कितनों ने प्रशंसा की, कितनों ने निन्दा की, इसे मत देखो। कितना कमाया, कितना गँवाया यह भी मत सोचो। उस राह को अपनाओ जिसे न्यायनिष्ठ अपनाया करते हैं।
उत्कृष्टता संवर्धन के लिए चिन्तन में स्वाध्याय और निर्माण में सत्संग असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होते हैं। आत्म निरीक्षण आत्म सुधार, आत्म निर्माण, और आत्म विकास के निमित्त परिमार्जन और परिष्कार की योजना बनाते रहना चाहिए। अपने चिन्तन में मानवी महत्ता के अनुरूप उत्कृष्ट आदर्शवादिता की अधिकाधिक मात्रा की भी धारणा करनी चाहिए। देवपक्ष के विचारों की मात्रा और प्रखरता यदि अन्तराल में विकसित होती रहे तो उस क्षेत्र में दुष्प्रवृत्तियों के पैर टिक ही नहीं पाते। परब्रह्म के राजकुमार का व्यक्तित्व जिस स्तर का होना चाहिए, उसी स्तर का उसे बनाने की उत्कंठा उठती है और यह दिव्य निर्झर जैसा प्रवाह ऐसा है कि इर्द-गिर्द के कूड़े करकट को बहा कर कहीं से कहीं फेंक देता है।
आत्मशोधन से तात्पर्य मन के परिमार्जन से है। यही वह कृत्य है जिसके साथ आत्मोत्कर्ष का समग्र प्रयोजन जुड़ा हुआ है। शरीर को सात्विकता की मर्यादा में बाँध कर रखें। आत्मा के अनुशासन को प्रखर करें। इतना बन पड़ने पर फिर वह अवरोध अनायास ही हट जाता है जिसमें मन के उपद्रव उछलते रहते हैं।