काम चलाऊ न रहकर कुबेर के समतुल्य बन सके। यही रीति-नीति है, जिसे बड़ों की देखा देखी छोटे भी अपना रहे हैं और शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्धन सभी अनाचारी घुड़दौड़ में एक दूसरे से आगे निकलने की बाजी बद रहे हैं।
संकटों और विग्रहों के मूल में साधनों की कमी कारण लगती है, पर वस्तुतः व्यक्तियों का पिछड़ापन एवं निकृष्टता से सना हुआ दृष्टिकोण ही आधारभूत कारण है। उसी ने श्रम, साधन और वैभव को हेय प्रयोजनों के साथ जोड़ा है, फलतः विष बीज बोने पर अमृत फल पाने का स्वप्न कहीं भी साकार नहीं हो रहा। अशिक्षा, गरीबी, बेकारी आदि समस्यायें जितनी जल्दी हल की जा सकें उतना ही उत्तम, किन्तु साथ ही एक बात और भी ध्यान रखी जानी चाहिए कि इनका निराकरण कर देने पर भी व्यक्ति या समाज के सुखी-समुन्नत होने की आशा नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए फ्राँस, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे समृद्ध देशों को लिया जा सकता है। वहाँ साधनों की प्रचुरता रहते हुए भी कुत्सायें और कुण्ठाएँ पिछड़े देशों की तुलना में कहीं अधिक ही हैं। इसके विपरीत जापान जैसा छोटा देश अपनी नैतिक विशिष्टता के कारण स्वल्प साधनों से ही समुन्नत जीवन जी रहा है। अतः साधनों की बहुलता को महत्व देते हुए भी यह भुलाया नहीं जाना चाहिए कि अन्ततः मनुष्य का व्यक्तित्व ही उपार्जन और उपभोग का आधारभूत कारण है। यदि उस केन्द्र में पिछड़ापन घुसा बैठा रहा तो भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण के नजारे दीखते रहेंगे और सामर्थ्य का अवाँछनीय प्रयोजनों में उपयोग होने से अनेकानेक संकट उत्पन्न होते रहेंगे।
वस्तुतः व्यक्ति, समाज और विश्व के सम्मुख उपस्थिति छोटी-बड़ी अनेकानेक समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं का मूलभूत कारण है। मानव-मानव में विग्रह, सहयोग का अभाव तथा चेतना का पथभ्रष्ट होना? दृष्टिकोण के दूषित होने से हेय स्तर की ललक-लिप्सायें उभरती हैं और उनकी पूर्ति के लिए संकीर्ण स्वार्थ साधन के लिए दूसरों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सताना ही होगा। छद्म छुपा नहीं रहता, फिर आक्रमण का घाव तो बनेगा ही। घृणा विक्षोभ से लेकर विग्रह जैसी अनेकों कष्ट कारक, दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिक्रियायें उत्पन्न होती हैं और प्रतिशोधों का सिलसिला चल पड़ता है, जिसका कहीं अंत नहीं। अनाचारी पहले आक्रमण में ही कुछ कमा लेता है। इसके बाद तो चिरकाल तक अविश्वास, असहयोग और प्रतिशोध ही समय-समय पर उभरते हैं ऐसे वातावरण में किसी को स्नेह, सद्भाव और सहयोग का प्रगति एवं प्रसन्नता के लिए नितान्त आवश्यक वातावरण तो मिलेगा ही कैसे? आशंका और आत्मरक्षा के लिए ही मन सदा भयभीत, आतंकित बना रहेगा। यही है वह विश्लेषण-पर्यवेक्षण जिसे आज व्यष्टि और समष्टि के सामने प्रस्तुत असंख्यों समस्याओं का एक मात्र कारण कहा जा सकता है।
यदि अनुदारता एवं संकीर्ण स्वार्थपरता के स्थान पर उदार आत्मीयता की प्रतिष्ठापना की जा सके तो उतने भर से व्यक्ति और समाज की अनेकानेक समस्याओं का समाधान निकल जायेगा। इसका शुभारंभ अपने से ही करना होगा। अंधानुकरण करने से बचते हुए यदि सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनाई जा सके तो कम योग्यता एवं कम आमदनी वाले व्यक्ति भी सुखी संतुष्ट जीवन जी सकते हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाकर कोई भी व्यक्ति शरीर को स्वस्थ, मन को प्रफुल्ल, धन को सन्तोषजनक, परिवार को सुविकसित उद्यान की तरह मनोरम, शान्तिदायक देख सकता है। सामाजिक, राष्ट्रीय, धार्मिक-अध्यात्मिक क्षेत्र भी दैनिक जीवन के साथ जुड़े हुए हैं। यदि दृष्टिकोण में आध्यात्मिकता का समावेश रहे तो जीवन की सभी दिशाधारा हरी-भरी, फल-फूलों से लदी हुई, उत्साहवर्धक, संतोषजनक एवं आनन्ददायक बनकर रहेगी। परिस्थितियाँ मनचाही न होने पर भी मनः स्थिति की उत्कृष्टता अपनाकर व्यक्ति सदा सर्वदा हँसता-हँसाता, उठता उठाता दृष्टिगोचर हो सकता है।
सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर की व्यापक समस्यायें नैतिकता के धूमिल होने और निकृष्टता की मात्रा बढ़ जाने के कारण ही उत्पन्न होती हैं। आत्मीयता, उदारता, सहकारिता, सद्भावना की उदात्त दृष्टि रखी जा सके। अधिकारों की तुलना में कर्तव्य को